07-02-2020 (Important News Clippings)
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Date:07-02-20
हर रोज एक साल तक २,३०० बच्चों की मौत !
रिजवान अंसारी
एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर दिन एक साल से कम आयु के लगभग 2,350 बच्चों की मौत हो जाती है। 2014 में देश में पैदा होने वाले हर 1,000 बच्चों में से 39 ने अपना पहला जन्मदिन नहीं देखा। मौजूदा वक्त में यह आंकड़ा 33 है। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के मुताबिक भारत में सालाना लगभग 2 करोड़ 60 लाख बच्चों का जन्म होता है। इनमें से 8 लाख 50 हजार नवजातों की हर साल मृत्यु हो जाती है। इन नवजातों की मृत्यु का कारण जन्म संबंधी जटिलताएं, सेप्सिस, इन्फेक्शन , डायरिया, सांस लेने में दिक्कत, हाइपोथर्मिया और कम वजन से जुड़ी समस्याओं में से कुछ भी हो सकता है। यूनिसेफ ने भी माना है कि 80 फीसद मौतों के पीछे समय से पूर्व होने वाले जन्म, जन्म के समय होने वाली जटिलता, निमोनिया तथा संक्रमण की समस्या जैसे कारण जिम्मेदार हैं। संसाधनों की कमी की बात करें तो भारत में स्वास्थ्य सुविधाओं का खासा अभाव देखा जा रहा है। डॉक्टरो और नर्सों की संख्या में कमी भारत की स्वास्थ्य समस्याओं के मुख्य कारण हैं। भारत के अस्पतालों में मरीजों के लिए उपलध बेडों की संख्या भी संतोषजनक नहीं है। प्रति हजार लोगों पर ब्राजील में जहां बेडों की संख्या 2.3 है, वहीं भारत में बेडों की उपलधता केवल 0.7 है।
एक अध्ययन के अनुसार भारत के अस्पतालों में चार लाख डॉक्टर, 40 लाख नर्स और 7 लाख बिस्तरों की कमी है। इससे इतर नवजातों की मौत के कारणों में सामाजिक कारण भी निहित हैं। बेटा- बेटी में भेदभाव भी नवजात मृत्यु दर में वृद्धि का एक बहुत बड़ा कारण है। यूनिसेफ के मुताबिक दुनिया के बड़े देशों में भारत एकमात्र देश है जहां लड़कों की अपेक्षा लड़कियों में मृत्यु दर अधिक है। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के अध्ययन से पता चला है कि 2015 के मुकाबले 2016 में पांच वर्ष से कम उम्र की लड़कियों की मृत्यु दर में 11 फीसद का इजाफा हुआ है। एक बात जो गौर करने वाली है वह यह कि अस्पतालों में मरने वाले अधिकांश बच्चे समाज के निचले तबके के हैं। यह तथ्य केवल स्वास्थ्य व्यवस्था की खामियों की पोल नहीं खोलता, बल्कि सामाजिक संरचना में व्याप्त खामियों को भी उजागर करता है। कोटा, मुजफ्फरपुर , गोरखपुर में हुई मौतें घूम-फिर कर कुपोषण, डॉक्टरों की कमी, खोखली पड़ी तीन स्तरीय चिकित्सा व्यवस्था, प्रशासनिक अक्षमता,अशिक्षा और जागरूकता की कमी के उन सभी पुराने रेशों से जुड़ती हैं जिसकी झलक हम चरमराती जनस्वास्थ्य व्यवस्था में रोज देखते हैं।
Date:07-02-20
चुनाव में बाहुबल-धनबल का बोलबाला आज
नौशाबा परवीन
आगामी आठ फरवरी को होने जा रहे दिल्ली विधानसभा चुनाव के संदर्भ में एक तथ्य सामने आया है कि करीब 20 फीसद उम्मीदवार आपराधिक छवि के हैं। यह तथ्य एडीआर यानी एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स द्वारा चुनाव आयोग के समक्ष इन प्रत्याशियों द्वारा दाखिल किए गए शपथपत्रों की पड़ताल से सामने आया है। एडीआर का यह भी कहना है कि पिछले एक दशक के दौरान इस चुनाव में करोड़पतियों, उच्च शिक्षितों, महिलाओं व बुजुर्ग प्रत्याशियों का हिस्सा भी सबसे ज्यादा है।
वर्ष 2008 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में दागी प्रत्याशियों का प्रतिशत 14.1 था और तब से हर चुनाव में इसमें वृद्धि देखने को मिल रही है। वर्ष 2013 में यह प्रतिशत बढ़कर 16.2 हुआ जो 2015 में 16.9 प्रतिशत हो गया और 2020 में यह 19.8 प्रतिशत तक पहुंच गया है। हालांकि सभी प्रत्याशियों पर गंभीर अपराध दर्ज नहीं हैं, लेकिन गंभीर अपराध के आरोपी प्रत्याशियों की संख्या में भी इजाफा हुआ है जो वर्ष 2008 में 4.1 प्रतिशत था, वर्ष 2013 में 11.7 प्रतिशत, वर्ष 2015 में 11 प्रतिशत और 2020 में 15.5 प्रतिशत हो गया है। वैसे यह राजनीति के अपराधीकरण के राष्ट्रीय ट्रेंड से कुछ अलग नहीं है। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में दागी उम्मीदवारों की हिस्सेदारी दशक में सबसे ज्यादा थी, इसलिए वर्तमान लोकसभा में भी 539 सांसदों में से 233 ऐसे हैं जिनकी आपराधिक पृष्ठभूमि है यानी इन्होंने अपने ऊपर अपराधिक मामले दर्ज होने घोषित किए हैं।
यह सब इसके बावजूद हो रहा है कि इस अवधि के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के उद्देश्य से अनेक सराहनीय प्रयास किए हैं, लेकिन दिक्कत यह है कि उन्हें लागू नहीं किया गया और नतीजा सिफर रहा, जैसा कि दागी प्रत्याशियों की बढ़ती संख्या से स्पष्ट है। सुप्रीम कोर्ट ने अतीत में जो कुछ प्रमुख आदेश इस संदर्भ में दिए, वे इस प्रकार हैं कि यदि किसी जन-प्रतिनिधि को अदालत से दो वर्ष या उससे अधिक की सजा हो जाए तो तुरंत प्रभाव से उसकी सदन सदस्यता समाप्त हो जाएगी।
इसके साथ ही मार्च 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि राजनीतिक नेताओं के खिलाफ जो विभिन्न अदालतों में आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं, उनका निपटारा एक वर्ष के भीतर हो जाना चाहिए। लेकिन इस पर अमल न हो सका। हालांकि इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने सियासत को अपराधियों से मुक्त करने के लिए अपने प्रयासों को नहीं छोड़ा है। उसके इन प्रयासों में एक यह भी शामिल है कि नवंबर 2017 में उसने ना केवल यह जानकारी तलब की थी कि तब यानी 2014 से 2017 तक नेताओं के विरुद्ध कितने नए मामले दायर किए गए हैं और अदालतों में उनकी स्थिति यानी स्टेटस क्या है, बल्कि केंद्र सरकार से यह भी कहा कि वह नेताओं पर चल रहे आपराधिक मुकदमों को जल्द निपटाने के लिए विशेष अदालतें गठित करने की योजना बनाए। यह भी नहीं हुआ। स्थिति यह है कि अब जो दिल्ली विधानसभा के लिए चुनाव हो रहे हैं, उनमें हत्या, हत्या का प्रयास, अपहरण, दुष्कर्म व महिलाओं के विरुद्ध अन्य अपराधों के आरोपी विधायक बनने के इच्छुक हैं। इस वर्ष 32 प्रत्याशी ऐसे हैं जिन पर महिलाओं के विरुद्ध अपराध के मुकदमे दर्ज हैं, जिनमें एक दुष्कर्म का भी है। यही नहीं, चार प्रत्याशियों के विरुद्ध हत्या के प्रयास के मामले भी हैं। आठ उम्मीदवारों के खिलाफ नफरत फैलाने व भड़काऊ भाषण देने के मामले दर्ज हैं। लगभग 20 प्रतिशत दागी प्रत्याशियों का आंकड़ा इस तथ्य को ओझल कर देता है कि अधिकतर दागी उम्मीदवार बड़ी पार्टियों से संबंधित हैं, जैसे 60 प्रतिशत आम आदमी पार्टी से, 39 प्रतिशत भाजपा से और 27 प्रतिशत कांग्रेस से। अरविंद केजरीवाल पर भी आपराधिक मामले दर्ज हैं। इस संबंध में आम आदमी पार्टी का कहना है कि केजरीवाल सहित उसके प्रत्याशियों के विरुद्ध जो मामले दर्ज हैं वे केंद्र सरकार की राजनीतिक साजिश के कारण हैं। ‘आप’ की दिल्ली इकाई के संयोजक गोपाल राय का कहना है, ‘यह बात दिल्ली की जनता से छुपी नहीं है कि वर्ष 2015 में हमारे सत्ता में आने के साथ ही केंद्र हमारे पीछे पड़ा हुआ है। उसने केजरीवाल व अन्य मंत्रियों जैसे सत्येंद्र जैन व कैलाश गहलोत और अनेक ‘आप’ विधायकों के खिलाफ झूठे मुकदमे कायम किए हैं। केजरीवाल के घर पर छापा मारा, पर हर प्रयास नाकाम रहा, क्योंकि अदालत में कोई केस न टिक सका।’
दिल्ली विधानसभा के लिए जो पिछले चार चुनाव हुए हैं, उनकी तुलना में इस बार सबसे ज्यादा करोड़पति भी चुनाव लड़ रहे हैं। कुल प्रत्याशियों में से 36 प्रतिशत करोड़पति हैं। इनमें तीन बड़ी पार्टियों का प्रतिशत सबसे ज्यादा है। कांग्रेस 83 प्रतिशत, आमआदमी पार्टी 73 प्रतिशत और भाजपा 70 प्रतिशत। सबसे रईस प्रत्याशी हैं ‘आप’ के धर्मपाल लाकड़ा जो मुंडका से चुनाव लड़ रहे हैं, उनके पास 292 करोड़ रुपये मूल्य के एसेट्स हैं। लाकड़ा के बाद जो दूसरे नंबर के रईस प्रत्याशी हैं उनके एसेट्स इससे लगभग चार गुणा कम हैं। आरके पुरम से ‘आप’ की उम्मीदवार प्रमिला टोकस के पास 81 करोड़ रुपये मूल्य के एसेट्स हैं, लेकिन इस बार 2008 के बाद से महिला प्रत्याशी (11.8 प्रतिशत) सबसे ज्यादा हैं। कांग्रेस की 15 प्रतिशत प्रत्याशी महिला हैं, जबकि ‘आप’ की 13 प्रतिशत और भाजपा की नौ प्रतिशत। इस बार युवा प्रत्याशी यानी 30 वर्ष से कम उम्र के मात्र 8.5 प्रतिशत हैं। 27.5 प्रतिशत 31 से 40 वर्ष आयु वर्ग में हैं और शेष 41 वर्ष से ऊपर के हैं। दूसरे शदों में बुजुर्ग प्रत्याशी भी सबसे ज्यादा इसी बार हैं। एक अच्छी बात इस बार यह है कि उच्च शिक्षित प्रत्याशियों का हिस्सा बढ़ा है। वर्ष 2008 में जहां स्नातक प्रत्याशियों का प्रतिशत 32 था, वह अब बढ़कर लगभग 45 प्रतिशत हो गया है, लेकिन दागी व करोड़पति प्रत्याशियों में निरंतर हो रहे इजाफे से यही प्रतीत होता है कि डंडे व पैसे को अब भी चुनावों से अलग नहीं किया जा सका है जिससे शरीफ व गरीब के लिए विधायक बनना अभी सपना ही है।
अभाव का पाठ
संपादकीय
जब भी दुनिया के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों की सूची बनती है और रैंकिंग निर्धारित होती है तो उसमें भारत के विश्वविद्यालय और दूसरे शिक्षण संस्थान कहीं नजर नहीं आते। हकीकत यह है कि शिक्षण संस्थानों के सूचकांक में भारत एकदम निचले पायदान पर बना हुआ है। यह गंभीर और शोचनीय है। ऐसी रैंकिंग और सूचकांक इस बात का प्रमाण होते हैं कि भारत में ऐसे शिक्षण संस्थान और विश्वविद्यालय हैं ही नहीं, जिनकी गिनती दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में हो सके। सवाल यह है कि हमारे शिक्षण संस्थान विश्वस्तरीय क्यों नहीं बन पाते? शिक्षा व्यवस्था में आखिर ऐसी क्या कमी है कि कभी विश्वगुरु कहलाने वाले भारत के विश्वविद्यालयों का दर्जा ब्रिटेन के केंब्रिज, ऑक्सफोर्ड या अमेरिका के हार्वर्ड और स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय जैसा नहीं है? जाहिर है, इसके कई कारण हैं, जिन्हें लंबे समय से नजरअंदाज किया जाता रहा है। विश्वविद्यालयों में संसाधनों का अभाव है, शिक्षकों की भारी कमी है, शिक्षा गुणवत्ता पूर्ण नहीं है, प्रयोगशालाएं नहीं हैं और इन सबसे ज्यादा शिक्षा क्षेत्र को लेकर दूरदृष्टि का घोर अभाव है। विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की कमी का मुद्दा कोई नया नहीं है। बुधवार को राज्यसभा में एक बार फिर सदस्यों ने विश्वविद्यालयों में शिक्षकों के खाली पड़े पदों को लेकर चिंता जताई और सरकार से जल्द ही इन्हें भरने की मांग की। दरअसल, देश के ज्यादातर विश्वविद्यालय इस वक्त शिक्षकों की भारी कमी का सामना कर रहे हैं और इसका सीधा असर पढ़ाई पर पढ़ता है। शैक्षणिक कार्यक्रम ठप रहते हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय में साढ़े आठ सौ से ज्यादा पद खाली पड़े हैं। जबकि पिछले काफी समय से विश्वविद्यालय के अस्थायी शिक्षक इन पदों को भरने की मांग को लेकर धरने पर हैं। अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय में तो शिक्षकों के करीब चार सौ पदों पर कोई भर्ती नहीं हुई है। पांच सौ से ज्यादा पद इलाहाबाद विश्वविद्यालय में खाली पड़े हैं। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय भी इस समस्या से अछूता नहीं है। दिल्ली, इलाहाबाद और अलीगढ़ देश के उन बड़े और प्रतिष्ठित संस्थानों में गिने जाते हैं जहां देश के कोने-कोने से छात्र पढ़ने आते हैं। ऐसे में सोचा जा सकता है कि शिक्षकों के नहीं होने से इन विश्वविद्यालयों में शिक्षण का काम किस तरह से चल रहा होगा। देश के दूसरे राज्यों में भी हालात ऐसे ही विकट हैं जहां ज्यादातर विश्वविद्यालय शिक्षकों की कमी से जूझ रहे हैं। शिक्षकों की कमी का सबसे ज्यादा नुकसान विद्यार्थियों को होता है। कक्षाएं नहीं लगतीं, समय पर पाठ्यक्रम पूरे नहीं हो पाते, और इसका असर परीक्षा नतीजों में झलकता है। ऐसे में गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा की कल्पना कैसे की जा सकती है! शिक्षकों की कमी शिक्षा क्षेत्र की सबसे गंभीर समस्या है। हालात इसलिए भी बिगड़ते जा रहे हैं कि लंबे समय से विश्वविद्यालयों में शिक्षकों के खाली पड़े पदों को भरने की कोई पहल नहीं की गई है। सरकारें ऐसे मसलों पर मौन साधे रहती हैं, जैसे शिक्षा और विश्वविद्यालय उनकी प्राथमिकता में हैं ही नहीं। दूसरी ओर विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों और पाठ्यक्रमों की संख्या पहले के मुकाबले बढ़ी है और सरकार ने उच्च शिक्षा में नामांकन सन 2022 तक तीस फीसद करने का रखा है। इसलिए यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि अगर विद्यार्थियों की संख्या बढ़ रही है और दूसरी ओर पढ़ाने व शोध कार्यों के लिए शिक्षक नहीं होंगे तो शिक्षा की गाड़ी कैसे आगे बढ़ पाएगी। केंद्रीय विश्वविद्यालयों की स्थापना इसी मकसद से की गई थी कि विद्यार्थियों को बेहतर शिक्षा मिले, लेकिन अगर वहां पर्याप्त शिक्षक नहीं हैं तो विद्यार्थियों के भविष्य के साथ इससे बड़ा खिलवाड़ और क्या हो सकता है?
पूर्वोत्तर में दो ऐतिहासिक समझौते
ए सूर्यप्रकाश, (चेयरमैन, प्रसार भारती)
ऐसे समय में, जब नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) को वापस लेने के लिए आंदोलन चलाया जा रहा है, नरेंद्र मोदी सरकार पूर्वोत्तर में अल्पसंख्यकों और जातीय विवादों से जुड़े लंबित मुद्दों के समाधान के लिए तेजी से काम करती दिखाई दे रही है। हालांकि, सीएए सुर्खियों में है, पर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने 50 वर्ष पुरानी बोडो समस्या और त्रिपुरा में बू्र-रियांगों के पुनर्वास के 23 साल पुराने मुद्दे को समाप्त करने के लिए दो महत्वपूर्ण समझौतों को अंजाम तक पहुंचाने की ओर कदम बढ़ा दिए हैं।
बोडो से जुड़ा जातीय विवाद अब तक चार हजार से भी ज्यादा लोगों की जान ले चुका है, लेकिन हाल ही के समझौते के साथ समस्या का एक स्थाई समाधान ढूंढ़ लिया गया है। केंद्र सरकार, असम सरकार और बोडो उग्रवादियों के बीच हुए एक ऐतिहासिक समझौते के अंतर्गत केंद्र ने बोडो क्षेत्रों में कुछ विशेष परियोजनाओं के विकास के लिए 1,500 करोड़ रुपये का विकास पैकेज देने की प्रतिबद्धता व्यक्त की है। बदले में करीब 1,500 सशस्त्र कैडर हिंसा त्याग देंगे और मुख्यधारा में शामिल हो जाएंगे। समझौते के बाद सरकार ने कहा कि बोडो संगठनों द्वारा रखी गई मांगों के लिए एक विस्तृत व अंतिम समाधान ढूंढ़ लिया गया है। अब अनेक वर्षों के विवाद के बाद बोडो गुट हिंसा का रास्ता छोड़ देंगे, हथियार डाल देंगे और अपने संगठनों को बंद कर देंगे। केंद्र और असम सरकार इन कैडरों में से 1,500 के पुनर्वास के लिए कदम उठाएगी।
इस ऐतिहासिक बोडो समझौते से कुछ दिनों पूर्व गृह मंत्री ने इन शरणार्थियों के 23 साल पुराने संकट को समाप्त करने के लिए केंद्र सरकार और त्रिपुरा व मिजोरम की सरकारों एवं बू्र-रियांग के प्रतिनिधियों के बीच नई दिल्ली में समझौते पर हस्ताक्षर में निर्णायक भूमिका निभाई थी। इस समझौते के बाद बू्र-रियांग त्रिपुरा में स्थाई रूप से बस सकेंगे। उनके पुनर्वास के लिए 600 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे।
ब्रू-रियांग शरणार्थियों की 23 वर्ष पुरानी समस्या नासूर बन गई थी। मिजोरम में 1997 में उत्पन्न जातीय तनाव के बीच उस वक्त इसकी उत्पत्ति हुई, जब करीब 30,000 सदस्यों के साथ 5,000 परिवारों ने राज्य से भागकर त्रिपुरा में शरण ले ली। इन लोगों को उत्तरी त्रिपुरा के अस्थाई शिविरों में रखा गया। इन विस्थापित जनजातियों की समस्या लगातार बनी हुई थी, लेकिन 2010 के बाद बू्र-रियांग के पुनर्वास के लिए कुछ प्रयास किए गए। 5,000 परिवारों में से करीब 1,600 परिवारों को मिजोरम वापस भेज दिया गया औरकेंद्र सरकार ने त्रिपुरा व मिजोरम की सरकारों की सहायता की पहल की। मोदी सरकार की पहली अहम पहल जुलाई, 2018 में देखने को मिली, जब सरकार ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किए।
इसके परिणामस्वरूप इन परिवारों को दी जाने वाली सहायता बढ़ा दी गई। इसके बाद 1,369 सदस्यों के साथ 328 और परिवार मिजोरम लौट आए, मगर इसके बाद बू्र आदिवासी एक ऐसा समाधान चाहते थे, जिससे वे त्रिपुरा में स्थाई रूप से बस सकें। उनका मानना था कि वे राज्य में अधिक सुरक्षित रहेंगे। अब नए समझौते से करीब 34,000 ब्रू-रियांग लाभान्वित होंगे, जो त्रिपुरा के छह शिविरों में रह रहे हैं।
जनजातीय अनुसंधान व सांस्कृतिक संस्थान, त्रिपुरा के अनुसार, राज्य में रियांग दूसरा सबसे बड़ा जनजातीय समुदाय है और उसे भारत की 75 आदिम जनजातियों में से एक के रूप में मान्यता दी गई है। कहा जाता है कि रियांग म्यांमार के शान राज्य से आए, चटगांव पहाड़ी क्षेत्रों और उसके बाद त्रिपुरा चले गए। एक अन्य समूह था, जो 18वीं शताब्दी के दौरान असम और मिजोरम के रास्ते त्रिपुरा आया।
संस्थान का कहना है कि रियांगों की आबादी 1.88 लाख है और ये दो प्रमुख कुटुंब- मेस्का और मोलसोई में बंटे हुए हैं। ये अभी भी खानाबदोश आदिवासी हैं और इनकी बड़ी संख्या पहाड़ की झूम खेती पर निर्भर है। इनकी भाषा कोबरू के नाम से जानी जाती है। इनकी एक बड़ी आबादी वैष्णव संप्रदाय की अनुयायी है। रियांग के लोक जीवन और संस्कृति के कई उत्कृष्ट सांस्कृतिक पहलू हैं। इनमें सबसे लोकप्रिय होजागिरी नृत्य है, जिसे बांसुरी की मधुर धुन के साथ किया जाता है।
गृह मंत्री अमित शाह के अलावा इस ऐतिहासिक हस्ताक्षर समारोह में त्रिपुरा के मुख्यमंत्री बिप्लव कुमार देव, मिजोरम के मुख्यमंत्री जोरम थंगा, पूर्वोत्तर लोकतांत्रिक गठबंधन के अध्यक्ष हिमंत बिस्व सरमा, त्रिपुरा के शाही परिवार के वंशज प्रद्योत किशोर देव बर्मा और बू्र प्रतिनिधि मौजूद थे। समझौते के अनुसार त्रिपुरा में रह रहे बू्र परिवार के हर सदस्य को एक भूखंड, चार लाख रुपए का फिक्स्ड डिपोजिट, दो वर्ष के लिए प्रतिमाह 5,000 रुपए, दो वर्ष के लिए मुफ्त राशन और अपना घर बनाने के लिए 1.5 लाख रुपए दिए जाएंगे। भूखंड त्रिपुरा सरकार द्वारा प्रदान किया जाएगा।
गृह मंत्रालय ने ब्रू आदिवासियों के सामने मौजूद समस्या को समाप्त करने के लिए गंभीर प्रयास शुरू कर दिए थे। गृह मंत्री ने कुछ माह पूर्व दोनों राज्य सरकारों और ब्रू लोगों को एक साथ लाने का फैसला किया। उन्होंने ब्रू लोगों के मिजोरम में पुनर्वास के प्रयासों की बजाय उन्हें त्रिपुरा में ही बसाने की पहल को समर्थन देने के लिए त्रिपुरा नरेश और विभिन्न आदिवासी समूहों से भी बातचीत की। जैसा कि अमित शाह ने हाल ही में हस्ताक्षर किए गए समझौते के बाद कहा, यह सरकार की ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’ नीति और पूर्वोत्तर के लंबित विषयों के समाधान पर जोर देने का हिस्सा है। इन दोनों समझौतों से सरकार की कुशाग्रता का पता लगता है, जो पूर्वोत्तर के लंबित विषयों का समाधान करना चाहती है और इन राज्यों को विकास के ऊंचे रास्ते पर ले जाना चाहती है। फिर भी पूर्वोत्तर में इन सकारात्मक पहल से बेखबर कुछ असंतुष्ट अल्पसंख्यक गैर मुद्दों पर आंदोलन जारी रखे हुए हैं।
Course correction for the Speaker’s office
Given how India’s electoral system and political conventions shadow the office, a major revamp is necessary
Anmolam & Farheen Ahmad, [Anmolam is a lawyer, running a non-profit organisation BDLAAAW. Farheen Ahmad is a research scholar at the South Asian University, New Delhi.]
Recently, the Supreme Court of India while adjudicating upon the matter relating to the disqualification of MLAs in the Manipur Legislative Assembly under the Tenth Schedule in Keisham Meghachandra Singh vs. the Hon’ble Speaker Manipur Legislative Assembly & Ors. made a significant suggestion. It recommended that Parliament should rethink as to whether disqualification petitions ought to be entrusted to a Speaker as a quasi-judicial authority when such a Speaker continues to belong to a particular political party either de jure or de facto.
It was of the opinion that Parliament may seriously consider a Constitutional amendment to substitute the Speaker of the Lok Sabha and Legislative Assemblies with a ‘permanent Tribunal headed by a retired Supreme Court judge or a retired Chief Justice of a High Court, or some other outside independent mechanism. This is to ensure that such disputes are decided both swiftly and impartially, thus giving teeth to the provisions contained in the Tenth Schedule, which are so vital in the proper functioning of India’s democracy’, according to a media report. More than such advice, what is interesting is the underlying reasoning which revolves around the nature of functions exercised by the Speaker.
Range of functions; a symbol
The nature of duties of the Speaker, technically as an “arbiter” or a “quasi-judicial body” should not be limited exclusively to matters under the Tenth Schedule; rather, it extends to a range of its functions. While facilitating the business of the House and to maintain decorum in the House, the Speaker has ‘extensive functions to perform in matters regulatory, administrative and judicial, falling under her domain. She enjoys vast authority under the Constitution and the Rules, as well as inherently’.
She is the ‘ultimate interpreter and arbiter of those provisions which relate to the functioning of the House. Her decisions are final and binding and ordinarily cannot be easily challenged. She decides the duration of debates, can discipline members and even override decisions by committees. She represents the collective voice of the House and is the sole representative of the House in the international arena’.
Jawaharlal Nehru, one of the chief architects of India’s freedom and a moving force behind its Constitution, describes the position as: “The Speaker represents the House. She represents the dignity of the House, the freedom of the House and because the House represents the nation, in a particular way, the Speaker becomes a symbol of the nation’s freedom and liberty. Therefore, that should be an honoured position, a free position and should be occupied always by persons of outstanding ability and impartiality.”
Alleged bias
However, on several occasions, the Speaker’s role has been questioned on the allegation of bias. The office has been criticised for being an agent of pernicious partisan politics. Notably, the Supreme Court has observed in Jagjit Singh versus State of Haryana as “…Without meaning any disrespect for any particular Speaker in the country, but only going by some events of the recent past, certain questions have been raised about the confidence in the matter of impartiality on some issues having political overtones which are decided by the Speaker in his capacity as a Tribunal.” The reasons behind the counterproductive machinations of the Speaker are not too far to seek. As a minority view, Justice J.S. Verma in Kihoto Hollohan vs Zachillhu And Others observed: “The Speaker being an authority within the House and his tenure being dependent on the will of the majority therein, likelihood of suspicion of bias could not be ruled out.” Currently, the extent of the Speaker’s political commitment often depends on the personality and character of the person holding the office. Howsoever desirable the proposition of neutrality may be, in the present circumstances, it would be unrealistic to expect a Speaker to completely abjure all party considerations while functioning as there are structural issues regarding the manner of appointment of the Speaker and her tenure in office.
Since the electoral system and conventions in India have ‘not developed to ensure protection to the office, there are cogent reasons for Speakers to retain party membership. A member is appointed to the office of the Speaker if a motion nominating her is carried in the House. Elections are not always by consensus and there have been cases when different parties have fielded their own candidates. All political parties campaign in the constituency of the Speaker. Even if the Speaker is re-elected to the House, the office of the Speaker in India is still open for elections’, according to a paper published by The Hindu Centre for Politics and Public Policy. Therefore, what is required is not merely incidental changes in the powers of the Speaker; rather a major revamp in the structure of the office itself is necessary. It is suggested that a scheme should be brought wherein Speakers should renounce all political affiliations, membership and activity once they have been elected, both within the Assembly and in the country as a whole.
Upholding neutrality
Reference can be sought from the United Kingdom where the ‘main characteristic of the Speaker of the House of Commons is neutrality. In practice, once elected, the Speaker gives up all-partisan affiliation, as in other Parliaments of British tradition, but remains in office until retirement, even though the majority may change. She does not express any political views during debates and is an election candidate without any ticket’, says an IPU report. Impartiality, fairness and autonomy in decision-making are the hallmarks of a robust institution. It is the freedom from interference and pressures which provide the necessary atmosphere where one can work with absolute commitment to the cause of neutrality as a constitutional value.
At a time when India’s fall in ranks in the latest Democracy Index has evoked concern, it is expected that Parliament will pay heed to the reasoning of the Supreme Court and take steps to strengthen the institution of the Speaker.