14-12-2024 (Important News Clippings)
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Date: 14-12-24
Why We Need an AI Minister & Ministry
Dedicated focus, instead of tinkering law
ET Editorials
India has its fair share of ministries, and conflating some of them has been considered a smart idea for a while now. But moving in the opposite direction in just this case, perhaps it’s time to give serious consideration to creating an AI ministry with a suitable minister for the job. Its mission for AI should be capacity-building, promoting ethical development, turbo-boosting R&D and democratising access. GoI is reportedly open to bringing in a law on AI to secure its vision for the tech. It should go a step further and create a ministry that will deliver more in terms of policy management, admin and coordination among stakeholders. AI is dual-use tech, and GoI needs an internal node to bifurcate its strategic and commercial development. It will have to step into managing risks around AI. A structure such as a ministry with a budget decided by voters would be more accountable than an institution.
India would have to go beyond most countries that rely on regulating AI through existing administrative mechanisms. A few like the UAE, France and Britain have a standalone AI ministry or authority, even as the common approach has been to create dedicated units within existing ministries. This reflects a spectrum of opinion over how the tech should evolve. At one end, it involves a dialogue between tech developers and lawmakers over safeguards. At the other, governments have set out guard rails within which the industry must operate. In either case, regulation has moved from internal controls to external agencies that are acquiring the capacity for oversight.
AI development can be shaped through scrutiny of application as well as its source. This strengthens the case for a ministry that can coordinate regulation to the use case, like health or finance. Also, it would need to exert some influence on computing power as a means of control over the technology. Within government, a dedicated AI ministry will necessarily have inputs on how public services are delivered. Thus, instead of a law, Indian lawmakers should be debating an AI ministry.
Date: 14-12-24
जजों को अपने आचरण की मर्यादा रखनी होगी
संपादकीय
जजों के मर्यादित आचरण की पहली संहिता 7 मार्च 1997 में बनी। इसका पहला नियम है, जज का आचरण न्यायपालिका की निष्पक्षता में जन- विश्वास को पुख्ता करने वाला होना चाहिए; सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट्स के जजों का कोई भी आचरण, चाहे जज के रूप में हो या व्यक्तिगत रूप में, अगर जन- विश्वास के भाव को कमजोर करे, तो उसकी वर्जना की जानी चाहिए। इस कोड को मई 1997 में सुप्रीम कोर्ट ने अंगीकार किया । इन्हीं बिन्दुओं पर सन् 2002 में बैंगलोर सिद्धांत बना जिसे संयुक्त राष्ट्र ने अंगीकार किया। इसमें न्यायपालिका के लिए छह आदर्श बताए हैं- स्वतंत्रता, निष्पक्षता, सत्यनिष्ठा, मर्यादा, समता तथा कर्मठता। इसमें कहा है। कि जज का आचरण ऐसा होना चाहिए जिससे आम जनता, वादियों और कानूनी पेशे के लोगों का उस जज और न्यायपालिका की निष्पक्षता में विश्वास और मजबूत हो। इलाहाबाद के जज के बयान से उपजे विवाद के बाद सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस से रिपोर्ट मांगी है। अगले दो दिन में ही सीजे ने नया रोस्टर बनाकर गंभीर अपराध कानून के मामलों की सुनवाई से उक्त जज को हटा लिया और उन्हें कमतर माने जाने वाले केस सौंप दिए हैं। न्यायपालिका की दुनिया में किसी जज के आचरण को लेकर इसे सबसे तेज कदम माना जा रहा है।
Date: 14-12-24
बांग्लादेश को बदलना होगा रवैया
हर्ष वी. पंत, ( लेखक आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में उपाध्यक्ष हैं )
राजनीति बहुत ही संवेदनशील विषय है तो अंतरराष्ट्रीय राजनीति का मुद्दा उससे भी कहीं ज्यादा नाजुक है। बांग्लादेश के साथ भारत के संबंधों की दशा-दिशा इसका जीवंत उदाहरण है कि अंतरराष्ट्रीय संबंधों का परिदृश्य एकाएक कैसे पूरी तरह बदल जाता है। बदली हुई परिस्थितियों में द्विपक्षीय संबंधों पर मंडराते संशय के बादलों के बीच बीते दिनों विदेश सचिव विक्रम मिसरी ने बांग्लादेश का दौरा किया। इस दौरान उन्होंने ‘सकारात्मक, रचनात्मक एवं परस्पर लाभ वाले संबंधों’ की वकालत की। बांग्लादेश में अंतरिम सरकार के मुख्य सलाहकार मोहम्मद यूनुस ने भी मिसरी के विचारों से सहमति जताई। हालांकि ऐसी औपचारिक बातों का तब तक कोई मतलब नहीं निकलता, जब तक कि वे धरातल पर आकार न ले सकें।
इसमें कोई संदेह नहीं कि शेख हसीना के तख्तापलट के बाद भारत-बांग्लादेश संबंधों में गतिरोध की आशंका जताई जा रही थी और वैसा ही कुछ देखने को मिल रहा है। शेख हसीना के कार्यकाल में दोनों देशों ने सुरक्षा से लेकर आर्थिक मोर्चे पर सहयोग के नए प्रतिमान स्थापित किए और लोगों का आपसी संपर्क-समन्वय भी बेहतर हुआ। याद रहे कि 2009 में शेख हसीना के सत्तारूढ़ होने से पहले द्विपक्षीय संबंध बहुत खराब हो चले थे। हसीना के प्रधानमंत्री बनने के बाद संबंधों ने जो गति पकड़ी, उसे देखते हुए इस दौर को ‘स्वर्णिम काल’ कहा जाने लगा। चूंकि हसीना की विदाई के बाद बांग्लादेशी राजनीति की रंगत बदल गई है, इसलिए भारत को भी नई वास्तविकताओं के अनुरूप नए सिरे से कदम बढ़ाने होंगे।
असल में यह बदला हुआ रुझान ही दक्षिण एशिया की इस महत्वपूर्ण साझेदारी को भारी दबाव में डाल रहा है। बांग्लादेश में अंतरिम प्रशासन के भीतर भारत-विरोधी प्रलाप जोर पकड़ रहा है, जिससे सरकारों के स्तर पर रचनात्मक सक्रियता के लिए अनुकूल परिवेश नहीं बन पा रहा है। हिंदुओं और उनके उपासना स्थलों पर बढ़ते हमलों ने भी दोनों देशों में इंटरनेट मीडिया को लड़ाई का एक नया अखाड़ा बना दिया है। इस्कान से जुड़े धर्मगुरु चिन्मय कृष्ण दास और उनके सहयोगियों की गिरफ्तारी ने द्विपक्षीय संबंधों की हवा और विषैली कर दी है। त्रिपुरा में बांग्लादेश काउंसलेट प्रकरण में इसकी प्रतिक्रिया भी दिखी। दोनों देशों के इंटरनेट मीडिया महारथियों ने भी राजनयिकों की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। जहां बांग्लादेश का घरेलू माहौल भारत के लिए चिंतित करने वाला पहलू है, वहीं भारत में शेख हसीना की मौजूदगी बांग्लादेश को नागवार गुजर रही है, जिन्हें देश में वापस लाकर उन पर तरह-तरह के मुकदमे चलाने की मांग तेजी से जोर पकड़ती जा रही है।
पिछले कुछ महीनों में घरेलू राजनीतिक माहौल जिस तरह से रिश्तों की धुरी को प्रभावित करने में लगा है, उसे देखते हुए विदेश सचिव का बांग्लादेश दौरा बहुत ही महत्वपूर्ण समय पर हुआ। इस दौरान आर्थिक एवं व्यापारिक सहयोग, ऊर्जा के स्तर समन्वय एवं सक्रियता, सीमा प्रबंधन और विकास से जुड़ी गतिविधियों पर सहयोग जैसे अहम मुद्दे फिर से चर्चा के केंद्र में आए। इन मुद्दों के न केवल द्विपक्षीय संबंधों, बल्कि व्यापक क्षेत्रीय समीकरणों की दृष्टि से भी गहरे निहितार्थ हैं। ऐसे में, नई दिल्ली ने ढाका से संपर्क साधकर उचित ही किया और अब यह बांग्लादेश की नई सरकार के ऊपर है कि वह इस पहल पर सार्थक रूप से प्रतिक्रिया जताए और अनुकूल कदम उठाए।
इस समय बांग्लादेश कई चुनौतियों से जूझ रहा है और अंतरिम सरकार महीनों के बाद भी अपेक्षित स्थिरता नहीं दे पाई है। एक समय बांग्लादेश की आर्थिकी को लेकर तमाम उम्मीदें लगाई जा रही थीं। अब उन उम्मीदों पर ग्रहण लगता दिख रहा है। शासन-प्रशासन का पूरा ढांचा लड़खड़ा गया है और उसके लिए केवल भारत को दोष देने से कोई समाधान नहीं निकलने वाला। बांग्लादेश के समक्ष इस समय सबसे बड़ा संकट यही है कि यदि राजनीतिक नेतृत्व ने कारगर कदम नहीं उठाए तो न केवल हाल की सभी उपलब्धियां धूल-धूसरित हो जाएंगी, बल्कि भविष्य को लेकर भी नए सवाल उठ खड़े होंगे। यह अफसोस की बात है कि सत्ता प्रतिष्ठान की कमान संभालने वाले कुछ शीर्ष लोग उस पाकिस्तान को अपने साथी के रूप में देख रहे हैं, जिसके दिए घावों से शायद बांग्लादेश का अंतस अभी तक कराह रहा होगा। यह भी शुभ संकेत नहीं है कि बांग्लादेश के पितामह कहे जाने वाले शेख मुजीब की विरासत को किनारे करने और उसे दबाने की कोशिश की जा रही है।
हसीना के शासन में भारत-बांग्लादेश संबंध सही दिशा में आगे बढ़ने लगे थे। आर्थिक संबंधों पर उनके फोकस ने ऊर्जा, कनेक्टिविटी और सीमा प्रबंधन के स्तर पर व्यापक साझेदारी का मार्ग प्रशस्त किया। हालांकि उस दौर को भी निर्बाध एवं मुश्किलों से मुक्त कहना सही नहीं होगा। सीमा सुरक्षा, नदी जल समझौतों और पलायन जैसे मुद्दे अनसुलझे एवं विवादित बने रहे। साथ ही, हसीना भारत और चीन को लेकर भी संतुलन का रुख अपनाती रहीं। चीन उनके दौर में ही बांग्लादेश का सबसे बड़ा सामरिक साझेदार बना। इसके बावजूद भारत के साथ भी उनके संबंध सही दिशा में इसीलिए बढ़ते गए, क्योंकि उन्होंने राजनीतिक विश्वास की बुनियाद पर काम करने को तरजीह दी और एक दूसरे की चिंताओं को समझकर कदम उठाए। यह दृष्टिकोण उपयोगी सिद्ध हुआ।
यूनुस सरकार के स्तर पर तमाम चुनौतियां उत्पन्न होने के बावजूद नई दिल्ली ने यही संकेत दिए हैं कि वह बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के साथ आगे बढ़ने के लिए तत्पर है। हालांकि, ऐसी तत्परता तभी फलीभूत हो सकती है कि जब दूसरा पक्ष भी संकीर्ण राजनीतिक हितों एवं तात्कालिक लाभ से परे व्यापक हितों को प्राथमिकता देने के लिए तैयार हो। भौगोलिक नियति यही निर्धारित करती है कि साझा सीमा, संस्कृति एवं मौलिक परस्पर निर्भरता के आधार पर भारत एवं बांग्लादेश ऐसे स्वाभाविक साझेदार हैं, जो घरेलू राजनीतिक बंदिशों से परे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि द्विपक्षीय संबंधों में आगे की राह पथरीली लग रही है, लेकिन इन दोनों पड़ोसियों को इससे पार पाने की कोई युक्ति खोजनी ही होगी, क्योंकि दक्षिण एशिया के भविष्य की बुनियाद नई दिल्ली-ढाका धुरी पर टिकी हुई है।
Date: 14-12-24
गुकेश ने किया छोटी उम्र में बड़ा कमाल,
विशाल सरीन, ( लेखक चेस इंटरनेशनल मास्टर एवं फिडे सीनियर ट्रेनर हैं )
डोम्माराजू गुकेश का महज 18 साल की उम्र में शतंरज का विश्व चैंपियन बनना देश के लिए एक ऐसी शानदार उपलब्धि है, जो इसके पहले किसी भारतीय खिलाड़ी ने किसी भी अंतरराष्ट्रीय खेल में अर्जित नहीं की। गुकेश की यह उपलब्धि इसलिए अभूतपूर्व हो जाती है कि विश्वनाथन आनंद जब विश्व चैंपियन बने थे तो वह करीब 31 साल के थे। आनंद ने 2013 में जब अपना खिताब गंवाया, तब गुकेश ने शतंरज खेलना शुरू ही किया था। वह 2019 में 12 साल सात माह की आयु में दूसरे सबसे युवा ग्रैंडमास्टर बन गए थे। इसके चार साल के अंदर वह विश्व चैंपियन बन गए। यह किसी चमत्कार से कम नहीं। गुकेश जब ग्रैंडमास्टर नहीं बने थे, तभी उन्होंने कहा था कि मैं सबसे कम उम्र का शतरंज विश्व चैंपियन बनना चाहता हूं। आखिरकार सिंगापुर में उन्होंने यह कर दिखाया और अपने बचपन के सपने को साकार किया। उन्होंने चैंपियन बनने के लिए केवल सपने ही नहीं देखे, बल्कि उनकी पूर्ति के लिए निरंतर प्रयत्न भी किए। इसमें उनके माता-पिता का भी भरपूर योगदान रहा, जिन्होंने बेटे के सपने को पूरा करने के लिए जो कुछ संभव था, किया। एक समय तो डाक्टर पिता ने नौकरी भी छोड़ दी थी।
गुकेश की सफलता की महत्ता इसलिए कहीं अधिक है, क्योंकि उनके पहले विश्व में कोई भी इतनी कम उम्र में शतरंज का विश्व चैंपियन नहीं बना। उनके पहले गैरी कास्पारोव शतरंज के युवा विश्व चैंपियन थे। जब गैरी विश्व चैंपियन बने थे, तब उनकी उम्र 22 साल सात महीने थी। गुकेश ने इतिहास रच दिया। इसी कारण उनकी गिनती कम उम्र में करिश्मा करने वाले दुनिया भर के अन्य खिलाड़ियों से की जा रही है। गुकेश की सफलता ओलिंपिक में जेवलिन थ्रो में नीरज चोपड़ा के स्वर्ण पदक जीतने जैसी है। यहां यह ध्यान रहे कि जेवलिन थ्रो शतरंज के मुकाबले कम ही देशों में प्रचलित है। छोटी उम्र में बड़ा कमाल करने वाले गुकेश को पुरस्कार राशि के रूप में 1.35 मिलियन डालर यानी करीब 11.45 करोड़ रुपये मिलेंगे। सिंगापुर में आयोजित वर्ल्ड चेस चैंपियनशिप की कुल पुरस्कार राशि 2.5 मिलियन डालर (21.2 करोड़ रुपये) थी। यह भारी भरकम राशि शतरंज की लोकप्रियता बयान करती है। भारत और विशेष रूप से उत्तर भारत में शतरंज भले ही उतना लोकप्रिय खेल न हो, लेकिन यह फुटबाल के बाद दुनिया का दूसरा लोकप्रिय खेल है। यह करीब 200 देशों में खेला जाता है। चूंकि अब गुकेश के रूप में भारत के पास सफलता की एक बड़ी गाथा है, इसलिए देश में इस खेल की लोकप्रियता बढ़ने के और अधिक आसार हैं। सक्सेस स्टोरी हर किसी और खासकर बच्चों एवं युवाओं को प्रेरणा प्रदान करती है। शतरंज के बारे में कहा जाता है कि इसका आविष्कार भारत में हुआ। हाल के समय में गुकेश, अर्जुन एरिगेसी, पी. हरिकृष्णा, आर. प्रगनानंद, विदित गुजराती आदि ने यह दिखाया है कि शतरंज फिर से भारत में जड़ें जमा रहा है। इसकी पुष्टि तब भी हुई थी, जब भारत ने हाल में शतरंज ओलिंपियाड में स्वर्ण पदक जीता था।
18 साल के गुकेश ने 32 साल के चीनी खिलाड़ी और गत चैंपियन डिंग लिरेन को 6.5 के मुकाबले 7.5 के स्कोर से हराया। हालांकि वह अपना पहला मुकाबला हार गए थे, लेकिन तीसरी बाजी वह अपने नाम करने में सफल रहे। इसके बाद दोनों ग्रैंडमास्टर्स ने सात मुकाबले ड्रा खेले। फिर 11वां मुकाबला गुकेश ने जीता। इसके बाद 12 वां मुकाबला चीनी ग्रैंडमास्टर ने जीत लिया। 13 वीं बाजी फिर ड्रा रही। 14 वीं बाजी गुकेश ने जीतकर खिताब अपने नाम किया। यदि यह बाजी भी ड्रा रहती तो जीत का फैसला टाईब्रेकर से होता। बेस्ट आफ 14 फार्मेट में जीत हासिल करने वाले गुकेश तीसरे ग्रैंडमास्टर रहे। उनके पहले डिंग लिरेन और मैग्नस कार्लसन भी ऐसा कर चुके हैं। दोनों ग्रैंडमास्टर्स के बीच कांटे की टक्कर ने यह दिखाया कि चीनी खिलाड़ी को कमतर करके नहीं आंका जा सकता।
शतरंज के खेल में धैर्य और मानसिक दृढ़ता बहुत मायने रखती है और गुकेश ने यह साबित किया कि इतनी कम उम्र में वह मानसिक रूप से कहीं अधिक मजबूत हैं। यही मजबूती उनकी सफलता का कारण बनी। उनकी सफलता के पीछे उनकी खुद की लगन और मेहनत तो रही ही, उनकी टीम का सपोर्ट भी रहा। पूर्व विश्व चैंपियन विश्वनाथन आनंद भले ही उनकी टीम का हिस्सा न हों, लेकिन वह अन्य भरतीय शतरंज खिलाड़ियों की तरह उनके भी प्रेरणास्रोत हैं। गुकेश विश्वनाथन आनंद की चेस अकादमी वेस्टब्रिज का हिस्सा रहे हैं और उन्होंने शतरंज के कई गुर उनसे भी सीखे हैं। जैसे आनंद की कामयाबी ने भारत में तमाम खिलाड़ियों को शतरंज में कुछ कर दिखाने के लिए प्रेरित किया, वैसे ही यह काम अब गुकेश भी करने वाले हैं और शायद कहीं अधिक प्रभावी ढंग से, क्योंकि उन्होंने वह हासिल किया, जो पहले किसी ने नहीं किया। गुकेश ने अपनी प्रतिभा का परिचय बचपन में ही दे दिया था, लेकिन उनका हालिया सफर काफी उतार-चढ़ाव भरा रहा। गुकेश डिंग लिरेन को चुनौती देने में इसलिए सक्षम हो सके, क्योंकि वह वर्ल्ड चेस चैंपियनशिप का टोरंटों में आयोजित आखिरी चेस टूर्नामेंट कैंडिडेट्स तब जीतने में सफल रहे थे, जब इसके आसार कम दिख रहे थे। गुकेश कैंडिडेट्स टूर्नामेंट के लिए इसीलिए क्वालीफाई कर सके थे, क्योंकि पिछले साल दिसंबर में चेन्नई में सुपर ग्रैंडमास्टर टूर्नामेंट आयोजित किया गया था। यह टूर्नामेंट ही गुकेश को टोरंटो तक ले जाने में सहायक बना। शतरंज में भारतीय खिलाड़ियों की सफलता के लिए यह भी आवश्यक है कि देश में अंतराष्ट्रीय चेस टूर्नामेंट आयोजित होते रहें।
Date: 14-12-24
राहत का आदेश
संपादकीय
पिछले कुछ समय से जिस तरह उपासना स्थलों पर दावेदारी की कोशिशें चल रही हैं, उसमें सर्वोच्च न्यायालय का ताजा निर्देश निश्चय ही राहत देने वाला है। न्यायालय की तीन जजों की पीठ ने देश की सभी अदालतों से कहा है कि वे पूजा स्थलों से संबंधित सर्वेक्षण या अन्य किसी प्रकार की राहत के लिए अनुरोध वाली याचिका पर विचार न करें या कोई अंतरिम या अंतिम फैसला न सुनाएं वाराणसी के ज्ञानवापी मस्जिद परिसर को लेकर दावा किया गया था कि वहां पहले हिंदू मंदिर था विवाद बढ़ गया तो न्यायालय के निर्देश पर उस स्थान का सर्वेक्षण कराया गया। फिर उसके तथ्यों के आधार पर मस्जिद परिसर के एक हिस्से में हिंदू श्रद्धालुओं को पूजा करने का आदेश दे दिया गया। वह फैसला एक नजीर बन गया और फिर देश के विभिन्न हिस्सों में मस्जिदों के नीचे किसी हिंदू मंदिर के अवशेष दबे होने के दावे किए जाने लगे। उत्तर प्रदेश के संभल में एक मस्जिद को लेकर इसी तरह के दावे की याचिका पर निचली अदालत ने सर्वेक्षण का आदेश दे दिया। उस पर हिंसा भड़क उठी और पांच लोग मारे गए। उसके बाद अजमेर दरगाह के हिंदू मंदिर की जगह बने होने का दावा किया गया, तो वहां की अदालत ने उसके सर्वेक्षण का आदेश दे दिया। इन घटनाओं से विवाद बढ़ता गया।
हालांकि पूजा स्थलों पर ऐसे दावे कोई पहली बार नहीं किए जा रहे हैं। पहले भी अयोध्या के विवादित ढांचे के साथ-साथ अलग-अलग शहरों में मस्जिदों और दरगाहों को अवैध ठहराने की कोशिशें की गई थीं। उसी के मद्देनजर उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 बनाया गया। उसमें स्पष्ट कहा गया है कि 15 अगस्त, 1947 को विद्यमान उपासना स्थलों का धार्मिक स्वरूप वैसा ही बना रहेगा, जैसा वह उस दिन था। इसमें अयोध्या के विवादित ढांचे को इसलिए अलग रखा गया था कि उसे लेकर मामले पहले से चल रहे थे मगर ज्ञानवापी मस्जिद सर्वेक्षण के बाद फिर से वैसे दावे शुरू हो गए और उपासना स्थल अधिनियम को नजरअंदाज किया जाने लगा। अब तो सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर कराई गई। है कि उपासना स्थल अधिनियम की धारा दो, तीन और चार को रद्द करने का आदेश दिया जाए। इस पर सर्वोच्च न्यायालय विचार करेगा। इसलिए भी निचली अदालतें स्वतः पूजा स्थलों के स्वरूप परिवर्तन आदि के लिए दायर याचिकाओं पर सुनवाई टालने को बाध्य हैं। जब भी समान प्रकृति के किसी मामले पर सर्वोच्च न्यायालय सुनवाई कर रहा होता है, तो उस पर निचली अदालतों को अपनी सुनवाई रोक देनी होती है। उपासना स्थल अधिनियम से जुड़े मामलों पर भी यही नियम लागू होता है।
सर्वोच्च न्यायालय इस मामले में क्या फैसला करता है, देखने की बात है, मगर हमारे संविधान की मूल भावना क्या है, उस पर भी ध्यान देने की जरूरत है हमारा संविधान पंथ निरपेक्षता और दूसरे धर्मों का आदर करने की वकालत करता है। वैसे भी हमारा इतिहास आक्रांताओं की ज्यादतियों से भरा पड़ा है। अगर उनकी बनाई इमारतों, पूजा स्थलों को ढहा कर उन पर नया स्वरूप खड़ा भी कर दिया जाए, तो वह इतिहास नहीं बदलेगा। इस तरह की बदले की कार्रवाइयों से सामाजिक समरसता ही भंग होगी। अच्छी बात है कि सर्वोच्च न्यायालय ने इस तरह की दावेदारी वाली याचिकाओं की सुनवाई पर रोक लगा दी है। मगर इसे लेकर अंतिम रूप से कोई व्यवस्था बनाने की दरकार है।
Date: 14-12-24
कामयाबी की बिसात
संपादकीय
खेलों में बने कीर्तिमान सबका ध्यान खींचते हैं। हालांकि इसके साथ ही कीर्तिमान अगले किसी मजबूत इच्छाशक्ति रखने वाले खिलाड़ी के लिए चुनौती होते हैं कि क्या वह इसे अपने हिस्से कर सकता है। भारतीय ग्रैंडमास्टर केश दोम्माराजू शतरंज में जब कोई भी चाल चलने से पहले अपनी आँखें बंद कर अपने भीतर ध्यान केंद्रित करते हैं, तो यह एक संकेत होता है कि वे किसी भी चुनौती को पार सकते हैं या कोई भी चुनौती पेश कर सकते हैं। सिंगापुर में काफी उतार-चढ़ाव से भरे एक खिताबी मुकाबले में गुकेश ने जिस तरह पिछले विश्व चैंपियन चीन के डिंग लिरेन को अंतिम बाजी में मात दी, वह गुकेश के साथ-साथ भारत के हिस्से में एक ऐसी जीत के रूप में दर्ज हुई, जिसका इंतजार सभी देशवासियों को अरसे से था ।
भारत में शतरंज की राजधानी माने जाने वाले चेन्नई के रहने वाले गुकेश जीत के इस मुकाम तक इसके बावजूद पहुंचने में कामयाब रहे कि उनके परिवार में किसी ने उन्हें यह नहीं सिखाया या प्रेरित किया था। हालांकि इस खेल के प्रति उनकी प्रतिभा, दीवानगी और लगातार कई प्रतियोगिताओं में जीत के सफर के समांतर उनके माता-पिता ने अपनी सीमा में सब कुछ किया। दरअसल, गुकेश ने शतरंज की विश्व प्रतियोगिता में यह उपलब्धि सिर्फ अठारह वर्ष की उम्र में हासिल की है और यही इस बार की जीत का सबसे खास पहलू है। गुकेश फिलहाल सबसे कम उम्र के विश्व चैंपियन हैं। इससे पहले नावें के मैगनस कार्लसन ने बाईस वर्ष की उम्र में विश्व प्रतियोगिता जीती थी। गुकेश को मिली खिताबी जीत का यह मुकाबला इस लिहाज से भी ऐतिहासिक था कि इसके एक सौ अड़तीस वर्ष के इतिहास में आमने-सामने दोनों एशियाई खिलाड़ी थे। इस खेल में दोनों पक्षों की ओर से टक्कर कितनी जबर्दस्त थी, इसे सिर्फ इससे समझा जा सकता है कि खेले गए चौदह दौर की बाजियों में से तेरहवें दौर तक मुकाबला बराबरी पर चलता रहा। यही नहीं, हर चक्र को में कई घंटे का वक्त लगा। खेल में टक्कर के इस स्तर का ही नतीजा था कि समूची प्रतियोगिता में इसे देखने वालों की दिलचस्पी कायम रही।
Date: 14-12-24
सद्भाव से निकलेगा हल
संपादकीय
सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को सभी अदालतों को निर्देश दिया कि जब तक वह उपासना स्थल अधिनियम 91 को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई और उसका निपटारा नहीं कर देता तब तक कोई और मुकदमा दर्ज नहीं किया जा सकता। सर्वेक्षण का आदेश भी पारित नहीं किया जा सकता। पिछले दो-चार वर्षों से विशेषकर निचली अदालतों में इस आशय की याचिकाओं की झड़ी लग गई है कि मुस्लिम आक्रांताओं ने हिन्दुओं के पवित्र मंदिरों को ध्वस्त करके मस्जिदों का निर्माण किया था। इसलिए इन्हें हटा दिया जाना चाहिए। अदालत में इस तरह के अनेक मुकदमे लंबित हैं, जिनमें वाराणसी का ज्ञानवापी मस्जिद, मथुरा की कृष्ण जन्मभूमि शाही मस्जिद और हाल ही में संभल की मुगलकालीन मस्जिद सहित अनेक मामले शामिल हैं। राम जन्मभूमि आंदोलन जब शिखर पर था तब सुप्रीम कोर्ट ने उपासना स्थल अधिनियम 91 पारित किया था । इसमें अयोध्या के राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद छोड़कर देश के अन्य धार्मिक स्थलों के स्वरूप को 15 अगस्त 1947 की स्थिति में बनाए रखने का प्रावधान है । इस अधिनियम को चुनौती देने वाले याचिकाकर्ताओं ने इसे अनुचित बताते हुए कहा है कि यह धर्म के पालन करने के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश संजीव खन्ना, जस्टिस संजय कुमार और के. वी. विश्वनाथन की विशेष पीठ उपासना स्थल अधिनियम 1991 की वैद्यता परिधि और दायरे की जांच कर रही है। जब से देश में तीर्थ स्थान के धार्मिक चरित्र का पता लगाने के लिए निकली अदालतों द्वारा आदेश पारित किया जा रहे हैं तब से देश में सांप्रदायिक तनाव बढ़ रहे हैं। संभल में सर्वे के दौरान उपजी हिंसा में चार लोग मारे गए और करीब 20-25 लोग घायल हो गए। वास्तव में मंदिर मस्जिद विवाद में मुख्य मुद्दा यह है कि हिंदुओं का आहत इतिहास बोध मुसलमान को अक्रांता मानता है, अपने मंदिरों का ध्वंसकर्ता मानता है उसे कैसे राहत दी जाए। यह नहीं लगता कि इस तरह की समस्या का समाधान कानून पास है। जब तक ऐसे मामलों में दोनों पक्षों के बीच कोई अत्यधिक सौहार्दपूर्ण वातावरण नहीं बनेगा तब तक इसका कोई स्थाई समाधान दिखाई नहीं देता ।
Date: 14-12-24
आनंद के कद पर पहुंचे गुकेश
मनोज चतुर्वेदी
दुनिया को सबसे कम उम्र वाला विश्व शतरंज चैंपियन मिल गया है। यह उपलब्धि पाने वाले हैं भारत के 18 वर्षीय ग्रैंडमास्टर डोम्माराजू गुकेश। यह भी संयोग ही है कि इस 18 वर्षीय खिलाड़ी ने 18वां विश्व खिताब जीता है । वह चीन के डिंग लिरेन को 7.5-6.5 अंकों से हराकर चैंपियन बने हैं। विश्व चैंपियनशिप की ट्रॉफी करीब 11 साल बाद भारत आई है। भारत के पहले विश्व चैंपियन विश्वनाथन आनंद को 2013 में कार्लसन से हारने पर ट्रॉफी देश से चली गई थी। गुकेश ने 2013 में सात साल की उम्र में जब शतरंज खेलना शुरू किया, तब ही उन्होंने इस विश्व खिताब को जीतने का सपना देखा था, जिसे वह एक दशक से कुछ ज्यादा समय में साकार करने में सफल हो गए हैं। केश से पहले सबसे कम उम्र में विश्व चैंपियन बनने का गौरव गैरी कास्पारोव को हासिल था, उन्होंने यह उपलब्धि 22 साल की उम्र में हासिल की थी। वहीं आनंद पहली बार 31 साल की उम्र में चैंपियन बने थे।
सही मायनों में गुकेश के कॅरियर को नई ऊंचाइयां दिलाने वाला पिछला एक साल रहा है। इससे पहले शायद किसी ने भी उनके इतनी जल्दी चैंपियन बनने की कल्पना नहीं की थी। वह एक साल पहले फीडे रैंकिंग में 25 वें नंबर पर थे। यही नहीं वह भारत के भी पहले चार खिलाड़ियों तक में शामिल नहीं थे। उस समय उनसे आगे रैंकिंग में आनंद, प्रगनानंदा, अर्जुन एरिगेसी और विदित गुजराती थे। उनके केंडीडेट टूर्नामेंट में खेलने की पात्रता हासिल करने पर भी उन्हें विश्व चैंपियन बनने का मजबूत दावेदार नहीं माना जा रहा था। पर इस युवा ने सभी को चकित करके केंडीडेट टूर्नामेंट जीता और अब वह विश्व चैंपियन भी बन गए हैं। इन दो सफलताओं के साथ भारत के शतरंज ओलंपियाड का खिताब जीतने वाली भारतीय टीम में भी वह शामिल थे। यह सफलताएं उनके लिए साल का यादगार बनाती हैं। चौदह बाजियों के इस मुकाबले की आखिरी बाजी में सफेद मोहरों से खेल रहे डिंग लिरेन और गुकेश ड्रा की तरफ बढ़ते नजर आ रहे थे, यह लिरेन के लिए बेहतर संकेत था । इसकी वजह 14 बाजियों में अंक बराबर रहने पर टाईब्रेकर को अपनाया जाता, जिसमें रैपिड बाजियां खेली जातीं और इसमें लिरेन को बेहतर माना जाता है, लेकिन तब ही लिरेन 55वीं चाल में हाथी की गलत चाल चल बैठे और इस गलती को गुकेश ने जीत में बदलकर खिताब पर कब्जा जमा लिया। लिरेन ने बाद में कहा कि मुझे अपनी गलती का अहसास चाल चलने के बाद हुआ । पर साथ ही यह भी कहा कि 13वीं बाजी में भाग्यशाली था, जो हार से बच गया था। मुझे हार का पछतावा नहीं है। मौजूदा समय में शतरंज सिर्फ दिमाग का ही खेल नहीं रहा । इसके लिए खिलाड़ी को फिटनेस के साथ मेंटल स्ट्रेंथ पर भी काम करना पड़ता है। गुकेश ने मानसिक मजबूती के लिए मेंट्रल हेल्थ कोच पैडी अप्टन की सेवाएं ली। पैडी भारतीय खेलों के लिए हमेशा शुभ साबित हुए हैं। इस दक्षिण अफ्रीकी कोच के रहते भारत ने 2011 में महेंद्र सिंह धोनी की अगुआई में आईसीसी विश्व कप जीता था और व 2024 के पेरिस ओलंपिक में कांस्य पदक जीतने वाली भारतीय हॉकी टीम के साथ भी वह जुड़े हुए थे। गुकेश के बारे में कहा जाता है कि वह झटका लगने पर जोरदारी से वापसी करना जानते हैं। अपनी यह खूबी उन्होंने इस मुकाबले में दिखाई भी। वह पहली ही बाजी हारने के बाद तीसरी बाजी जीतकर यह दिखाने में कामयाब रहे कि उनमें वापसी करने का माद्दा है। उन्होंने तीसरी बाजी के बाद 11वीं बाजी जीतकर अपनी बेहतर संभावनाएं बनाईं। पर 12वीं बाजी हारने से लगा कि खिताब हाथ से निकलने जा रहा है । पर वह लिरेन की गलती को अपने को चैंपियन बनाने में बदलने में सफल रहे। गुकेश भले ही जन्मजात प्रतिभा के धनी हैं पर उनके कॅरियर को एक साल पहले वेस्टब्रिज आनंद शतरंज अकादमी के साथ जुड़ने पर नया आयाम मिला है। आनंद गुकेश के चैंपियन बनने पर कहा कियह भारत के लिए बहुत गर्व का क्षण है। यह शतरंज के लिए बहुत बड़ा गर्व का क्षण है। मेरे लिए व्यक्तिगत तौर पर भी गर्व का क्षण है। गुकेश ने इस सफलता को पाने के बाद कहा कि मुझे चैंपियन बनाने में विश्वनाथ आनंद की एक सलाह बहुत काम आई। उन्होंने बताया कि पहले ही दिन बाजी हारना बहुत परेशान करने वाला था। मैं जब लिफ्ट से अपने कमरे में जा रहा था, तब आनंद सर भी मेरे साथ थे। उन्होंने कहा कि 2010 की विश्व चैंपियनशिप में टोपालोव के खिलाफ पहली बाजी हारा था, तब मेरे पास 11 ही गेम थे, तुम्हारे पास तो अभी 13 गेम हैं। उनकी इस बात ने मेरे अंदर नया उत्साह भर दिया।
आनंद की विश्व शतरंज पर बादशाहत से भारतीय शतरंज को भरोसा मिला और अब यह गुकेश की सफलता दुनिया पर भारत का दबदबा बना सकती है। हमें याद है कि 1980 के दशक में आनंद जब ग्रैंडमास्टर बने थे, तब यह बहुत बड़ी उपलब्धि हुआ करती थी, लेकिन आनंद के विश्व चैंपियन बनने ने भारतीय शतरंज की बिसात ही बदल दी और आज देश के पास 85 के करीब ग्रैंडमास्टर हैं। भारत की इस प्रगति में तमिनाडु प्रांत का बहुत बड़ा योगदान है। अकेले इस राज्य से 31 ग्रैंडमास्टर निकले हैं। इसमें भी करीब दो दर्जन ग्रैंडमास्टर चेन्नई से ताल्लुक रखते हैं। भारत के पास गुकेश जैसी क्षमता वाले प्रगनानंद, अर्जुन एरिगेसी, विदित गुजराती जैसे युवा है। अगर तमिलनाडु की तरह ही इसे देश के अन्य भागों में भी बढ़ावा दिया जाए तो भारत का शतरंज में ऐसा दबदबा बना सकता है, जैसा कभी सोवियत संघ का हुआ करता था।