13-03-2019 (Important News Clippings)

Afeias
13 Mar 2019
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Date:13-03-19

House Cleaning

Next Lok Sabha should combat black money by bringing transparency to political funding

TOI Editorials

An RTI activist recently placed in public domain minutes of the meeting RBI’s board had to consider demonetisation. A highlight was the observation that it would not have “material impact” on black money. That’s on account of black money finding its way into assets such as real estate and gold. In other words, black or unaccounted money is intertwined with everyday economic transactions. Therefore, a fight against it needs a long-term strategy and not a heavy-hand measure like demonetisation which had adverse economic and social consequences.

Opacity in the process of economic policy making and its execution is an important contributor to black money. An attempt to trace its source also leads to the issue of political funding. In India political funding is not only opaque, it’s the root cause of cronyism. If the next Lok Sabha is serious about tackling black money it needs to end cash donations to political parties as they are unaccompanied by disclosures about the identity of the giver. Beneficiaries are the more than 2000 political parties registered with the Election Commission which also receive tax exemptions.

NDA attempts at reform of electoral funding have perversely added another layer of opacity. The government introduced electoral bonds which allow for funding of political parties through the banking channel but the relevant legislation allows donor identity to be concealed. This level of opacity made the previous chief election commissioner OP Rawat wonder how one could be sure that black money did not find its way into bonds. In addition, the legal provision that companies declare their political contribution in their financial statements was dropped. This shrouds an important political funding channel and creates conditions for the growth of cronyism. Reform of political financing should be a core part of fighting black money.


Date:13-03-19

Coming Battle of Political Alliances

ET Editorials

The coming elections are a contest between two alliances. Once the votes are counted and the results announced on May 23, the government that is formed would be that of a coalition. India must get out of the habit of harking back to the idyll of one-party rule. True, the outgoing government is that of an alliance in which one party, BJP, had more than an absolute majority at the time of its formation, although it has dwindled to just about the halfway mark after death, desertion and defeat in by-elections. And it is conceivable that a similar outcome could ensue in the forthcoming elections as well. But that would, nevertheless, not take away from the fact that the electoral battle is between alliances, and the winner who forms the next government, too, would be an alliance.

Politicians are realists, unlike brokers and traders who prattle on about the political stability that single-party rule alone, in their opinion, can bring about. BJP, the party in the strongest position nationally, thanks both to its organisational strength and the popularity of its mascot, Narendra Modi, swallowed its pride along with the abuse hurled in its direction by ally Shiv Sena, to firm up the alliance it needs in Maharashtra, a state of crucial 48 parliamentary seats. Mayawati has teamed up with the Samajwadi Party, political arm of the Yadavs, who directly oppress her dalit followers, because she knows that to repeat the wipeout her Bahujan Samaj Party (BSP) suffered in 2014 would be to mark the end of her political career. The CPI(M) self-righteously dwindling since 2004 and waxing ever-shriller in its anti-Congress rants since the country signed the nuclear deal with ‘American imperialists’ in 2008, wants a ‘no mutual contest’ pact with Congress, at least in two seats in Bengal.

Congress is busy forging its own alliances, having sewn up the latest one in Bihar. Its refusal to team up with AAP in Delhi and BSP’s declared allergy to Congress might lead some to dub the Grand Old Party a reluctant ally. That would be to ignore the alliances it has built and stands ready to forge, should these have any relevance.


Date:13-03-19

निर्भरता का प्रश्न

संपादकीय

ईंधन के आयात पर हमारी निर्भरता बढ़ती जा रही है। देश में कच्चे तेल का 80 फीसदी आयात किया जाता है और यह आयात मुख्यतया इराक, सऊदी अरब और प्रतिबंधों से जूझ रहे ईरान से किया जाता है। कुल मिलाकर ईंधन क्षेत्र में देश की आयात निर्भरता सन 2000 के 21 फीसदी से बढ़कर 2015 में 36 फीसदी तक पहुंच गई। अगर देश में ईंधन का उत्पादन अतीत की तुलना में तेज गति से बढ़ा तो भी सन 2040 तक यह 50 फीसदी हो जाएगा। यह एक बड़ी समस्या है जो निरंतर चली आ रही है और इसका कोई आसान हल नजर नहीं आ रहा है। जैसे-जैसे देश की अर्थव्यवस्था का आधुनिकीकरण होता जाएगा वह ऊर्जा के पुराने कम घने स्वरूपों मसलन बायोमास आदि से अधिक घनत्व वाले स्वरूपों की ओर बढ़ती जाएगी। हमारे देश में तेल, गैस और गुणवत्तापूर्ण कोयला जैसे ईंधन के स्रोत उस पैमाने पर नहीं हैं जितनी कि आवश्यकता थी। बहरहाल, इस निरंतर निर्भरता का बाह्य खाते के संतुलन और समग्र वृहद आर्थिक स्थिरता पर जो असर हो रहा है वह कतई बेहतर नहीं है। उदाहरण के लिए तेल कीमतों में बढ़ोतरी घरेलू मुद्रास्फीति को बढ़ाती है, राजकोषीय घाटे पर दबाव डालती है और भुगतान संतुलन के संदर्भ में संकट की स्थिति उत्पन्न कर सकती है। सन 1991 में ऐसा हो चुका है और 2013 में भी हम करीब-करीब उसी स्थिति में पहुंच गए थे।

विकल्प क्या हैं ? यह सच है कि हमारे देश में कोयले का प्रचुर भंडार है परंतु उसका काफी हिस्सा अच्छी गुणवत्ता का नहीं है। भारतीय कोयले को अच्छी तरह ज्वलनशील बनाने के लिए उसे प्रसंस्कृत करने की आवश्यकता होगी। यह प्रसंस्करण कोयले की धुलाई से होता है और इसके लिए भारी मात्रा में पानी की आवश्यकता होती है। इससे कोयला संयंत्र के आसपास जल संकट हो सकता है। महाराष्ट्र के विदर्भ जैसे इलाके जो पहले ही पानी की कमी से जूझ रहे हैं वहां ऐसे नए कोयला संयंत्र नहीं लगाए जा सकते। इन संयंत्रों के उत्सर्जन का ग्रीनहाउस गैसों पर तो असर पड़ता ही है, इसके अलावा भी ये आसपास के इलाके में रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य को सीधे प्रभावित करते हैं। इस बात का भी ध्यान रखना होगा। इस तरह देखें तो कोयला तो कोई विकल्प है ही नहीं। उदाहरण के लिए ग्लेनकोर ने कोयला उत्पादन सीमित करने का वादा किया है। ऐसे में हमारे पास क्या विकल्प हैं? हम भविष्य में कई वर्षों तक कोयले पर निर्भर रह सकते हैं लेकिन यह स्पष्ट है कि हमें इसका विकल्प तलाश करना होगा। कोयले से गैस बनाना एक विकल्प हो सकता है।

नवीकरणीय ऊर्जा के स्रोत भी एक उम्मीद हैं। खासतौर पर इसलिए क्योंकि फिलहाल वे लागत के मामले में व्यवहार्य हैं। बहरहाल, सौर और पवन ऊर्जा मौजूदा स्रोतों का उचित विकल्प नहीं हैं क्योंकि उनका उत्पादन अलग-अलग होता है। पवन चक्की से बिजली तभी बनती है जब हवा चल रही हो और सौर ऊर्जा के लिए सूरज का चमकना आवश्यक है। हमें इस बारे में नीतिगत तरीके से विचार करना होगा। उसे दो बातों पर विचार करना चाहिए: पहली बात संकट के समय बचाव का उपाय और दूसरा वृहद अस्थिरता को दूर करना। इसके लिए उसे यह सुनिश्चित करना होगा कि हमारे पास पर्याप्त भंडार मौजूद हो। यूएई और सऊदी अरब के साथ इस दिशा में किया जा रहा सहयोग स्वागतयोग्य है। दूसरा, व्यापार संतुलन को बेहतर बनाने का कोई विकल्प नहीं है। हम आयात पर निर्भर रह सकते हैं लेकिन हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हमारा निर्यात अधिक हो और स्थिरता बरकरार रहे। वृहद आर्थिक स्थिरता का केवल यही एक रास्ता है।


Date:13-03-19

भारत के लिए क्वाड गुट अभी खास उपयोगी नहीं

सामरिक जरूरत के तौर पर भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया का एक गुट बनाना ऐसा विचार है जिसका वक्त आना बाकी है।

प्रेमवीर दास , (लेखक राष्ट्रीय सुरक्षा परामर्श बोर्ड के सदस्य रहे हैं)

हाल में भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया का एक गुट बनाने का मसला सामरिक जगत में काफी चर्चा का विषय रहा है। असल में, इन देशों के अधिकारियों का एक समूह निचले स्तर पर सक्रिय भी हो चुका है। कुछ लोग यह दलील देते हैं कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में इन चारों देशों के एक-दूसरे से मेल खाने वाले सामरिक एवं सुरक्षा हित हैं लेकिन कई लोग इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं हैं कि ऐसे किसी गुट के गठन के लिए जरूरी तालमेल इन देशों के बीच स्थापित हो चुका है। इस चौकड़ी की संकल्पना सामुद्रिक क्षेत्र में सहयोग से संबंधित है। इसकी शुरुआत 1990 के दशक में उस समय हुई थी जब पूर्व सोवियत संघ के पतन के बाद भारत-अमेरिका के रिश्ते सुधरने शुरू हुए। दोनों देशों के संपर्क को गति देने का काम रक्षा सहयोग ने किया। इसी क्रम में भारत और अमेरिका की नौसेनाओं ने ‘मालाबार’ नाम से संयुक्त अभ्यास करना शुरू किया। समय बीतने के साथ दोनों देशों के बीच समुद्री सहयोग गहरा और मजबूत होता गया। स्थिति यहां तक पहुंच गई कि विमानवाहक पोत और पनडुब्बियों की तैनाती भी बिना किसी हिचक के होने लगी। एक दशक पहले जापान को भी इस सैन्य अभ्यास का हिस्सा बनने के लिए आमंत्रित किया गया और फिर ऑस्ट्रेलिया भी इसका अंग बन गया। उस समय पहली बार ‘क्वाड’ (चौकड़ी) शब्द का इस्तेमाल किया गया।

चीन ने बड़ी नौसैनिक शक्तियों की इस गुटबंदी के खिलाफ एतराज जताया था। यहां तक कि भारत भी इस धारणा को लेकर कुछ संंकोच रखता था। इस वजह से कई वर्षों तक ‘मालाबार’ तीन देशों के नौसैनिक अभ्यास का ही सालाना आयोजन बना रहा। एक साल इसका आयोजन हिंद महासागर की बंगाल की खाड़ी में होता रहा तो अगले साल पूर्वी एशिया के समुद्र में तीनों नौसेनाएं अभ्यास करती रहीं। इसी अवधि में भारत-अमेरिका और भारत-जापान संपर्क में राजनीतिक संपर्क भी तेज हुए। दोनों पक्षों के रक्षा एवं विदेश मंत्रियों की बैठक (2 प्लस 2) भी हर साल होने लगी।

ऐसे में यह सवाल खड़ा होना लाजिमी है कि इन देशों के इस तरह से एक-दूसरे से जुडऩे की क्या जरूरत पड़ गई? बाहरी प्रेक्षकों के लिए यह सवाल प्रासंगिक है। आखिर भारत कई अन्य देशों केे साथ द्विपक्षीय स्तर पर रक्षा सहयोग करता है और आसियान जैसे बहुपक्षीय समूहों के साथ के भी सक्रिय रूप से जुड़ा हुआ है। वह दूसरे समूहों ब्रिक्स, आरआईसी और एससीओ का भी हिस्सा रहा है। लेकिन इनमें से किसी भी समूह के सामरिक निहितार्थ भारत-अमेरिका-जापान समूह की तरह नहीं हैं।

भारत और अमेरिका के लिए इस पहलू को हर कोई देख सकता है। अमेरिका के लिए हिंद-प्रशांत क्षेत्र प्राथमिक चिंता का विषय रहा है और अगर हिंद महासागर भारत के लिए प्राथमिकता रखता है तो प्रशांत क्षेत्र से जुड़े मामले भी अहमियत रखते हैं। इसकी वजह यह है कि भारत का आधे से भी अधिक कारोबार समुद्र के इसी रास्ते से होता है और यह बढ़ ही रहा है। दुनिया के दो बड़े लोकतांत्रिक देश बड़े व्यापारिक साझेदार हैं और अमेरिका में भारतीय मूल के लोगों की अच्छी-खासी आबादी भी है। भारत के उलट अमेरिका का चीन के साथ कोई सीमा विवाद नहीं है लेकिन व्यापार के मोर्चे पर दोनों देशों में गहरे मतभेद रहे हैं। इसके अलावा दक्षिण चीन सागर एवं पूर्वी चीन सागर में चीन का आक्रामक रुख और अमेरिका के बरक्स खुद को महाशक्ति के तौर पर खड़ा करने की उसकी चाहत भी है।

इस स्थिति में भारत और अमेरिका का रक्षा सहयोग में करीबी आना काफी मायने रखता है। आज के समय में अमेरिका भारत को सैन्य साजोसामान आपूर्ति करने के मामले में सबसे आगे है। इस द्विपक्षीय संबंध में कोई कमजोरी नजर नहीं आती है। हालांकि रूस और ईरान को लेकर अमेरिकी नीतियों के चलते उन देशों के साथ हमारे स्वस्थ रिश्ते को कायम रख पाना कभी-कभी मुश्किल भी हो जाता है। हालांकि हालिया घटनाएं बताती हैं कि ये चुनौतियां ऐसी नहीं है कि उनसे पार न पाया जा सके। कुल मिलाकर, दोनों देशों के सामरिक हित काफी स्पष्ट हैं।

अमेरिका का सैन्य सहयोगी और अपने आप में एक बड़ी आर्थिक शक्ति जापान भी इसका हिस्सा बन जाता है। हालांकि भारत और जापान के बीच कारोबार भी बहुत अधिक नहीं हुआ है और न ही इनका रक्षा सहयोग मालाबार अभ्यास से आगे बढ़ पाया है और सैन्य उपकरणों के आदान-प्रदान में भी तब्दील नहीं हुआ है। फिर भी सामरिक मुद्दे इनके रिश्ते को अलग ही श्रेणी में रखते हैं। मसलन, जापान अपनी तेल जरूरतों के लिए खाड़ी देशों से हिंद महासागर के रास्ते होने वाले आयात पर निर्भर है। तेल लाने वाले जहाज चीन के प्रभाव वाले दक्षिण चीन एवं पूर्वी चीन सागर से होकर गुजरते हैं। इस इलाके में जापान अपने हितों की रक्षा अमेरिकी समर्थन से कर सकता है लेकिन हिंद महासागर क्षेत्र में अपने हितों की रक्षा के लिए उसे भारत की मदद की जरूरत है।

इसके अलावा भारत की ही तरह जापान का भी चीन के साथ पूर्वी चीन सागर में सीमा विवाद चल रहा है। जापान के साथ कारोबारी रिश्ता परवान चढऩे के बावजूद चीन उसे एक विरोधी देश के तौर पर ही देखता है। इन दोनों कारणों से जापान के लिए भारत हिंद-प्रशांत मामलों में एक उपयोगी साझेदार बन जाता है। इसके साथ अगर दक्षिणी चीन सागर में भारत के निहित हितों और जापान की अहम सामुद्रिक क्षमता को भी ध्यान में रखें तो दोनों देशों के साझा हित पूरी तरह साफ हो जाते हैं। वैसे जापान की गिनती अब भी अमेरिका जैसे सामरिक साझेदार के तौर पर नहीं की जा सकती है लेकिन उसमें इस त्रिकोणीय संबंध को सशक्त करने की पूरी क्षमता है। ऐसे में इस पूर्वी एशियाई देश को भी अपने साथ रखना वांछनीय है।

इस चौकड़ी का चौथा हिस्सा ऑस्ट्रेलिया है। हालांकि अभी तो वह केवल औपचारिक तौर पर ही इस समूह का हिस्सा है। ऑस्ट्रेलिया के साथ हमारा कारोबार बहुत अधिक नहीं है। वह चीन का सबसे बड़ा कोयला आपूर्तिकर्ता देश है और उसका चीन के साथ किसी भी तरह का सीमा या अन्य विवाद भी नहीं है। हालांकि ऑस्ट्रेलिया अमेरिका का सैन्य सहयोगी देश है लेकिन भारत के नजरिये से देखें तो ऑस्ट्रेलिया और भारत के हितों में समान बातें बहुत कम हैं। जहां तक निर्बाध समुद्री परिवहन का सवाल है तो वह कारोबार के लिए नौवहन पर निर्भर किसी भी देश का बुनियादी हित होता है।

केवल इतने भर से ऑस्ट्रेलिया के साथ भरोसेमंद सामरिक रिश्ते भारत के लिए अपरिहार्य नहीं हो जाते हैं। हालांकि ऑस्ट्रेलिया हिंद महासागर क्षेत्र में एक अहम नौसैनिक ताकत है और उसके साथ संबंध रखना जरूरी है लेकिन उतने भर से वह इस चौकड़ी में बड़ी भूमिका निभाने का हकदार नहीं बन जाता है। लेकिन भारत, अमेरिका और जापान की स्थिति एकदम अलग है। ये देश वर्ष 2030 तक न केवल दुनिया की शीर्ष चार में से तीन अर्थव्यवस्थाओं में शामिल होंगे बल्कि हरेक भागीदार देश को यह लगता है कि दूसरे देश उसके सामरिक हितों को बढ़ाने में मददगार हो सकता है। इनमें से हरेक देश के लिए चीन की बढ़ती शक्ति आकांक्षाएं चिंता का विषय हैं।

निस्संदेह, इस गठबंधन को लेकर जाहिर की गई खामियों के आने वाले वर्षों में दूर हो जाने की संभावना है। और इस रिश्ते को आगे संवारने की भी जरूरत होगी। ‘क्वाड’ गठजोड़ आगे जारी रह सकता है लेकिन एक सामरिक जरूरत के तौर पर अभी इस अवधारणा का वक्त नहीं आया है।


Date:13-03-19

स्वतंत्र आय से महिला सबल होती हैं

भरत झुनझुनवाला , (लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री एवं आइआइएम बेंगलुरु के पूर्व प्रोफेसर हैं )

महिला और पुरुष का भेद पुरातन है। पहले जीव एक सेल के गैमेट (युग्मक) होते थे। ये एकलिंगीय और केवल एक कोशिका से बने होते थे। इनमें नर और मादा नहीं होते थे। फिर भी दो गैमेट के संयोग से नए गैमेटों का सृजन होता था। बड़े गैमेट अपनी जगह स्थिर रहने लगे, जबकि छोटे गैमेट तेजी से इधर-उधर चलकर उनके साथ जुटने लगे। ये बड़े गैमेट समयक्रम में मादा बने और छोटे गैमेट नर बने। आज भी पुरुषों की तुलना में महिलाओं की शारीरिक दृढ़ता ज्यादा होती है। शायद यही कारण है कि अमेरिका में महिलाओं की औसत आयु 80 वर्ष है, जबकि पुरुषों की औसत आयु मात्र 70 वर्ष है।

महिलाएं छोटे बच्चों को इसलिए आसानी से पाल पाती हैं, योंकि वे उनसे अचेतन वार्तालाप कर सकती हैं और बातें करते रहना उनके लिए आसान होता है। गणित आदि तार्किक विचारों और संकल्प की पूर्ति में पुरुष ज्यादा निपुण होते हैं। जैसेजैसे जीवों का विकास होता गया वैसे-वैसे नर और मादा के अंतर बढ़ते गए और आज यह अंतर मनोवैज्ञानिक भी हो गया है। हम यह मान सकते हैं कि जिस प्रकार बीते अरबों वर्षों में यह अंतर बढ़ता गया है, आगे भी यह बढ़ता ही जाएगा। 21वीं सदी के परिवार की संरचना को समझने का दूसरा आधार नई तकनीकें हैं। बिजली से जलने वाले बल्ब एवं बिजली से ही चलने वाली मिसी और वाशिंग मशीन, पाइप से आने वाला पानी, गैस से चलने वाले स्टोव आदि उपकरणों से घरेलू कार्य सरल हो गए हैं। पहले परिवार चलाने के लिए एक व्यति को पूरा समय इन कार्यों को करने के लिए देना पड़ता था। अब ये कार्य घंटे दो घंटे में संपन्न हो जाते हैं। इसलिए महिला के लिए अब पर्याप्त समय दूसरे कार्यों के लिए उपलध हो गया है। 21वीं सदी के परिवार की संरचना हमें इन दोनों कारकों के बीच खोजनी है। एक यह कि महिला और पुरुष के बीच अंतर बढ़ता जाएगा और दूसरा यह कि गृह कार्य के लिए एक व्यति को अपना पूर्ण समय देना अब जरूरी नहीं रह गया है। इसी परिप्रेक्ष्य में हम आज के प्रचलित परिवार के नए ढांचे के सुझावों का आकलन कर सकते हैं। एक सुझाव है कि महिला और पुरुष गृह कार्य में बराबर का योगदान करें जैसे भोजन पकाने अथवा कपड़ा धोने के लिए। यह महिला और पुरुष अथवा नर और मादा के बीच बढ़ते अंतर के ऊपर बताए सिद्धांत के विरुद्ध बैठता है। अरबों वर्षों की जीवों की यात्रा बताती है की नर और मादा का अंतर बढ़ता गया है। एक कोशिका वाले गैमेट में केवल आकार या वजन का अंतर था। पौधों में केवल फूल के आकार में अंतर होता है। मनुष्य में मनोवैज्ञानिक अंतर भी हो गया है। आने वाले समय में यह अंतर बढ़ेगा। इसलिए पुरुष और स्त्री के कार्यों में भी अंतर बढ़ेगा। दोनों घर का बराबर काम करें, यह नहीं चलेगा। दूसरा सुझाव है कि महिला अर्थोपार्जन करे। तमाम अध्ययनों से यह प्रमाणित होता है कि स्वतंत्र आय हासिल करने से महिला का सबलीकरण होता है और उसका मानसिक स्वास्थ्य भी सुधरता है, लेकिन दूसरे अध्ययनों से यह भी पता लगता है कि पूर्णकालिक कार्य करने वाली महिला पर दोहरा वजन आ पड़ता है।

कनाडा के परिवारों पर किए गए एक अध्ययन में पाया गया है कि पूर्णकालिक कार्य करने वाली महिलाएं 25 मिनट कम सो पाती हैं। इसलिए यह सुझाव गृह कार्य से मुति के ऊपर बताए गए सिद्धांत के विरुद्ध बैठता है। इस सुझाव में महिला को गृह कार्य तो कम करना पड़ता है, लेकिन कम गृह कार्य को पूर्णकालिक कमाई के साथ करने से उसके ऊपर कुल कार्य का वजन पड़ता है। इसलिए ये दोनों सुझाव मानव विकास की मूल धारा के विपरीत हैं और ये लंबे समय तक चल
पाएंगे ऐसा नहीं लगता है।

प्रश्न है कि इन सुझावों के असफल होने के बावजूद इन्हें यों बढ़ाया जा रहा है। ऐसा समझ आता है कि महिला और पुरुष के बीच बराबरी की बात छेड़कर समाज में व्याप्त आर्थिक असमानता से हमारा ध्यान हटा दिया जा रहा है। जिस प्रकार एक चतुर बंदर ने दो मूर्ख बिल्लियों की लड़ाई के बीच उनकी रोटी चट कर ली थी अथवा जिस प्रकार एक चतुर उद्यमी दो ट्रेड यूनियनों को आपस में लड़ाकर लाभ कमाता है उसी प्रकार महिला और पुरुष को घर के अंदर बराबरी का मंत्र देकर समाज में बढ़ती आर्थिक असमानता से हमारा ध्यान हटा दिया जा रहा है। हर वर्ष समाचार छपते हैं कि देश में अरबपतियों की संया तेजी से बढ़ रही है, लेकिन इस बढ़ती असमानता के ऊपर तनिक भी सामाजिक हलचल नहीं होती, योंकि समाज ने परिवार के अंदर महिला और पुरुष के बीच बराबरी हासिल करने को प्राथमिक बना दिया है और सामाज में गरीब और अमीर के बीच बढ़ती असमानता को छिपा दिया है ताकि अमीरों की बढ़ती आय से समाज का ध्यान हट जाए। ऊपर दिए गए दोनों कारकों को देखते हुए आने वाले समय में परिवार का रूप दूसरा बनाया जा सकता है। वह यह कि महिला को पार्ट टाइम कार्य के लिए अवसर प्रदान किए जाएं। साथ में उसके द्वारा किए गए गृह कार्य को सम्मानित किया जाए। ऐसा करने से महिला और पुरुष का जो बढ़ता अंतर है वह उपयोगी सिद्ध होगा। महिला की बच्चों को पलने की जो शति है उसका समाज को भरपूर लाभ मिलेगा। महिला बच्चों के पालन में उनकी मनोवैज्ञानिक परवरिश कर सकेगी। साथ-साथ पार्ट टाइम कार्य करने से महिला का आर्थिक सबलीकरण भी होगा। उसके ऊपर दोहरा बोझ भी नहीं आएगा।

मेरे एक जानकार मित्र की पत्नी ब्रिटिश सरकार के लिए कार्य करती हैं। बच्चे पैदा होने के दो साल बाद तक उन्होंने सप्ताह में केवल दो दिन कार्य किया, शेष पांच दिन उन्होंने अपने बच्चों और घर को समर्पित किया। ऐसा करने से उनका आर्थिक सबलीकरण भी हुआ और उन पर कार्य का दोहरा बोझ भी नहीं पड़ा। हमें इस पर विचार करना होगा कि महिलाओं के लिए सुलभ समय और दिन के कार्य के अवसर प्रदान करें। इस प्रकार के परिवर्तन से महिला और पुरुष का जो मनोवैज्ञानिक अंतर है उसका समाज को लाभ मिलेगा और नई तकनीकों से महिला का वास्तविक सबलीकरण होगा न कि उसे दोहरे बोझ से लाद दिया जाएगा।


Date:12-03-19

कैसे रुके रेगिस्तान का विस्तार

पंकज चतुव्रेदी

बीते 27 फरवरी को हरियाणा विधानसभा में जो हुआ वह पर्यावरण के प्रति सरकारों की संवेदनहीनता की बानगी है। बहाना बनाया गया कि महानगरों का विकास करना है, इसलिए करोड़ों वर्ष पुरानी ऐसी संरचना, जो रेगिस्तान के विस्तार को रोकने से लेकर जैवविविधता संरक्षण तक के लिए अनिवार्य है, को कंक्रीट का जंगल रोपने के लिए खुला छोड़ दिया गया। सनद रहे 1900 में तत्कालीन पंजाब सरकार ने पंजाब लैंड प्रीजर्वेशन एक्ट (पीएलपीए) के जरिए अरावली के बड़े हिस्से में खनन एवं निर्माण जैसी गतिविधियों पर रोक लगा दी थी। 27 फरवरी को इसी एक्ट में हरियाणा विधानसभा ने ऐसा बदलाव किया कि अरावली पर्वतमाला की लगभग 60 हजार एकड़ जमीन शहरीकरण के लिए मुक्त कर दी गई। इसमें 16 हजार 930 एकड़ गुड़गांव और 10 हजार 445 एकड़ जमीन फरीदाबाद में आती है।

अरावली की जमीन पर बिल्डरों की शुरू से ही गिद्ध दृष्टि रही है। हालांकि एक मार्च को पंजाब भूमि संरक्षण (हरियाणा संशोधन) अधिनियम, 2019 पर दायर एक याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी करते हुए हरियाणा विधान सभा के प्रस्ताव के क्रियान्वयन पर रोक लगा दी। अभी आठ मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को चेताया है कि अरावली से छेड़छाड़ हुई तो खैर नहीं। गुजरात के खेड़ ब्रह्म से शुरू हो कर कोई 692 किमी. तक फैली अरावली पर्वतमाला का विसर्जन देश के सबसे ताकतवर स्थान रायसीना हिल्स पर होता है, जहां राष्ट्रपति भवन स्थित है। अरावली पर्वतमाला को कोई 65 करोड़ साल पुरानी मानी जाती है, और इसे दुनिया के सबसे प्राचीन पहाड़ों में गिना गया है। असल में अरावली पहाड़ रेगिस्तान से चलने वाली आंधियों को रोकने का काम करते रहे हैं जिससे एक तो मरुभूमि का विस्तार नहीं हुआ और दूसरा इसकी हरियाली साफ हवा और बरसात का कारण बनती रही। अरावली पर खनन से रोक का पहला आदेश 7 मई, 1992 को जारी किया गया। फिर 2003 में एमसी मेहता की जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में आई। कई-कई आदेश आते रहे लेकिन दिल्ली में ही अरावली पहाड़ को उजाड़ कर एक सांस्थानिक क्षेत्र, होटल, रक्षा मंत्रालय की बड़ी आवासीय कॉलोनी बना दी गई। समाज और सरकार के लिए पहाड़ अब जमीन या धनार्जन का माध्यम रह गए हैं।

पिछले साल सितम्बर में सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान सरकार को आदेश दिया था कि 48 घंटे में अरावली पहाड़ियों के 115.34 हेक्टेयर क्षेत्र में चल रहे अवैध खनन पर रोक लगाए। दरअसल, राजस्थान के करीब 19 जिलों से होकर अरावली पर्वतमाला निकलती है। यहां 45 हजार से ज्यादा वैध-अवैध खदानें हैं, जिनमें से लाल बलुआ पत्थर का खनन बड़ी निर्ममता से होता है, और उसका परिवहन दिल्ली की निर्माण जरूरतों के लिए अनिवार्य है। अभी तक अरावली को लेकर र्रिचड मरफी का सिद्धांत लागू था। इसके मुताबिक सौ मीटर से ऊंची पहाड़ी को अरावली हिल माना गया और वहां खनन को निषिद्ध कर दिया गया था, लेकिन इस मामले में विवाद उपजने के बाद फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया ने अरावली की नये सिरे से व्याख्या की। फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के मुताबिक, जिस पहाड़ का झुकाव तीन डिग्री तक है, उसे अरावली माना गया। इससे ज्यादा झुकाव पर ही खनन की अनुमति है, जबकि राजस्थान सरकार का कहना था कि 29 डिग्री तक झुकाव को ही अरावली माना जाए। मामला सुप्रीम कोर्ट में है। सुप्रीम कोर्ट फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के तीन डिग्री के सिद्धांत को मानता है, तो प्रदेश के 19 जिलों में खनन को तत्काल प्रभाव से बंद करना पड़ेगा।

चिंताजनक तय है कि बीसवीं सदी के अंत में अरावली के 80 प्रतिशत हिस्से पर हरियाली थी, जो आज बामुश्किल सात फीसद रह गई। अरावली की प्राकृतिक संरचना नष्ट होने की ही त्रासदी है कि वहां से गुजरने वाली साहिबी, कृष्णावती, दोहन जैसी नदियां लुप्त हो रही हैं। वाइल्ड लाइफ इंस्टीटय़ूट की एक सव्रें रिपोर्ट बताती है कि जहां 1980 में अरावली क्षेत्र के महज 247 वर्ग किमी. पर आबादी थी, आज यह 638 वर्ग किमी. हो गई है। साथ ही, इसके 47 वर्ग किमी में कारखाने भी हैं। जाहिर है कि भले ही 7 मई,1992 को भारत सरकार और उसके बाद जनहित याचिका पर 2003 में सुप्रीम कोर्ट ने अरावली पर खनन और इंसानी गतिविधियों पर पांबदी लगाई हो, लेकिन हकीकत में ऐसा कुछ हुआ नहीं।

जान लें कि अरावली का क्षरण नहीं रुका तो देश की राजधानी दिल्ली, देश को अन्न देने वाले राज्य हरियाणा और पंजाब में खेती पर संकट खड़ा हो जाएगा।


Date:12-03-19

निजी डाटा की सुरक्षा से ही बढ़ेगी ई-कॉमर्स की रफ्तार

जयंतीलाल भंडारी अर्थशास्त्री

हाल ही में प्रकाशित रिटेल एसोसिएशन ऑफ इंडिया की रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत का ई-कॉमर्स बाजार वर्ष 2021 तक 84 अरब डॉलर का हो जाएगा, जबकि 2017 में यह 24 अरब डॉलर का था। भारत में ई-कॉमर्स बाजार सालाना 32 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है। देश में इंटरनेट के उपयोगकर्ताओं की संख्या 60 करोड़ से भी अधिक होने के कारण देश में ई-कॉमर्स की रफ्तार तेजी से बढ़ रही है। इस समय देश की विकास दर सात फीसदी से ऊंची है, इसे नौ फीसदी से अधिक तक पहुंचाने में ई-कॉमर्स की भूमिका महत्वपूर्ण होगी। इस समय देश में परंपरागत खुदरा कारोबार और ई-कॉमर्स, दोनों के विकास की संभावनाएं दिखाई दे रही हैं। अब देश के छोटे और बड़े सभी रिटेल कारोबारियों ने ई-कॉमर्स के महत्व को समझ लिया है और वे इससे जुड़ी चुनौतियों का सामना करने की तैयारी भी कर रहे हैं।

यह बात महत्वपूर्ण है कि देश में खुदरा कारोबार में जैसे-जैसे विदेशी निवेश बढ़ा, वैसे-वैसे ई-कॉमर्स की रफ्तार बढ़ती गई। वर्ष 2011 में मल्टी-ब्रांड खुदरा कारोबार में 51 फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) और एकल-ब्रांड खुदरा कारोबार में 100 फीसदी एफडीआई की मंजूरी देने का फैसला किया गया था। वर्ष 2016 में सरकार ने मार्केटप्लेस ई-कॉमर्स में 100 फीसदी एफडीआई की मंजूरी दी थी। इस कदम का सर्वाधिक फायदा अमेजन और फ्लिपकार्ट को हुआ। सरकार की इस नीति से ही प्रोत्साहित होकर वालमार्ट ने 2018 की शुरुआत में फ्लिपकार्ट में नियंत्रक हिस्सेदारी लेने के लिए करीब 16 अरब डॉलर का निवेश किया। ई-कॉमर्स में सौ फीसदी विदेशी निवेश की अनुमति है, लेकिन शर्त यह है कि यह घरेलू विक्रेता कंपनियों की बिक्री का ही प्लेटफॉर्म तक सीमित हो।

ई-कॉमर्स में विदेशी निवेश के मानक बदलने से इन कंपनियों में ढांचागत बदलाव की जरूरत है। इसलिए नई ई-कॉमर्स नीति के मसौदे से काफी उम्मीदें हैं। इस मसौदे में ऐसी कुछ बातें खासतौर पर कही गई हैं, जिनका संबंध वैश्विक और भारतीय कंपनियों के लिए समान अवसर मुहैया कराने से है, ताकि छूट और विशेष बिक्री के जरिए बाजार को न बिगाड़ा जा सके। मसौदे में कहा गया है कि यह सरकार का दायित्व है कि ई-कॉमर्स से देश की विकास आकांक्षाएं पूरी हों तथा बाजार भी विफलता और विसंगति से बचा रहे। इस मसौदे के तहत ई-कॉमर्स कंपनियों के द्वारा ग्राहकों के डाटा की सुरक्षा और उसके व्यावसायिक इस्तेमाल को लेकर तमाम पाबंदी लगाए जाने का प्रस्ताव है।

नई वैश्विक आर्थिक व्यवस्था के तहत भविष्य में डाटा की वही अहमियत होगी, जो आज तेल की है। अभी डाटा एक ऐसा क्षेत्र है, जहां कोई नियम-कानून नहीं है। इसका एक पहलू नागरिक और राजनीतिक अधिकार हैं, जो निजता से जुड़े हैं तथा दूसरा पहलू यह है कि डिजिटल अर्थव्यवस्था में डाटा एक बुनियादी संसाधन है। जिस देश के पास जितना ज्यादा डाटा संरक्षण होगा, वह देश आर्थिक रूप से उतना मजबूत होगा। इसीलिए ई-कॉमर्स नीति के नए मसौदे में डाटा के स्थानीय स्तर और भंडारण के विभिन्न पहलुओं पर जोर दिया गया है। इसे एक अहम आर्थिक संसाधन के रूप में मान्यता देने की बात कही गई है। सरकार ने स्पष्ट किया है कि वह डाटा को भारत में ही रखना चाहती है, ताकि लोगों की व्यक्तिगत जानकारी का संरक्षण हो सके।

पिछले कुछ समय में भारत के उपभोक्ताओं से संबंधित डाटा का विदेशी कंपनियों ने जमकर उपयोग किया है। भारतीय रिजर्व बैंक ने गत वर्ष विभिन्न पेमेंट गेटवे को आदेश दिया था कि वे अपने डाटा को स्थानीय स्तर पर रखें, ताकि केंद्रीय बैंक उसकी बेहतर निगरानी कर सके। यह ध्यान रखा जाना भी जरूरी है कि देश के भीतर बड़े पैमाने पर तैयार डाटा के बिना देसी कंपनियों के द्वारा उच्च मूल्य के डिजिटल उत्पाद तैयार करने की संभावना बहुत कम है। इसीलिए अमेरिका सहित कई देश डाटा संरक्षण के इन कदमों का विरोध कर रहे हैं। डाटा प्रवाह को नियंत्रित करना बेहतर और उपयोगी है, लेकिन इसे व्यावहारिक बनाने के लिए कारगर प्रयासों की जरूरत स्पष्ट दिखाई दे रही है।


Date:12-03-19

A Regrettable Order

Response of Meghalaya High Court to stories in the ‘Shillong Times’ must be reconsidered and reviewed.

Editorial 

On March 8, the High Court of Meghalaya found guilty of contempt Patricia Mukhim and Shobha Chaudhuri, editor and publisher, respectively, of the venerable Shillong Times, which has been in print from before Independence. The bench found two stories published in the newspaper contemptuous, headlined “High Court pursues retirement benefits to judges, family” and “When judges judge themselves”. The order found the latter headline itself contemptuous, though it is only a variant of the common saying, “Physician, heal thyself,” which does not upset the medical profession. In fact, similar sentiments are expressed in the national press every time parliamentarians decide to award themselves a wee bit more.

The sentence combined schoolroom punishment with a serious threat to the press: Under Article 215 of the Constitution, the editor and publisher were ordered to “sit in the corner” until the court rose for the day, and are to pay a fine of Rs 2 lakh each, failing which they would be imprisoned for six months and “the paper so called ‘Shillong Times’ will automatically come to an end (banned).” This 37-page order, which relies upon a raft of documents, including the Press Council of India’s norms of journalistic conduct and Lord Dening’s (sic) cogitations on relations between the press and the law, suggests that the very foundation of the judiciary had been shaken. But the stories that the Shillong Times published were about the court’s deliberations over the perks to be awarded to retired judges, and their extension to their families.

This order was passed despite the offer of an unconditional apology by the defendants. It includes a section on the quality of apologies, and the metrics of their sincerity. But the quality of mercy appears to be strained, and a lack of proportion is all too evident. The sentence is out of scale with the newspaper reports which apparently caused offence, which certainly did not amount to a frontal attack on the majesty of the law. On the other hand, the threat to terminate one of the oldest newspapers in the Northeast constitutes an attack on the press. The order is regrettable, since a court cannot possibly contemplate exerting a chilling effect on the press in a country where the judiciary has a distinguished record of expanding the freedom of expression, and protecting it. The Meghalaya High Court order is unfortunate, needs to be reconsidered and reviewed.


Date:12-03-19

A promise to live by

All political parties must be mindful of the core values that invigorate Indian democracy

EDITORIAL

As the countdown for elections to the 17th Lok Sabha begins, the world’s largest democracy has a chance to re-imagine itself. Over the last 16 general elections and numerous elections at lower levels, the resolute trust that the founding fathers of the Republic put in the parliamentary democratic system has been substantially proven wise. India did make some dangerous turns and show signs of fragility, especially during the Emergency in the 1970s, but in the long term it expanded the scope of its democracy through widening representation, devolution of power and redistribution of resources. This is not to overlook the various maladies that have afflicted the country’s democracy, such as disinformation campaigns, corruption, disenfranchisement of the weaker sections of the society, the corroding influence of money and muscle power in elections, and divisive majoritarian tendencies. While the representative character of institutions has in general improved, women and religious minorities are alarmingly underrepresented. The exercise of elections itself is a matter of great pride for all Indians. The Election Commission of India has over the decades evolved itself into a fine institution and plays a critical role in the sustenance of democracy. Its efforts to increase voter participation through a series of small steps over the years, including the use of the Electronic Voting Machines, have been praiseworthy.

The vulnerabilities of Indian democracy have been pronounced in the last five years, and some of its long-term gains have been undermined. Therefore, this election is more than an exercise to elect a new government. This should also be an occasion to reiterate and reinforce Indian democracy’s core values, its representative character and its promise of a constant rejuvenation of the collective spirit. The ECI has announced a series of fresh measures to strengthen the integrity of the electoral process and curb some rapidly growing hazards such as the spread of falsehoods aimed at creating social polarisation for consolidation of votes. Measures such as better monitoring of social media campaigns, while steps in the right direction, are not in themselves adequate to deal with the challenges of these times. The stakes are high for all contenders this year, and Indian politics has reached a level of competitiveness where ground rules of engagement are routinely disregarded. Prime Minister Narendra Modi, who rode to power in 2014 on the agenda of material progress through Hindutva, has to defend his reign to seek a second term. His opponents sense an existential danger from him and are trying to mobilise those left behind or who feel disempowered by his governance. While furthering individual interests, all parties must realise that democracy itself is at stake if the campaign is aimed at communal polarisation. Though the promise of Indian democracy has not been fully realised, voters have remained committed to it. They turn up in large numbers to vote, and consider the very act of voting as empowerment. That trust should be upheld.


 

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