पशुवध पर प्रतिबंध लगाना कितना उचित है?
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गौवध पर प्रतिबंध को लेकर काफी समय से चर्चा की जा रही है। कुछ राज्यों ने तो गौवध एवं गोमांस पर प्रतिबंध लगा भी दिया है। सामाजिक एवं धार्मिक मान्यताओं के आधार पर तो यह ठीक हो सकता है, परंतु पशुपालक कृषकों के लिए तो उनकी जीविका पर ही आन पड़ी है। उनके बारे में क्या किया जाए?
- वास्तव में गाय, बैल या भैंस की बिक्री कृषक ही करते हैं। इनका व्यवसाय करने वाले चोरी-छिपे या जबर्दस्ती इन्हें कृषकों से छीनकर नहीं लाते हैं। भारत में छोटे कृषक या भूमिहीन कामगार ऐसे हैं, जो पशुपालक भी हैं और वे ही अपनी जीविका के लिए इनका व्यापार करते हैं। देश के लगभग 70 प्रतिशत पशुपालक एवं उन्हें बेचने वाले कृषक गाँवों में रहते हैं।
- सूखा, अकाल तथा दुग्ध बाजार का गिर जाना आदि ऐसे कारण हैं, जब ये ग्रामीण पशुपालक अपने पशुओं के लिए चारे और पानी का प्रबंध करने में असमर्थ हो जाते हैं। तब ये पशुओं को बेचने के लिए मजबूर हो जाते हैं। जब इन पशुओं को कोई अन्य कृषक नहीं खरीद पाता है, और ये भूखे-प्यासे मरने की स्थिति में आ जाते हैं। तब किसान इन्हें कसाइयों के हाथों बच देता है। यह कृषक की जीविका का सच है।
- गौरक्षा एक बात है, परंतु उसके नाम पर सभी कृषकों पर गौधन की बिक्री की पाबंदी लगाना तो भारत के गिरते हुए पशुधन एवं पशु व्यापार की स्थिति को और गिराना कहा जा सकता है। महाराष्ट्र के किसानों के अनुसार गोमांस पर प्रतिबंध लगने से उनके बैलों और सांडों का पुनर्विक्रय मूल्य 40 से 60 प्रतिशत तक गिर चुका है। कृषक अपने पशुओं को त्यागने के साथ उस धन से भी वंचित हो रहे हैं, जो वे अपने पशुओं को बेचकर अपने आड़े वक्त के लिए रखा करते थे। महाराष्ट्र में सूखाग्रस्त क्षेत्रों के किसान अपने पशुओं के लिए पानी खरीदने में असमर्थ थे, और अपने अनुत्पादक मरणासन्न पशुओं को देखते रहने के अलावा कुछ न कर सके।
- गोमांस तो हमारे अनेक समुदायों के खानपान का हिस्सा रहा है। वास्तव में यह प्रोटीन का सस्ता साधन है। गाय की खाल हमारे चमड़ा उद्योग की आवश्यकताओं को बहुत कुछ पूरा करती है। इससे होने वाला व्यापार लगभग 11 अरब डॉलर का है। हमारे 95 प्रतिशत जूता उद्योग इसी पर निर्भर करते हैं। पशु के बहुत से आंतरिक Pभाग दवा बनाने के काम आते हैं। इस प्रकार एक अनुत्पादक पशु अगर अपने उच्च बाजार मूल्य के कारण कृषक की आय का साधन बन सकता है, तो इसमें हानि क्या?
- जिन राज्यों ने पशुवध पर प्रतिबंध लगाया है, वे गोबर एवं गौमूत्र के माध्यम से किसानों को अपनी आय बढ़ाने की सलाह देते हैं। अगर व्यावहारिक धरातल पर देखें, तो किसान एक पशु के पालन पर 60,000 रु. लगाता है। जबकि गौमूत्र एवं गोबर से आय मात्र 20,000 रु. की होती है। अगर समस्त पशुओं में से 1@3 को अनुत्पादक मान लें, तो हम 6,363 करोड़ रु. सालाना या 53,000 रु. प्रति व्यक्ति इन पशुओं के संरक्षण पर खर्च कर रहे हैं।
- पशु-चिकित्सकों एवं पशु-वैज्ञानिकों के अनुसार पशुवध कभी भी पशुओं की संख्या को कम नहीं करता, वरन् उनके प्र्रजनन को बढ़ाता है। भारतीय भैंसों के संबंध में हम यह देख चुके हैं।
- जिस संस्कृति के नाम पर हम गोवध पर प्रतिबंध लगा रहे हैं, उसी संस्कृति में दलित, मुस्लिम और आदिवासियों को ही पशुओं के शव को उठाने के लिए बुलाया जाता है। तथाकथित उच्च वर्ण का कोई भी व्यक्ति पशु को नहीं उठाता है। यह परंपरा सदियों से चली आ रही है। इस प्रकार यह एक तरह से दलित एवं शोषित वर्ग की आजीविका का भी साधन रहा है। उद्योगों में भी पशु शवों से खाल खींचने का काम इन तीन वर्गों से कराया जाता है और उन्हें बहुत कम पैसे दिए जाते हैं। आजीविका के न्यूनतम स्त्रोत को भी उनसे छीनकर हम क्या हासिल कर पाएंगे?
पशुवध पर प्रबतिबंध लगाने के बजाय अगर हम उसके सही तरीके से वध की प्रक्रिया को बढ़ावा दें, सुचारु एवं तनावरहित परिवहन की व्यवस्था करें, तो उन पशुओं एवं पशुपालकों के लिए बेहतर होगा।
‘इंडियन एक्सप्रेस’ में सागरी आर. रामदास के लेख पर आधारित
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