03-05-2016 (Important News Clippings)

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03 May 2016
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Dainik-Bhaskar-Logoपेड न्यूज़ का फैसला पाठकों पर छोड़ना बेहतर होगा

 पेड न्यूज के बारे में न्यायपालिका के सामने जताए गए सरकार के इरादे अगर कानून की शक्ल पाते हैं तो यह एक उचित कदम ही कहा जाएगा। इससे न सिर्फ हमारी चुनाव प्रणाली में घुसती हुई बीमारी का एक हद तक इलाज होगा बल्कि लोकतंत्र के चौथे खंभे के एक हिस्से की विश्वसनीयता बहाल होगी। एस्सार लीक के मामले में दायर एक जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान सरकार के हलफनामे से निकली इस बात पर अभी पूरा यकीन नहीं किया जा सकता, क्योंकि लोकतंत्र को दूषित कर रही राजनीति की एक लॉबी नहीं चाहती कि 1951 के जनप्रतिनिधित्व कानून और 1978 के भारतीय प्रेस परिषद कानून में किसी प्रकार का संशोधन करके ‘उनकी आजादी’ पर कोई अंकुश लगाया जाए। यही कारण है कि जब सुप्रीम कोर्ट ने तीन साल से ज्यादा की सजा पाए अपराधी को चुनाव लड़ने से रोक दिया था तो उस फैसले को बेअसर करने के लिए अध्यादेश लाने की तैयारी थी।

 अगर सरकार की तरफ से जन प्रतिनिधित्व कानून में संशोधन के साथ सूचना और प्रसारण मंत्रालय की स्थायी समिति के सुझावों के अनुसार पीआरबी बिल 2015 में ऐसे प्रावधान किए गए कि पेड न्यूज़ छापने वाले अखबारों का प्रकाशन 45 दिन से 90 दिन तक मुअत्तल कर दिया जाए, तो यह गंभीर और जिम्मेदारी भरा कदम होगा। टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया(ट्राई) जिसने कि इस बीच मीडिया के स्वामित्व के बारे में बेहद उपयोगी और अकादमिक रपटें प्रस्तुत की हैं वह भी इस तरह का प्रतिबंध चाहता है। किंतु फिर सवाल वही खड़ा होता है कि ऐसे कानूनों का इस्तेमाल प्रेस की आजादी बचाते हुए कैसे किया जाएगा? यह कैसे तय होगा कि यह पेज न्यूज़ है? कानून का दुरुपयोग कर सरकार की ओर से असहमति को दबाने का खतरा हमेशा मौजूद रहेगा। ऐसे में पेड न्यूज़ का मामला पाठक ही तय करे तो बेहतर है, क्योंकि अखबारी जगत में पाठक ही सबसे बड़ा निर्णयकर्ता है। आज के सूचना संपन्न युग में पाठक पेड न्यूज़ सहित हर असलियत से वाकिफ है और जो पेड न्यूज़ छाप रहे हैं, उनका खत्म होना तो तय है। मिसाल फिल्म जगत से ली जा सकती है, जिनका फैसला बॉक्स ऑफिस यानी दर्शक ही करता है। अखबार जगत के लिए भी यही सच है। पेड न्यूज़ का तो सख्त विरोध होना ही चाहिए, लेकिन इस पर किसी तरह की कानूनी लगाम लगाने में अपनी तरह के अलग खतरे हैं।


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असली न्याय का इंतजार

 न्यायपालिका कराह रही है। देश के मुख्य न्यायाधीश सार्वजनिक रूप से रो पड़ते हैं। जजों की कमी है लिहाजा जनता को दशकों तक न्याय नहीं मिल पा रहा है। देर से ही सही अगर न्याय मिलता भी है तो जरूरी नहीं कि सही हो, क्योंकि अमेरिका में एक जज चार दिन में एक केस निपटाता है, जबकि भारत में रोजाना आठ केस या यूं कहें कि हर 45 मिनट में एक जज केस पढ़ भी लेता है, पक्ष-विपक्ष की दलीलों को सुन भी लेता है और फैसला लिख भी देता है। अगर न्यायपालिका में छुट्टियों का आकलन शामिल कर दिया जाए तो शायद हर केस को निपटाने का समय घटकर मात्र 25 मिनट ही रहेगा। इनमें वे केस भी शामिल हैं जिनमें अभियुक्त को फांसी भी हो सकती है या जेल की सजा भी। वे केस भी शामिल हैं जिनमें गरीब बुढिय़ा की एकमात्र दुकान कोई मक्कार भतीजा हड़प जाना चाहता है और बुढिय़ा सड़क पर भीख मांगने को मजबूर हो जाती है या जहर पीकर मौत को गले लगा लेती है। इस रफ्तार से केस निपटाने में शायद आइंस्टीन का दिमाग भी फेल हो जाए।लेकिन ठहरिए! हमें अपने को कोसने की आदत हो गई है। हर बात पर हम अमेरिका और चीन से तुलना करते हैं और फिर ‘भारत कभी सोने की चिडिय़ा थी, अंग्रेज सोना लूट ले गए और पिछले 70 सालों में बचा पीतल भ्रष्ट राजनीतिक वर्ग और सड़े सिस्टम की भेंट चढ़ गया ‘ के भाव में बताते हैं कि कैसे चीन शिक्षा में बजट का इतना प्रतिशत, स्वास्थ्य में उतना और हथियार खरीदने में उससे भी ज्यादा खर्च करता है। हम भूल जाते हैं कि भारत का आबादी घनत्व 368 प्रति किलोमीटर स्क्वायर है, जबकि चीन का 142, इंग्लैंड का 216, ब्राजील का 24, रूस का 8.3 अमेरिका का 32 है। मूल रूप से कृषि आधारित अर्थव्यवस्था में जब संसाधनों पर इतना दबाव पड़ेगा तो विकास की रफ्तार धीमी तो रहेगी ही और उस पर से कोढ़ में खाज के रूप में भ्रष्टाचार।

फिर हम कहां से शुरू करें? हमारी प्राथमिकता क्या है? गरीब व्यक्ति को पहले पेट में अनाज चाहिए, अनाज के लिए खेत को पानी चाहिए, दलित की बीमार पत्नी और बच्चे के लिए अस्पताल चाहिए, शिक्षा चाहिए, घर में शौचालय चाहिए। बीमार रहेंगे तो बचेंगे नहीं, बच गए तो पढ़-लिख नहीं पाएंगे। इस तरह के तमाम अभाव में जीने वाले लोगों की संख्या 75 प्रतिशत है। ऐसे में तात्कालिकता के पैमाने पर उन्हें न्याय की जरूरत शायद उतनी नहीं जितनी जीवन की अनिवार्य शर्तों की।

अब न्याय न मिलने का या देर से मिलने का या न्याय की गुणवत्ता खराब होने का एक खतरनाक पहलू देखें। बिहार का आबादी घनत्व देश के मुकाबले तीन गुना ज्यादा है यानी 1056 व्यक्ति प्रति किलोमीटर स्क्वायर या अमेरिका के आबादी घनत्व से 30 गुना ज्यादा। इस राज्य में जमीन पर इतना दबाव है कि 70 प्रतिशत हत्याएं परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से जमीन को लेकर हो रही हैं। लिहाजा सिर्फ न्याय व्यवस्था दुरुस्त करने से शायद ही स्थिति बेहतर हो सके। समाज में अभाव, अशिक्षा, रोजगार के अल्प अवसर की वजह से व्याप्त अराजकता और राज्य अभिकरणों के भ्रष्ट लोगों और गुंडों-राजनीतिक वर्ग के बीच पनपा समझौता अभियोजन को प्रभावित करता है और न्याय प्रक्रिया को भी निष्पक्ष नहीं रहने देता। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक सजा की दर में बिहार देश के सभी राज्यों से पीछे है। 2014 में अगर 100 लोगों पर आपराधिक मुकदमे थे तो केवल 10 को सजा हो पाई, जबकि 2013 में 15.6 को हुई थी। राष्ट्रीय औसत 45 प्रतिशत है।

इन सबका नतीजा यह है कि इन राज्यों में न केवल न्याय-व्यवस्था से, बल्कि पूरे तंत्र से जनता का विश्वास उठ जाता है और हारकर वह थाने या ब्लॉक में जाकर अपनी समस्या बताने की जगह मोहल्ले के उस गुंडे को तलाशने लगता है जो हाल ही में खद्दर पहनने लगा है। ऐसे राजनीतिक रॉबिन हुड किसी न किसी जाति के होते हैं और वे अपनी जाति के लोगों के लिए संकटमोचन का रूप धारण कर लेते हैं। बिहार के हाल के चुनावों में जाति का संयोजन और जदयू-राजद की विजय का सही विश्लेषण इस बात को दर्शाता है। यह रॉबिन हुड शीर्ष पर बैठे नेताओं के लिए भीड़ जुटा सकता है और अवसर हो तो बांहों की ताकत भी दिखा सकता है। अपराध के लिए जाने जाने वाले और वर्षों से जेल में बंद शहाबुद्दीन को राजद का पदाधिकारी बनाना यह सिद्ध करता है कि प्रजातंत्र की मूल अवधारणा कहीं दम तोड़ चुकी है।

देश में पुलिस-आबादी अनुपात दुनिया के औसत से आधा है, उत्तर प्रदेश में चौथाई और बिहार में उससे भी कम। तो क्या जरूरी नहीं कि पुलिस की संख्या बढ़ाई जाए? क्या जिन राज्यों में पुलिस की संख्या औसत से ज्यादा है वहां अपराध कम हुए हैं? क्या सजा की दर बढ़ी है? नहीं। ऐसे तमाम उदहारण हैं जिनमें अपराधी को सेशंस कोर्ट से सजा हुई। अपराधी ने हाई कोर्ट में अपील की। हाई कोर्ट ने सेशंस कोर्ट को डांट लगते हुए सजा को ‘ससम्मान रिहाई ‘ में बदल दिया, लेकिन फिर जब राज्य सर्वोच्च न्यायलय पहुंचा तो देश की सबसे बड़ी अदालत ने हाई कोर्ट को गलत ठहराते हुए और सेशंस के फैसले की प्रशंसा करते हुए अपराधी की सजा फिर बहाल कर दी। अगर राज्य सरकार ऊपर की अदालत में न जाती तो अभियुक्त सीना तानकर घूमता या अभियुक्त खेत बेचकर या कोई और अपराध करके पैसे खर्च करके अच्छा वकील खड़ा न करता तो कई साल पहले ही जेल की सलाखों के पीछे होता। क्या न्याय प्रणाली दोषपूर्ण नहीं है? दरअसल भारत के मुख्य न्यायाधीश का सार्वजनिक मंच से भावातिरेक में आना गंभीर है, लेकिन समस्या का निदान मात्र जजों की संख्या बढ़ाने से नहीं होगा। व्याधि कहीं और है और वह एक नहीं कई हैं और हर व्याधि दूसरी व्याधि को जन्म दे रही है।

[ लेखक एनके सिंह, ब्राडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन के महासचिव हैं ]


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हवा की सेहत

दिल्ली में सम-विषम योजना के दूसरे चरण का परिणाम उत्साहजनक नहीं रहा। इससे एक बार फिर यही साबित हुआ है कि शहर में बढ़ते वायु प्रदूषण पर काबू पाना खासा कठिन काम है।

delhi-traffic759-1-620x400दिल्ली में सम-विषम योजना के दूसरे चरण का परिणाम उत्साहजनक नहीं रहा। इससे एक बार फिर यही साबित हुआ है कि शहर में बढ़ते वायु प्रदूषण पर काबू पाना खासा कठिन काम है। जनवरी में जब वायु प्रदूषण का स्तर चिंताजनक हो गया तो बाहरी राज्यों से आने वाले ट्रकों को शहर से होकर गुजरने पर पाबंदी लगाई गई। भवन निर्माण और दूसरी परियोजनाओं से निकलने वाली गर्द रोकने के लिए कंपनियों के खिलाफ कड़े दंड का प्रावधान किया गया। सड़कों पर कारों के लिए प्रायोगिक तौर पर सम-विषम योजना लागू की गई। कारपूल पर जोर दिया गया। तब इसके कुछ बेहतर नतीजे दर्ज हुए। पर दिल्ली सरकार इस योजना को जारी रखने को लेकर आश्वस्त नहीं थी। इसलिए अप्रैल के दूसरे पखवाड़े में उसने एक बार फिर इस योजना को प्रायोगिक तौर पर लागू किया।

मगर नतीजे संतोषजनक नहीं निकले, बल्कि इस बार लोगों में सहयोग के बजाय विरोध भाव अधिक देखा गया। योजना के आखिरी दिन सर्वोच्च न्यायालय ने पूछा कि आखिर क्या वजह है कि सम-विषम योजना से अपेक्षित नतीजे नहीं निकल पा रहे। फिर उसने सभी टैक्सियों को सीएनजी से चलाने का आदेश दिया। कुछ साल पहले बढ़ते वायु प्रदूषण के मद्देनजर व्यावसायिक वाहनों को सीएनजी से चलाने की अनिवार्यता लागू की गई थी, तब वायु प्रदूषण के स्तर में काफी कमी दर्ज हुई। इसलिए टैक्सियों में सीएनजी की अनिवायर्ता से कुछ बेहतर नतीजे की उम्मीद बनती है।

दिल्ली में बढ़ते वायु प्रदूषण की वजहें साफ हैं। शहर पर आबादी के बढ़ते दबाव की वजह से सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को सुचारु और सुविधाजनक बनाना खासा कठिन काम हो गया है। कुछ साल पहले इसके लिए निजी कंपनियों से अपील की गई थी कि वे सुविधाजनक बसें चलाने में सहयोग करें। मगर कंपनियों ने क्लस्टर बसों के रूप में लगभग वैसी ही बसें सड़कों पर उतारीं, जैसी ब्लू लाइन बस सेवाएं उतारती हैं। हालांकि डीटीसी ने वातानुकूलित बसें चलाईं, मेट्रो सेवाओं का विस्तार हुआ, मगर उनमें लगातार भीड़भाड़ बढ़ते जाने के चलते कार से चलने वाला वर्ग उनकी तरफ आकर्षित नहीं हो सका।

बल्कि जब सम-विषम योजना लागू की गई तो इस वर्ग में सक्षम लोगों ने अतिरिक्त कारें खरीदना बेहतर विकल्प समझा। कारपूल को लेकर बहुत सारे लोग इसलिए भी उत्साहित नहीं होते कि उन्हें सिर्फ घर से दफ्तर आने-जाने के लिए नहीं, बल्कि कामकाजी जरूरतों के चलते दिन भर अनेक जगहों पर आने-जाने के लिए वाहन की जरूरत पड़ती है। फिर भी ऐसे बहुत सारे लोग हैं, जो महज शान के लिए अकेले अपने वाहन में सफर करते हैं। उन्हें सोचने की जरूरत है कि आखिर शहर की बिगड़ती आबोहवा का असर लोगों की सेहत बिगाड़ रही है। जिन समस्याओं पर जागरूकता से काबू पाया जा सकता है, उनके लिए कानूनी कड़ाई का इंतजार क्यों करना चाहिए।


आरक्षण का दांव

आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर गुजरात सरकार ने दस फीसद का अतिरिक्त आरक्षण घोषित किया है। यह निर्णय पाटीदारों के आंदोलन के आगे घुटने टेकना ही कहा जाएगा। मगर मकसद फौरी तौर पर पाटीदारों की नाराजगी दूर करने के अलावा चुनावी भी होगा। गुजरात में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं और वहां पाटीदारों की संख्या खासी है, किसी भी अन्य जाति से अधिक। इसलिए राजनीति और चुनाव पर उनका असर या कहें वर्चस्व साफ दिखता है। स्थानीय निकायों के चुनाव नतीजों से डरी भाजपा ने आखिरकार पाटीदार आंदोलन के आगे हथियार डाल देना ही ठीक समझा। गुजरात सरकार का यह फैसला वैसा ही है जैसा जाटों को आरक्षण के दायरे में लाने का हरियाणा सरकार का था। दोनों जगह भाजपा की सरकारें हैं। तो क्या भाजपा ने आरक्षण के लिए मचल रहे ताकतवर समुदायों को संतुष्ट करने का फार्मूला निकाल लिया है? हरियाणा और गुजरात के फैसलों में फर्क यह है कि हरियाणा सरकार ने जाटों और कुछ अन्य समुदायों को चिह्नित करके अतिरिक्त आरक्षण का प्रस्ताव विधानसभा से पारित कराया, जबकि गुजरात सरकार ने सामान्य वर्ग में छह लाख रुपए सालाना से कम आमदनी वाले सभी परिवारों के लिए आरक्षण का दरवाजा खोल दिया है। इससे हरियाणा की तरह गुजरात में भी कुल आरक्षण उनसठ फीसद पर पहुंच जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की पचास फीसद की सीमा बांध रखी है। जाहिर है, हरियाणा और गुजरात, दोनों राज्यों के आरक्षण संबंधी कदमों का क्या हश्र होगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।
यहां सर्वोच्च अदालत के दो फैसले भी याद किए जा सकते हैं। गुर्जरों के लिए विशेष आरक्षण का राजस्थान सरकार का प्रावधान न्यायिक समीक्षा में नहीं टिक पाया था। जाटों को आरक्षण देने के यूपीए सरकार के निर्णय को असंवैधानिक ठहराते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि जाट आरक्षण की शर्तें पूरी नहीं करते। यानी केवल आर्थिक आधार पर आरक्षण देना आरक्षण की मूलभूत अवधारणा के खिलाफ है। तमिलनाडु अकेला राज्य है जहां 69 फीसद आरक्षण है। पर यह अपवाद इसलिए है क्योंकि संसद से पारित संवैधानिक संशोधन के जरिए तमिलनाडु को इसकी इजाजत दी गई थी। भाजपा यह जता रही है कि चाहे हरियाणा सरकार का फैसला हो या गुजरात का, वह कानूनी लड़ाई लड़ेगी। पर सर्वोच्च न्यायालय के पिछले फैसले बताते हैं कि आखिरकार क्या होगा। दरअसल, भाजपा की ओर दिया जा रहा कानूनी लड़ाई लड़ने का आश्वासन अगले विधानसभा चुनाव तक पाटीदारों के मान-मनौव्वल की कवायद का हिस्सा है। लेकिन क्या यह रणनीति कामयाब होगी? अभी भाजपा को भले लग रहा हो कि उसने सभी को खुश करने वाला आरक्षण का एक नायाब फार्मूला ढूंढ़ लिया है, पर इस दांव के खयाली पुलाव साबित होने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। 

Times of India

Floods, Now Fire

Mobilise all resources to fight raging forest fires in Uttarakhand

Raging forest fires that have devoured more than 2,500 hectares of land in Uttarakhand have shown up huge gaps in the hill state’s capacity to prevent calamities. The Uttarakhand fire may have had natural causes but the environmental catastrophe has been exacerbated by the state’s slow response. The loss of precious wildlife, thousands of trees, and three human lives is a direct consequence. Worryingly, jungle fires are now spreading to Himachal Pradesh and Jammu & Kashmir.

Though forest fires have only made the headlines now, extremely dry weather has meant that large jungle swathes have intermittently been on fire since February, annihilating flora and fauna in 13 districts and threatening to consume Corbett and Rajaji National Parks. It is only now that seven IAF choppers and three army battalions have been pressed into service, along with NDRF. Six thousand personnel have been mobilised. Environment minister Prakash Javadekar says that the first aim is to reduce some 1,200 fires to just 60.

First, with no customary and intermittent rains in April this year, the Uttarakhand administration ought to have cleared dry leaves and highly combustible pine needles in advance. Second, several Uttarakhand environmentalists and activists are blaming timber and land mafia for what they allege are “man-made” fires. If these allegations are indeed true, exemplary punishments must be meted out to guilty officials. Mismanagement of relief and rehabilitation work by the Uttarakhand government after the 2013 floods, which killed over 5,000 people, is still fresh in the minds of the people. Haphazard urbanisation with utter disregard for environmental norms and a land mafia-local administration nexus has led to India facing an unprecedented challenge of depleting forest cover, exacerbated by climate change. According to the latest estimates, there is a 25% shortage of forest personnel in the country.

The government must fix these lacunae at the earliest. It is saying it will study the cause for such huge fires before preparing an action plan. This is insufficient and highlights a lackadaisical approach to an acute problem which has already reached emergency proportions. The top priority now must be to douse the fires before they spread further, for which all resources must be mobilised. Given that President’s rule was recently declared in Uttarakhand it is squarely the Centre’s baby, all the more so because the Centre can best coordinate with neighbouring states where the fires are raging too.


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Latest position

IRNSS morphs into Navic, bringing India its very own, completely secure GPS systems.

With the deployment of the seventh and last unit of the Indian Regional Navigation Satellite System (IRNSS), India has joined the small group of nations with their own satellite navigation systems. The US GPS was the trailblazer with a global footprint, followed by the Russian GLONASS and French DORIS. The European Union’s Galileo and China’s BeiDou satellite arrays will be globally deployed by the end of the decade. Currently, BeiDou is a more restricted system, like Navic — which is the human-utterable name of IRNSS. With a resolution of 10 metres, the new Indian system’s footprint extends to 1,500 km beyond Indian borders, and is expected to be operational by July. However, the array of seven satellites is bound to expand over time, opening up wider possibilities for commercial applications.

For the moment, the chief beneficiary of Navic is the military, which now has access to an encrypted and completely secure service. The forces will no longer have to depend on the US service, a weakness that was exposed during the Kargil conflict of 1999, when accurate GPS data on the region was not forthcoming in real time. The geopolitical imperative to develop an indigenous system was immediately obvious and today, it is almost ready to roll. The forces use GPS for the guidance of smart artillery shells and bombs, besides ballistic and cruise missiles. Of course, the most routine uses of GPS remain traditional — finding targets, marshalling troops, executing manoeuvres and conducting search and rescue missions.

Apart from an encrypted service for the military, Navic will offer public access to an unsecured service for civilian applications like logistics, transportation, vehicle automation, robotics, disaster management, prospecting, the tracking of vehicles, people, pets and the Internet of Things. This could trigger a boom in GPS applications tuned to Navic. Manufacturing capacity would be a decisive factor, since a critical mass of GPS receivers would be required. In turn, this could provide an occasion for hardware manufacturers to turn protectionist and urge government to force manufacturers of GPS products to patronise the Indian service. However, public access GPS has traditionally been an open system and should remain so. In applications that do not have security implications, users should have the choice of switching to whichever satellite system they find convenient. Such issues with commercial implications will develop over time. For the moment, Navic brings peace of mind to the military.


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Let’s Cough Out Facts

 

Road restrictions aimed to cut pollution in Delhi have again failed to show any noticeable impact of personal cars on pollution. The only clear winners in the unscientific and unpopular scheme are the often-unscrupulous people who drive autorickshaws or black-yellow cabs.

For them, restrictions on personal cars was a blessing as their supply is rising faster than demand, while customers are lured to the relatively efficient, convenient and honest services from Uber and Ola. It is pertinent to note that while many volunteers preached green wisdom to motorists, these holier-than-thou advocates of car restrictions were never seen preventing devious autorickshaw drivers from overcharging.

Citizens feel cheated, and not just from autorickshaws. Data from the Indian Institute of Tropical Meteorology shows that the hardship from road rationing has not cleaned up the air. Air quality deteriorated sharply as soon as the scheme began and improved noticeably as soon as it ended.

Further, the density of small particles, PM2.5, was consistently above the red line throughout the odd-even phase, but was in the safe limit in the preceding two weeks.

The safe limit for PM2.5 density is 60 mg per cubic metre. During road restrictions, the 24-hour average never fell to that level, but was clearly below that twice in the two weeks before the scheme. It shot up to three-digit levels 13 times in April. Eleven of these days were when half of Delhi’s private vehicles were off the road. The month’s highest PM2.5 density was also recorded while restrictions were enforced.

This is not to suggest that private cars emit oxygen. It merely reinforces what is already obvious to scientists: dust on the roads, two-wheelers and, above all, trucks are much bigger pollutants. Also, the speed and direction of wind is a major factor.

The first round of the experiment in January also found no clear correlation between personal vehicles and pollution despite the fact that this winter, Delhi was decisively warmer than last year, making it more likely for pollutants to disperse. Those who defend the scheme may argue that the weather and wind may have spoilt their party. However, it is difficult to believe that for two weeks in January and two weeks in April, the weather consistently conspired against the scheme. It is more likely that dust particles from Delhi’s streets, Rajasthan’s desert, other towns as well as other factors totally outweigh the impact of cars. The flood of interstate buses with poorly maintained diesel engines also adds to pollution.

Factors other than pollution seem to have influenced the very odd odd-even scheme. The Delhi government exempted ‘women-only’ cars. This means that if a woman is driving a car, road restrictions kick in as soon as a male boards the vehicle. So does the presen- ce of a male passenger add to air pollution? No, it encourages carpooling. Such a condition can only discourage efficient use of resources and help autorickshaws and taxis.

Another strange part of the scheme is that the official announcement can lead one to believe that the highest court of the land has no problems from fumes from a truck’s exhaust. The notification begins saying that the Supreme Court, the Delhi High Court and the National Green Tribunal have asked for measures to check the alarming level of pollution.

“Therefore,” the Delhi government says, steps are required to “control vehicular pollution caused by non-transport four-wheeled vehicles (motor cars etc)”. Surely, none of the judicial bodies said anything that can be twisted to imply that the judges blame only personal cars for pollution.

Official data shows that air pollution in Delhi often jumped around midnight, or a little before sunrise, and was moderate during the evening rush hour. Trucks would have contributed significantly to this. Therefore, it would be logical to wait for the expressways bypassing Delhi to be completed before taking any more steps to restrict personal cars.

It’s best to avoid rash, whimsical or political steps in the name of pollution, when official data and studies by reputed bodies like the IIT can give a more balanced and rational approach.

So, how can we control air pollution? The courts, the Delhi administration and the central government have tried. None of these efforts has really worked. The only people who actually found the answer are — hold your breath — the Jats.

When the community was agitating, some of its members choked every highway leading to Delhi. That was a rare instance of truck movement in the region — not just the city — grinding to a halt. Those were the days when Delhi’s air quality improved. Of all the measures of a company’s performance, its earnings per share (EPS) may be the most visible. It’s the ‘bottom line’ on a company’s income statement. It’s usually the first or second item in any company press release about quarterly or annual performance. It’s also often a key factor in executive compensation.

But for all the attention EPS receives, it is highly overrated as a barometer of value creation. In fact, over the last 10 years, 36% of large companies with higher-than-average EPS underperformed on average total return to shareholders (TRS). While it’s true that EPS growth and shareholder returns are strongly correlated, executives and naïve investors sometimes take that relationship too seriously.

If improving EPS is good, they assume, then companies should raise it by any means possible. The fallacy is believing that anything that improves EPS will have the same effect on value creation and TRS. On the contrary, the factors that most influence EPS — revenue growth, margin improvement, share repurchases — affect value creation differently. Revenue growth, for example, can raise TRS as long as the organic investments or acquisitions behind it earn more than their cost of capital. Margin improvements, by cutting costs, for instance, can increase TRS as long as they don’t impede future growth by cutting essential investments in R&D or marketing.


 RastriyaSaharalogo

उज्ज्वल कामना

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उत्तर प्रदेश के धुर पूरब से गरीबी रेखा के नीचे के लोगों को रसोई गैस बांटने की ‘उज्ज्वला’ योजना की शुरुआत की.

इस योजना के तहत अगले तीन साल में 5 करोड़ रसोई गैस कनेक्शन मुफ्त मुहैया कराए जाएंगे और सरकार के दावे के मुताबिक यह करीब 1.13 करोड़ लोगों के सब्सिडी वापस करने की घोषणा से संभव हो पाया है. प्रधानमंत्री ने जोर देकर कहा कि इसका चुनाव से कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन राजनैतिक पंडित इसमें चुनावी अर्थ ढूंढ़ सकते हैं; क्योंकि अगले साल उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव होने वाले हैं, जो भाजपा के लिए खासा अहम होंगे.

इस चुनावी गणित को छोड़ दें तो खासकर ग्रामीण इलाकों और गरीबों में देश के प्राकृतिक संसाधनों के बंटवारे के लिहाज से भी यह कदम थोड़ा ही सही, पर महत्त्वपूर्ण कहा जा सकता है. हालांकि कोई यह सवाल उठा सकता है जब सबल लोगों ने सब्सिडी छोड़ी तो इस बारे में सोचा गया जो गरीबों का भी वाजिब हक बनता है. उम्मीद की जानी चाहिए की सरकार संसाधनों के बंटवारे जैसे और कदम उठाएगी.

प्रधानमंत्री ने कहा कि उनकी सरकार की पहली प्राथमिकता गरीबों का कल्याण है. हालांकि फिर यह सवाल कोई उठा सकता है कि देश में जारी मौजूदा आर्थिक नीतियों की दिशा कारोबार तथा पूंजी निवेश हितैषी हैं. इन्हीं नीतियों से ग्रामीण अर्थव्यवस्था चौपट हो गई है और देश में बड़े पैमाने पर गैर-बराबरी बढ़ी है.

इन्हीं नीतियों पर जोर देने से तरह-तरह के पर्यावरण संबंधी और घोर जल संकट पैदा हो रहा है. इससे सूखे का दंश भी बड़े पैमाने पर दिख रहा है और किसान लगातार आत्महत्या करने पर मजबूर हो रहे हैं. देश का एक-चौथाई हिस्सा आज सूखे की चपेट में है और सुप्रीम कोर्ट को सरकार को बार-बार हिदायत देनी पड़ रही है कि ग्रामीणों को राहत देने के लिए मनरेगा की रकम जारी की जाए और उन्हें कानून के मुताबिक कार्यदिवस मुहैया कराए जाएं. ऐसे में मौजूदा आर्थिक नीतियों पर पुनर्विचार करना बेहद जरूरी है. 

प्रधानमंत्री ने मजदूर दिवस पर यह योजना शुरुआत करते हुए यह भी कहा कि अब ‘दुनिया के मजदूरों एक हो’ नारे के बदले नारा यह होना चाहिए कि ‘मजदूरों दुनिया को एक करो’. लेकिन यह तभी संभव होगा जब मजदूरों के हक उन्हें हासिल होंगे. कोई कह सकता है कि भविष्य निधि में ब्याज दर में कटौती और उसे निकालने पर पाबंदी के फैसले को सरकार को भारी विरोध के बाद पलटना पड़ा. जाहिर है, इस दिशा में और ज्यादा सरकारी पहल की दरकार है.


 जब सूखे से हो सामना

लगातार दो वर्षो यानी 2014-15 और 2015-16 में सूखे ने भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बेहद बुरी तरह प्रभावित किया है.

फसल चौपट हो जाने के कारण के अनेक क्षेत्रों में किसानों की खासी आर्थिक क्षति हो चुकी है. किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं. किसानों की आमदनी गिरने से अर्थव्यवस्था में कुल प्रभावी मांग भी खासी प्रभावित हुई है. इससे अर्थव्यवस्था की समग्र वृद्धि शिथिल पड़ गई है. अनेक स्थानों पर पेयजल और पशु चारे की बेहद कमी हो गई है. गांवों में जीवन-स्थितियां इस कदर कठिन हो गई हैं कि उनसे पार नहीं पाया जा रहा. 2015-16 के मॉनसून सीजन यानी एक जून से 30 सितम्बर के दौरान सामान्य औसत वर्षा 887.5 मिमी. के विपरीत मात्र 760.6 मिमी. औसत वर्षा दर्ज की गई.

दूसरे शब्दों में मॉनसून सीजन में वर्षा में लगभग 14 प्रतिशत की कमी रही. मॉनसून बाद के सीजन में भी देश में औसत वर्षा लगभग 23 प्रतिशत कम थी. तेलंगाना, मराठवाड़ा, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, केरल, गुजरात, पूर्वी मध्य प्रदेश, पूर्वी और पश्चिमी उत्तर प्रदेश, बिहार, दिल्ली, पंजाब और हिमाचल में मॉनसून सीजन में वर्षा, जो खरीफ की फसल को प्रभावित करती है, 20 से 59 प्रतिशत कम रही. मॉनसून बाद यानी अक्टूबर से दिसम्बर, 2015 के दौरान मध्य भारत में लगभग 63 प्रतिशत कम बारिश हुई. इस दौरान पूर्वी और पूर्वोत्तर भारत में यह 58 प्रतिशत कम थी. उत्तर-पश्चिम भारत में 26 प्रतिशत कम बारिश दर्ज की गई. इस प्रकार देश के ज्यादातर भाग सूखे से प्रभावित हुए.

भारत मौसम विभाग ने 2016 का आगामी मॉनसून सीजन अच्छा रहने की भविष्यवाणी की9__8082765 है. उसका आकलन है कि जून से सितम्बर के दौरान बारिश का मासिक वितरण भी अच्छा रह सकता है. इससे किसानों और अन्य ग्रामीणों को कुछ राहत मिल सकेगी. लेकिन बीते दो वर्षो के दौरान लगातार पड़े सूखे से हो चुके नुकसान और विकास में आई शिथिलता की भरपाई कठिन होगी. यकीनन कठिनाई के हालात कमोबेश बने रहने हैं. 15 फरवरी, 2016 में जारी कृषि मंत्रालय के दूसरे अग्रिम आकलन के मुताबिक, खरीफ सीजन में खाद्यान्न उत्पादन लगभग 4 मिलियन टन कम है, लेकिन 2015-16 के रबी सीजन में खाद्यान उत्पादन में कोई कमी नहीं थी.

2015-16 में समग्र खाद्यान्न उत्पादन 2014-15 के खाद्यान्न उत्पादन 252.02 मिलियन टन से थोड़ा बढ़कर 253.16 मिलियन टन रहने का अनुमान है. अलबत्ता, यह 2013-14, जो एक सामान्य वर्ष था, की तुलना में लगभग 12 मिलियन टन कम है. गन्ना उत्पादन में बीते वर्ष की तुलना में लगभग 15.9 मि. टन तथा कपास के उत्पादन में इसी अवधि में 4.1 बिलियन टन की कमी रही. हालांकि, खाद्यान्न उत्पादन की वृहद् स्तर पर स्थिति इतनी बुरी नहीं है, लेकिन सूखाग्रस्त क्षेत्रों में किसान लाचार हैं. जो थोड़े समृद्ध थे, वे साहूकारों के चंगुल में फंसने को विवश हो गए, लेकिन छोटे-सीमांत किसानों को तो कोई शरण भी नहीं मिली. इनके सामने खाद्य, पेयजल और पशुओं के चारे की घोर कमी है. बीते कुछ महीनों में औसत तापमान सामान्य से काफी ऊंचा रहा है. इससे पानी का वाष्पीकरण बढ़ता है और पेयजल का संकट गहरा जाता है.

 इसके अलावा, सिंचित क्षेत्रों में किसानों ने सिंचाई बढ़ाकर फसल तो बचा ली, लेकिन उनकी उपज की उत्पादन लागत बढ़ गई है. अगर सामान्य स्थितियां रहतीं तो उनका लाभार्जन कहीं ज्यादा रहता. लेकिन बाजार भी तमाम अनियमितताओं से ग्रस्त है, किसानों को प्राय: उत्पादन लागत से भी कम दाम पर उपज बेचनी पड़ती है. व्यापारी अभाव के इस स्थिति का फायदा अपने हित में उठाने की गरज से तनिक भी देर नहीं लगाते. किसानों को पैदावार का कम दाम मिलता है, लेकिन उपभोक्ताओं को बाद में ऊंचे दाम पर खाद्यान्न खरीदने पड़ते हैं. दुखद ही तो है कि किसान को कम दाम मिलता है, और उपभोक्ता से ज्यादा दाम वसूल लिया जाता है.

उपरोक्त तथ्यों के मद्देनजर समुचित कार्य योजना बनाया जाना जरूरी है. साथ ही, अल्पकालिक और दीर्घकालिक समाधानों के मद्देनजर इस प्रकार की कार्य योजना का अच्छे से क्रियान्वयन भी जरूरी है. अल्पकालिक उपाय के रूप में सूखा-पीड़ित क्षेत्रों के किसानों और अन्य लोगों में प्रत्येक परिवार को तत्काल एक लाख रुपये तक ब्याज-मुक्त सांस्थानिक ऋण मुहैया कराया जाना चाहिए. दीर्घकालिक उपाय के तौर पर प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, वॉटरशेड डवलपमेंट, प्रधानमंत्री सिंचाई योजना और नेशनल एग्रीकल्चरल मार्केट जैसी योजनाओं का समुचित क्रियान्वयन किया जाना चाहिए ताकि सूखे के कारण किसानों और अन्य ग्रामीणों पर टूटे आर्थिक कहर को कम से कम करने में मदद मिल सके.

इसके अतिरिक्त, जरूरी है कि लोगों को वर्षा जल संचयन और उसके अच्छे से उपयोग की दिशा में जागरूक किया जाए. किसानों को जागरूक और प्रोत्साहित किया जाए ताकि वे ज्यादा जल-उपयोग करने वाली धान और गन्ना जैसी फसलों के स्थान पर दलहन, तिलहन, मोटे अनाज वगैरह की फसलों की खेती करें. इसके साथ ही, खेती की एसआरआई विधि, जिसमें कम पानी की जरूरत होती है, जैसी संरक्षण/रक्षण वाली खेती को प्रोत्साहित किया जाए. सिंचाई के लिए पानी के युक्तिसंगत दाम रख कर पानी के सदुपयोग को बढ़ावा दिया जा सकता है. सिंचाई के फ्लड तरीके के स्थान पर ड्रिप, स्प्रिंकलर आदि का इस्तेमाल कारगर रहेगा. आखिर में कहना यह कि नये तालाब बनाने और टैंकों के नवोन्मेषन कार्य में मनरेगा को जरिया बनाया जाए. इससे जल संरक्षण हो सकेगा. अतिरिक्त रोजगार सृजन होगा और ग्रामीण गरीबों की आय बढ़ सकेगी. मौजूदा सरकार इस दिशा में कदम उठा रही है. इन उपायों के परिणाम कुछ दिनों में मिलने की उम्मीद है. अलबत्ता, जन-हितैषी कुछ केंद्र-प्रायोजित योजनाओं के क्रियान्वयन में केंद्र और राज्य सरकारों के बीच कारगर समन्वय की जरूरत है.


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