13-12-2018 (Important News Clippings)

Afeias
13 Dec 2018
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Date:13-12-18

Urjit Patel’s Unfinished Job

He was piloting the bank system from chaos to order, his successor must take up the task

Arvind Panagariya , [ The writer is Professor of Economics at Columbia University.]

It was with great sadness that I woke up to the news of resignation by RBI governor Urjit Patel this Monday morning. Urjit has been a friend for more than two decades and I have greatly admired him for his brilliance, professionalism, integrity, conviction and friendship. With his departure, India has lost a committed public servant. It is a rarity that a resignation, tendered amid policy differences with the government, elicits such a warm response from none other than the PM. In an unusual gesture, not only did Prime Minister Narendra Modi extol the governor for his thorough professionalism and integrity but also applauded him for steering “the banking system from chaos to order”.

Patel earned this high praise through sheer hard work and principled policy making. He inherited from his predecessor an extremely fragile banking system. Years 2008 to 2014 had seen an unfettered expansion of credit by public sector banks (PSBs), with the RBI failing to deliver on its key regulatory mandates. Unfortunately, these were also the years when the finance ministry failed to perform its key advisory functions satisfactorily. Rather than advise RBI to exercise its regulatory powers and restrain unsustainable credit expansion by PSBs, it looked the other way and let PSBs continue restructuring loans that had little prospects of turning around.

Though the problem of restructured loans turning into non-performing assets (NPAs) had been flagged as early as 2014 – I had pointed to it prominently as a problem needing immediate attention in a newsmagazine story in July 2014 – neither RBI nor the finance ministry showed any urgency to address it in a substantive manner during 2014-16. By early 2017, credit expansion by PSBs collapsed and urgency turned into emergency. It was at this juncture that the efforts by Patel led the government to empower RBI to systematically address the NPA problem. Using the instrumentality of the Insolvency and Bankruptcy Code (IBC), Patel pushed for rapid resolution of a large number of NPAs.

His focussed approach yielded results that India had not seen in its entire post-Independence history. In less than two years, recoveries to the tune of Rs 3 lakh crore have been made from stressed assets. PSBs, which in the past chose to carry massive NPAs on their books rather than accept any haircuts, are now routinely auctioning their NPA accounts to recover what they can. To ensure that lenders and borrowers would not be able to engage in the kind of evergreening of loans that led to India’s NPA problem, Patel’s RBI put in place rules that now require lenders to recognise NPAs concurrently with a default on payments and put in place a resolution plan. Had these rules, contained in the RBI circular of February 12, 2018, been in place during 2008-14, India would not have faced the current NPA problem.

There have been demands from both borrowers and lenders to dilute these rules. Patel’s successor, Shaktikanta Das, will need to show resolve not to allow such dilution. He will also need to carry forward the ongoing discussions with the government to resolve the differences with the latter. While the shares of RBI and government in surplus capital may be rejigged, Das will need to ensure that this is done in a manner that preserves the credibility of the institution as the defender of the rupee. Progressive opening of financial capital flows in the last decade has greatly increased India’s vulnerability to external shocks and RBI cannot be seen as lacking necessary reserves to defend the rupee.

The other key issue of difference concerns the extent to which the government should intervene in the matter of regulation of banks and non-bank finance companies. Though a strong case can be made that the government must be free to intervene in public interest, waters are muddied by the fact that the government owns about 70% of the banking sector. This ownership creates a fundamental conflict of interest: when directing the RBI, would the government act to protect the interest of PSBs or people? As a concrete example, in the recent episode, would the government have advocated loosening regulatory norms impacting banks subject to Prompt Corrective Action with the same force had the latter been private entities ?

Immediately, there is no easy solution to this conflict of interest problem. We must count on the good intentions of the government and RBI to work jointly in public interest. In the longer run, the surest way to resolve this conflict is to privatise PSBs. Going by the superior performance of existing private sector banks along a wide variety of parameters – look at the difference between NPAs of the two sets of banks – such privatisation is also desirable from an efficiency standpoint. The only other, less than satisfactory, solution is governance reform that places PSBs at arm’s length from the ministry of finance. Unfortunately, though such recommendation was made as far back as the 1990s by the Narasimham Committee and repeated and elaborated upon by many other committees – including, most recently, by the Nayak Committee – so far it has not found favour with any government. Hopefully, the next government will be different.


Date:12-12-18

संतुलन की दरकार

संपादकीय

रिजर्व बैंक आफ इंडिया (आरबीआई) के गवर्नर पद से इस्तीफा देकर गए उर्जित पटेल ने यूं तो इस्तीफे की वजह व्यक्तिगत कारणों को बताया है। पर यह साफ है कि उनकी केंद्र सरकार से पटरी बैठ नहीं रही थी। केंद्र सरकार और रिजर्व बैंक के गवर्नर के बीच मतभेदों और तनाव का यह पहला मामला नहीं है। इतिहास बताता है कि जब मनमोहन सिंह रिजर्व बैंक के गवर्नर थे, तब उनके तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी से गहरे मतभेद रहे। बाद में मनमोहन सिंह योजना आयोग गए। मतभेद होना बुरा नहीं है पर लोकतंत्र में मतभेदों पर संवाद के तौर-तरीके महत्त्वपूर्ण हैं। हाल में जिस तरह से रिजर्व बैंक के वरिष्ठतम अधिकारियों ने खुले में अपने मंतव्यों का इजहार किया, वह गरिमा की सीमा से बाहर था। रिजर्व बैंक के अफसरों को समझना चाहिए कि लोकतंत्र में आखिरी जिम्मेदारी चुनी हुई सरकार की होती है तो चुनी हुई सरकार के प्रतिनिधि क्या कह रहे हैं, इस पर उनका ध्यान होना चाहिए। पर सरकार को भी यह समझना चाहिए कि चुने जाने भर से हर किस्म का ज्ञान सरकार के पास नहीं आ जाता। मौद्रिक नीति के मसले तकनीकी मसले हैं, उन्हें संचालित करने के जरूरी छूट भी रिजर्व बैंक जैसे तकनीकी संस्थानों को मिलनी चाहिए।

एक गरिमापूर्ण तरीके से संवाद होना चाहिए। केंद्र सरकार के बड़े कर्ता धर्ताओं को सोचना चाहिए कि क्यों आर्थिक नीतियों से जुड़े बड़े नाम एक-के-बाद एक छोड़कर जा रहे हैं? कामकाज के माहौल में ऐसा क्या है कि उनसे काम करते नहीं बन रहा है। नीति आयोग के उपाध्यक्ष के पद से गए अरविंद पनगढ़िया और मुख्य आर्थिक सलाहकार पद से गए अरविंद सुब्रमण्यम के त्यागपत्र को भी इसी कड़ी में देखा जाना चाहिए। गौरतलब है कि सुब्रमण्यम ने तो हाल में आई अपनी किताब में नोटबंदी की कड़ी आलोचना की है। कुल मिलाकर रिजर्व बैंक एक सम्मानित संस्था है। इसका अपना ढांचा है। किसी एक व्यक्ति के जाने का बहुत ज्यादा असर इस पर पड़ने की आशंका नहीं है। पर केंद्र सरकार को सोचना पड़ेगा कि क्यों एक के बाद तमाम संस्थाओं में एक अविास का माहौल बन रहा है। पहले सीबीआई अब आरबीआई। कुल मिलाकर केंद्र सरकार को इस समय आत्मनिरीक्षण करना चाहिए। आरबीआई से जुड़ी कोई घटना पूरी दुनिया में भारतीय अर्थव्यवस्था के बारे अच्छा या बुरा संदेश देने की सामर्थ्य रखती है।


Date:12-12-18

विवाद और इस्तीफा

संपादकीय

रिजर्व बैंक के गवर्नर पद से इस्तीफा देने का उर्जित पटेल का फैसला चौंकाने वाला इसलिए नहीं है, क्योंकि पिछले छह महीने से सरकार और केंद्रीय बैंक के बीच कई मसलों पर टकराव चल रहा था। सरकार केंद्रीय बैंक से जिन फैसलों और कदमों की उम्मीद कर रही थी, उन्हें एक तरह से रिजर्व बैंक के अधिकार क्षेत्र में बढ़ता दखल माना जा रहा था। पिछले महीने रिजर्व बैंक के बोर्ड की बैठक में जिस तरह से सरकार हावी रही, उसे केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता पर एक तरह का हमला माना गया। हालांकि इस तरह के विवादों की नींव नोटबंदी के फैसले के वक्त ही पड़ चुकी थी, पर तब चीजें खुल कर सामने नहीं आई थीं। पिछले कुछ समय से इस बात के स्पष्ट संकेत मिलने लगे थे कि बैंकिंग क्षेत्र और अर्थव्यवस्था के लिए केंद्रीय बैंक जिन कठोर कदमों के पक्ष में हैं, वे सरकार को अनुकूल प्रतीत नहीं हो रहे। ऐसे में जो हालात बन गए थे, उनमें निश्चित तौर पर किसी भी गवर्नर के लिए काम करना आसान नहीं होता। पर उर्जित पटेल ने धैर्य, संयम और विवेक का परिचय दिया। उनके इस्तीफे से इतना तो साफ है कि वे अब और दबाव में आने की स्थिति में नहीं थे।

रिजर्व बैंक देश की अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा नियामक है। इसलिए उसके काम और स्वायत्तता में दखल के नतीजे गंभीर होते हैं। इस साल जुलाई में सरकार ने रिजर्व बैंक पर इस बात के लिए दबाव डाला था कि वह छोटे और मझोले उद्योगों को कर्ज देने के मामले में ढील दे, लेकिन केंद्रीय बैंक ने डूबते कर्ज की वजह से व्यावसायिक बैंकों पर उद्योगों को कर्ज देने के मामले में सख्ती कर दी थी। तब सरकार को लगा कि दखल दिया जाना चाहिए और उसने आरबीआइ अधिनियम की धारा-7 के तहत शक्तियों का इस्तेमाल करने तक की चेतावनी दे डाली थी। इसके अलावा सरकार केंद्रीय बैंक के रिजर्व कोष से भारी रकम की मांग कर रही थी, जिसे बैंक देने के पक्ष में नहीं था। इन बातों से विवाद गंभीर रूप लेता गया। तभी से ऐसी खबरें आने लगी थीं कि रिजर्व बैंक के गवर्नर सरकारी दखल से इतने आहत हैं कि इस्तीफा भी दे सकते हैं। ऐसी स्थिति इससे पहले कभी नहीं आई थी।

पिछले कुछ महीनों में ऐसे कई अहम मुद्दे रहे जिन्हें लेकर सरकार और केंद्रीय बैंक के बीच खींचतान चलती रही। एनपीए के मसले पर रिजर्व बैंक सख्ती के पक्ष में था, पर सरकार इसके खिलाफ थी। सरकार चाहती थी कि बिजली कंपनियों की मदद के लिए मानकों में बदलाव किया जाए, लेकिन रिजर्व बैंक किसी रियायत के पक्ष में नहीं रहा। सरकार चाहती है एक स्वतंत्र भुगतान नियामक बोर्ड बनाना, लेकिन रिजर्व बैंक पर इसे अपने नियंत्रण रखना चाहता है। वित्तीय समाधान एवं जमा बीमा विधेयक-2017, आर्थिक पूंजी ढांचा, सरकारी और निजी बैंकों को लेकर नियामकीय अधिकारों की मांग जैसे कई मुद्दे हैं, जिन पर सरकार और रिजर्व बैंक के बीच रस्साकशी चल रही है। पटेल सरकार से केंद्रीय बैंक को और अधिकार दिए जाने की मांग करते रहे थे, ताकि बैंकिंग क्षेत्र की समस्याओं से निपटा जा सके। उन्होंने कृषि कर्ज माफी का भी खुल कर विरोध किया था। पिछले महीने रिजर्व बैंक बोर्ड की बैठक से लगा था कि सरकार और केंद्रीय बैंक के बीच गतिरोध अब दूर हो चुके हैं। लेकिन लगता नहीं है कि सब कुछ ठीक हो गया है। उर्जित पटेल का इस्तीफा रिजर्व बैंक की साख के लिए भी चुनौती है।