10-07-2018 (Important News Clippings)

Afeias
10 Jul 2018
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Date:10-07-18

Moon Pledges

The great potential of Korea’s New Southern Policy meeting India’s Act East Policy

TOI Editorials

South Korean President Moon Jae-in’s maiden visit to India aims to strengthen relations between the two countries as part of his New Southern Policy. He had reportedly pledged in his presidential election campaign that he would elevate Korean ties with India to the level of China, Japan, Russia and the US. There is great potential complementarity between Korea’s New Southern Policy and India’s Act East Policy.

As President Moon has said, the geographical importance of the Indo-Pacific region covering both Korea and India is increasing. His dogged and unflappable push for reconciliation with the North as well as the US-North summit took place against the backdrop of not only increased Chinese assertiveness in the region but also a developing US-China trade war, amounting to new challenges on both diplomatic and economic fronts. It is in their mutual interest for India and Korea to meet these challenges together. On the economic front India offers Korea a more predictable business environment as it seeks to diversify beyond its biggest export destination, especially after its businesses were hit hard last year by China suddenly turning against them following Seoul’s deployment of the US missile shield, THAAD.

Korea offers India a potentially game changing partnership in manufacturing, high technology industries and infrastructure building. China is no longer a low cost manufacturing base as it has grown more prosperous and tries to develop its high tech industries, which in turn has led to growing concern about its penchant for stealing tech even as it shelters its own high tech industries. India dropped the ball on the Posco steel plant, which could have been its largest foreign direct investment project. But given the difficult global trade environment today we must not waste any more opportunities, especially those that come knocking on our door.


Date:10-07-18

Beat The Hate

The virulence behind lynchings cannot be fought with half measures and political sophistry

TOI Editorials

The spate of lynchings stemming from rumours often circulating on social media such as WhatsApp has finally trained public attention on the technological, political and social dimensions of the fake news menace. Considering that nearly 200 million Indians use WhatsApp for their instant messaging needs, Facebook must not waste any more time in ramping up its local presence, providing timely assistance to police forces, and in actively engaging with news organisations and fact checking websites to put a lid on rumours.

With India heading for general elections next year, any window for subversion of democracy needs to be quickly slammed shut. WhatsApp claims to have effectively thwarted rumours during the recent Mexican presidential elections and is combatting fake news in Brazil in alliance with 24 news outlets. These capabilities need to be demonstrated in India too. The government, on its part, cannot leave the policing and counter measures to WhatsApp alone – given the socio-political context of communal polarisation, weak criminal justice delivery system and low education levels.

The actions of its own ministers reflect poorly on the government. Union minister Jayant Sinha’s felicitation of eight lynching convicts was nothing less than a shock to the system. Sinha is free to believe the men were wrongly convicted, but his celebration at the juncture where they secured bail is unacceptable for any public functionary, let alone a Union minister. Propriety demands that he waited till an acquittal but such decorum is increasingly missing as politicians hurry to reap hypothetical electoral dividends from causes that marginalise minorities and normalise hatred, even lynchings. In neighbouring Bihar, Sinha’s ministerial colleague Giriraj Singh was quick to express solidarity with men arrested for inciting communal tensions.

These actions emphatically send the wrong signals to police and bureaucracy. Instead, intelligence gathering mechanisms need to be bolstered to help police keep pace with rumours, and those inciting violence must face arrest and prosecution. Even Prime Minister Narendra Modi hasn’t spoken at such a critical time, or taken action against errant ministers. If Sinha and Singh are enacting a strategy to keep the communal pot boiling in an election year, its efficacy is doubtful if it brings the opposition together or if people see through the ploy. But even if such toxic politics succeeds, it will come at the cost of besmirching India’s reputation abroad as well as endangering the social harmony that’s essential for economic progress.


Date:10-07-18

एकसाथ सभी चुनाव का विचार आकर्षक पर अमल में कठिन

भारतीय लोकतंत्र की 70 साल की यात्रा के बाद यह विचार कुछ वैसा ही लगता है जैसे देश की सारी नदियों को जोड़ देने का विचार।

संपादकीय

देश का धन और मानव संसाधन बचाने और विकास का काम निरंतर जारी रखने के लिए लोकसभा और विधानसभा का चुनाव साथ-साथ कराने का विचार जितना आकर्षक है उसे अमल में लाने के लिए आम राय बनाना उतना ही कठिन है। भारतीय लोकतंत्र की 70 साल की यात्रा के बाद यह विचार कुछ वैसा ही लगता है जैसे देश की सारी नदियों को जोड़ देने का विचार। इस विचार को लागू करने के लिए संविधान में जितने व्यापक स्तर पर संशोधन करने होंगे वह आपातकाल के 42वें संशोधन जैसे व्यापक प्रभाव का होगा।

भारत जैसे बहुवचन वाले देश में सरकारों का बनना और गिरना स्वाभाविक प्रक्रिया है। इसी में जनाक्रोश कभी राज्य के स्तर पर व्यक्त होता है तो कभी केंद्र के स्तर पर। एक साथ चुनाव के कड़े कानून के चलते संघीय ढांचे का यह लचीलापन खत्म हो जाएगा। यही कारण है कि विधि आयोग के साथ इस विषय पर हुई बैठक में महज चार पार्टियों ने इसका समर्थन किया और नौ दलों ने विरोध। भाजपा और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दलों ने भले स्पष्ट राय नहीं दी है लेकिन ,परोक्ष रूप से भाजपा समर्थन में तो कांग्रेस विरोध में है।

1967 से पहले 1951-52, 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ संपन्न हुए थे, लेकिन 1967 के बाद से यह तालमेल ऐसा बिगड़ा कि ठीक होने का नाम ही नहीं ले रहा। वहीं से भारतीय राजनीति में गठबंधन का दौर शुरू हुआ। नतीजतन जो राष्ट्रीय राजनीति राज्यों की राजनीति को हाशिये पर रखती थी उस पर राज्यों की राजनीति हावी हो गई। केंद्र में किसकी सरकार बनेगी इसका फैसला क्षेत्रीय स्तर पर होने लगा। आज अगर फिर राष्ट्रीय दौर में लौटने के लिए पार्टियों को फुसलाया जा रहा है तो इसके पीछे भाजपा की राजनीतिक सोच भी है।

वह मानती है कि वह 1967 के पहले वाली कांग्रेस की तरह राष्ट्रीय मुद्दों से क्षेत्रीय किले फतह कर लेगी। जो दलीलें दी गई हैं उनमें एक यह है कि चुनाव के दौरान वोट के लिए जिस तरह की तल्ख बहसें होती हैं उससे सामाजिक ताना-बाना टूटता है। यह गंभीर दलील एक साथ चुनाव नहीं, राष्ट्र निर्माण और लोकतंत्र के मूल्यों के समक्ष पार्टियों के अहम के विसर्जन और सर्वानुमति की मांग करती है। आखिर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में कौन सा रोज चुनाव हो रहा है, जो सीएम और एलजी में महाभारत मचा है। इसलिए सवाल नीयत का है, नीति तो अपने आप बन जाएगी।


Date:09-07-18

चुनाव का समय

संपादकीय

लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की सलाह लंबे समय से दी जाती रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस विचार को गंभीरता से आगे बढ़ाने का प्रयास किया है। इस सिलसिले में नीति आयोग, विधि आयोग और इस मामले से जुड़ी संसद की स्थायी समिति ने भी विचार किया है। अभी विधि आयोग ने सरकार को अपनी सिफारिशें भेजने से पहले विभिन्न राजनीतिक दलों, क्षेत्रीय पार्टियों और प्रशासनिक अधिकारियों के साथ तीन दिवसीय चर्चा शुरू की। इसमें कुछ दलों ने देश भर में एक साथ चुनाव कराने पर सहमति जताई, जबकि ज्यादातर दलों ने इसे असंभव और अव्यावहारिक विचार बताया। जाहिर है, इस पर आम राय नहीं बनने से इस विचार को अमली जामा पहनाना संभव नहीं होगा। दरअसल, देश भर में एक साथ चुनाव कराने पर इसलिए बल दिया जा रहा है कि इससे चुनावों पर होने वाला खर्च कम होगा और निरंतर चलने वाली चुनाव प्रक्रिया से निर्वाचन आयोग, राजनीतिक दलों, प्रशासनिक अधिकारियों आदि को राहत मिलेगी। इसके साथ विकास कार्यों में बार-बार पैदा होने वाले गतिरोध से मुक्ति मिलेगी। मगर व्यावहारिक स्तर पर ऐसा करा पाना बहुत कठिन है।

नीति आयोग ने सुझाव दिया था कि देश भर में चुनाव एक साथ कराए जाने चाहिए। इसके लिए कुछ विधानसभाओं के कार्यकाल में विस्तार और कुछ के कार्यकाल में कटौती करने की जरूरत पड़ सकती है। मगर दिक्कत यह है कि जिन विधानसभाओं के कार्यकाल कुछ समय पहले ही शुरू हुए हैं, उन्हें फिर से नए चुनाव में धकेल देने से विवाद की गुंजाइश बनी रहेगी। इसलिए संसद की स्थायी समिति ने कहा था कि आधी विधानसभाओं के चुनाव लोकसभा के साथ कराए जाएं और बाकी के लोकसभा की मध्यावधि में। यह सुझाव काफी हद तक व्यावहारिक माना जा रहा है। मगर लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने में कई सैद्धांतिक और वैधानिक दिक्कतें भी हैं। विधानसभाओं के चुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़े जाते हैं, जिनमें लोग पार्टी के बजाय कई बार स्थानीय नेता या क्षेत्रीय दलों को उनके कामकाज के आधार पर तरजीह देते हैं। लोकसभा के साथ उनके चुनाव कराने से न सिर्फ लोगों के सामने भ्रम की स्थिति पैदा होगी, बल्कि इससे राज्यों के राजनीतिक अधिकारों में भी बाधा उत्पन्न होगी, जोकि संघीय ढांचे के अनुरूप नहीं होगा। फिर सबसे बड़ी अड़चन यह है कि देश भर में एक साथ चुनाव कराने को लेकर संविधान में कोई नियम नहीं है, इसलिए इसके लिए संविधान संशोधन करना होगा, जो कि मौजूदा स्थितियों में संभव नहीं लग रहा।

यह सही है कि अगर लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की व्यवस्था बनती है तो चुनाव खर्च और भ्रष्टाचार में काफी हद तक कमी आएगी और प्रशासन को बेवजह परेशानियों से मुक्ति मिलेगी और वह विकास कार्यों पर अपना ध्यान केंद्रित कर सकेगा। पर यह इस बात की गारंटी नहीं है कि दोनों चुनाव एक साथ कराने की व्यवस्था कितने समय तक बनी रह पाएगी। किन्हीं स्थितियों में अगर लोकसभा या कोई विधानसभा कार्यकाल पूरा होने से पहले ही भंग हो जाती है, तो उसका मध्यावधि चुनाव लंबे समय तक टालना संभव नहीं होगा। 1967 के बाद के अनुभवों से इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। इसलिए फिलहाल चुनाव खर्च में कटौती के उपायों पर स्वतंत्र रूप से और गंभीरतापूर्वक विचार की जरूरत एक बार फिर रेखांकित होती है।


Date:09-07-18

नशाखोरी पर नकेल जरूरी

सतीश सिंह

पंजाब में बढ़ते नशे की लत पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी अपनी चिंता जाहिर कर चुके हैं। राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार 2010 से लेकर 2015 में नशे की वजह से पंजाब में 413 लोगों की मौत हो चुकी है। आंकड़ों के अनुसार पंजाब के 50 प्रतिशत नौजवान आज नशे की गिरफ्त में हैं। युवाओं के अलावा पंजाब में बच्चे, बूढ़े और महिलाएं भी नशे के जाल में फंसे हुए हैं। बच्चे ड्रग्स नहीं मिलने पर मेडिकल स्टोर से कफ सिरप खरीदकर सेवन कर रहे हैं, जो आसानी से 20-30 रुपये में मिल जाता है।

पंजाब में नशे का काला कारोबार अरबों-खरबों रुपये का है। इसी वजह से पंजाब सरकार के लाख दावों के बावजूद नशे का कारोबार और इसके शिकार दोनों ही बढ़ते जा रहे हैं। पिछले 10 सालों में नशे की वजह से देशभर में 25426 लोगों ने खुदकुशी की है। यानी हर रोज नशे के चलते करीब 7 लोग आत्महत्या कर रहे हैं। उल्लेखनीय है कि नशे के चलते खुदकुशी करने वालों में बीते 10 सालों में 149 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। अखबारों की खबरों के मुताबिक बीते दिनों पंजाब में नशे से 33 दिनों में 46 लोगों की मौत हो चुकी है। इसके बाद अमरिंदर सरकार हरकत में आई। अखबारों के अनुसार ड्रग्स नहीं मिलने और मिलने के कारण मौतें हो रही हैं। नहीं मिलने पर नशेड़ी अल्कोहल युक्त दवाओं के मिशण्रका सेवन करते हैं, जिसके ओवरडोज से अक्सर लोग मौत के शिकार बन जाते हैं। सरकारी कर्मचारियों के भी नशे के गिरफ्त में होने की आशंका जताई जा रही है। इसलिए, अमरिंदर सरकार अपने पांच लाख कर्मचारियों का डोप टेस्ट कराकर यह सुनिश्चित करना चाहती है कि कितने सरकारी कर्मचारी नशे के आदी हैं। इसमें पुलिस और प्रशासनिक सेवाओं के कर्मचारी भी शामिल हैं। सरकारी कर्मचारियों का डोप टेस्ट नियुक्ति, वार्षिक मूल्यांकन और प्रोन्नित के समय कराए जाने की योजना है।

दुनिया भर में डोप टेस्ट के 36 सेंटर हैं। लिहाजा, बड़ी संख्या में कर्मचारियों का डोप टेस्ट कराना सरकार के लिए आसान नहीं होगा। वर्ष 2016 में अकाली-भाजपा सरकार ने भी भर्ती के समय 7200 सिपाहियों का डोप टेस्ट कराया था। आज एशिया में अफीम का अवैध कारोबार दो क्षेत्रों में सबसे ज्यादा होता है। पहला, गोल्डन ट्राइएंगल, जिसके तहत म्यांमार, लाओस और दक्षिण चीन के हिस्से आते हैं और दूसरा गोल्डन क्रिसेंट-जिसके अंतर्गत अफगानिस्तान, पाकिस्तान, ईरान और मध्य एशिया के देश आते हैं। पंजाब की इन देशों से भौगोलिक नजदीकी ड्रग्स की समस्या की एक बड़ी वजह है। ऐसा भी नहीं है कि पुलिस और खुफिया एजेंसियां ड्रग तस्करी को देख आंखें मूंदे हुए हैं, लेकिन उनके प्रयास नाकाफी हैं। हर साल हजारों करोड़ रुपये के ड्रग्स बरामद किए जा रहे हैं। वर्ष 2011 से 2014 के दौरान पंजाब में 380 लाख किलो ड्रग्स जब्त किए गए थे। नशे पर लगाम लगाने के लिए पंजाब में नारकोटिक्स ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस एक्ट 1985 बनाया गया है, जो एनडीपीएस एक्ट के नाम से भी जाना जाता है।

पंजाब में जितने भी कैदी हैं, उनमें से 41 प्रतिशत से अधिक एनडीपीएस एक्ट के तहत कैद हैं। अमरिंदर सरकार ने नशे की लत पर लगाम लगाने के लिये डॉक्टर की पर्ची के बिना सीरिंज बेचने पर रोक लगाई है। माना जाता है कि लोग सीरिंज की मदद से ड्रग्स लेते हैं। सरकार ने ड्रग्स की तस्करी करने वालों को मौत की सजा का भी प्रावधान किया है। इसके लिए पंजाब सरकार की ओर से केंद्र सरकार को औपचारिक प्रस्ताव भेज दिया गया है, लेकिन इस संदर्भ में यह देखना होगा कि यह प्रावधान कितना कारगर है। इस प्रावधान से नशे का नेटवर्क टूट सकता है या नहीं पर गंभीरता से विचार करना होगा। इसके दुरु पयोग से भी इनकार नहीं किया जा सकता है।

साथ ही, इस प्रावधान के हालात बिहार में शराबबंदी के प्रावधान जैसे होने की आशंका से भी इनकार नहीं किया जा सकता है। पंजाब में लोगों के नशे में डूबे रहने के कारण ही ‘‘उड़ता पंजाब’ नाम से फिल्म बनाई जा चुकी है, जिसमें नशे के कारोबार में पुलिस-प्रशासन और राजनीति के गठजोड़ की ओर इशारा किया गया है। कहा जा सकता है पंजाब में नशे के बढ़ती लत को रोकने के लिए सरकार को व्यावहारिक कदम उठाने होंगे। हालांकि, सरकार ने इस पर नकेल कसने के लिए हरसंभव प्रयास किएहैं, लेकिन इसे पर्याप्त नहीं माना जा सकता है। हां, जागरूकता कार्यक्रम के जरिये इस पर काबू पाया जा सकता है। सरकार को भ्रष्टाचार पर भी सख्ती दिखानी होगी। भ्रष्टाचार कई सारी समस्याओं की जड़ है।


Date:09-07-18

Mobs and Margins

The lynchings around rumours of child lifting call for a response from the state, political class and society as a whole

Editorial

The lynch mob, fuelled by rumour, fear, ignorance, hate and anger, is certainly a law and order challenge. It is also a symptom and a sign of the lop-sided access to information, of the gap between the fast and vast nature of the internet, where a falsehood about “child lifting” can trigger a mob far quicker than the police response to it. It also points to a social change, a disruption, at the margins of India’s national imagination that requires more than the usual response from the state, administration and political class as a whole.

This newspaper, investigating the circumstances of each incident across nine states, has found a pattern. Like the July 1 murder of five people in Dhule, Maharashtra, the victims are often from the margins — migrants or outsiders. A vast majority of the killings — 24 — have occurred in interior villages, and the perpetrators have had little or no education, sometimes been under the influence of alcohol and been whipped up by social media forwards, notably on WhatsApp. In the wake of the Dhule lynching, the Centre has asked WhatsApp to control and monitor mass circulated messages, the social media giant has said it is planning a host of features to that end. This is only a partial, and temporary, solution.

The contradictions of a pre-literate society, of communities at the social and economic periphery, being exposed to a world littered with fake news and incendiary rumour, is not going to be dealt with by a Silicon Valley company. Nor is it possible to put the genie back in the bottle and wish for a time when a newspaper read out loud at a chaupal was the only source of information for vast parts of the country. The state governments must, of course, ensure a better, swifter response from the police, and help buttress local intelligence networks so that the police arrives before a mob is formed, not after its work is done. Mass awareness campaigns and outreach is needed in communities which place a high degree of trust in the written word to treat what they receive on their mobile phones with a degree of healthy scepticism. And, in the long run, it is essential that the “interiors” of India find reason to trust in the state, society and its institutions. As the Supreme Court made it clear last week, whatever the motive — a child lifting rumour or hate sentiment — the response cannot be murder or violence.


Date:09-07-18

The tyranny of positive thinking

Self-help gurus and now governments advocate it as a solution to depression. It is no magic wand for mental health.

Simantini Ghosh ,[ The writer is assistant professor of psychology, Ashoka University]

If you have ever experienced anything remotely close to depression, chances are that you have been assailed by well meaning friends, family members and the world at large to enhance positive thinking. Everyone from Deepak Chopra, and Oprah Winfrey to the friendly next-door neighbour have been telling the world repeatedly that we hold the key to solving all our mental health problems in our own hands. Apparently, by perpetuating positivity, we can wave our magic wands and make depression go away. A slew of motivational and self-help resources, relying more often than not on questionable research, anecdotal evidence and gross extrapolation from and over generalisation of scientific findings offer techniques and strategies to combat depression. Most recently, the Ministry of Health and Family Welfare, Government of India has joined the bandwagon, tweeting a poster advocating “Think Positive”, a strategy along with some others that to help combat depression. However, there are multiple problems with this approach.

The first and most obvious flaw lies in the assumption that one can combat depression alone. It is a surprisingly glaring error that amidst the multiple strategies advocated in the poster, seeking help from a trained mental health practitioner is conspicuously absent. India harbours seemingly insurmountable taboos against the mentally ill already when by all accounts mental health problems are on a steep rise. The poster sends out a dangerous message: Depression can be coped with without resorting to medication or therapeutic interventions. An analogy would be asking a diabetic individual to exercise and control diet for disease management with no allusions to medical care. The simple idea that the mind is just as organic as a heart or a liver or a lung, something that needs care, gets diseased if neglected or exposed to specific hazards, and therefore, requires treatment is something that Indians are overwhelmingly refractory to. While no one can rationally deny the lifestyle changes recommended are well intentioned, and have overall health benefits, they can augment, not replace targeted treatment to clinical depression.

Further, depression is a generic word that is often used to cluster various conditions sharing some symptoms such as negative affect, lowered mood, a sense of hopelessness and emptiness, but with considerable different etiologies. While some individuals lapse into depression following a sudden traumatic life event, some others may suffer from it following years of unpredictable stress, or after being diagnosed with a terminal disease. Each person’s depression is unique and therapies, both medical and psychological, need to be tailored for depressive symptoms to go in remission and preventing relapse. Factored into this already complicated scenario is each individuals’ resilience, which in turn is a complex interaction between biology and the environment. There can be no one universal therapy or coping strategy that works for everyone, and most importantly, therapies have to be administered by trained and experienced clinicians.

Since positive psychology is such a buzzword in the popular science lingo of today, let us take a closer and critical look at the primary literature in the field. In one of the earliest articles on this subject, Seligman and Csikszentmihalyi (2000) posited that while mental health professionals were overwhelmingly focused on healing and treating the damaged mind, the potential of positive attributes such as hope, wisdom, creativity, perseverance were being systematically ignored. At the onset of 21st century, the field of positive psychology gradually took off and within a very short time acquired considerable critical mass of research to be introduced in to clinical practice. In 2008, Seligman proposed positive mental health as something more quantitatively measurable than simple absence of mental illness and predictive of outcomes such as achievements, depression severity and physical health. The term positive psychology has since been broken down into subjective constructs pertaining to the past (well-being, contentment, satisfaction), present (flow and happiness) and the future (Hope and optimism). Each one of these constructs have since been operationalized into different variables, using psychometric questionnaires and instruments. The validity and reliability of these instruments are very often debated among psychologists. The research literature on positive psychology on depression, stress, anxiety resulting from multiple etiologies is therefore widely fractionated in terms of methodologies employed (clinician administered vs self-report), Constructs and questionnaires used (well-being vs optimism) and subject population (age, gender, physical health status). It is humanly impossible to synthesize generalized conclusions from this colossal amount of data, which is sometimes self-contradictory. It is not very surprising therefore, that positivity cannot uniformly predict better mental health outcomes across conditions and age groups. Just within the field of stress research, constructs such as optimism has been shown to have protective against stress when the stressor is brief. However, when the stressor is unpredictable and prolonged, higher optimism is linked to greater stress related damage. Examples such as these show that positivity can be a dual edged sword, and its benefits are extremely context dependent.

Keywords related to positive psychology, positivity and positive thinking bring up an embarrassing riches of studies from research databases, yet a single comprehensive, case controlled, blinded randomized control trial specifically demonstrating clinically significant benefits in depression in a statistically respectable sample has not yet been conducted. Most of the benefits that have been reported are in samples drawn from people suffering from grave illnesses, most notably, terminal cancer and cardiovascular disease. And to reiterate, the depression that is secondary to a physical illness is biologically, and psychosocially very different from unipolar depression, dysthymic disorder or major depressive disorder, which constitute the bulk of patients given a diagnosis of depression.

In the populist narrative of positivity, there is almost no room for accommodating negative thoughts such as anger, frustration or grief- which is very harmful. These negative emotions have evolved through millennia with important adaptive functions. Casually brushing them under the carpet to foster a sense of positivity is likely to create complications and mental health concerns much harder to treat in the long run. With positive psychology blossoming into a fierce industry, sociologist and writer Barbara Ehrenreich warns of “a corporate culture which, by the middle of this decade, were completely in a bubble of mandatory optimism and positive thinking”. According to Ehrenreich, unbridled, shortsighted and reckless push towards optimism and buying into the perception of a future where nothing could ever go wrong partly catalyzed the US financial meltdown of 2008. The Harvard psychologist Susan David has also spoken at length about the dangers of positive thinking without emotional agility, or reckoning with the negative feelings first, in face of a challenge.

The literature in support of positive psychology can be more or less synthesized to an application which can augment and bolster traditional therapies in patients suffering from depression secondary to serious illnesses. However, to promote it as an easy fix to cope with depression is irresponsible and dangerous.

A characteristic presentation of depression is anhedonia, the inability to feel pleasure. This has been well validated in animal models of depression, as well as human patients who report their inability to feel any pleasure from one or more activities they had enjoyed before. Simply asking a depressed individual to “think positive” without giving the person a cognitive restructuring framework and providing requisite skill sets is completely ineffective. It can actually worsen a depressed persons’ sense of social isolation and over time, the additive pressure of positive thinking thrusted upon by peers, friends and family is extremely damaging. Invalidating someone’s struggle by summarily dismissing negative emotions only will lead to the individual further withdrawing from social contact and increase their distrust on mechanisms originally designed them to protect them. Popular discourse in depression and mental health needs to acknowledge this clearly – that the anhedonia in depression has robust biological basis. Each of the seven or eight biochemical theories on depression, each dealing with one neurotransmitter (molecules used by neurons for chemical transmission of signals) as well as structural and functional neuroimaging studies have shown this pretty conclusively over the years. While definitive concrete therapeutic strategies and medical intervention have reported better outcomes in behavior as well as biological correlates of depression, a generalized benefit of positive thinking alone has never been demonstrated. Simply put, a primarily blind person cannot process certain visual cues and details no matter how much the resolution of an image is increased. It is just as laughable to hold him responsible for not trying hard enough to see, as to expect a depressed individual to benefit from positivity when the hardware in the brain needed for processing positivity is compromised on multiple fronts.

Also, there is a widespread idea that positivity somehow improves immune function across gender, age and clinical condition. However, the research evidence backing such claims is at best, nebulous. While it is very clear that depression lowers white blood cell counts in a subset of patients, exposing them to opportunistic infections, rescuing the immune deficiencies and behavioral outcomes with positive thinking has never been clearly shown in a depressed sample, with clear biological and psychological correlates.

In summary, this is not an effort to advocate negativity but caution against the trap of buying into the myth of the unicorn of mental health – positive thinking. Especially, a government should steer clear of such sweeping generalizations in a country where the National Mental Health Survey suggests that out of 150 million people who are mentally ill, only 30 million are seeking care. The effort of the ministry is probably needed in areas of developing infrastructure for quality accessible mental health care and spreading awareness about mental health, rather than promoting visual aids that can be widely interpreted as a do-it-yourself treatment plan for the mentally ill.