15-06-2016 (Important News Clippings)

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15 Jun 2016
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Date: 15-06-16

Wooing the dragon: India needs to pull out all the stops to get China to drop objection to NSG membership

Ahead of the Nuclear Suppliers Group (NSG) meeting in Seoul later this month, New Delhi is hoping to convince Beijing to drop its opposition to India’s membership of the nuclear club. China has repeatedly asserted that NSG membership for non-NPT countries such as India should be preceded by ‘full discussions’. Plus, it has played the Pakistan card to stymie India’s membership by hinting it can’t be seen in isolation as Pakistan too had applied to join NSG – knowing very well this is impossible given Pakistan’s record as the world’s worst proliferator.

A large developing country like India – with an impeccable non-proliferation track record – needs access to nuclear energy and technology to fulfil its development goals and meet its climate change mitigation targets. In fact, the Marrakech climate summit later this year will seek to implement the historic Paris Climate Accord. What message does it send for global climate change mitigation efforts if India is denied full participation in trading in a vital source of clean energy?

China appears to give Pakistan a veto over every aspect of its India policy. A key foreign policy for New Delhi must be to get Beijing to change its mindset by highlighting the mutual benefits that can accrue from enhanced India-China cooperation. Given the size of the Indian market and available economic opportunities, the Chinese should know that betting on India is far more profitable than backing an unstable Pakistan. In this regard, over the past month New Delhi has ensured that most visa categories for Chinese nationals have been removed from the Prior Referral Category list. Meanwhile, fast-track clearances for two Chinese industrial parks have been put in place.

A real big-ticket move in this regard could be India’s participation in the Chinese One Belt, One Road (OBOR) project of transnational connectivity. So far New Delhi has been resistant to the idea. But Chinese investments would dramatically build up Indian infrastructure. Plus, having a branch of the OBOR run through central India will diminish the importance of the China-Pakistan Economic Corridor. The Indian corridor would help strategically delink China from Pakistan. It’s a big enough incentive to change Beijing’s mindset. But in order to play this card, the Indian leadership must also set aside the baggage of the 1962 war and work out a new, mutually beneficial compact with China.


RastriyaSaharalogo

Date: 14-06-16

अमेरिका में आतंक

अमेरिका फिर एक बार लहूलुहान हुआ है। फ्लोरिडा के ओरलैंडो स्थित समलैंगिकों के नाइट क्लब पर हुए हमले में 50 लोगों की मौत एवं 53 से ज्यादा का घायल होना 11 सितम्बर 2001 के बाद का सबसे बड़ा आतंकवादी हमला माना जा रहा है। हमलावर उमर मतीन ने स्वयं पुलिस को आपातकालीन नंबर पर फोन करने बताया कि वह आईएस का समर्थक है। अगर उसने ऐसा नहीं बताया होता तो शायद इसे आतंकवादी हमला मानने में कुछ समय लगता। स्थानीय पुलिस ने आरंभ में यही माना कि फिर किसी सिरफिरे ने ही बंदूक दनदना दिया है क्योंकि ऐसी घटनाएं वहां घटती रहती हैं। इसलिए आरंभ में केवल नौ पुलिस वालों को ही भेजा गया। बाद में जब पता चल गया कि आतंकवादी हमला हुआ है तो फिर विशेष सुरक्षा बल वहां भेजे गए। यह बात महत्त्वपूर्ण नहीं है कि मतीन समलैंगिकों से नफरत करता था। महत्त्वपूर्ण यह है कि उसने आईएस के जेहादी विचारधारा के कारण हमला किया और समलैंगिकों से नफरत भी उसी कारण पैदा हुआ। मतीन अफगानिस्तान मूल का अमेरिकी नागरिक था, जिसका जन्म, शिक्षा सब अमेरिका में ही हुआ। यह अमेरिका के लिए ज्यादा चिंता का विषय इसलिए है क्योंकि आतंकवाद फिर उसके घर से निकला है। बोस्टन हमले में भी आतंकवाद उसके अंदर से निकला था। बाहर से आकर हमला करने वालों को रोकना आसान होता है, लेकिन अगर आपके यहां के लोग आतंकवादी विचारधारा से प्रभावित होकर हमला करने की ठान ले तो उनको रोकना और उनसे निपटना कठिन होता है। जिस तरह एक व्यक्ति ने काफी संख्या में लोगों को बंधक बना लिया और तीन घंटे से ज्यादा समय उसका काम तमाम करने लगा उसका निष्कर्ष क्या है? यही न कि जेहादी विचाराधारा और हथियारों से लैश एक व्यक्ति भी, जो मरने की ठान चुका है, कोहराम मचा सकता है। राष्ट्रपति ओबामा ने राष्ट्र के नाम संबोधन में कहा कि पूरा अमेरिका एकजुट है। वास्तव में रिपब्लिकन उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप ने अवश्य कुछ प्रश्न उठाए हैं, किंतु पूरा देश ऐसे वक्त में एकजुट है। इस हमले ने साबित किया है कि आईएस या उसके जैसे संगठनों को अलग से किसी को आतंकवाद के लिए भेजने की आवश्यकता नहीं है। उस हिंसक विचारधारा को आपके घर के अंदर ही पैदा किया जा सकता है। यह अकेले अमेरिका नहीं, पूरी दुनिया पर लागू होता है। भारत भी इसमें शामिल है।


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Date: 14-06-16

जनसंहार के तार

संभावित रिपब्लिकन उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप आप्रवासन और आतंकवाद को लेकर अपने तीखे बयानों के कारण चर्चा में रहे हैं।

अमेरिका के प्लोरिडा प्रांत में जनसंहार की घटना स्तब्ध करने वाली है। खबरों के मुताबिक ओरलैंडो के पल्स नाइट क्लब में रात दो बजे के करीब एक बंदूकधारी हमलावर घुस आया और उसने वहां मौजूद लोगों को बंधक बना लिया। पांच घंटे बाद वह पुलिस की कार्रवाई में मारा गया, पर इसके पहले उसकी अंधाधुंध गोलीबारी ने पचास लोगों की जान ले ली, जबकि तिरपन लोग घायल हो गए। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इसे सभी अमेरिकियों पर हमला करार देते हुए एक आतंकवादी घटना बताया है। अगर आतंकवाद के कोण से देखें तो 9/11 के बाद यह अमेरिका में सबसे बड़ा आतंकी हमला है। अगर गोलीबारी के लिहाज से देखें तो अमेरिका के इतिहास में इस तरह की यह अब तक की सबसे बड़ी घटना है। इससे पहले, 2007 में वर्जीनिया टेक विश्वविद्यालय में गोलीबारी की ऐसी बड़ी घटना हुई थी जिसमें बत्तीस लोग मारे गए थे। पल्स नाइट क्लब में हमला करने वाले व्यक्ति के आइएस का समर्थक होने के संकेत मिले हैं। यह भी कहा जा रहा है कि अमेरिका की संघीय जांच एजेंसी उस पर काफी समय से नजर रखे हुए थी। फिर, इतने बड़े हत्याकांड को अंजाम देने के उसके इरादे की भनन क्यों नहीं लग पाई? कुछ लोगों की निगाह में यह ‘हेट क्राइम’ है, क्योंकि इसके पीछे समलैंगिकों से तीव्र नफरत की भावना काम कर रही थी; वहीं जिस तरह आइएस ने इस हमले की जिम्मेदारी ली है उसे देखते हुए बहुत-से लोग इसे अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद का वाकया मानते हैं। जो हो, इस जनसंहार का अमेरिका की आप्रवासन नीति, हथियार लाइसेंस नीति से लेकर आंतरिक सुरक्षा नीति तक, ढेर चीजों पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा। इस घटना का असर राष्ट्रपति चुनाव पर भी पड़ सकता है। संभावित रिपब्लिकन उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप आप्रवासन और आतंकवाद को लेकर अपने तीखे बयानों के कारण चर्चा में रहे हैं। वे इस मामले को भुनाने की कोशिश कर सकते हैं। इसका उन्हें कितना फायदा मिलेगा यह तो बाद में पता चलेगा, पर इस घटना ने एक बार फिर यह चेताया है कि आइएस का खतरा उसके प्रत्यक्ष प्रभाव वाले इलाके तक सीमित नहीं है बल्कि कहीं भी प्रकट हो सकता है। इससे निपटने के लिए सुरक्षा एजेंसियों को अपनी रणनीति पर नए सिरे से सोचना होगा। यह बात अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों पर ही नहीं, भारत पर भी लागू होती है। अमूमन यह माना जाता रहा है कि आतंकवादी संगठनों के हाथ-पैर साबित होने वाले आमतौर पर वंचित तबके के अल्पशिक्षित युवा होते हैं। पर आइएस से प्रभावित होने वाले युवाओं की पृष्ठभूमि इस पुरानी धारणा को गलत ठहराती है। भारत में पिछले दो साल में आइएस से संभावित संबंध के शक में जिन युवाओं से पूछताछ की गई उनमें से सत्तर फीसद उच्चशिक्षित और मध्यवर्गीय या उच्च मध्यवर्गीय परिवारों से थे। इसके विपरीत, वर्ष 2000 से 2014 के बीच, यानी आइएस के उभार से पहले, आतंकवाद के मामलों में जिन संदिग्धों से पूछताछ की गई वे गरीब तबके के थे; उनमें से नब्बे फीसद ने स्कूली शिक्षा भी पूरी नहीं की थी। आतंकवादी संगठन इस तरह की वंचना के अहसास को एक खतरनाक मोड़ देकर उसका इस्तेमाल अपने लिए ‘कार्यकर्ता’ तैयार करने में करते आए हैं। लेकिन आइएस ने तो सिर्फ अपने एजेंडे के आॅनलाइन प्रचार के जरिए अपने समर्थक और ‘जिहादी’ पैदा किए हैं। अमेरिका को दहला देने वाली यह घटना बाकी दुनिया के लिए भी एक गंभीर चेतावनी है।


Date: 14-06-16

दुरुस्त आयद

आज गंगा की गिनती दुनिया की सर्वाधिक प्रदूषित नदियों में होती है। इसलिए सहज ही यह सवाल उठता है कि जो हजारों करोड़ रुपए गंगा सफाई के नाम पर खर्च किए गए वे कहां गए?

यह अच्छी बात है कि केंद्र ने गंगा से जुड़ी योजनाओं का कैग यानी नियंत्रक एवं महा लेखा परीक्षक से आॅडिट कराने का निर्णय किया है। इस पहल की अहमियत अब तक के अनुभवों के मद््देनजर समझी जा सकती है। गंगा सफाई की पहली वृहद योजना 1985 में बनी थी। गंगा एक्शन प्लान के नाम से बनी उस योजना को तीस साल हो चुके हैं। पर उसका क्या हासिल रहा, यह गंगा के प्रदूषण-मुक्त होने के बजाय उसमें प्रदूषण बढ़ते जाने से जाहिर है। आज गंगा की गिनती दुनिया की सर्वाधिक प्रदूषित नदियों में होती है। इसलिए सहज ही यह सवाल उठता है कि जो हजारों करोड़ रुपए गंगा सफाई के नाम पर खर्च किए गए वे कहां गए? पर सिफर साबित होने में यह योजना अपवाद नहीं रही। दूसरी अनेक योजनाओं का भी ऐसा ही हश्र रहा है। सवाल है कि इतने भारी-भरकम खर्च की कोई जवाबदेही क्यों नहीं तय हुई? यूपीए सरकार के समय गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित कर गंगा व गंगा बेसिन की सफाई की नए सिरे से महत्त्वाकांक्षी योजना बनाई गई। पर यह सिरे नहीं चढ़ पाई। फिर, राजग सरकार ने नमामि गंगे नाम से धूम-धड़ाके से गंगा निर्मलीकरण की नई योजना शुरू की और जल संसाधन, नदी विकास व गंगा सरक्षण नाम से अलग मंत्रालय भी गठित कर दिया। इस मंत्रालय की मंत्री उमा भारती ने कहा है कि गंगा की सफाई के लिए सरकार अल्पकालिक व दीर्घकालिक, दोनों तरह की योजना बना कर आगे बढ़ रही है। एक तरफ नदी का न्यूनतम पारिस्थितिकी प्रवाह सुनिश्चित किया जाएगा और दूसरी तरफ इन योजनाओं में पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए इनका कैग से आॅडिट कराया जाएगा। उन्हें यह भी भरोसा दिलाना चाहिए कि कैग की रिपोर्टों के मद््देनजर शीघ्र कार्रवाई की जाएगी। अक्सर हम देखते हैं कि कैग की रिपोर्ट सदन में पेश तो कर दी जाती है, मगर उस पर न बहस होती है न सरकार कार्रवाई करने की जहमत उठाती है। लेकिन कैग वित्तीय गड़बड़ियों की तरफ ही ध्यान खींच सकता है, योजना की दूसरी खामियां नहीं बता सकता। जबकि पर्यावरणविद मानते हैं कि गंगा को स्थायी रूप से प्रदूषण-मुक्त बनाने की एक प्रमुख शर्त गंगा के प्रवाह को अविरल बनाए रखने की है। टिहरी और दूसरे बड़े बांधों के चलते उसकी अविरलता को क्षति पहुंची है। पहले के बांधों के प्रभाव की समीक्षा किए बगैर, गंगा पर नई जल विद्युत परियोजनाएं धड़ल्ले से बनाई जाती रही हैं। अगर गंगा की अविलरता को बचाना है तो उसे सिर्फ संसाधन के तौर पर देखने के निरे व्यावसायिक आग्रह को छोड़ना होगा। यह भी ध्यान रखना होगा कि गंगा की निर्मलता और अविरलता का तकाजा गंगा तक सीमित नहीं है; उसकी सहायक नदियों को भी प्रदूषण से बचाने का अभियान चलाना होगा। फिर, निर्मलीकरण का लक्ष्य नदी तट के नगरीय नियोजन से भी वास्ता रखता है। चमड़ा, रसायन, चीनी, शराब आदि बहुत सारे उद्योगों के अपशिष्ट और शहरी कचरा गिराए जाने की वजह से गंगा समेत तमाम नदियां दिनोंदिन और प्रदूषित होती गई हैं। नदियों के किनारे अतिक्रमण भी लगातार बढ़ता गया है। एनजीटी यानी राष्ट्रीय हरित अधिकरण के निर्देशों के चलते करखनिया कचरा और सीवर की गंदगी गिराए जाने के सिलसिले पर अंकुश लगना शुरू हुआ है, पर अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है।


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Date: 14-06-16

ओरलैंडो में हत्याकांड

अमेरिका के ओरलैंडो में 50 लोगों की हत्या सिर्फ अमेरिका नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में फिलवक्त पैदा हो रही जटिल चुनौतियों का उदाहरण है। जैसा कि खबरों से पता चलता है कि समलैंगिकों के एक क्लब में घुसकर अंधाधुंध गोलीबारी करने वाले उमर मतीन ने समलैंगिकों के प्रति घृणा की वजह से यह कदम उठाया है। उसका दावा यह भी था कि वह आतंकवादी संगठन आईएसआईएस की ओर से ऐसा कर रहा है।

आईएसआईएस ने भी इस हमले की जिम्मेदारी ली है, फिर भी ऐसी जानकारी नहीं है कि वह आईएसआईएस में बाकायदा भर्ती हुआ था या उसने कहीं प्रशिक्षण लिया था। हो सकता है कि प्रत्यक्ष रूप से उसका आईएसआईएस से या किसी ऐसे संगठन से कोई संपर्क भी न रहा हो और वह इंटरनेट पर आईएसआईएस की विचारधारा से प्रभावित हुआ हो। जैसा कि उसके परिजनों का कहना है कि वह बहुत धार्मिक भी नहीं था, हो सकता है कि उसके मन में जो भी गुस्सा या जो कुंठाएं हों, उनको उसने धर्म या आतंकवाद से जोड़ लिया हो। आशंका यह है कि मतीन जैसे कई लोग दुनिया के कई हिस्सों में होंगे, जिनकी गतिविधियों से कहीं नहीं लगता हो कि उनके अंदर इतना जहर भरा है और इंटरनेट पर कट्टरवादी प्रचार उन्हें चुपचाप ज्यादा उग्र और हिंसक बना रहा हो, जिसका विस्फोट कभी ओरलैंडो की घटना की तरह हो।
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निया में आधुनिक समय में बड़े पैमाने पर लोगों की आवाजाही हुई है और ऐसा अक्सर हुआ है कि अप्रवासियों में से बहुत सारे लोग उन देशों की संस्कृति में घुल-मिल न पाए हों, जहां जाकर वे बस गए। पढ़े-लिखे या अपेक्षाकृत संपन्न लोग तो नए समाज में भी सफल हो जाते हैं और नई परिस्थितियों से तालमेल बना लेते हैं, लेकिन कम पढ़े-लिखे या गरीबी की वजह से देश छोड़ने वाले लोगों को नए देशों में भी काफी संघर्ष करना पड़ता है, जिससे उनमें अलगाव की भावना और दबा हुआ गुस्सा पनपता रहता है। वैसे भी अप्रवासी लोगों में अपने मूल देश और उसकी संस्कृति के प्रति भावुकता ज्यादा होती है, इसलिए वे अक्सर कट्टर धार्मिक समूहों के प्रभाव में आ जाते हैं। कट्टर धार्मिकता और संकीर्णता उन्हें एक पहचान और जीवन का उद्देश्य दे देती है और इसके प्रभाव में उनके अंदर दबे गुस्से को हिंसक रूप से व्यक्त करने का खतरा बना रहता है।

पेरिस और बेल्जियम में आतंकवादी वारदात करने वाले लोग हों या ओरलैंडो का उमर मतीन, ये सभी इसी किस्म के नौजवान हैं। कट्टरवादी या आतंकवादी समूह भले ही किसी गौरवशाली अतीत में ले जाने का दावा करते हों, लेकिन आधुनिक तकनीक का फायदा उठाने में वे पीछे नहीं हैं और नई सूचना तकनीक का वे अपने प्रचार-प्रसार के लिए भरपूर इस्तेमाल करते हैं। आतंकवादी संगठनों से भले ही सरकारें लड़ लें, पर आतंकवादी प्रचार से प्रभावित उन नौजवानों का पता लगाना बहुत मुश्किल है, जो कभी भी खतरा बन सकते हैं।

इस घटना से फिर एक बार अमेरिका में बंदूकों और खतरनाक हथियारों पर नियंत्रण का मसला खड़ा हुआ है। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा अमेरिका में बंदूकों पर नियंत्रण के हिमायती हैं और उन्होंने फिर अपनी बात दोहराई है, लेकिन निकट भविष्य में अमेरिका में हथियारों पर नियंत्रण मुश्किल लगता है। अमेरिका में बंदूकें रखने की समर्थक लॉबी बहुत मजबूत है और खासकर कट्टर राजनेता उसके पक्षधर हैं, जो मानते हैं कि हथियार रखना अमेरिकी नागरिकों का सांविधानिक अधिकार है। मतीन जैसे लोगों की मौजूदगी और उनके हाथ आसानी से खतरनाक हथियार लग पाना, ये दोनों ही ऐसी चुनौतियां हैं, जिनका आसान हल नहीं है|


Date: 14-06-16

घर के भीतर भी है प्रदूषण का जहर

संचिता शर्मा, हेल्थ एडीटर, हिन्दुस्तान टाइम्स

लांसेट पत्रिका में छपे एक अध्ययन के अनुसार, वायु प्रदूषण पक्षाघात के खतरे बढ़ाता है। इससे एक बार फिर यह साबित होता है कि दूषित हवा फेफड़े ही नहीं, हमारे शरीर के अन्य अंगों को भी खराब करती है।

हवा में मौजूद जहरीले कण फेफड़े से होकर हमारे शरीर में पहुंचते हैं, और हमारे दिमाग, केंद्रीय तंत्रिका तंत्र, अंत:स्रावी प्रणाली, खून के बहाव और प्रतिरोधक क्षमता को बुरी तरह प्रभावित करते हैं। मुश्किल यह है कि वायु प्रदूषण की चर्चा करते ही हम घर से बाहर झांकने लगते हैं, जबकि नजरंदाज कर दी गई घर की दूषित हवा कहीं ज्यादा घातक है।

डब्ल्यूएचओ यानी विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, साल 2012 में दुनिया भर में करीब 70 लाख लोगों की मौत वायु प्रदूषण की वजह से हुई, जिनमें से 43 लाख लोगों ने घर के भीतर की खराब आबोहवा के कारण दम तोड़ा। बाहर के प्रदूषण से होने वाले हृदय रोग, पक्षाघात, फेफड़े का कैंसर जैसे तमाम रोग घर के अंदर की दूषित हवा से भी होते हैं। सख्त नीति व मजबूत इच्छाशक्ति के सहारे बाहरी वायु प्रदूषण को तो हम काबू में कर सकते हैं, मगर घर के अंदर की हवा की सेहत सुधारने के लिए हमें खुद ही पहल करनी होगी।

घरेलू वायु प्रदूषण की बड़ी वजह खाना बनाने में कोयला, लकड़ी और बायोमास स्टोव का प्रयोग करना है। इनसे कई खतरनाक गैसें निकलती हैं, जिनसे अस्थमा, ब्रोंकाइटिस और दिल व फेफड़े से जुड़ी बीमारी होने का खतरा काफी बढ़ जाता है। यह धुआं न सिर्फ खाना बनाने वाले को, बल्कि घर के बच्चों, नवजातों और बुजुर्गों के लिए भी खतरा पैदा कर सकता है। ऐसे में, जरूरी यही है कि घर हवादार हो, और रसोई में चिमनी आदि की व्यवस्था हो। नई लकड़ी की बजाय कम से कम छह महीने पुरानी सूखी लकड़ी का प्रयोग किया जाना चाहिए। ऐसी लकड़ी धुआं कम पैदा करती है।

हमारे लिए परेशानी वे लोग भी खड़े करते हैं, जो सिगरेट, बीड़ी, सिगार, हुक्का या पाइप आदि पीते हैं। इनसे निकलने वाला धुआं कैंसर की वजह बन सकता है। यह वयस्कों की अपेक्षा छोटे बच्चों को ज्यादा नुकसान पहुंचाता है। इसी तरह, घर के एयरकंडिशनर को भी बार-बार साफ किए जाने की जरूरत है, क्योंकि ये भी किचन में बर्तन धोने की जगह या बाथरूम जैसे नम स्थानों की तरह फफूंद को पनाह देते हैं। वैसे, एलर्जी की वजह गद्दे, तकिये, गद्दी लगे फर्नीचर, खिलौने भी हैं, जिनसे बचने का आसान उपाय है, उन्हें नियमित तौर पर धूप दिखाना और गरम पानी में धोना। क्रॉक्रोच जैसे कीटों को भगाने के लिए भी कीटनाशक दवाओं के छिड़काव से कहीं ज्यादा बेहतर और उपयोगी तरीका है घर की नियमित तौर पर साफ-सफाई।

दुनिया के 20 सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में 10 शहर सिर्फ भारत के हैं। हम अपनी नीतियों में यदि घरेलू दूषित हवा के पहलू कोभी समेट लें, तो निश्चय ही करोड़ों भारतीयों के स्वास्थ्य को बेहतर बनाने में मदद मिल सकती है।


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Date: 15-06-16

कहां गई ‘आप’ की नैतिक श्रेष्ठता?

विराग गुप्ता

राष्ट्रपति ने दिल्ली सरकार द्वारा पारित संसदीय सचिव विधेयक को मंजूरी देने से इनकार कर दिया, जिसमें इसको पुरानी तारीख से लाभ के पद के दायरे से बाहर रखने का प्रावधान था। लगता है कि आम आदमी पार्टी के 21 विधायकों ने दिल्ली सरकार ही नहीं वरन् अरविंद केजरीवाल की राजनीतिक विश्वसनीयता को भी घनघोर संकट में डाल दिया है। दलों द्वारा सरकार बनाने पर मंत्रियों की बड़ी फौज की प्रवृत्ति पर नियंत्रण के लिए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश वेंकटचलैया की रिपोर्ट के आधार पर 2003 में बने कानून के अनुसार केंद्र तथा राज्यों में सदन की संख्या के 15 फीसदी से अधिक सदस्य मंत्री नहीं बन सकते। परंतु दिल्ली के लिए विशेष प्रावधानों के तहत 10 फीसदी यानी मुख्यमंत्री के अलावा 6 लोग ही मंत्री बन सकते हैं। केजरीवाल ने दिल्ली विधानसभा की 70 में से 67 सीटें जीतकर 14 फरवरी, 2015 को 6 मंत्रियों के साथ सरकार बनाई थी। सत्ता में आते ही नैतिकता और आदर्शवाद फुस्स हो गया और अन्य दलों की तर्ज पर आप सरकार के मंत्रियों में सत्तासुख की मलाई की होड़ मच गई। इस दबाव के फलस्वरूप सरकार बनाने के एक महीने के भीतर ही केजरीवाल को 21 विधायकों को संसदीय सचिव के पद पर नियुक्त करके मंत्री का दर्जा देना पड़ा। बकाया विधायकों के वेतन भत्तों में 4 गुना की बढ़ोतरी करके उनकी लिप्सा को शांत करने का यत्न किया गया।

दरअसल, दिल्ली के किसी भी विधान में संसदीय सचिव का उल्लेख ही नहीं है; इसीलिए विधानसभा के प्रावधानों में इनके वेतन, भत्ते सुविधाओं आदि के लिए कोई कानून नहीं है। इन 21 संसदीय सचिवों को स्टॉफ कार, सरकारी ऑफिस, फोन, एसी, इंटरनेट तथा अन्य सुविधाएं दी गई हैं, जिसके बावजूद आप नेताओं का स्पष्टीकरण है कि संसदीय सचिवों को कोई भी प्रत्यक्ष आर्थिक लाभ नहीं दिया जा रहा है। लोकसभा तथा कई राज्यों में विधान मंडलों की नियमावली में ही मंत्री शब्द की परिभाषा में संसदीय सचिव का भी उल्लेख किया गया है, जिससे उन राज्यों में उनकी नियुक्ति वैध है। इसके बावजूद हरियाणा, पंजाब, गोवा, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान जैसे राज्यों में संसदीय सचिव के दुरुपयोग के बहुतायत मामलों में उच्च न्यायालयों ने उन नियुक्तियों को कई बार निरस्त किया गया है। आप की सरकार को कठघरे में खड़ा करने वाली भाजपा के ही तत्कालीन मुख्यमंत्री साहब सिंह वर्मा ने दिल्ली में संसदीय सचिव के एक पद की शुरुआत की, जिसे कांग्रेस की शीला दीक्षित ने बढ़ाकर तीन कर दिया। कांग्रेस और भाजपा ने राजनीतिक भ्रष्टाचार पर सहमति के तौर पर संसदीय सचिवों की वैधता पर पहले कभी सवाल नहीं उठाए, जिस सामंजस्य का आरोप केजरीवाल लगाते रहे हैं। केजरीवाल ने मुख्यमंत्री के तौर पर अपने पास एक भी विभाग नहीं रखा है परंतु पिछली कांग्रेस सरकार से सात गुना ज्यादा, 21 संसदीय सचिवों की नियुक्ति करके केजरीवाल राजनीतिक लूट के महानायक बन कर उभरे हैं, जिन्होंने अपने आत्मप्रचार के विज्ञापन हेतु बजट को 16 गुना बढ़ाकर 33 से 526 करोड़ कर दिया।
संसद और विधानसभा के सदस्य अपनी जिम्मेदारियों को ठीक तरह से निभाएं इसके लिए उन पर तमाम बंदिशें लगी हैं। कानून के अनुसार विधायक या सांसद अगर कोई अन्य लाभ का पद लेते हैं तो सदन से उनकी सदस्यता रद्‌द हो सकती है। देश में लाभ के पद का पहला मामला 1915 में आया जब कलकत्ता हाईकोर्ट में नगर निगम के प्रत्याशी के चुनाव को चुनौती दी गई थी। 2001 में शिबु सोरेन को राज्य सभा सांसद पद से अयोग्य घोषित कर दिया गया, क्योंकि वे झारखंड में स्वायत्त परिषद के सदस्य थे। जया बच्चन को राज्यसभा सांसद के साथ उत्तरप्रदेश में लाभ का पद लेने के आरोप पर अयोग्य घोषित किया गया तथा अनिल अंबानी को राज्यसभा सदस्यता से त्याग-पत्र देना पड़ा था। सोनिया गांधी ने सत्ता का रिमोट कंट्रोल अपने हाथ में रखने के लिए 2004 में राष्ट्रीय सलाहकार समिति (एनएसी) के चेयरपर्सन की बागडोर संभाली। लाभ के पद की शिकायत होने पर उन्हें भी 2006 में संसद से त्यागपत्र देकर दोबारा चुनाव लड़ना पड़ा परंतु उसके बाद कानून में बदलाव करके एनएसी के चेयरपर्सन सहित 55 पदों को लाभ के पद के दायरे से ही बाहर कर दिया गया।
गैर-कानूनी लाभ के बावजूद विधायकों को अयोग्य ठहराना ही काफी नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 104 के तहत उन पर जुर्माना और आपराधिक कार्रवाई हो सकती है परंतु वर्तमान राजनीतिक माहौल में यह संभव नहीं दिखता जहां सभी दल सत्तासुख की मलाई की जोड़-तोड़ में लगे हैं। अभी हाल ही में राज्यसभा चुनावों में बड़े पैमाने पर विधायकों की खरीद-फरोख्त करके संसद को विजय माल्या जैसे विकृत पूंजीपतियों की कठपुतली बनाने का सर्वदलीय प्रयास सफल हो रहा है। अगर भाजपा दिल्ली के 21 विधायकों द्वारा दोहरे लाभ का विरोध कर रही है तो फिर भाजपा शासित अन्य राज्यों के विधायकों और केंद्र के सांसदों द्वारा दोहरे लाभ पर प्रभावी प्रतिबंध क्यों नहीं लगाया जाता? खेल संघों के अध्यक्ष के तौर पर हर दल के सांसद जनता के पैसे की लूट के भागीदार हैं, जिस वजह से ही राजनेताओं द्वारा शासित बीसीसीआई, सुप्रीम कोर्ट के आदेश को धता बता रही है। सांसदों और विधायकों को भारी वेतन तथा पेंशन मिलती है, उसके बावजूद सदन से ज्यादा ध्यान वे लोग अपने कारोबारी हित को देते हैं, जिस वजह से कानून निर्माण में विधायिका विफल हो रही है।
सांसद, विधायक और नेता हर उपलब्धि का श्रेय लेने में आगे रहते हैं तो फिर लोक सेवक कानून और भ्रष्टाचार विरोधी कानून से खुद को वे क्यों मुक्त रखे हैं? देश का संविधान तथा लोकतांत्रिक व्यवस्था ब्रिटेन से प्रेरित है, जहां हर पद के सृजन के साथ यह पहले ही निर्धारित हो जाता है कि वह लाभ का पद है या नहीं। यदि 21 विधायकों की सदस्यता रद्‌द हो भी गई तो केजरीवाल सरकार का राजनीतिक बहुमत तो बरकरार रहेगा पर नैतिक श्रेष्ठता के दावे का क्या होगा? केजरीवाल इस लड़ाई को उपचुनावों के माध्यम से जनता की अदालत में लड़ना पसंद करेंगे या फिर अदालतों में एक लंबी लड़ाई की शुरुआत होगी यह देखना दिलचस्प होगा? वैसे केजरीवाल यह दावा करके भी अदालत में बचाव कर सकते हैं कि संसदीय सचिव की नियुक्तियों को उप राज्यपाल ने कभी अनुमोदन दिया ही नहीं और उन लोगों ने कभी कोई लाभ भी नहीं लिया तो फिर बगैर नियुक्ति के किसी कानून का उल्लंधन तो हुआ ही नहीं? किंतु इस विवाद तथा आरोप-प्रत्यारोप से अन्य राज्यों तथा केंद्र में नेताओं की चौमुखी लूट अगर उजागर हो सके, तो देश की आम जनता का सही लाभ जरूर होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

विराग गुप्ता
सुप्रीम कोर्ट अधिवक्ता व वरिष्ठ विधि विशेषज्ञ


Date: 15-06-16

इतिहास की नई रोशनी

अभी हाल में विश्व की सबसे सम्मानित और प्रतिष्ठित वैज्ञानिक पत्रिका नेचर में एक शोध लेख छपा, जिसने कई मिथकों का निर्णायक ढंग से खंडन कर यह स्थापित किया कि सिंधु घाटी सभ्यता कम से कम 8000 वर्ष पुरानी है, न कि 5000 वर्ष जैसा कि अभी तक कहा जाता रहा है। इसका अर्थ यह हुआ कि भारतीय सभ्यता विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता है। इस शोध ने कई मिथक प्रमाणिक तरीके से ध्वस्त भी किए है। उनमें पहला यह कि भारत की वैदिक सभ्यता के अनुयायी अर्थात आर्य लोग बाहर से आए थे और यहां उन्होंने स्थानीय लोगों की संस्कृति नष्ट कर दी थी और उन्हें दास बना लिया था या सुदूर दक्षिण में खदेड़ दिया था। दूसरा, अब यह स्थापित हो गया है कि सरस्वती नदी कोई कल्पना की उड़ान नहीं है, बल्कि एक वास्तविकता है। इसके किनारे एक महान वैदिक सभ्यता का जन्म और विकास हुआ था। इसके साथ-साथ यह भी सिद्ध हो गया है कि जब हजारों वर्ष पूर्व विश्व के अधिकांश भागों में मानव पाषाण युग में जीवन ज्ञापन करते थे उस समय तक भारत में शहरी सभ्यता का विकास हो चुका था। कुल मिलाकर हजारों वर्ष पूर्व हमारे पूर्वज एक साधन संपन्न और विकसित सभ्य समाज की रचना कर चुके थे।

नए शोध के अनुसार सिंधु घाटी सभ्यता मिस्न और मेसोपोटामिया की सभ्यताओं से भी पुरानी है। जहां मिस्न की सभ्यता के प्रमाण 7000 ईसा पूर्व से 3000 ईसा पूर्व तक रहने के मिलते हैं वहीं मेसोपोटामिया की सभ्यता 6500 ईसा पूर्व से 3100 ईसा पूर्व तक प्रमाण है। इतना ही नहीं शोधार्थियों ने इस बात के भी प्रमाण खोजे हैं कि हड़प्पा सभ्यता से 1000 पूर्व भी कोई सभ्यता थी। शोध में यह बात सामने आई है कि सिंधु सभ्यता मौसम में बदलाव के चलते विलुप्त हो गई। शोधकर्ताओं का मानना है कि इस सभ्यता का फैलाव भारत के बड़े हिस्से में था और इसका विस्तार सरस्वती नदी के किनारे या घग्घर और हाकड़ा नदी तक था। शोधकर्ता यह पता लगाने में जुटे थे कि क्या सिंधु सभ्यता का विस्तार हरियाणा के भिराणा और राखीगढ़ी में भी था। उन्होंने भिराणा में खुदाई की और वहां से उन्हें हड्डियां, गायों की सींग, बकरियों, हिरन और चिंकारे के अवशेष मिले। इन सभी का कार्बन-14 के माध्यम से परीक्षण किया गया, जिसमें पाया गया कि किस तरह उस दौर के सभ्यता को पर्यावरणीय परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। शोधकर्ताओं के अनुसार पहले मॉनसून कमजोर होना शुरू हुआ था, लेकिन अचरज की बात यह रही कि लोगों ने उस समय घरों में पानी को संग्रहीत करने की व्यवस्था कर ली थी। अब तक इस सभ्यता के प्रमाण भारत के लोथल, धोलाविरा और कालीबंगन, जबकि पाकिस्तान के हड़प्पा और मोहनजो-दारो में मिले थे।

पुरातत्व वैज्ञानिक अब इस नतीजे पर पहुंच गए हैं कि सिंधु घाटी सभ्यता की राजधानी हरियाणा के जिला हिसार में स्थित राखीगढ़ी गांव में थी। पुणे डेक्कन कॉलेज के खुदाई व पुरातत्व विशेषज्ञ और हरियाणा के पुरातत्व विभाग द्वारा किए गए शोध के अनुसार यह तय हो गया है कि राखीगढ़ी की स्थापना हजारों वर्ष पूर्व हो चुकी थी। यहां पहली बार 1963 में खोदाई हुई थी और तब इसे सिंधु-सरस्वती सभ्यता का सबसे बड़ा नगर माना गया। उस समय शोधार्थियों ने सप्रमाण घोषणाएं की थीं कि यहां दफन नगर कभी मोहनजो-दारो और हड़प्पा से भी बड़ा रहा होगा। इसके बाद 1997 से 2000 तक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने यहां और खोदाई की, जिसके पश्चात यह पता चला कि राखीगढ़ी नगर लगभग 3.5 किलोमीटर की परिधि में फैला था। शोधकर्ताओं के अनुसार यह शहर विलुप्त सरस्वती नदी के किनारों पर ही स्थित था। किसी भी सभ्यता का विकास स्वाभाविक रूप से नदी किनारे ही होता है।

बकौल शोध विशेषज्ञ, आकार और आबादी की दृष्टि से राखीगढ़ी सबसे बड़ा शहर था। प्राप्त विवरणों के अनुसार यहां की सभी गलियां 1.92 मीटर चौड़ी थी। चारदीवारियों के मध्य कुछ गड्ढे भी मिले हैं, जो संभवत: किन्हीं धार्मिक आस्थाओं से जुड़ी प्रथाओं के लिए प्रयुक्त होते थे। इसके अलावा असंख्य प्रतिमाएं, तांबे के बर्तन और एक भट्ठी के अवशेष भी मिले हैं। शमशान गृह के अवशेष भी शोधकर्ताओं को प्राप्त हुए हैं, जहां से 8 नरकंकाल भी पाए गए हैं जिनका डीएनए टेस्ट किया जा रहा है। राखीगढ़ी में हाकड़ा वेयर नाम से चिन्हित ऐसे अवशेष भी मिले हैं जिनका निर्माण काल सिंधु घाटी सभ्यता और सरस्वती नदी घाटी के काल से मेल खाता है।

विगत वर्ष सरस्वती नदी की खोज में शोधकर्ताओं को बड़ी सफलता हाथ लगी थी। हरियाणा में यमुनानगर के आदिबद्री से मात्र पांच किलोमीटर की दूरी पर सरस्वती नदी की खोज में खोदाई शुरू हुई थी, जिसमें धरातल से केवल सात-आठ फीट की खोदाई पर ही वहां जलधारा एकाएक फूट पड़ी। दावा है कि यह सरस्वती नदी का पवित्र जल है। वेद और पुराणों में सरस्वती का वर्णन नदी के रूप में नहीं, बल्कि वाणी तथा विद्या की देवी के रूप में हुआ है। स्कंदपुराण और महाभारत में इसका विवरण श्रद्धा भक्ति से किया गया है। कई भू विज्ञानी मानते हैं और ऋग्वेद में भी कहा गया है कि हजारों वर्ष पूर्व सतलुज और यमुना के बीच एक विशाल नदी थी, जो हिमालय से लेकर अरब सागर तक बहती थी। वैज्ञानिक और भूगर्भीय खोजों से सिद्ध हुआ है कि किसी समय इस क्षेत्र में भीषण भकंप के कारण जमीन के नीचे के पहाड़ ऊपर उठ गए और सरस्वती नदी का जल पीछे की ओर चला गया।

तमिलनाडु में नए उत्खनन के आधार पर प्राचीन तमिल जीवनशैली से जुड़े नए साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। शिवगंगा जिले का अनजाना कीझादी गांव उत्खनन के बाद ऐतिहासिक संदर्भ प्राप्त कर चुका है। उत्खनन में चार दर्जन वर्गाकार क्षेत्र मिले हैं जिसे पुरातत्वविद संगम काल के सबसे महत्वपूर्ण रिहाइशी स्थान मान रहे हैं। यहां पहली बार 2013-14 में खोज कार्य शुरू हुआ था। फिर 2015 में यहां शीशा, मनके, मूर्तियां, चक्कियां, ईंटें, लौह सामग्री और मिट्टी के टूटे बर्तन मिले। यहां ऐसे साक्ष्य भी सामने आए हैं जो साबित करते है कि प्राचीनकाल में भी विदेशों से व्यापार होता था। पुरातत्वविदों के अनुसार यहां से जो ईंटे मिली हैं वे संगम काल में इस्तेमाल होने वाली ईंटों के आकार की है। हालांकि यहां किसी तरह की प्राकृतिक या मानवीय आपदा के चिन्ह नहीं मिले हैं। प्राचीन भारतीय संस्कृति से संबंधित साक्ष्य व तर्कों को माक्र्सवादी इतिहासकार आज भी मानने को तैयार नहीं हैं, परंतु उपरोक्त शोध से उनके दावों का खंडन हो रहा है। सरस्वती नदी और सभ्यताओं को लेकर फैला भ्रम छंटता जा रहा है और इतिहास की विकृत धारणाएं भी ध्वस्त हो रही हैं। अब यह स्थापित सत्य है कि हमारे पूर्वज कहीं बाहर से नहीं आए थे और हम सभी युगों-युगों से इसी धरती की संतान है।

[ लेखक बलबीर पुंज, भाजपा के राज्यसभा सदस्य रह चुके हैं ]


 

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