17-07-2018 (Important News Clippings)
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Date:17-07-18
वैश्विक व्यापार वार्ताओं में उद्योग के साथ रोजगार पर भी हो चर्चा
सुनीता नारायण
एक वैश्विक व्यापार युद्ध शुरू हो गया है। अमेरिका ने पहला हमला बोला है, जिसका जवाब यूरोपीय संघ, कनाडा, चीन और यहां तक कि भारत भी दे रहे हैं। जैसे को तैसे प्रतिक्रिया में कुछ निश्चित आयातित वस्तुओं पर शुल्क बढ़ा दिए गए हैं। विश्लेषक यह मानते हुए इसे सीमित युद्ध बताते हैं कि डॉनल्ड ट्रंप ‘मुक्त-व्यापार’ के पैरोकार हैं। लेकिन यह नजरिया इस तथ्य को नकार देता है कि विश्व में एक अहम बदलाव हो रहा है। यह वैश्विक अगुआ बनने का युद्ध है, यह अमेरिका और चीन के बीच का मुकाबला है। चीन विश्व में अपनी ताकत बढ़ा रहा है। राष्ट्रपति शी चिनफिंग की वन बेल्ट वन रोड (ओबीओआर) उसके बढ़ते वैश्विक प्रभाव का स्पष्ट संकेत है। चीन ने भविष्य की तकनीक – आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस में निवेश करने के लिए जुलाई, 2017 में महत्त्वाकांक्षी योजना शुरू की थी। इस बारे में बहुत से कयास लगाए जा रहे हैं कि कैसे चीन नई तकनीकों का अधिग्रहण कर रहा है और दुनियाभर में परिचालन कर रहीं पश्चिमी कंपनियों को मात दे रहा है।
पिछली शताब्दी में अमेरिका और साम्यवादी रूस समेत यूरोप का दबदबा रहा। मगर दुनियाभर में मुक्त व्यापार प्रणाली शुरू होने से चीन इतना ताकतवर बनकर उभरा है। महज 35 साल पहले यह पश्चिमी देशों से पीछे था। लेकिन इसके बाद जनवरी, 1995 में विश्व व्यापार संगठन वजूद में आया, जिससे चीन के व्यापार में भारी बढ़ोतरी हुई। उसने विश्व के विनिर्माण रोजगार हासिल कर लिए। भारत ने टेलीमार्केटिंग जैसी आउटसोर्सिंग सेवाएं देकर अपना मुकाम बनाया। शब्दकोष में ‘शांघाईड’ और ‘बैंगलोर्ड’ जैसे शब्द आए क्योंकि नौकरियां (और प्रदूषण) दूसरे महाद्वीपों में चले गए। इस तरह वैश्वीकरण ने वैश्विक समृद्धि का एक नया युग करने का अपना उद्देश्य पूरा किया। लेकिन स्थितियां हमारी सोच के विपरीत रहीं।
इसके बजाय वैश्वीकरण ने विश्व को ज्यादा जटिल बना दिया है। 1990 के दशक में जब शुल्क एïवं व्यापार के सामान्य समझौते (गैट) को लेकर चर्चा अपने चरम पर थी, तब उत्तर और दक्षिण के बीच की खाई साफ दिखती थी। उस समय के विकसित विश्व ने व्यापार को खोलने की पुरजोर वकालत की। वे बाजार और ‘पारदर्शी’ व्यापार एवं बौद्धिक संपदा के नियमों के जरिये सुरक्षा चाहते थे। उस समय का विकासशील विश्व इस बात से चिंतित था कि इस मुक्त व्यापार समझौते का उनकी नई एवं कमजोर औद्योगिक अर्थव्यवस्थाओं पर क्या असर पड़ेगा। विकासशील देश इस बात से भी चिंतित थे कि इन खुले व्यापार के नियमों का उनके किसानों पर क्या असर पड़ेगा, जिन्हें विकसित विश्व के मोटी सब्सिडी हासिल करने वाले किसानों से प्रतिस्पर्धा करनी होगी।
वर्ष 1999 में सिएटल में डब्ल्यूटीओ की मंत्रिस्तरीय बैठक में तनावपूर्व स्थिति रही। इस समय तक वैश्वीकरण की हकीकत सामने आ चुकी थी और इसलिए धनी देशों के नागरिकों ने श्रम अधिकारों के लिए विरोध-प्रदर्शन किया। उन्होंने अपने रोजगार की आउटसोर्सिंग और पर्यावरण को नुकसान की चिंताएं जताईं, लेकिन इन हिंसात्मक प्रदर्शनों को कुचल दिया गया। अगला एक दशक वित्तीय संकट में खराब हो गया। नए विजेताओं ने पुराने पराजितों को कहा कि ‘सब कुछ ठीक है।’ आज ट्रंप सिएटल के उन वामपंथी प्रदर्शनकारियों की आवाज में आवाज मिला रहे हैं, जबकि भारत और चीन मुक्त व्यापार को बनाए रखने के दो पैरोकार बनकर उभरे हैं। असल में भारत और चीन इससे भी ज्यादा चाहते हैं। लेकिन फिर क्या चीजें इतनी आसान हैं। ये सब व्यवस्थाएं रोजगार के संकट को ध्यान में रखकर तैयार नहीं की गईं।
वैश्वीकरण के पहले चरण से श्रम का कुछ विस्थापन हुआ है और ट्रंप की यही शिकायत है। लेकिन हकीकत यह है कि वैश्वीकरण के इस पहले चरण का मतलब पुराने धनी (व्यापार और उपभोक्तावाद की दुनिया में मध्य वर्ग) और नए धनियों के बीच युद्ध है। यह इतना लंबा या खतरनाक नहीं रहा कि कृषि से जुड़ी बहुसंख्यक गरीब आबादी की जीविका के आधार को ही नष्ट कर दे, लेकिन ये स्थितियां धीरे-धीरे बनती जा रही हैं। इसी क्षेत्र पर वैश्वीकरण का असली असर महसूस किया जाएगा। वैश्विक कृषि कारोबार विकृत और अत्यधिक विवादास्पद बना हुआ है। वर्ष 1994 का मुक्त व्यापार युद्ध कृषि को लेकर हुआ। उस समय आर्थर डंकेल प्रारूप समझौते को विकासशील देशों के किसान अपने कारोबार के लिए पक्षपाती और विनाशकारी मान रहे थे। आर्थर डंकेल प्रारूप समझौता गैट की अगुआई करने वाले ब्रिटिश नागरिक के नाम पर रखा गया।
वर्ष 2014 में बाली में डब्ल्यूटीओ की नौवीं मंत्रिस्तरीय बैठक में हुआ समझौता अकाल से निपटने के लिए सरकारों द्वारा खरीदे जाने वाले खाद्यान्न के स्टॉक और किसानों को मुहैया कराए जाने वाले कीमत समर्थन- न्यूनतम समर्थन मूल्य के विचार के खिलाफ है। इस समय भारत सरकार पुरजोर यह कह रही है कि वह अपने किसानों के साथ खड़ी होगी। अगर हम यह नहीं पहचानेंगे कि रोजगार असल संकट है तो हम अत्यधिक असंतुलित व्यापार प्रणाली को संतुलित नहीं कर पाएंगे। यह उचित समय है कि व्यापार युद्ध का वर्तमान चरण आजीविका के अवसरों की जरूरत पर हो। वैश्विक व्यापार की चर्चाओं में केवल उद्योग नहीं बल्कि रोजगार पर चर्चा होनी चाहिए। इसे वस्तुओं नहीं बल्कि श्रम को अहमियत देनी चाहिए। यह विश्व में असुरक्षा का अहम बिंदु है। ये व्यापार या वित्त नहीं है। यह सबसे ज्यादा नुकसान उठाने वालों- हम, लोग और पूरे ग्रह से जुड़ा है।
Date:17-07-18
विवेक खोकर भीड़ में बदलते समाज के इंसाफ का तरीका
अगर समाज ही विवेक खो दे तो उसे कोई भी पुलिस प्रशासन काबू नहीं कर सकता।
संपादकीय
उग्र भीड़ की बर्बरता में एक नई कड़ी जोड़ते हुए कर्नाटक के बीदर जिले में शुक्रवार को जिस तरह वॉट्सएप मैसेज से उत्तेजित भीड़ ने गूगल के इंजीनियर मोहम्मद आजम अहमद को पीट-पीटकर मार डाला और उनके साथियों नूर मोहम्मद और मोहम्मद सलमान को बुरी तरह घायल कर दिया, उससे यही साबित होता है कि समाज के विवेक को नष्ट करने वाले संगठनों और व्यक्तियों की सक्रियता बरकरार है और स्थानीय प्रशासन कारगर सिद्ध नहीं हो पा रहा है।
भीड़ ने स्कूली बच्चों को विदेशी चाकलेट बांट रहे उन अनजान लोगों पर तो हमला किया ही और उसने उन्हें बचाने गए पुलिस वालों को भी नहीं छोड़ा। पुलिस वालों ने जब अफवाह फैलाने वालों और हमला करने वालों पर कार्रवाई के लिए तकरीबन 30 लोगों का गिरफ्तार किया तो बीदर जिले से मुर्की गांव में पुलिस के विरुद्ध तनाव भी फैल गया। निष्कर्ष यही है कि अगर समाज ही विवेक खो दे तो उसे कोई भी पुलिस प्रशासन काबू नहीं कर सकता। जान बचाकर भागने वाले बेगुनाह लोगों पर हमले की इजाजत न तो कानून देता है और न ही भारतीय समाज की कोई परम्परा। इसे महज सोशल मीडिया से उत्पन्न शरारत कह कर टाला नहीं जा सकता।
भीड़ द्वारा की जा रही हत्याओं का साझा कारक अपरिचित होना तो है ही तो दूसरा कारक ऐसी कोई हरकत करना है, जिससे संदेह पैदा हो और अफवाह फैलाने वालों को मौका मिले। संभव है इस तरह की घटनाएं राज्य की कुमारस्वामी सरकार को कानून और व्यवस्था के मोर्चे पर विफल दिखाने के लिए की जा रही हों ताकि पहले से कमजोर जनता दल (से) और कांग्रेस की गठबंधन सरकार को जल्दी निपटाया जा सके। दक्षिण भारत के राज्य राजनीतिक रूप से भले भावना प्रधान हों लेकिन, सामाजिक रूप से वे उत्तर भारत के मुकाबले तर्कशील और विवेकवान समझे जाते हैं। इसके पहले एक 65 वर्षीय तीर्थयात्री महिला को भी पीट-पीट कर मार डाला गया था। इन घटनाओं का अर्थ यह भी है कि हम भारत माता की चाहे जितनी जय जय कार करें लेकिन हमारा समाज भीतर से टूट रहा है। इसलिए आज समाज के विवेक और संयम को बचाने के लिए पुलिस, प्रशासन और न्यायपालिका की सक्रियता तो जरूरी है ही उससे ज्यादा जरूरी है मीडिया, सामाजिक संगठन और स्वयं समाज को सक्रिय किए जाने की।
Date:17-07-18
महिला आरक्षण पर राजनीति से महिलाओं का सशक्तीकरण संभव नहीं
राजनैतिक दल लोकसभा और विधानसभा चुनाव में 33 प्रतिशत महिलाओं को चुनाव मैदान में उतारने का काम क्यों नहीं करते?
संपादकीय
तीन तलाक विधेयक पर विपक्ष को कठघरे में खड़ा करने वाले प्रधानमंत्री के बयान के बाद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने उन्हें इस आशय की चिट्ठी लिखकर एक तरह से नहले पर दहला मारने का काम किया कि संसद के मानसून सत्र में महिला आरक्षण विधेयक पारित कराया जाए। महिला आरक्षण विधेयक पारित कराने की मांग एक अच्छी राजनीतिक चाल अवश्य है, लेकिन इससे यह साबित नहीं होता कि कांग्रेस लोकसभा और विधानसभा में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण दिलाने के प्रति सचमुच समर्पित है। महिला आरक्षण की उसकी पैरवी प्रदर्शन के लिए अधिक है और दिखावे की ऐसी राजनीति से महिलाओं का सशक्तीकरण संभव नहीं।
सच तो यह है कि लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित करने से भी आम महिलाओं का भला होने वाला नहीं। महिलाओं का उत्थान और कल्याण तो तब होगा जब राजनीति के साथ-साथ अन्य अनेक क्षेत्रों में उन्हें आगे बढ़ने के पर्याप्त अवसर मिलेंगे। विडंबना यह है कि दूसरे तमाम देशों की तरह अपने देश में भी अन्य क्षेत्रों की तरह राजनीति में भी पुरुष प्रधान सोच हावी है। अगर कांग्रेस या फिर अन्य राजनीतिक दल लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ता हुआ देखना चाहते हैैं तो फिर वे संविधान संशोधन विधेयक के पारित होने का इंतजार क्यों कर रहे हैैं? आखिर वे लोकसभा और विधानसभा चुनाव में 33 प्रतिशत महिलाओं को चुनाव मैदान में उतारने का काम क्यों नहीं करते? क्या महिला आरक्षण विधेयक पारित हुए बगैर ऐसा करने पर कोई रोक है?
ऐसा लगता है कि राहुल गांधी तीन तलाक पर रोक लगाने वाले विधेयक पर कुछ कहने के बजाय महिला आरक्षण का मसला उठाकर खुद को महिला हितैषी साबित करना चाह रहे हैैं। मुश्किल यह है कि महिला आरक्षण विधेयक पर वे अनेक दल ही सहमत नहीं जो इस समय कांग्रेस के सहयोगी हैैं। राहुल गांधी को इससे परिचित होना चाहिए कि जहां कुछ दल महिला आरक्षण के भीतर आरक्षण चाह रहे हैैं वहीं अन्य महिला आरक्षण विधेयक के छद्म समर्थक हैैं। यदि ज्यादातर राजनीतिक दल सचमुच इस विधेयक के पक्ष में होते तो वह न जाने कब संसद के दोनों सदनों से पारित हो गया होता। वास्तविकता इसके उलट है और इसी कारण वह एक अर्से से संसद में अटका हुआ है।
एक सच्चाई यह भी है कि कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार ने 2010 में महिला आरक्षण विधेयक को केवल राज्यसभा से इसीलिए पारित कराया ताकि महिला समर्थक होने का श्रेय लिया जा सके। कहना कठिन है कि राहुल गांधी को महिला आरक्षण विधेयक पर अपनी चिट्ठी का जवाब मिलेगा या नहीं, लेकिन इसमें दोराय नहीं कि राजनीतिक दल इस विधेयक पर आम राय से किसी नतीजे पर पहुंचने के इच्छुक नहीं दिख रहे हैैं। बेहतर हो कि वे यह समझें कि एक तो हर समस्या का समाधान आरक्षण नहीं और दूसरे लोकसभा और विधानसभाओं में 33 प्रतिशत स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित करना महिला सशक्तीकरण की दिशा में एक प्रतीकात्मक उपाय ही अधिक होगा। आवश्यकता प्रतीकात्मक उपायों की नहीं, बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में महिलाओं के आगे बढ़ने लायक सकारात्मक माहौल बनाने की है।
Date:16-07-18
Beyond Section 377
India’s sexual minorities need not only decriminalisation but rights and protections
Chapal Mehra , [The writer is a public health expert]
One of the lowest moments for human rights in India came in 2013 when the Supreme Court reversed the progressive 2009 judgment of the Delhi High Court reading down Section 377. As arguments recently reopened on the curative petition against this 2013 judgment, India’s LGBTQI community is hopeful. Though supportive in its initial observations, surprisingly, the Supreme Court has also said that it will concern itself only “with the question of the validity of Section 377, and examine the correctness of the Supreme Court’s 2013 judgment”. This was in response to the issue of the broader rights for sexual minorities that came up in the arguments. This approach is, at best, a limited one as it tries to interpret a broader human rights and justice issue as a matter of pure constitutional validity.
The law is not abstract and it’s important to consider how insufficient law impacts the lived experiences of human beings. Instead of focusing on the question of validity alone, the Court also needs to concern itself with how current laws impact the lives of the LGBTQI community. The Court need only to turn to precedent — a remarkable and comprehensive 2014 judgment granting India’s transgender community the right to be recognised as a third gender category with accompanying legal rights. This judgment stands as a reminder that rights that ensure inclusiveness, equality, and freedom are the fundamental values of this republic.
There is also the matter of the Court’s own precedent in another recent ruling — one that found in favour of individual privacy — in the case of Puttaswamy vs Union of India which terms “sexual orientation” an essential attribute of “identity” and “privacy”. It terms discrimination on the basis of sexual orientation as deeply offensive to the “dignity and self-worth of the individual”. It terms the rights of India’s sexual minorities as those “founded on sound constitutional doctrine” effectively making Section 377 unsustainable. In principle, it maintains that sexual orientation must be protected and lies at the heart of the fundamental rights guaranteed by the Constitution under Articles 14, 15 and 21.
The Court now needs to concern itself with a broader question: What is freedom in the absence of a formal set of legal rights and protections? It needs to expand the ambit of this discussion to include other issues such as the right to form partnerships, inheritance, employment equality, protection from gender-identity-based discrimination, and so on. Instead of merely considering the petition as a narrow legal matter, it should examine the issue from the perspective of an institution that is committed towards ensuring equality for all. Without these rights, sexual minorities will continue to face unequal treatment, abuse, discrimination in workplaces and housing, violence, and denial of recognition.
The Court should also consider closely the fact that individual dignity and freedom cannot be achieved without equal rights. Failure to use a rights-based approach also has serious social repercussions. There is sufficient evidence to show that suicide rates are higher among sexual minorities. Moreover, this lack of rights and protections feeds a homophobic culture that overemphasises and empowers patriarchy and masculinity. The Court should be invested in eroding forms of patriarchy. Because of widespread homophobia, gay men and women create and inhabit sub-cultures of self-hate, internalised homophobia, and oppression. Public health evidence also indicates a clear relationship of a lack of social acceptance and legal rights with substance abuse, violence, isolation, and mental illness. Finally, a rights-based framework is intricately tied up with India’s quest for social and economic development.
It’s time the Court recognised that India’s sexual minorities need not only decriminalisation but rights and protections that help them build productive lives and relationships irrespective of gender identity or sexual orientation. They need an anti-discrimination law that empowers them and places the onus on the state and society to change. By expanding its ambit, the Court has the power to positively affect the lives of millions of Indians, many of whom live vulnerable and disempowered lives in the legal and social structures. The Court knows well that Section 377 is inhumane. It is disingenuous to say that its only concern is the law’s constitutional validity. It is time now for the Court to safeguard the human rights of sexual minorities with an open and reassuring discussion of their rights — one that engages every Indian and reinforces ideas of justice, equality and liberty for all.
Date:16-07-18
A helping hand for Indian Universities
Leadership in philanthropy is central to enabling an institutional vision for higher education
C. Raj Kumar is the Founding Vice Chancellor of O.P. Jindal Global University, Sonipat, Haryana, and Director of the International Institute for Higher Education, Research & Capacity Building.
The future of Indian universities (public and private) will significantly depend upon our ability to harness the possibility of individual, institutional and corporate philanthropy for the purposes of higher education. A major legal and policy reform to promote some form of mandatory corporate social responsibility (CSR) was initiated through the Companies Act, 2013. Path-breaking, it had the potential to transform the relationship between business and society. Unfortunately, the results so far have not been encouraging.
Misinterpreting CSR
The Ministry of Corporate Affairs (MCA) has observed that among the 5,097 companies that have filed annual reports till December 2016 (financial year 2015-16), only 3,118 companies had made some contribution towards CSR expenditure. During FY 2014-15, 3,139 companies had spent 74% of the prescribed CSR expenditure — most were to the Prime Minister’s Relief Fund. There has been very little strategic thinking and innovation in the CSR where corporations can play a leadership role in contributing to society. This also shows that companies in India have generally not understood the larger goals of CSR, viewing it more as a charitable endeavour.
While there is much that deserves attention under the CSR framework for contributing to the social sector, the fact is that higher education and universities do need to receive significantly more attention. Every aspect of a university’s growth requires substantial financial resources: hiring of world class faculty; developing research centres; funding research projects; having rewards and incentives for faculty publications; building physical infrastructure, and making available scholarships for students. The Ministry of Human Resource Development should be working closely with the MCA to have a road map that incentivises CSR funding to be made available for universities.
The funding factor
Some years ago, a report by a committee constituted by the then Planning Commission and headed by the then chief mentor of Infosys, Narayana Murthy, focussed on the role of the corporate sector in higher education. It acknowledged the importance of stronger private initiatives and recommended steps such as free land for 999 years (sic), 300% deduction in taxable income to companies for contributions towards boosting higher education and 10-year multiple entry visas for foreign research scholars. It also recommended a ₹1,000 crore scholarship fund (with tax exemption for corporate sector contributions) to promote greater accessibility of higher education to the underprivileged. However, these recommendations were not implemented.
A range of reforms are being promoted in higher education. Recognising that universities in India need to be significantly empowered in order to achieve excellence, the government has initiated five major reforms in the areas of regulation, accreditation, rankings, autonomy and internationalisation. However, the most critical aspect of building world-class universities as well as upgrading existing universities is in relation to funding and the availability of substantial financial resources.
Every year, educationists have put forth the argument that we need to increase the budget for higher education. Marginal increases in budgets and creative reallocation of resources to show more spending on higher education are not going to help. A thorough and even a radical re-examination of budgetary resources is essential. The higher education sector can be truly re-energised only by a significant increase in loans, grants and philanthropy. Banks and financial institutions have been rather timid and even indifferent towards funding in higher education. Therefore, there is an urgent need for policy intervention, where universities and related funding should be designated a priority sector. It should be seen as being more important than infrastructure development.
Issue of philanthropy
Beyond a few examples of philanthropy in higher education in India, contemporary leadership in philanthropy in higher education is limited and almost non-existent. The historical evolution of public universities in India and their exclusive dependence on the government for all financial resources have contributed to limiting the capacity of funding that could be available for public universities. Today, public universities (State universities and other higher education institutions) face serious financial challenges. While the Central universities and institutions of higher education are better situated, complex procedures, incessant delays, regulatory obstacles and a labyrinth of regulations for access to the funds have created many disincentives for universities to have the necessary freedom and flexibility to spend resources as per their needs and priorities.
As far as private universities/higher education institutions are concerned, the problem is even more serious. The opening up of the private sector to higher education has ended up creating many mediocre institutions. The privatisation of higher education has not been driven by philanthropy but to a large extent by commercial and for-profit interests that do not have a symbiotic relationship with the vision, values and ethos of a university. Higher education and universities (private or public) by their very nature ought to be not-for-profit and established through philanthropy.
The Institute of Eminence (IOE) policy by the government did create hopes and expectations for establishing world class universities in India. Unfortunately, the policy, procedure and the process of selecting IOEs has been marred by a lack of transparency, vision and imagination in institution building. Therefore, there is an urgent need in Indian universities to reflect upon the crisis of leadership and the inability to seek reforms relating to institution building. In this, leadership in philanthropy is central to enabling an institutional vision that will help build the future of higher education in India.