03-12-2025 (Important News Clippings)
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Date: 03-12-25
Call Back
Govt should keep improving Sanchar Saathi, already in app stores. Let users decide whether they want it
TOI Editorials
Govt’s clarification that Sanchar Saathi app is not mandatory for new phones may reassure buyers, but the matter doesn’t rest there. Phone makers, almost all of whom are foreign-based, still have to deal with the original order’s ramifications. Reports say Apple has already refused to preload the app on its phones, others are pondering.
In hindsight, this controversy was avoidable. The Sanchar Saathi portal launched in May 2023, followed by the app. Govt has been spreading awareness about both via text messages, and they already have many millions of users, no doubt attracted by their success in tracing lost or stolen devices. It could have let the app grow organically, rather than order its compulsory installation on all devices. Or, it could have held public consultations with users, privacy groups and industry before taking a decision.
That said, making govt apps mandatory outside an emergency is not a good idea. Phones are our private space, and one mandatory intrusion by govt raises fears of more in the future. Covid justified the Aarogya Setu mandate before the population was vaccinated, but it was only required for accessing public places like airports and railway stations. Is Sanchar Saathi a similar crisis intervention? No. Then, let’s not make it compulsory. Keep it in App Store and Google Play, go on improving it, but let users decide whether they want it.
Phone manufacturing has been one of India’s bigger post-pandemic success stories. In value terms, it more than doubled in just four years, and exports grew nine-fold. To remain on this trajectory, more investments are needed, but jarring orders like this can be discouraging. Industry – especially foreign investors – is never comfortable with the feeling of overreach. Recall what happened when India tried to spur local manufacturing of laptops and tablets in Aug 2023, by announcing import curbs with immediate effect. But as firms stopped shipments, it deferred the curbs a day later, and withdrew them in Oct. Yet, big brands like HP have grown manufacturing capacity in India over the past two years, without govt pressure.
Likewise, people will adopt Sanchar Saathi in growing numbers when it fulfils a compelling need. It’s good that govt has built infra to prevent cybercrime, equipping it with a supercomputer and AI. But it should be patient with Sanchar Saathi’s growth, and withdraw the order mandating its installation completely.
Date: 03-12-25
Baiting With Rage
Social media makes money by algohacking many human brains. Contrast that model with responsible media’s
TOI Editorials
Anger can be a useful emotion. It can play a key role in building a strong individual psyche, as also a just society. But the algo hacking of our brains to keep them in a state of incessant anger? That’s pure poison. Some companies and individuals draw colossal profits from it, but at terrible cost to general well-being. That rage bait has been declared Oxford’s word of 2025 is indicative of the spread of this poison. In 2024, it was brain rot that came on top. Both speak of the same diseased online ecosystem.
Enshittification is another name for it, given by Cory Doctorow. Attention deficit epidemic, is how Jonathan Haidt annotates it. All of this is bad enough for adults, but what it’s doing to children is a great nightmare.
Specifically, rage bait refers to online content designed to elicit anger or outrage. Once tech platforms figured out how this kind of content spirals user engagement, the algorithms got tweaked to feed us more and more of the same, activating a diabolical incentive structure of hate. Of course, in this swamp, reality is completely distorted. You could take any major event of recent times as an example and the difference between your newspaper’s reportage and your online feed would be dramatic. Reading responsible accounts of pollution, terror attack, election result…would give you food for thought. On social media, you would be targeted with stuff doctored to send you into troll mode.
If you block the accounts that most inflame you, you deprive them of your attention, you refuse to buy the hate they are selling. Blocking even hurts them with the algorithm. David did defeat Goliath. And make no mistake, this is a civilisational battle. We must fight against the atrophy of our attention, its capture by the most terrible types of things that human nature can be drawn to, to regain our sense and sensibility.
Date: 03-12-25
नई तकनीक से देश में किसानों के दिन बदलेंगे
संपादकीय
कृषि एक नई क्रांति के मुहाने पर है यानी किसानों के दिन बहुरेंगे। विगत सितम्बर में कृषि मंत्रालय के कटक-स्थित राइस शोध संस्थान के लक्षित जीनोम एडिटिंग सिस्टम (टीएनपी-बी) को अंतरराष्ट्रीय पेटेंट का दर्जा मिलने के बाद देश में धान ही नहीं, सभी किस्म के कृषि उत्पादों को रोग, खरपतवार और मौसम के कुप्रभावों से बचाया जा सकेगा। चावल के उत्पादन में नई विधि के बीजों से 69% ज्यादा उत्पादन हो सकेगा। इन शोधों से उत्साहित हो सरकार जीन-एडिटिंग की एडवांस ट्रेनिंग के लिए पहले से भेजे नौ कृषि वैज्ञानिकों के अलावा 20 और नए वैज्ञानिकों को ऑस्ट्रेलिया, यूएस, यूरोप और मैक्सिको भेज रही है। अन्य फसलों पर शोध करने वाले करीब एक दर्जन अन्य वैज्ञानिक भी विदेशी संस्थानों में अध्ययन करेंगे। जीन- एडिटिंग क्रांति इसलिए संभव हुई, क्योंकि जीएम बीजों (बीटी कॉटन को छोड़ पर रोक जारी रखते हुए सरकार ने 2022 में कृषि उत्पादों में जीन-एडिटिंग से रोक हटा दी थी। इसके बाद से भारतीय वैज्ञानिकों ने धान, गेहूं सहित डेढ़ दर्जन अनाज, दलहन, तिलहन और गन्ने की जींस में एडिटिंग पर शोध शुरू किया। जीएम और जीई में फर्क यह है कि पहले में विदेशी नस्लों के जींस को लक्षित पौधे के डीएनए में डालकर बदलाव किया जाता है, जबकि एडिटिंग विधि में इसी पौधे के डीएनए में काट-छांट की जाती है। सरकार को भरोसा है कि जेनेटिक एडिटिंग में पेटेंट के बाद भारत दुनिया में तिलहन-दलहन में आत्मनिर्भर होगा और कृषि उत्पादों का बड़ा निर्यातक भी बनेगा।
Date: 03-12-25
कैसी हवा, कैसा पानी हम अपने बच्चों के लिए छोड़कर जाएंगे?
डॉ. अनिल जोशी, ( पद्मश्री से सम्मानित पर्यावरणविद् )
दुनिया में हवा को लेकर हम कितने गंभीर हैं, यह तो अभी वर्तमान में जारी एक रिपोर्ट में साफ दिखाई देता है। अक्टूबर 2025 में दुनिया के सभी देशों के प्रदूषित शहरों की एक सूची जारी की गई और इस सूची में 40 शहर अपने ही देश में पाए गए। इसके दो बड़े कारण हैं। एक, शहरों में आवाजाही और गाड़ियों की रफ्तार का बढ़ना और दो, यहां लगातार हो रहे ढांचागत विकास के कार्य, जो वायु प्रदूषण में बड़ा योगदान कर रहे हैं।
बड़ी बात यह है कि जिस प्राण-वायु को हमने प्राण का नाम दिया, उसके प्रति हमारी यह उपेक्षा आने वाले समय के लिए एक बहुत बड़ा संकट बनने जा रही है। कितनी अजीब बात है कि मनुष्य ने अपनी ही जमीन अपने पैरों तले से खिसका दी है, क्योंकि जंगल और जमीन दोनों किसी न किसी रूप में संकट में जा चुके हैं। लेकिन जो बड़ा विषय है, वह इस रूप में है कि प्राण-वायु- जो हर क्षण हमारे लिए अनिवार्य है- को लेकर हालात इतने गंभीर हो जाएंगे, इस पर पहले विचार नहीं किया गया।
आज देश की तस्वीर आसमान से धुंधली ही दिखाई देगी, क्योंकि वायु का भीषण प्रदूषण है। यह आने वाले समय में विकास के नाम पर एक बड़ा धुंधला धब्बा भी बनेगा। शहरों में बढ़ते वायु प्रदूषण के पीछे सबसे बड़े कारणों में गाड़ियों की बढ़ती संख्या और बढ़ता जाम हैं। ये शहरों का दम घोट रहे हैं।
300 से ऊपर एक्यूआई होना सीधा बड़ा खतरा है। इसका मतलब है कि हम खतरे की सीमा से आगे जा चुके हैं। हमारे देश के तो कई शहर इस खतरे को छू चुके हैं। पार्टिकुलेट मैटर पीएम1 बहुत ही छोटा कण होता है। यूरोपियन रेस्पिरेटरी सोसाइटी के अनुसार यह अत्यंत घातक है और किसी भी देश के एक्यूआई की गंभीरता तय करता है।
अपने देश में भी ये इंडेक्स लगातार मापा जाता है, लेकिन जिस तरह के हालात हैं, उनमें हम इस तरह के इंडेक्स बनाकर क्या करें, जब हम उन पर कोई गंभीर निर्णय ही नहीं ले पाते हों? वायु प्रदूषण से होने वाले कष्टों को अगर हम समझ लें तो शायद कुछ हमारी समझ में आए।
वायु प्रदूषण में नाइट्रोजन डायऑक्साइड, सल्फर डायऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, अमोनिया जैसे घातक तत्व शामिल होते हैं, जो शरीर को नुकसान पहुंचाते हैं और गंभीर रोगों का कारण बनते हैं। सरल-सी बात है, जब हर क्षण हम सांस लेते हैं, तो यह मान लीजिए कि यह विषैली हवा फेफड़ों में सिस्टेमिक इंफ्लेमेशन और कार्सिनोजेनिसिटी पैदा कर सकती है।
पहले से ही लोग अगर किसी न किसी रोग में हैं, तो उनके लिए यह और भी गंभीर परिस्थितियां पैदा करेगा। कई बीमारियां जैसे स्ट्रोक, डायबिटीज, क्रॉनिक ऑब्स्ट्रक्टिव पल्मोनरी डिसीज, लंग कैंसर- इन सबका संबंध वायु प्रदूषण से जोड़ा जा रहा है। आज भी दुनिया में करीब 40 से 50 लाख लोग असमय मौत के शिकार बनते हैं और इसे इसी से जोड़कर देखा जा रहा है।
जिस तरह धूम्रपान कैंसर की वजह बनता है, अब 40% फेफड़ों का कैंसर प्रदूषण के कारण हो रहा है। मतलब आप बीड़ी-सिगरेट का सेवन करें या न करें- कोई फर्क नहीं पड़ता- अगर आप ऐसे शहर में हैं, जहां एक्यूआई 300 से ऊपर है, तो आप खतरे की सीमा पर हैं।
इंटरनेशनल एजेंसी फॉर रिसर्च ऑन कैंसर ने पीएम1 को कैंसर का प्रमुख कारण माना है और हमारी तरफ से इसके नियंत्रण के लिए कोई बेहतर प्रयास दिखाई नहीं दे रहे हैं। द लांसेट प्लेनेटरी हेल्थ स्टडी के अनुसार पीएम 2.5 में जरा-सा भी बदलाव 60 वर्ष से अधिक लोगों की मृत्यु की आशंका को 1.5% बढ़ा देता है।
यह आंकड़ा बहुत गंभीर है। क्योंकि अपने देश में बुजुर्ग पहले ही कई बीमारियों की चपेट में रहते हैं। विडम्बना यह है कि यदि प्रदूषित वायु में आप अधिक व्यायाम करेंगे, तो प्रदूषण के और बड़े शिकार बनेंगे!
दासता के प्रतीकों से मुक्ति आवश्यक
ए. सूर्यप्रकाश, (लेखक प्रसार भारती के पूर्व चेयरमैन एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2047 तक भारत को विकसित राष्ट्र बनाने का संकल्प लिया है। इस संकल्प की पूर्ति में उन्होंने पांच प्रण लेने का आह्वान भी किया है। इनमें एक प्रण औपनिवेशिक मानसिकता से छुटकारा पाना भी है। इसी कड़ी में उन्होंने कहा है कि अगले दस वर्षों के भीतर थामस बाबिंगटन मैकाले की विरासत को तिलांजलि देनी होगी। असल में मैकाले कुछ और नहीं, बल्कि अंग्रेजियत का एक प्रतीक है। इसी प्रतीक से मुक्ति पाने की प्रधानमंत्री हाल में दो बार चर्चा भी कर चुके हैं। यहां तक कि अयोध्या में राम मंदिर के ध्वजारोहण कार्यक्रम में भी उन्होंने इस संकल्प का उल्लेख किया।
मैकाले अंग्रेजी राज में सार्वजनिक शिक्षा के निदेशक थे। अंग्रेजी शिक्षा को बढ़ावा देने और भारतीय भाषाओं, संस्कृति और सभ्यता की शक्तियों को नष्ट करने के लिए मैकाले ने 1835 में एक विस्तृत योजना बनाई। ब्रिटिश सरकार की स्वीकृति के बाद इस योजना के तहत देशभर में कान्वेंट स्कूलों की बाढ़ आ गई और क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा उपेक्षित होती गई। मैकाले की रणनीति कई पहलुओं पर केंद्रित थी। उनका कहना था कि संस्कृत एक ‘व्यर्थ’ की भाषा है और इसे छोड़ देना चाहिए।
इसके बजाय भारतीयों को अंग्रेजी सिखाई जानी चाहिए, क्योंकि यह एक श्रेष्ठ सभ्यता की भाषा है और विज्ञान, इतिहास, दर्शन आदि में आधुनिक ज्ञान की कुंजी है। मैकाले के अनुसार भारतीय भाषाओं में ‘न तो साहित्यिक और न ही वैज्ञानिक जानकारी’ है और वे ‘दरिद्र और अशिष्ट’ हैं। उन्होंने कहा कि संस्कृत और अरबी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में उपलब्ध साहित्य का अध्ययन करने के बाद उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि ‘किसी अच्छे यूरोपीय पुस्तकालय की एक बुक शेल्फ भारत और अरब के समस्त स्थानीय साहित्य से अधिक मूल्यवान है।’
मैकाले का मानना था कि संस्कृत में उपलब्ध पुस्तकों से एकत्रित ऐतिहासिक जानकारी इंग्लैंड के प्राथमिक स्कूलों की मामूली सामग्री के समक्ष भी कहीं नहीं ठहरती। स्पष्ट है कि उन्हें इस बात का कोई ज्ञान नहीं था कि भारतीयों ने शून्य की खोज की थी। भारत में आर्यभट्ट और भास्कराचार्य जैसे अद्भुत गणितज्ञ और खगोलज्ञ थे। वह भी तब, जब ब्रिटिश गुफाओं में रहने और जंगली जानवरों के शिकार पर आश्रित थे।
आर्यभट्ट अपनी ज्यामिति, त्रिकोणमिति के अलावा पृथ्वी, चंद्रमा और ग्रहों के व्यास की सटीक गणना के लिए जाने जाते हैं, जो उन्होंने 1,500 साल पहले की थी। उन्होंने सूर्य और चंद्र ग्रहणों की व्याख्या की और वर्ष में 365 दिनों की संख्या का सटीक आकलन किया। भास्कराचार्य दिग्गज गणितज्ञ थे। उनके आविष्कारों में कलन (कैलकुलस) और ग्रहों की अंडाकार कक्षा शामिल थी, जो उन्होंने 900 साल पहले की थी। मैकाले जैसा अज्ञानी ही इन उपलब्धियों को अनदेखा कर सकता था।
मैकाले ने भारतीयों को अंग्रेजी रंग में रंगने का एक सुनियोजित अभियान चलाया। उनकी रणनीति यह थी कि हमें ऐसे लोगों का वर्ग तैयार करना है, जो मूल रूप से तो भले ही भारतीय हों, लेकिन उनके रंग-ढंग पूरी तरह अंग्रेजों जैसे हों। उन्होंने अंग्रेजी और अंग्रेज संस्कृति को श्रेष्ठताबोध के रूप में स्थापित करने का अभियान छेड़ा। तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बेंटिंक ने मैकाले के अभियान को परवान चढ़ाने के लिए मार्च 1835 में एक आदेश जारी किया कि सरकारी धन का उपयोग केवल अंग्रेजी भाषा के माध्यम से पश्चिमी शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए किया जाएगा।
हालांकि इन स्कूलों में पढ़ने वाले लाखों छात्रों ने कभी नहीं समझा कि पढ़ाई के जरिये किस तरह उनका ब्रेनवाश किया जा रहा है। बेंगलुरु में स्कूली शिक्षा के दौरान मुझे खुद इसकी अनुभूति हुई। जैसे समूचा पाठ्यक्रम अंग्रेजियत पर केंद्रित होता था और पूरा परिवेश भी इंग्लैंड के किसी स्कूल सरीखा था। वार्षिक परीक्षाएं दिसंबर के आरंभ में होती थीं। इसके बाद एक महीने की क्रिसमस और नववर्ष की छुट्टी होती थी। सभी छात्रों ने क्रिसमस कैरोल सीखे। जबकि हमारी मातृभाषा कन्नड़ थी, लेकिन स्कूल में कोई कन्नड़ नहीं बोलता था। हमारे इतिहास और सामाजिक विज्ञान की कक्षाओं में रामायण, महाभारत या भारत के महान ग्रंथों और गाथाओं का कभी कोई उल्लेख नहीं होता था, लेकिन हमें रोम के निर्माण और जुड़वां भाई रोमुलस और रेमस के बारे में जरूर बताया जाता था। हमें अर्जुन के शौर्य या उनके गांडीव या भीम के कौशल के बारे में कभी नहीं बताया गया, मगर किंग आर्थर और उसकी जादुई तलवार एक्सकैलिबर के किस्से खूब सुनाए जाते थे।
समय का फेर देखिए कि अंग्रेजियत में रंगे ये अधिकांश बच्चे ही कालांतर में प्रमुख पदों पर कमान संभालते गए। राजनीति से लेकर सशस्त्र बलों, प्रशासनिक सेवाओं से लेकर मीडिया में उनका ही वर्चस्व स्थापित होता गया। आकांक्षी शहरी वर्ग मैकाले के इस सब्जबाग में फंसता गया, जिसने इसे एक अच्छी जीवनशैली का आधार समझा। एक तरह से वे भारतीय सभ्यता की स्मृतियों को दफन करने की साजिश में षड्यंत्रकारी ही बन गए। मैं भाग्यशाली रहा कि बाद में एक ‘भारतीय’ स्कूल में पढ़ने का अवसर मिला, जहां स्वामी विवेकानंद, श्री अरबिंदो, महाभारत और रामायण आदि के संपर्क में आया। यह भी कम दुख की बात नहीं कि स्वतंत्रता के बाद अधिकांश समय सत्ता पर काबिज रही कांग्रेस और नेहरूवादी और कम्युनिस्टों ने मैकाले के मानस पुत्रों को ही बढ़ावा दिया, जिन्होंने भारतीय इतिहास और संस्कृति की निंदा करते हुए फर्जी पंथनिरपेक्ष आख्यान गढ़ा।
भारत को अपनी प्राचीन संस्कृति और सभ्यता को पुनर्स्थापित करने के लिए 2014 में नरेन्द्र मोदी के सतारूढ़ होने तक प्रतीक्षा करनी पड़ी। दुख की बात है कि मोदी से पहले किसी भी प्रधानमंत्री ने मैकाले की मंशा के विध्वंसकारी प्रभावों का आकलन तक नहीं किया। अब जब मोदी ने इस भयानक समस्या की पहचान की है, तो भारत से प्रेम करने वाले सभी भारतीयों को यह संकल्प लेना चाहिए कि अगले दस वर्षों में मैकाले के प्रेत से पूरी तरह मुक्ति पाई जाए और भारतीय भाषाओं एवं संस्कृति का अपेक्षित महिमामंडन हो।
संदेह का संचार
संपादकीय
इसमें कोई दोराय नहीं कि तेजी से डिजिटल होती दुनिया में साइबर फर्जीवाड़ा तथा इससे जुड़े अन्य अपराधों ने एक जटिल शक्ल अख्तियार कर ली है और उससे निपटने के लिए ठोस उपाय जरूरी हैं मगर सवाल है कि अपराध या जोखिम से बचाव के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले किसी औजार को क्या एक नए तरह की असुरक्षा का वाहक बनने की इजाजत दी जा सकती है। केंद्रीय संचार मंत्रालय की ओर से सोमवार को जारी एक आदेश के तहत यह कहा गया था कि सभी स्मार्टफोन कंपनियां नव्ये दिनों के भीतर अपने स्मार्टफोन में सरकार द्वारा तैयार किए गए साइबर सुरक्षा एप ‘संचार साथी’ को पहले से ही इस तरह इंस्टाल करें कि उसे डिलीट और प्रतिबंधित या अक्षम नहीं किया जा सके। सरकार के मुताबिक, यह एप मोबाइल उपयोगकर्ताओं को धोखाधड़ी वाले फोन और संदेशों की रपट लिखवाने के साथ-साथ चोरी हुए मोबाइल की जानकारी देने में मदद करता है। प्रथम दृष्टया सरकार की यह पहल तेजी से फैल रहे डिजिटल फर्जीवाड़े और इससे जुड़ी अन्य गड़बड़ियों से बचाना दिखता है, मगर किसी भी स्मार्टफोन की बाकी सुविधाओं तक इस एप की पहुंच और इसके काम करने के तरीके के संबंध में जैसे तथ्य सामने आए हैं, उसे लेकर स्वाभाविक ही इसका तीखा विरोध शुरू हो गया है।
यों संचार साथी एप पहले से ही इंटरनेट पर ‘सर्च इंजन’ पर मौजूद है, लेकिन अब तक इसे उपयोगकर्ता स्वैच्छिक तौर पर ही अपने स्मार्टफोन में डाउनलोड करते रहे हैं। ताजा आदेश में जिस तरह इसकी अनिवार्यता को लागू करने की बात कही गई, उसके बाद सरकार के इस फैसले पर सवाल उठे हैं। विपक्षी दलों की ओर से यह आशंका जताई गई है कि सरकार इसके जरिए व्यक्ति की निजता के अधिकार को खत्म कर उसकी हर गतिविधि की जासूसी करना चाहती है या उसकी निगरानी करना चाहती है। किसी स्मार्टफोन में इंस्टाल होने के बाद संदेशों से लेकर अन्य जरूरी सुविधाओं तक पहुंच होने की वजह से संचार साथी के बेजा इस्तेमाल को लेकर भी अनेक आशंकाएं सामने आने लगी हैं। अगर वे सही उतरीं, तो इसकी क्या गारंटी है कि इस एप के जरिए न केवल लोगों की निजता के अधिकार को ताक पर रखा जाएगा, बल्कि उनके फोन में छेड़छाड़ भी की जाएगी!
हालांकि इस फैसले पर चौतरफा सवाल उठने पर सरकार की ओर से सफाई आई कि लोग इसे चाहें तो न रखें या अगर फोन में है तो उसे डिलीट कर दें। यह वैकल्पिक है। अगर वास्तव में ऐसा ही है तो संचार साथी एप को क्यों नहीं ‘सर्च इंजन’ के तहत ही रहने दिया जाता हैं, ताकि जिन्हें जरूरी लगे, वे स्वैच्छिक रूप से डाउनलोड कर लें। फिर अगर डिजिटल फर्जीवाड़े या अन्य साइबर अपराधों से लोगों की सुरक्षा के लिए ऐसे आदेश जारी किए जाते हैं, तो इसके बजाय तकनीक तथा उसके उपयोग को लेकर देश भर में व्यापक प्रशिक्षण और जागरूकता का अभियान क्यों नहीं चलाया जाता ? अपराधियों को पकड़ने में भी आधुनिक तकनीक आज कारगर भूमिका निभा रही है। एक समस्या स्मार्टफोन कंपनियों के सरकार के फरमान पर राजी होने को लेकर भी आ सकती है। यों भी, यह विचित्र है कि नागरिकों के स्मार्टफोन में कोई ऐसा ऐप रखना अनिवार्य बनाया जाए, जिसे लेकर आशंकाएं उभर रही हों कि वह एप लोगों को कितना साइबर अपराधों से बचाएगा और किस स्तर पर जोखिम का वाहक बनेगा !
Date: 03-12-25
साइबर संजाल के समांतर जोखिम
रंजना मिश्रा
भारत विश्व की सबसे तेजी से बढ़ती डिजिटल अर्थव्यवस्थाओं में से एक हैं। इसका प्रमाण हमें हर दिन अपने आसपास देखने को मिलता है। एक समय था जब बैंक के छोटे-से काम के लिए भी लंबी कतार में खड़ा होना पड़ता था, लेकिन आज यूपीआइ की सफलता ने लेन-देन को इतना सरल और त्वरित बना दिया है कि सड़क किनारे बैठा ठेले वाला भी ‘क्यूआर कोड’ से भुगतान स्वीकार कर लेता है। सरकारी सेवाओं के आनलाइन वितरण और आधार आधारित सेवाओं ने देश के हर नागरिक के जीवन को सशक्त और सरल बनाया है। यह क्रांति हमें डिजिटल रूप से सशक्त कर रही है, लेकिन इसी डिजिटल सशक्तीकरण के साथ-साथ एक स्याह पक्ष भी सामने आया है। यह साइबर अपराध दरअसल, आज यह सिर्फ एक अपराध नहीं, बल्कि बेलगाम खतरा बन चुका है। यह हमारी मेहनत की कमाई, हमारे व्यक्तिगत डेटा और सबसे बढ़ कर, डिजिटल व्यवस्था में हमारे विश्वास की चोरी कर रहा है। आज अपराधी भौतिक दूरी की परवाह नहीं करता। वह हजारों किलोमीटर दूर बैठ कर, बिना किसी संपर्क के, लोगों के बैंक ब्योरे तक पहुंच बना लेता है। यह एक ऐसी अदृश्य लड़ाई है जहां अपराधी हमेशा तकनीक में एक कदम आगे रहने की कोशिश करते हैं।
वर्तमान में, साइबर अपराध के तौर-तरीकों में एक अहम बदलाव आया है। अपराधी अब अपना समय जटिल साफ्टवेयर या ‘फायरवाल’ में घुसने में नहीं लगाते। उन्होंने सीख लिया है कि सबसे कमजोर कड़ी हमेशा ‘इंसान’ होता है। अपराधी मनोविज्ञान का इस्तेमाल करते हैं। वे जानते हैं कि मनुष्य तीन प्राथमिक भावनाओं पर तुरंत प्रतिक्रिया करता है- डर, लालच, और तुरंत कार्रवाई। वे इन्हीं भावनाओं को निशाना बना कर लोगों को भ्रमित करते हैं, जिससे पीड़ित खुद अपनी गोपनीय जानकारी या पैसा उनके हवाले कर देता है। यह एक ऐसा तरीका है, जहां अपराधी ‘मनुष्य की कमजोरी’ पर ध्यान देता है। हालिया रुझानों में, जिस रणनीति ने सबसे ज्यादा दहशत पैदा की है, वह है ‘डिजिटल अरेस्ट’ । यह साइबर अपराधियों का नया और मनोवैज्ञानिक हथियार है। इसमें अपराधी स्वयं को केंद्रीय जांच ब्यूरो, नारकोटिक्स ब्यूरो या यहां तक कि स्थानीय पुलिस के उच्चाधिकारी के रूप में प्रस्तुत करते हैं वे पीड़ित को वीडियो काल करते हैं, जिसमें उनकी पृष्ठभूमि में अक्सर थाने या सरकारी कार्यालय जैसा दृश्य दिखाई देता है और वे वर्दी या आधिकारिक पोशाक में होते हैं। वे पीड़ित को दिखाते हैं कि उनका आधार कार्ड या बँक खाता किसी गंभीर अपराध में फंसा हुआ है, जैसे धन शोधन, हवाला या नशीली दवाओं की तस्करी मामले में।
धमकी का यह नाटक इतना वास्तविक होता है कि अच्छे-खासे शिक्षित और समझ रखने वाले लोग भी घबरा जाते हैं। अपराधी पीड़ित को यह विश्वास दिलाते हैं कि अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए उन्हें अपनी सारी जमा पूंजी एक ‘सुरक्षित सरकारी खाते’ में ‘जांच के लिए’ भेजनी होगी। वे भरोसा दिलाते हैं कि जांच पूरी होते ही पैसा वापस मिल जाएगा। अपराधी यह सुनिश्चित करते हैं कि पीड़ित को सोचने या किसी से सलाह लेने का समय न मिले। वे लगातार वीडियो काल कर उस पर दबाव बनाए रखते हैं। इसी तीव्र दबाव और जेल जाने के डर से लोग जीवन भर की बचत पलक झपकते ही गंवा देते हैं। साफ है कि अपराधियों ने डर का इस्तेमाल हथियार के रूप में करना सीख लिया है।
दूसरी ओर, लालच का इस्तेमाल कर की जाने वाली धोखाधड़ी भी तेजी से बढ़ रही है। ‘आकर्षक रिटर्न’ का लालच देकर फर्जी ट्रेडिंग मंच और क्रिप्टोकरंसी में निवेश कराया जाता है। अक्सर लोगों को सोशल मीडिया या टेलीग्राम पर ऐसे संदेश मिलते हैं जिनमें ‘घर बैठे काम’ या ‘थोड़े समय में पैसा दोगुना करने का वादा किया जाता है। अपराधी छोटे निवेश पर शुरुआत में कुछ मुनाफा देकर पीड़ितों का भरोसा जीतते हैं। जब पीड़ित बड़ा निवेश करता है, तो अपराधी मंच बंद करके या मुनाफा निकालने की प्रक्रिया को जटिल बना कर गायब हो जाते हैं। इसके अलावा, तत्काल कर्ज देने वाले फर्जी ऐप भी तेजी से फैले हैं, जो कम कागजी कार्रवाई के नाम पर लोगों के फोन का पूरा डेटा चुरा लेते हैं और फिर भयादोहन कर उनसे वसूली करते हैं। इसके अलावा, दैनिक जीवन से जुड़ी छोटी-छोटी, लेकिन व्यापक धोखाधड़ी भी आम हो गई है। ‘केवाईसी अपडेट करें’ या ‘आपका बिजली बिल बकाया है, रात दस बजे बिजली काट दी जाएगी’ जैसे संदेश भेज कर लिंक पर क्लिक कराया जाता है। ऐसा करते ही या तो व्यक्तिगत डेटा चुरा लिया जाता है या पीड़ित से ओटीपी मांग कर उसके खाते से पैसे निकाल लिए जाते हैं। क्यूआर कोड स्कैन करवा कर पैसे निकालने की धोखाधड़ी भी आम हो गई है, जहां अपराधी पैसा भेजने के बजाय राशि प्राप्त करने का कोड भेजते हैं और अनभिज्ञ लोग पिन डाल कर पैसा गंवा देते हैं।
इन अपराधों की प्रकृति ऐसी है कि यह किसी एक वर्ग तक सीमित नहीं है। गांव का किसान जो पहली बार डिजिटल बैंकिंग का उपयोग कर रहा है और शहर नागरिक, दोनों ही अब जोखिम में हैं। राष्ट्रीय अपराध रेकार्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि हर मिनट कोई न कोई भारतीय साइबर धोखाधड़ी का शिकार हो रहा है, जिससे भारी वित्तीय नुकसान के साथ ही पीड़ितों को गहरा मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक आघात भी लगता है। अपनी मेहनत की कमाई अचानक खो देने का सदमा पीड़ितों को तनाव, अवसाद और सामाजिक अलगाव का शिकार बना देता है। शर्म और बदनामी के डर से कई लोग शिकायत दर्ज कराने से भी बचते हैं, जिससे अपराधियों को और बल मिलता है।
इस गंभीर स्थिति का सामना करने के लिए सरकार ने कुछ बड़े कदम उठाए हैं। इनमें राष्ट्रीय हेल्पलाइन 1930 और साइबर अपराध रिपोर्टिंग पोर्टल शामिल हैं। भविष्य में यह चुनौती और भी बड़ी होने वाली है। कृत्रिम मेधा और ‘डीपफेक’ तकनीक अब अपराधियों के हाथ लग रही है। एआइ किसी की आवाज या वीडियो चेहरे की हूबहू नकल तैयार कर सकता है। ऐसे में जब ठगी करने वाला व्यक्ति किसी व्यक्ति के रिश्तेदार की आवाज और चेहरे का उपयोग कर भावनात्मक मदद मांगेगा, तो सामान्य व्यक्ति के लिए सत्य और झूठ में अंतर कर पाना लगभग असंभव हो जाएगा। डीपफेक तकनीक न केवल वित्तीय धोखाधड़ी बढ़ाएगी, बल्कि यह समाज में गहरा अविश्वास और अराजकता भी पैदा कर सकती है।
साइबर सुरक्षा का मूल मंत्र सरल है- ‘रुको सोची और पुष्टि करो।’ किसी भी लिंक पर क्लिक करने या पैसा भेजने से पहले रुकें, उस संदेश के पीछे के तर्क पर सोचें और संबंधित आधिकारिक स्रोत से फोन कर पुष्टि करें। परिवार के बुजुर्ग सदस्यों को इन खतरों के बारे में शिक्षित करना और उन्हें 1930 जैसे हेल्पलाइन नंबरों के बारे में जानकारी देना भी हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है। डिजिटल इंडिया तभी सुरक्षित होगा, जब हर नागरिक साइबर सुरक्षा के प्रति सजग, जिम्मेदार और शिक्षित होगा। हमें 1 तकनीक का इस्तेमाल करना है, न कि तकनीक से डरना है। यह तभी संभव है जब हम सुरक्षित और समझदारी से डिजिटल लेन-देन करें।
प्रदूषण पर सुनवाई
संपादकीय

राजधानी दिल्ली में वायु प्रदूषण की खबरें रोजाना नई सुर्खियां बटोर रही हैं। जिस समय दिल्ली उच्च न्यायालय एक हत्यारोपी को वायु प्रदूषण के आधार पर 15 दिनों के लिए जमानत देने का ऐतिहासिक फैसला कर रहा था, लगभग उसी समय सुप्रीम कोर्ट की हर महीने प्रदूषण पर दो बार सुनवाई करने संबंधी टिप्पणी भी सामने आई। इन दोनों बातों के गहरे निहितार्थ हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय का जमानत देने का निर्णय जहां एक कैदी के जीने के अधिकार का संरक्षण करता है, तो वहीं प्रधान न्यायाधीश सूर्यकांत व न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची की आला अदालत की पीठ ने उचित ही कहा है कि वायु प्रदूषण की समस्या को अब सिर्फ सर्दियों की मुसीबत के रूप में नहीं देखा जा सकता। यह एक गंभीर समस्या बन चुका है और अब फौरी निदान के बजाय इसका दीर्घकालिक समाधान ढूंढ़ना अनिवार्य हो गया है। अदालत की यह टिप्पणी भी अपने आप में काफी महत्वपूर्ण है कि दिल्ली के वायु प्रदूषण के लिए सिर्फ पराली जलाने वाले किसानों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, और भी कई कारक हैं, जिनके कारण दिल्ली की आबोहवा खराब हुई है।
‘सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायर्नमेंट’ (सीईसी) की ताजा रिपोर्ट भी अदालत की टिप्पणी की तस्दीक करती है। रिपोर्ट में साफ-साफ कहा गया है कि इस बार दिल्ली के वायु प्रदूषण में पराली के धुएं का योगदान पांच फीसदी से भी कम रहा है और इसके लिए स्थानीय कारक सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं। सीईसी ने अपनी रिपोर्ट में दावा किया है कि राजधानी के वायु प्रदूषण में लगभग 51.5 प्रतिशत योगदान वाहनों के उत्सर्जन का है। इसके बाद आवासीय उत्सर्जन और दूसरे कारक जिम्मेदार हैं। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने वाजिब सवाल उठाया है कि कोरोना के दौरान भी पराली जलाई जा रही थी, तब राजधानी का आसमान कैसे नीला दिख रहा था ? इसका मतलब यह कतई नहीं है कि अदालत ने पराली जलाने के पहलू को नजर अंदाज कर दिया है, बल्कि किसानों के नाम पर जो बहानेबाजी होती रही है या सियासत की जाती है, माननीय न्यायमूर्तियों ने उसे आईना दिखाया है।
यह तंज का नहीं, बल्कि लोक प्रशासन के विद्यार्थियों के लिए गहन अध्ययन का विषय है कि राजधानी समेत तमाम बड़े शहरों को वायु प्रदूषण और गंगा-यमुना को निर्मल बनाने पर वर्षों के प्रयास और करोड़ों-अरबों के निवेश भी कोई उम्मीद क्यों नहीं दे पा रहे ? शुद्ध हवा और स्वच्छ जल, दोनों जीवन के लिए अनिवार्य तत्व हैं और अनिवार्यता का कोई विकल्प नहीं होता। निस्संदेह, इसके लिए संकीर्ण राजनीति और तंत्र की शिथिलता के साथ-साथ नागरिकों की उदासीनता भी बराबर की जिम्मेदार है। जब दुनिया के कई शहरों के वायु प्रदूषण से मुक्त होने और नदियों के पुनः कलकल बहने की मिसालें हमारे सामने हैं, तब क्या वजह है कि हमारे सारे प्रयास विफल हो जा रहे ? ऐसे में, सुप्रीम कोर्ट की नई पहल एक आस की डोर बंधाती है। बहुत समय नहीं बीते हैं, जब एक सैकड़ों साल पुराने विवाद और दशकों पुराने मुकदमे की सुनवाई करते हुए उसने देश को मुसलसल तनाव के माहौल से मुक्त कराया है। राम जन्मभूमि विवाद का फैसला इसकी मिसाल है। शीर्ष अदालत अब अगर नियमित रूप से प्रदूषण के मामले को सुनती है, तो इस संदर्भ में उसका फैसला राजधानी के लोगों को ही नहीं, देश के हर प्रदूषित शहर के बाशिंदों को एक स्वस्थ व गरिमामय जीवन सुनिश्चित करेगा, जो अभी हांफते खांसते नाउम्मीदी के शिकार हैं।