08-02-2018 (Important News Clippings)
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Keep it simple
Aadhaar becoming a monetising or monitoring tool violates its original promise
TOI Editorials
The Supreme Court bench hearing petitions challenging the constitutional validity of Aadhaar Act has observed that fears of misuse are not enough to quash a law. That is of course the case, but the growth of Aadhaar to touch every aspect of human life by covering more government schemes and drawing in private corporations has created risks that are being discovered along the way. What government, if not the court, can do is to minimise people’s exposure to Aadhaar through restricting Aadhaar to such specific purposes as delivering cash transfers and eliminating duplicate PAN cards.
Reports of denial of rations and starvation deaths due to Aadhaar authentication failures, denial of access to hospitals and other critical services because of non-enrollment or sharing Aadhaar violates right to life. Recall that at inception Aadhaar was merely a unique identification document unlike the voter ID, passport, ration card and PAN card which served specific purposes. But its biometric component and the lure of big data spurred a supposedly “minimum government” to move towards maximum government even as corporations mount similar raids on privacy.
Linking every bank account to Aadhaar is just one of the many intrusive, unconvincing and recursive Aadhaar authentication tasks that the government is imposing on citizens. The law mandates that income tax returns incorporate all bank account details. Linking PAN to Aadhaar effectively provides government a window to such bank accounts, which ought to be enough if government works efficiently. Similarly, linking SIM to Aadhaar is another pointless exercise in authentication when domestic SIM is just one among many telephony options. Forcing citizens to submit their Aadhaar opens a window for banks and telecom companies to monetise private consumption behaviour without seeking informed consent. Now, even mobile wallet companies have joined the Aadhaar pestering service.
Only months ago, a telecom company violated informed consent and surreptitiously opened payments bank accounts for subscribers. The Aadhaar Act design of UIDAI as regulator, service provider, data protector and sole victim-complainant in data breaches is untenable. A strong data protection law with tough penalties for breaches, and a corresponding independent regulator, are urgently needed. Aadhaar should be limited by law to be required for only a few specified government services and departments, such as cash transfers or linkage to PAN cards. If Aadhaar evolves to track every activity it would endanger citizens, privacy, democracy and national security.
Transmission
Power to all’s missing link
ET Editorials
The government must focus on the power transmission sector, particularly at the state level. Otherwise, renewable energy and rural access goals would be at risk. The focus must be on advance planning, increased investment and an implementation strategy based on cooperative federalism.Increased generation capacity, particularly of renewable energy, and the goal of electricity access for all require a robust infrastructure for transporting electricity. The current power evacuation or transmission infrastructure is adequate to meet present levels of demand. But an increase in demand will create bottlenecks. Transmission capacity takes 36-48 months to build, while a solar project becomes operative in 6-12 months.
The government aims to increase the share of solar and wind to 50% of energy basket by 2030. Without commensurate transmission capacity, renewable generation will not achieve financial closure, undermining this vital industry’s growth, energy security and national climate change commitments. Building transmission capacity calls for effective planning.The government must empower and enable the Power System Operation Corporation Ltd (Posoco) to effectively function as the controller of the electricity superhighway. This requires loosening the stranglehold of the Power Grid Corporation on transmission decisions, and attracting qualified personnel to run the load despatch network.
Planning and effective implementation require trained manpower, with higher outlays for compensation. States oppose construction of excess capacity as it imposes a level of financial burden. The Centre could build transmission capacity, intra-state as well. Regulator CERC’s General Network Access proposal would help.
मालदीव में कार्रवाई करने को लेकर कशमकश में भारत
संपादकीय
आपातकाल से गुजर रहे मालदीव की राजनीतिक स्थितियों ने भारत को पसोपेश में डाल दिया है। अगर मोदी सरकार वहां के विपक्षी दलों और पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नाशीद की अपील को देखते हुए सैनिक कार्रवाई करती है तो चीन और सऊदी अरब से टकराव की स्थिति उत्पन्न होती है। अगर नहीं करती है तो भारत के हितों को भारी क्षति पहुंचेगी। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ ने चेतावनी दे दी है कि यह मालदीव का आंतरिक मामला है और इसमें भारत हस्तक्षेप न करे। जबकि मौजूदा राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन ने सुप्रीम कोर्ट का फैसले मानने से इनकार करते हुए न सिर्फ अस्सी वर्षीय पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल गयूम को गिरफ्तार किया है बल्कि उन जजों को भी हिरासत में ले लिया है जिन्होंने नाशीद और दूसरे विपक्षी दलों पर चलाए गए मुदकमों को राजनीति प्रेरित कहा था। भारत मालदीव का करीबी देश रहा हैं। सन 1988 में जब श्रीलंका से गए आतंकियों ने तत्कालीन राष्ट्रपति गयूम का तख्ता पलटने की कोशिश की थी तब राजीव गांधी सरकार ने 1600 सैनिक भेज कर वहां राजनीतिक स्थिरता कायम की थी और पूरी दुनिया से वाहवाही लूटी थी। इसलिए मौजूदा मोदी सरकार के सामने सैन्य हस्तक्षेप की नज़ीर तो है लेकिन स्थितियां बदली हुई हैं। इस बार उसे आतंकियों पर नहीं, सीधे मालदीव की यामीन सरकार पर कार्रवाई करनी होगी। भले ही यह सरकार असंवैधानिक, तानाशाहीपूर्ण और धार्मिक कट्टरता से परिचालित है लेकिन उसके पीछे परोक्ष तौर पर चीन का आर्थिक और राजनयिक हित भी खड़ा हुआ है। मालदीव चीन, जापान और भारत में होने वाली ऊर्जा की आपूर्ति के गलियारे के सन्निकट होने के कारण रणनीतिक महत्त्व रखता है। चीन ने वहां काफी निवेश भी कर रखा है और उसकी कंपनियों को मालिकाना हक देने के लिए राष्ट्रपति यामीन देश के कानूनों में कई मौलिक बदलाव भी करने पर आमादा हैं। यामीन इस समय चीन के इशारे पर वही भूमिका निभा रहे हैं जो कभी श्रीलंका में राजपक्षे निभा रहे थे। जाहिर है कि भारत मालदीव के इस संकट में हाथ पर हाथ धर कर बैठ नहीं सकता और ऐसी सैन्य कार्रवाई भी नहीं कर सकता जिससे इलाके में गंभीर तनाव हो। मालदीव का संकट यामीन को सत्ता से हटाए बिना दूर होगा नहीं, इसलिए भारत को उस दिशा में दूसरे तरीके अपनाने ही होंगे।
मालदीव का संकट
संपादकीय
उस वक्त मालदीव का राजनीतिक संकट चरम पर पहुंच गया जब राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन ने पंद्रह दिनों के लिए आपातकाल की घोषणा कर दी। इसी के साथ उन्होंने पूर्व राष्ट्रपति मौमून अब्दुल गयूम को गिरफ्तार कर लिया। एक अन्य पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नाशीद पहले से ही जेल में हैं। इस तरह मालदीव की ताजा स्थिति यह है कि वहां विपक्ष के सारे राजनीतिक जेल में हैं, सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का पालन करने से मना कर दिया है, आपातकाल की घोषणा के साथ ही सारे नागरिक अधिकार निलंबित कर दिए गए हैं। अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने सर्वोच्च न्यायालय का फैसला न मानने और आपातकाल थोपे जाने पर तीखी प्रतिक्रिया जताई है, पर फिलहाल कहना मुश्किल है कि मालदीव में लोकतंत्र कब बहाल होगा। मालदीव एक ऐसा देश है जिसे बहुत थोड़े वक्त के लिए ही लोकतंत्र का स्वाद मिल पाया है। 1978 तक वहां लगातार मौमून अब्दुल गयूम की तानाशाही सरकार रही, जिन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में भी अपने पिछलग्गू लोगों को भर रखा था। उनके बाद मोहम्मद नाशीद देश के राष्ट्रपति बने और उनके नेतृत्व में पहली चुनी हुई सरकार गठित हुई। साथ ही, नया संविधान बना और न्यायपालिका की स्वतंत्रता के भी कुछ प्रावधान किए गए।
बहरहाल, मालदीव के सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले दिनों पूर्व राष्ट्रपति नाशीद और पूर्व उपराष्ट्रपति अहमद अदीब समेत कई राजनीतिक बंदियों की रिहाई का आदेश दिया था। न्यायालय ने इन पर लगाए गए आतंकवाद तथा अन्य आरोपों को बेबुनियाद और राजनीतिक विद्वेष से प्रेरित ठहराया। इसके अलावा अदालत ने पिछले दिनों विपक्ष के उन बारह सांसदों की सदस्यता बहाल करने का फैसला भी सुनाया जिनकी सदस्यता छीन ली गई थी। अदालत के दोनों फैसलों ने राष्ट्रपति यामीन की नींद उड़ा दी। उन्हें यह भय सता रहा था कि अगर सदस्यता बहाल करने का फैसला लागू होने की सूरत में, यानी बारह की संख्या और जुड़ गई तो संसद में विपक्ष का बहुमत हो जाएगा, और वह उन पर महाभियोग चलाने की स्थिति में आ जाएगा। राजनीतिक बंदियों की रिहाई भी उन्हें मंजूर नहीं थी। इसलिए वे सर्वोच्च न्यायालय से भी टकरा गए। यामीन का कहना है कि न्यायालय ने अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण किया है। पर चाहे बारह सांसदों की सदस्यता बहाल करने का फैसला हो या राजनीतिक बंदियों की रिहाई का, अदालत ने तो बस मनगढ़ंत आरोपों को खारिज किया है। इसे कार्यपालिका के कामकाज में दखलंदाजी नहीं कहा जा सकता। इसलिए अमेरिका, ब्रिटेन, श्रीलंका और यूरोपीय संघ ने उचित ही यह सलाह दी कि राष्ट्रपति यामीन सर्वोच्च अदालत के फैसलों का सम्मान करें। भारत ने भी यही कहा।
लेकिन यामीन को इन देशों की सलाह रास नहीं आई, क्योंकि इस सलाह पर अमल करने में उन्हें सत्ता से अपनी विदाई दिखी होगी। इस तरह, वे तीन-तिकड़म से अपनी जो तानाशाही चला रहे थे उसे उन्होंने अब बिलकुल औपचारिक रूप दे दिया है। कहने को आपातकाल महज पंद्रह दिनों के लिए लगाया गया है, पर इस बात की संभावना बहुत कम है कि पंद्रह दिनों बाद यह हटा लिया जाएगा। आशंका यही है कि बंदिशें और कड़ी की जाएंगी। मालदीव जैसे एक बहुत छोटे-से देश के राष्ट्रपति के लिए अंतरराष्ट्रीय दबाव से निपट पाना बहुत मुश्किल होगा। इसलिए अंदेशा यह भी है कि चीन इस मौके का फायदा उठा कर मालदीव में अपनी पैठ बढ़ा सकता है।
Date:07-02-18
खाप के खिलाफ
संपादकीय
सर्वोच्च अदालत ने एक बार फिर खाप पंचायतों की मनमानी पर सख्ती दिखाई है। दो बालिगों की शादी को लेकर एक खाप के ‘फैसले’ के खिलाफ दायर जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च अदालत ने खाप पंचायतों को साफ शब्दों में चेतावनी दी है कि वे समाज की ठेकेदार न बनें। प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाले पीठ ने स्पष्टकिया कि दो वयस्कों की शादी में कोई भी तीसरा पक्ष किसी तरह की बाधा नहीं बन सकता, न माता-पिता, न समाज और न ही कोई पंचायत। अगर इस तरह की शादी में कहीं कुछ गलत नजर आता है तो इसका फैसला करना कानून और अदालत का काम है, न कि किसी अन्य का। अदालत ने खापों के फरमानों से पीड़ित शादी-शुदा जोड़ों को सुरक्षा दिलाने के लिए पुलिस को निर्देश भी दिए हैं। खाप पंचायतों के कई फैसले न सिर्फ बेतुके बल्कि बर्बर भी होते हैं। पिछले साल जब देश में डिजिटल अभियान जोरों पर था, तभी राजस्थान के बाड़मेर जिले में एक खाप ने महिलाओं के मोबाइल इस्तेमाल करने पर पाबंदी का फरमान जारी कर डाला। इस खाप ने लड़कियों के जींस पहनने पर भी रोक लगा दी। इस तरह के कई और उदाहरण दिए जा सकते हैं।
जातिगत पंचायतों के कुछ भले काम भी गिनाए जा सकते हैं। जैसे, दहेज और कन्याभ्रूण हत्या के खिलाफ कुछ खापों ने मुखर पहल की है। इसी तरह कई जाति-पंचायतों ने शादी-विवाह में फिजूलखर्ची के खिलाफ रुख अख्तियार किया है। पर समस्या तब खड़ी होती है जब कोई पंचायत यह भूल जाती है कि कानून क्या कहता है और संविधान ने हरेक नागरिक को ऐसे मौलिक अधिकार दे रखे हैं जिन्हें कोई पंचायत तो क्या सरकार भी नहीं छीन सकती। एक जाति या गोत्र में शादी, प्रेम संबंध, अवैध संबंध, जमीनी विवाद जैसे मसलों पर कई बार खापों के फैसले सुन कर हैरत होती है कि हम किस जमाने में या किस दुनिया में रह रहे हैं। मसलन, मुंह काला करना, गांव में निर्वस्त्र घुमाना, पीट-पीट कर मार डालना, ऐसा आर्थिक दंड लगाना जिसे भर पाना ही संभव न हो, सामाजिक बहिष्कार, जाति बाहर कर देना, गांव छोड़ने का हुक्म दे देना, आदि। बागपत जिले की ऐसी ही एक घटना से भारत को दुनियाभर में शर्मसार होना पड़ा था, जिसमें पंचायत ने एक दलित परिवार के लड़के की सजा के रूप में उसकी दो बहनों को निर्वस्त्र कर घुमाने, उनका बलात्कार करने और फिर मुंह पर कालिख पोतने का फरमान सुना दिया था। इस लड़के पर एक महिला को ‘भगाने’ का आरोप था। इस मामले को एमनेस्टी इंटरनेशनल ने भी उठाया था। ब्रिटेन की संसद तक में यह मामला गूंजा था। ऐसे और भी उदाहरण मिल जाएंगे।
खापों के फरमानों पर बार-बार विवाद और सवाल उठने के बावजूद इनका कुछ नहीं बिगड़ा है। पारंपरिक तथा जातिगत कारणों के अलावा ये हमेशा इसलिए भी ताकतवर रही हैं कि इन्हें राजनीतिकों का पूरा संरक्षण रहता है। कोई भी नेता अपनी जाति की खाप के खिलाफ मुंह खोलने की हिम्मत नहीं दिखा पाता है, क्योंकि उसे वोट खिसकने का डर सताता है। इसीलिए ये प्रत्यक्ष रूप से या परदे के पीछे रह कर खाप के फैसलों को पूरा समर्थन दे रहे होते हैं, या कम से कम चुप्पी साध लेते हैं। राजनीतिक का काम केवल किसी तरह जीतना नहीं होता, बल्कि जन-मानस को बदलना भी होता है। अगर हमारे राजनीतिक यह धर्म निभा रहे होते, तो खाप पंचायतें कानून के खिलाफ जाने की जुर्रत न करतीं।
The unjoined Dots
In absence of good primary healthcare facilities, publicly-funded insurance scheme will only drain government resources
Editorial
It is unusual for a healthcare scheme to become one of the most talked about provisions of a Union budget. In the past, finance ministers have, at best, made cursory references to universal health coverage in their budget speeches. But while presenting the Union Budget for 2018-2109, Arun Jaitley broke this tradition when he introduced “the world’s largest government healthcare related programme”. He was talking about a new publicly-funded healthcare insurance scheme, the National Health Protection Scheme (NHPS). “Ten crore familes will get Rs 5 lakh per year to cover secondary and tertiary hospital expenses,” the finance minister said. Given that this amount is more than 16 times the Rs 30,000 provided to BPL families by the Rashtriya Swasthya Bima Yojana (RSBY), usually for secondary care, the insurance scheme announced in the budget does signal a significant departure in healthcare policy. But the NHPS’s success in providing universal health coverage will hinge on the adequacy of primary medical services — the Achilles heel of the country’s healthcare system.
In a country where a health crisis is often a precursor to financial catastrophe for the poor, the salience of a healthcare financing scheme cannot be overstated. But according to a study last year, in the international journal, Social Science Medicine, the RSBY did not lead to any significant reduction in out-of-pocket health expenses by its beneficiaries. The one strand running through the several reasons for this failure is that the country’s healthcare infrastructure is not up to the mark. According to the Union Ministry of Health and Family Welfare’s Rural Health Statistics (RHS) 2016 Report, the country has a 22 per cent shortfall in primary health centres (PHCs). More than 80 per cent of the posts of specialists in community health centres in rural India are vacant, according to the report. More than 40 per cent of the PHCs do not have ambulances to transport the critically ill to community and tertiary-care facilities. Primary and community health centres are crucial to needs of patients who do not require hospitalisation — tuberculosis patients, for example. The RSBY did not address their requirements. The NHPS, too, remains disconnected from primary healthcare.
A weak primary healthcare system could burden tertiary care. In other words, the NHPS could drain government resources, which could, in turn aggravate the neglect of primary healthcare facilities. The government intends to pay for the hospitalisation of the new scheme’s beneficiaries through “strategic purchasing” arrangements with private healthcare providers. But there are currently no protocols for diagnostic tests for the beneficiaries of publicly-funded insurance schemes — a well-known criticism of the RSBY was that private hospitals often took advantage of the insurance coverage of patients by prescribing unnecessary tests. The success of the NHPS will require the government to join several dots. On current evidence, it seems that it hasn’t thought the challenge through.