13-01-2020 (Important News Clippings)

Afeias
13 Jan 2020
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Date:13-01-20

Owning Public Space

It’s time to begin a movement to make public spaces friendly and empowering for women

TOI Editorials

Part of the rash of sexual violence we are witnessing today in India has to do with who “owns” public space. As the world today goes through many fundamental structural changes – from the advent of digital economies to the transforming relationship between people and work – an important trend that is emerging is the changing association between women and public spaces. We now have more women than men in higher education in the world. And women are increasingly breaking glass ceilings across politics, business, sports and multiple other sectors. As a result, women’s presence in public spaces is becoming more pronounced. The old social contract whereby women were confined to house-bound domestic roles is breaking down.

But since public spaces have been structured according to patriarchal mores over centuries, greater participation of women in public life is leading to a virulent backlash, evidenced by the surge in crimes against women. This highlights the need to make public spaces more women friendly. After all, women having equal access to public spaces is imperative not just for gender justice but also critical for women to contribute positively towards society as a whole. In this regard, public spaces need to be reimagined to make women equal stakeholders. When women are able to claim public spaces as their own, it will automatically push back patriarchal mores.

Therefore, it is time that women start owning public spaces. They should be enabled to flood public transport, take back the streets at night and feel safe in the open. Governments should formulate policies towards this, perhaps by declaring women’s “ownership” of certain public places at certain times, backed by official support. This would have a strong psychological impact, and signal intent towards making our public places friendly and empowering for women.


Date:13-01-20

इंटरनेट की आजादी

संपादकीय

देश की सर्वोच्च अदालत ने एक अहम घोषणा में कहा है कि देश के किसी भी हिस्से में, राज्य के किसी भी अधिकारी के आदेश से की जाने वाली इंटरनेट की बंदी अस्थायी होनी चाहिए और इसे समानता के सिद्घांत पर आधारित होना चाहिए। गत सप्ताह अनुराधा भसीन बनाम भारत सरकार मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अभिव्यक्ति की आजादी और कारोबार-व्यापार करने की आजादी को संविधान के अनुच्छेद 19(1) के तहत संरक्षण प्राप्त है। उसने यह भी कहा कि इंटरनेट इन अधिकारों के इस्तेमाल का एक अहम जरिया है। अतीत में केरल उच्च न्यायालय ने भी यह घोषणा की थी कि शिक्षा के अधिकार और निजता के अधिकार का इस्तेमाल करने के लिए इंटरनेट तक पहुंच अनिवार्य है। दूसरे शब्दों में कहें तो अब इस बात के पर्याप्त न्यायिक दृष्टांत मौजूद हैं जिनसे यह संकेत मिलता है कि इंटरनेट तक पहुंच को कम करना या समाप्त करना मूलभूत अधिकारों के इस्तेमाल को प्रतिबंधित करने वाला है और इसलिए इस मामले में भी राज्य पर उचित सीमाएं लागू होनी चाहिए। भारत में ऐसे अधिकार संपूर्ण नहीं हैं और कड़े संवैधानिक मानकों में अनुरूप ही उनमें कटौती की जा सकती है।

अदालत का यह निर्णय कश्मीर में महीनों से चली आ रही इंटरनेट की सरकारी बंदी के संदर्भ में आया है। खासतौर पर मोबाइल इंटरनेट की बंदी को लेकर। इससे संपूर्ण जम्मू और कश्मीर क्षेत्र में संचार बाधित हुआ, लोगों की आजीविका तो प्रभावित हुई, परिवारों के सदस्य भी एक दूसरे से दूर रहने को विवश हुए। यह बंदी अनुच्छेद 370 समाप्त किए जाने और राज्य को दो केंद्रशासित प्रदेशों में बांटने के बाद लागू हुई थी। उस वक्त बड़ी तादाद में राज्य के शीर्ष राजनेताओं को बंदी भी बनाया गया था। दुर्भाग्यवश अदालत ने कश्मीर में केंद्र सरकार के कदमों को लेकर पर्याप्त तेजी नहीं दिखाई। अभी भी उसने घाटी में उन लोगों को पूरी राहत नहीं दी है जो गत वर्ष 4 अगस्त से अपने अधिकारों से वंचित हैं। बहरहाल, उसने ऐसी विशिष्ट बंदी की समीक्षा की राह खोल दनी है और भविष्य में की जाने वाली बंदियों की राह कठिन बना दी है। अदालत ने यह भी कहा कि 2017 के आईटी नियमों के तहत गृह सचिव एक सक्षम प्राधिकारी है और जब तक वह पुष्टि न करे तब तक किसी भी तरह की बंदी 24 घंटे से अधिक अवधि तक लागू नहीं होगी। सर्वोच्च न्यायालय का नजरिया स्वागतयोग्य है क्योंकि देश के विभिन्न हिस्सों में बार-बार इंटरनेट की बंदी हुई है और इनकी तादाद और अवधि में लगातार इजाफा हुआ है। अंतरराष्ट्रीय शोधकर्ताओं का भी कहना है कि भारत में ऐसी बंदियों की संख्या अधिक है।

खेद की बात है कि स्थानीय अधिकारियों ने यह तय कर लिया है कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 144 के तहत उन्हें अपने क्षेत्रों में इंटरनेट बंद करने का अधिकार है। कई जगहों पर ऐसे निर्णयों के लिए ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ और ‘कानून-व्यवस्था’ की दलील दी गई। अदालत ने कहा है कि बंदी को चुनौती मिलना इसलिए भी प्रभावित हुआ क्योंकि अधिकारियों ने अपने निर्णयों को लेकर उचित पारदर्शिता नहीं दिखाई है।

इसका अर्थ यह हुआ कि समानता का परीक्षण लागू करना असंभव है जो कि देश के लोगों के बुनियादी अधिकार का उल्लंघन है। इसलिए उसने आदेश दिया है कि इसके पीछे की वजह को सार्वजनिक किया जाए, इसकी उचित समीक्षा हो और हर सात दिन में इसकी दोबारा समीक्षा हो। अदालत को शायद और आगे बढ़कर समीक्षा समिति बनानी थी। तमाम अन्य देशों में ऐसी समितियां हैं जिनके सदस्य शासन के अन्य अंगों से आते हैं, न कि केवल अफसरशाही से।


Date:13-01-20

युवाओं की नाराजगी की शिकार मोदी सरकार

शेखर गुप्ता

प्रतिस्पर्धी खेलों में लीग व्यवस्था होती है। ये लीग उच्च, मध्य, निम्र, वरिष्ठ और कनिष्ठ समेत तमाम वर्गों में विभाजित होती हैं। किसी प्रतिभागी का कद देखकर ही यह निर्णय होता है कि वह किस लीग में खेलेगा या खेलेगी। जो खिलाड़ी निचले स्तर की लीग में युवतर खिलाडिय़ों (या कहें बच्चों) के साथ खेलता है, वह अपना ही कद कमजोर करता है।

देश की राजनीति पर भी इस बात को लागू किया जा सकता है। खासतौर पर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार छात्रों के विरोध प्रदर्शन से जिस तरह निपट रही है उसे देखते हुए ऐसा किया जा सकता है।

इसे समझने का एक सामान्य तरीका वह है जो हम पहलवान से अभिनेता बने दारा सिंह से सीख सकते हैं। दारा सिंह खुद को कुश्ती की चुनौती देने वालों से कहते थे कि पहले वह उनके भाई रंधावा को पराजित करे तभी वह उनसे कुश्ती लड़ पाएगा। मैंने उनसे सवाल किया कि वह ऐसा क्यों करते हैं तो उन्होंने जवाब दिया कि ‘कोई भी लल्लू पंजू यह डींग हांकना चाहेगा कि वह दारा सिंह के साथ लड़ चुका है। मैं उन्हें खुश करने के लिए अपना कद क्यों छोटा करूं?’

वापस राजनीति की बात करते हैं। भाजपा की ताकतवर सरकार बीते एक महीने से यही कर रही है: वरिष्ठ, शक्तिशाली स्त्री और पुरुष, बच्चों से लड़ रहे हैं। उनकी नीतियों के विरोध में देश भर के शैक्षणिक परिसरों में आग भड़की हुई है। भाजपा जहां सत्ता में है वहां इसका मुकाबला वह पूरी शक्ति से कर रही है। इंटरनेट और संचार सीमित किया जा रहा है और उत्तर प्रदेश में तो सामूहिक जुर्माना तक लगाया गया है।

यदि इतने बहुमत से जीतकर आई सरकार छात्रों की बात सुनने के बजाय उनसे लडऩे लगती है तो तीन घटनाएं लाजिमी तौर पर घटती हैं:

सबसे पहले तो इससे अत्याचारी बनाम शोषित की कहानी बनती है। दूसरा, इससे ऐसी तस्वीरें पैदा होती हैं जो वैश्विक स्तर पर भारत की छवि धूमिल करती हैं। इन्हें बाहर निकलने से किसी तरह रोका नहीं जा सकता है। तीसरी और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इससे युवाओं के बीच ‘बच्चे बनाम अंकल/आंटी’ वाला माहौल बनता है। इसे विस्तार से समझते हैं।

सन 2014 और 2019 के हर एक्जिट और ओपिनियन पोल में यही दर्शाया गया कि देश के युवा, खासतौर पर पहली बार मतदान करने वाले नरेंद्र मोदी के समर्थक हैं। मैंने सन 2019 के आम चुनाव के दौरान देश भर के युवाओं से बात की और वे केवल एक नेता का नाम लेते थे: मोदी।

मैंने नई दिल्ली में सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च की एक बहस में उन कारकों पर बात की थी जो मोदी की बड़ी जीत में योगदान कर रहे हैं। खासतौर पर इस बात का कि कैसे युवा पहचान आधारित बातों मसलन जाति, भाषा, जातीयता और कई मामलों में धर्म को भी परे रखकर मोदी को अपना रहे हैं।

उनकी आंखों में आशावाद, खुशी, बेहतर जीवन की आकांक्षा नजर आई। वे अपने परिवारों की पुरानी राजनीतिक वफादारी को इसलिए नहीं छोड़ रहे थे क्योंकि वे उनसे नफरत करते थे या डरते थे। यदि 2014 का चुनाव बेहतर जीवन की आशा का चुनाव था तो 2019 का चुनाव उस वादे के नवीनीकरण का चुनाव था।

बहरहाल, छह महीने के भीतर उन्हें लगा कि उन्हें कुछ अलग ही मिला है। अर्थव्यवस्था में जबरदस्त गिरावट आई है। गिरावट का सिलसिला लंबे समय से जारी है और वृद्धि एवं अच्छे दिन की बात अब कपोल कल्पना लग रही है।

युवाओं के बीच सन 1970 के दशक के मध्य जैसा निराशावाद और असहायता घर कर रही है। नए रोजगार नहीं हैं। भले ही हर रोजगार महत्त्वपूर्ण होता है लेकिन सच यही है कि कॉलेज में पढऩे वाला हर युवा स्विगी या जोमैटो के लिए डिलिवरी करने या ओला अथवा उबर के लिए वाहन चलाने का इरादा नहीं रखता। मोदी ने उनसे इसका वादा नहीं किया था। उनकी आकांक्षाएं और जरूरतें एकदम स्पष्ट हैं और वे पूरी नहीं हो रही हैं। जाहिर है इसकी भरपाई कश्मीर के एकीकरण और उस पर नियंत्रण से अथवा पाकिस्तान को सबक सिखाने से नहीं हो सकती है। न ही मुस्लिमों का भय दिखाने या प्रवासी मुस्लिमों से घृणा करने का दबाव बनाने से उनकी जरूरतें पूरी होंगी।

इनमें से कोई कदम ऐसा नहीं है जो उन्हें रोजगार दिला सके, बेहतर आजीविका सुनिश्चित कर सके या बेहतर जीवन दे सके। यकीनन तब तक नहीं जब तक कि वे आपके वैचारिक अनुयायी न हों। कॉलेज जाने वाले युवाओं के बीच मोदी को लेकर तेजी से मोहभंग हुआ है।

किसी के मन में यह गलत धारणा नहीं रहनी चाहिए कि ऐसा वाम और उदार रुझान वाले चुनिंदा सरकारी विश्वविद्यालयों में ‘अर्बन नक्सल’ की वजह से हो रहा है। अब यह गुस्सा महंगे निजी विश्वविद्यालयों में भी फैल चुका है। जबकि वहां किसी तरह की राजनीति या राजनीतिक संगठनों की जगह नहीं है। इन विश्वविद्यालयों में पढऩे वाले बच्चों के माता-पिता बहुत अधिक धन खर्च करके बच्चों को यहां पढ़ाते हैं। मैंने देश के कई हिस्सों में लोगों से बात की और पाया कि लोगों में वैसा ही गुस्सा है जैसा कि जेएनयू, जामिया अथवा बीएचयू में नजर आ रहा है।

छात्रों में यह भावना प्रबल हो रही है, ‘हमने इसलिए तो मतदान नहीं किया था।’ मैं सुनिश्चित तौर पर यह भी कह सकता हूं कि इन युवाओं में बड़ी तादाद उनकी है जिन्होंने मोदी को वोट दिया था और उनमें भी ज्यादातर ने पहली बार मतदान किया था।

द प्रिंट महीने में एक बार अभिव्यक्ति की आजादी के एक कार्यक्रम का आयोजन करता है जिसका नाम है ‘डेमोक्रेसी वॉल’। यह आयोजन किसी प्रमुख शैक्षणिक परिसर में किया जाता है। इसकी विशेषताओं में एक विशालकाय बैनर शामिल है जो देखने में दीवार जैसा नजर आता है। छात्र अपने मन की बात उस पर लिखकर हस्ताक्षर कर सकते हैं। बीते छह महीनों में इस पर लिखी जाने वाली इबारत में बदलाव आया है। पिछले तीन महीनों में तो यह बदलाव नाटकीय रहा है।

ये सभी महंगे निजी विश्वविद्यालयों से हैं। हाल के दिनों में इनमें क्रोध और निराशा भी नजर आने लगी है। इस बीच चतुराई का प्रयोग भी होता है। मिसाल के तौर पर ‘मेरा देश जल रहा है’ लिखने के बाद हैशटैग के साथ ऑस्ट्रेलिया को बचाने की गुहार की जाती है। सबसे आम नजर आने वाला वाक्य है ‘बुरे दिन वापस कर दो।’ तीन महीने पहले तक कुछ आलोचना होती थी। आज तो तारीफ का एक शब्द देखने को नहीं मिलता।

ज्यादातर अवसरों पर राष्ट्रवाद, धर्म और किसी नेता के व्यक्तित्व के मिश्रण के बल पर एक चुनाव जीता जा सकता है। परंतु इसके बल पर लगातार दो चुनाव नहीं जीते जा सकते। मोदी के दूसरी बार सरकार बनाने के छह महीने के भीतर वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को संवाददाताओं को संबोधित करके छात्रों को दंगाई और देशद्रोही बताना पड़ रहा है। मैं माफी चाहता हूं लेकिन सवाल यह भी है कि देश में पुलिस पर यकीन ही कौन करता है। कैबिनेट मंत्री टेलीविजन चैनलों पर बैठकर छात्र-छात्राओं को बता रहे हैं कि कैसा व्यवहार करें और कैसे देशभक्त बनें। लेकिन आज का युवा चतुर है।

तिरंगा लहराते हुए विरोध करके वे इन नेताओं को चुप करा देते हैं, वे बड़ी तादाद में एकत्रित होकर संविधान की प्रस्तावना पढ़ते हैं और राष्ट्रगान गाते हैं। महज छह महीने पहले बॉलीवुड का एक बड़ा तबका मोदी के साथ सेल्फी ले रहा था। आज उनमें से कई विरोध प्रदर्शन करने वालों के साथ हैं। जो शेष हैं, वे भी खामोश हैं। कोई फिल्मी सितारा सरकार के पक्ष में सामने नहीं आया है। यदि आपको संदेह है तो आप जांच लीजिए कि नागरिकता संशोधन अधिनियम के समर्थन में कैबिनेट मंत्री के मुंबई में आयोजित रात्रिभोज में कौन-कौन शामिल हुआ। कुछ नामों को पहचानने के लिए आपको गूगल की मदद लेनी पड़ सकती है।

इन तमाम बातों के बीच दीपिका पडुकोणे का मजाक उड़ाने और ताना मारने के लिए दूसरी बार मंत्री बनी स्मृति इरानी जैसी शख्सियतों को उतार दिया जाता है। याद रहे कि आप खेलने के लिए जिस लीग का चुनाव करते हैं उससे आपका कद पता चलता है।


Date:13-01-20

आतंक के साथी

संपादकीय

कश्मीर के कुलगाम में डीएसपी देविंदर सिंह के साथ दो आतंकियों की गिरफ्तारी राज्य के सुरक्षा तंत्र की गंभीर खामी को ही उजागर करती है। इस अफसर की गाड़ी में दिल्ली आ रहे दोनों आतंकी खूंखार किस्म के हैं और एक तो उन कई लोगों की हत्याओं के लिए जिम्मेदार है जो राज्य के बाहर से कश्मीर अपनी रोजी-रोटी कमाने के लिए गए थे। उस पर पुलिसकर्मियों की हत्या का भी आरोप है और एके-47 राइफल लूटने का भी। यह अकल्पनीय है कि ऐसे खतरनाक आतंकी का साथी एक पुलिस उपाधीक्षक निकला। चूंकि इस पुलिस अफसर को पिछले वर्ष 15 अगस्त को ही राष्ट्रपति पुलिस मेडल से सम्मानित किया गया था इसलिए इसकी भी जांच होनी चाहिए कि आतंकियों के मददगार इस पुलिस अफसर को इतना बड़ा सम्मान कैसे मिल गया? किसी के लिए भी यह समझना कठिन है कि जब इस पुलिस अफसर का नाम संसद पर हमले के सिलसिले में भी उछला था और फिरौती मांगने के एक अन्य मामले में भी तब फिर उसे सम्मानित करने का काम किस आधार पर किया गया? यह एक गंभीर सवाल है और इसका जवाब सामने आना ही चाहिए।

अब इसका भी पता लगाया जाना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर पुलिस में देविंदर सिंह सरीखी और भी काली भेड़ें तो नहीं हैं? सच्चाई जो भी हो, इस अफसर ने अपनी वर्दी को दागदार बनाने के साथ ही जम्मू-कश्मीर के बहादुर पुलिसकर्मियों की शान में बट्टा लगाया है। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि इस तरह के निकृष्ट तत्वों के कारण ही कश्मीर में सक्रिय आतंकियों का सफाया करने में मुश्किल हो रही है। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि देविंदर सिंह और उसके साथ गिरफ्तार आतंकियों की निशानदेही पर पुलिस ने श्रीनगर और दक्षिण कश्मीर में कई जगहों से भारी मात्रा में हथियार और गोला-बारूद बरामद किया। इससे तो यही संकेत मिलता है कि देविंदर सिंह दरअसल पुलिस की वर्दी पहनने वाला एक आतंकी ही है।

देविंदर सिंह का कुत्सित आचरण यह भी बताता है कि कश्मीर में फैला आतंकवाद किस तरह एक कारोबार का रूप ले चुका है। आम धारणा है कि इस कारोबार को कुछ नेता और व्यापारी ही परोक्ष रूप से समर्थन दे रहे हैं, लेकिन देविंदर सिंह की गिरफ्तारी ने एक और गंभीर खतरे की ओर संकेत किया है। अब जब अनुच्छेद 370 हटने के बाद जम्मू-कश्मीर का प्रशासनिक स्तर पर नए सिरे से कायाकल्प किया जा रहा है तब फिर इस पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है कि राज्य पुलिस और अधिक समर्थ कैसे बने? अब हर उस शख्स की पड़ताल होनी चाहिए जिसे लेकर तनिक भी यह संदेह हो कि वह आतंकियों का हमदर्द है।


Date:12-01-20

गुस्से में नौजवान

पी चिदंबरम

भारत 2020 में 1968 के अमेरिका जैसा नजर आता है। 1968 में फ्रांस भी ऐसी ही हालत में था। मेरी याद में 1968 की अमेरिका की सामान्य राजनीतिक गतिविधि ने निराश कर दिया था और ‘मुद्दे’ विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में छात्रों के हाथों में चले गए थे। 1968 में प्रमुख मुद्दा वियतनाम युद्ध था। अमेरिका दक्षिण वियतनाम में एक युद्ध लड़ रहा था, जो स्पष्ट रूप से उत्तरी वियतनाम पर नियंत्रण रखने वाले कम्युनिस्टों को आगे बढ़ने से रोकने और ‘लोकतंत्र को बचाने’ के लिए था। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद बने हालात में ‘उदार लोकतंत्रों’ को बचाने और संरक्षण देने के सिद्धांत को काफी लोकप्रियता मिली थी। इस युद्ध का सबसे ज्यादा असर यूरोप में देखा गया। कई तथाकथित लोकतांत्रिक देश थे और तथाकथित साम्यवादी देश भी। विंस्टन चर्चिल ने इस विभाजक रेखा को ‘आयरन कर्टेन’ करार दिया था।

अमेरिका की अपनी योजना थी। रक्षा सेवाओं में नौजवानों को नौकरी करनी ही थी। वियतनाम युद्ध के शुरुआती सालों में कई लोगों ने सेवाएं देने की पेशकश की थी। जैसे-जैसे युद्ध खिंचने लगा और अमेरिकी सरकारों के झूठ का पर्दाफाश होता गया, तो समर्थन संदेह में बदलता गया, फिर संदेह अविश्वास में और अविश्वास विरोध में तब्दील हो चुका था।

ये नौजवान थे, विशेषकर छात्र और सेना में शामिल होने वाले लोग, जिन्होंने सबसे पहले विरोध की आवाज उठाई थी। इन लोगों ने पूछा था कि अमेरिका इतनी दूर स्थित वियतनाम में आखिर क्यों लड़ रहा है? सैकड़ों की तादाद में अमेरिकी नौजवान इस लड़ाई में क्यों मरने दिए जा रहे हैं? राजनीतिक व्यवस्था इन सवालों के संतोषजनक जवाब देने में नाकाम रही थी।

अमेरिकी कांग्रेस के निर्वाचित प्रतिनिधियों ने हवा का रुख समझने में काफी देर कर दी थी। जब तक वे इसे पकड़ पाए, तब तक अगले अमेरिकी प्रशासनों ने उनके विरोध को दरकिनार करते हुए जोरशोर से वियतनाम युद्ध का बचाव किया। चाहे कैनेडी का राज रहा हो, जॉनसन का या निक्सन का, सब एक ही रास्ते पर चलते रहे। जीत सिर्फ यही रही कि युद्ध से भागना पड़ा। चौंकाने वाली बात यह कि ये निक्सन ही थे, जो कम्युनिस्टों के घोर खिलाफ थे, जिन्होंने यह भांप लिया था कि अमेरिका एक निराशाजनक युद्ध में फंसा पड़ा है, ऐसा युद्ध जिसे जीता नहीं जा सकता और इसीलिए उन्होंने इससे पीछे हटने का फैसला किया था।

बेहद गलत

भारतीय विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में आज जिस तरह का गुस्सा और प्रतिरोध उठता हम देख रहे हैं, वह 1968 की घटनाओं जैसा ही है। छात्र और नौजवान यह समझ गए हैं कि जिस तरह से देश का शासन चलाया जा रहा है, उसमें कुछ न कुछ ‘बेहद गलत’ है। संदिग्ध माने जाने वाले लोगों की कुलपति के तौर नियुक्ति, अक्खड़ और घमंडी राज्यपालों/ चांसलरों द्वारा बेवजह का दखल, शिक्षकों की दोषपूर्ण नियुक्तियां, परीक्षाओं के संचालन में कुप्रबंधन, छात्र संघों की गतिविधियों पर तमाम तरह के प्रतिबंध, फीस बढ़ोतरी जैसे तमाम मुद्दे हैं, जिनसे परिसरों में छात्र आक्रोश पनपा है। कुछ विश्वविद्यालय प्रशासनों का एक विशेष राजनीतिक दल के प्रति झुकाव है और वे उस राजनीतिक समूह के छात्रों के पक्ष में उतरे हुए हैं और इसी से छात्रों में संघर्ष हो जाता है। सबसे बड़ा और ताजा मामला जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का है, जहां विश्वविद्यालय प्रशासन खुल कर भाजपा की छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के पक्ष में उतर आया। विरोध की आवाज उठाने वालों को टुकड़े-टुकड़े गैंग करार दे दिया गया। छात्र नेताओं पर देशद्रोह के मुकदमे ठोक दिए गए!

अगर विश्वविद्यालयों में यह नया ‘सामान्य’ इतना भयभीत करने वाला था, तो देश भर में यह ‘सामान्य’ दमनकारी भी था। बलात्कार, भीड़ के हाथों हत्याएं, सोशल मीडिया पर धमकाने, खौफ पैदा करने और चाहे जिसे गिरफ्तार कर लेने की दहला देने वाली खबरें रोजाना सामने आ रही हैं। आर्थिक वृद्धि, विकास और रोजगार को लेकर झूठी डींगों और दावों ने नौजवान पुरुषों और महिलाओं को इस कदर आक्रोशित कर डाला है कि इन्हें अपने भविष्य को लेकर आशंकाएं सताने लगी हैं, खासतौर से रोजगार को लेकर। एक सचेत और जागरूक छात्र यह समझ गया है कि नए ‘सामान्य’ की ओर ले जाने और उसे वैध बनाने की ताकत शासकों को मिले बहुमत का अहंकार है, जो कई दिशाओं में बढ़ गया है, जैसे- विरोध को बर्दाश्त नहीं करना, दूसरों की आस्था पर हमला, कानून-व्यवस्था लागू करने में सख्त रवैया, सेंसरशिप और दूसरे प्रतिबंध (जैसे नेटबंदी), बिना आरोपों के लंबे समय तक हिरासत में रख लेना, प्रतिक्रियावादी सिद्धांतों को थोपना (अंतरजातीय या अंतरधार्मिक विवाह को इजाजत नहीं दी जाएगी) आदि।

संवाद से इनकार

राजनीतिक स्तर पर विपक्ष के साथ किसी भी तरह के संवाद से इनकार करके सरकार ने बहुमत के अहंकार का खुला प्रदर्शन किया है। यही नहीं, संसद में विवादास्पद कानूनों को जल्दबाजी में पास करवा कर भी सरकार ने ऐसा ही किया। इसका एक उदाहरण भारत के संविधान के अनुच्छेद 5 से 11 हैं, जो नागरिकता से संबंधित हैं। इन अनुच्छेदों को स्वीकार करने से पहले संविधान सभा ने इन प्रावधानों पर तीन महीने तक बहस की थी। इसके ठीक उलट, कैबिनेट ने 8 दिसंबर, 2019 को नागरिकता (संशोधन) विधेयक 2019 को मंजूरी दे दी, 11 दिसंबर को संसद के दोनों सदनों में पास करा लिया और इसे कानून के रूप में घोषित भी कर डाला- ये सब सिर्फ बहत्तर घंटे में ही निपटा दिया गया!

असाधारण रूप से उलट-पलट करने वाले राजनीतिक दलों से ज्यादा छात्र और नौजवान थे, जो भारत और इसके संविधान को वास्तविक खतरे को समझते हुए सरकार के खिलाफ उठ खड़े हुए। इन्हें लग गया था कि बहुमत का अहंकार और कदम सत्तावाद की दिशा में बढ़ जाएंगे, बल्कि इससे कहीं ज्यादा यह भारत को बांट देगा और भारतीयों को आपस में लड़वा देगा। ऐसे में, कुछ भारतीय अधिकारों, विशेषाधिकारों और अवसरों के मामले में दूसरों के मुकाबले पिछड़ जाएंगे। इससे भयंकर अनर्थ हो जाएगा, भारत सत्तर साल पीछे चला जाएगा और आजादी के बाद जो उपलब्धियां हमने हासिल की हैं, वे सब चौपट हो जाएंगी।

नागरिकता (संशोधन) विधेयक ने नौजवानों के मतभेदों और उदासीनता को तोड़ डाला है। पुरानी पीढ़ी को शर्मिंदा किया गया है। हजारों नौजवान स्त्री-पुरुष विरोध के लिए सड़कों पर उतरे हैं, जलती मोमबत्तियां हाथों में लिए मार्च निकाल रहे हैं, तिरंगा लहरा रहे हैं और संविधान की प्रस्तावना पढ़ रहे हैं। जैसी कि उम्मीद थी, सत्तारूढ़ दल की प्रतिक्रिया आंख मूंद कर गुस्सा दिखाने, धमकाने और घिसे-पिटे तर्क पेश करने की रही है, लेकिन शासक घबराए हुए हैं।

प्रधानमंत्री ने अपने गृहमंत्री को जोर देकर यह कहने की इजाजत दे दी है कि सीएए पर हम एक इंच भी पीछे नहीं हटेंगे। इससे ऐसा लगता है कि कहीं कोई ऐसी ताकत है जिसे रोका नहीं जा सकता है या कोई ऐसी अड़चन है जिसे हटाया नहीं जा सकता। किसी व्यक्ति या किसी चीज को झुकना ही होगा और इसी पर टिका है भारत का भविष्य। ये नए साल की दुखद शुरुआत है।


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