भारत में खेलों का भविष्य
किसी राष्ट्र की प्रतिष्ठा खेलों में उसकी उत्कृष्टता से बहुत कुछ जुड़ी होती है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेलों में अच्छा प्रदर्शन केवल पदक जीतने तक सीमित नहीं होता, बल्कि यह किसी राष्ट्र के स्वास्थ्य, मानसिक अवस्था एवं लक्ष्य के प्रति सजगता को भी सूचित करता है।
हाल ही में हुए रियो ओलंपिक में भारत ने खिलाड़ियों के अब तक के सबसे बड़े दल 115 लोगों को भेजा था। परंतु भारत की सफलता अनाकर्षक ही रही। ओलंपिक में भारत द्वारा अब तक जीते कुल मेडल तो अमेरिका के माइकल फैलप्स ने अकेले ही जीत लिए हैं। ऐसे निराशाजनक प्रदर्शन का आखिर क्या कारण हो सकता है?
प्रत्येक ओलंपिक के बाद देश में एक सवाल उठता है कि क्या एक अरब से अधिक आबादी वाले देश से अधिक पदकों की उम्मीद नहीं रखी जानी चाहिए? बार-बार पूछे जाने वाले इस प्रश्न ने भी अब अपनी महत्ता लगभग खो दी है।
जहाँ तक खेलों में सुधार की बात है, तो इसकी शुरुआत बहुत ही निचले स्तर से किए जाने की आवश्यकता है।
- एक अरब तीस करोड़ की आबादी वाले देश में 15 प्रतिशत से भी कम लोगों को खेलने की सुविधा है, या कह लें कि इतने में ही जागरूकता ही या रुचि है। खेलों के आधारभूत ढांचे में परिवर्तन होना चाहिए। इसे स्वास्थ्य एवं शिक्षा से जोड़कर देखा जाए, तो शायद बात बन जाए। छोटे स्तर पर जब गंभीर प्रयास किए जाएंगे, तो हम भी उत्कृष्ट खिलाड़ी तैयार करने में कामयाब हो सकते हैं।
- भारत में युवा जनसंख्या अपेक्षाकृत अधिक है। इसमें शक्ति एवं ऊर्जा की कोई कमी नहीं होती। बिना भेदभाव एवं राजनीति के अगर युवाओं को खेल के अवसर मिलें तो बहुत से युवाओं की ऊर्जा को एक तो सही राह मिलेगी, दूसरे स्पष्ट रूप से देश को चहुंमुंखी लाभ होगा।
- दो दशकों से भारत तेजी से आर्थिक प्रगति कर रहा है। देश की गरीबी का रोना लेकर खिलाड़ियों को अंतरराष्ट्रीय स्तर की खेल सुविधाएं, खेल संबंधी दवाइयां एवं कोच न दिए जाने का कोई औचित्य समझ में नहीं आता।
- धन एवं सुविधाएं अपना काम तो करती हैं, परंतु वे सफलता का पैमाना नहीं बन सकतीं। अगर ऐसा होता तो अरब देशों को पदक तालिका में काफी ऊँचा स्थान मिलना था। खेलों में उत्कृष्टता के लिए राजनैतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक प्रतिबद्धता अनिवार्य है। इसके लिए दूरगामी सोच, सक्रिय योजनायें एवं उनके क्रियान्वयन की आवश्यकता होती है। इन सरकारी प्रयासों के साथ खेलों के प्रति लोगों के दृष्टिकोण को बदलने एवं जागरूकता लाने की भी आवश्यकता है।
- सरकार को चाहिए कि शिक्षा, स्वास्थ्य एवं सुविधाओं में धनराशि बढ़ाकर खेल की क्षमता का विकास करे। अगर चीन का उदाहरण लें तो हम देखते हैं कि 1952 के ओलंपिक में उसने एक भी पदक नहीं जीता था। 32 वर्षों तक ओलंपिक से दूर रहने के बाद 1984 में उसने 15 स्वर्ण पदक जीते। इसी प्रकार रियो में गे्रट ब्रिटेन का प्रदर्शन आश्चर्य का विषय बना हुआ है। सन् 1996 में उसने 15 पदकों में मात्र एक ही स्वर्ण जीता था। इन देशों की सरकारों ने खेल को प्राथमिकता में शामिल कर अपनी नीतियों का निर्माण इस प्रकार लक्ष्य बनाकर किया कि वे लगातार पदक तालिका में आगे बढ़ते चले गए।
- अंतिम परंतु सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है- खेल को राजनीति से दूर रखना। खेलों में आज तक के भारतीय प्रदर्शन को देखते हुए ऐसा लगता नहीं कि इस खास विधा के लिए बनाया गया खास खेल मंत्रालय कुछ सार्थक कर पाया है। फिर उसने अस्तित्व का औचित्य क्या है? उसे खत्म कर दिया जाना चाहिए। अमेरिका में कोई खेल मंत्रालय नहीं है। तो क्या वहाँ के खिलाड़ियों को पिछड़ा हुआ माना जा सकता है?
खेल मंत्रालय की सामाप्ति के साथ ही राष्ट्रीय खेल परिषद (Nataional Sports Council – NSC) का गठन किया जाए। सरकार इसे वित्तीय सहायता दे, परंतु इसे काम करने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया जाए। खेलों में राष्ट्रीय लक्ष्य को पाने के लिए इस परिषद् में स्वास्थ्य फिटनेस एवं दक्षता से जुड़े अनेक विशेषज्ञ हांे, जो भारतीय ओलंपिक संघ के साथ कदम से कदम मिलाकर चलें। खेल परिषद् के कार्यों एवं खेल संघ के निरीक्षण के लिए इनका नियमित आॅडिट आवश्यक होगा। प्रत्येक खेल के लिए लक्ष्य निर्धारित कर उसके अनुरूप धनराशि दी जाएं विफलता की स्थिति में उस खेल की धनराशि को कम कर दिया जाए।
भारत को खेलों में उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए चाहे सालों लग जाएं, लेकिन डोर अगर सही हाथों में रही, तो पतंग को ऊँची उड़ान भरने से कोई नहीं रोक सकता।
‘द टाइम्स आॅफ इंडिया’ में अयाज़ मेमन के लेख पर आधारित