04-12-2024 (Important News Clippings)

Afeias
04 Dec 2024
A+ A-

To Download Click Here.


Date: 04-12-24

सोशल मीडिया के उन्मादी कंटेंट पर लगाम जरूरी है

संपादकीय

‘ब्रेन रॉट’ (मस्तिष्क सड़ांध) वर्ष 2024 का ‘ऑक्सफोर्ड वर्ड ऑफ द ईयर’ घोषित हुआ है। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ने इसकी परिभाषा में कहा है- ऑनलाइन कंटेंट, खासकर घटिया विषय-वस्तु की अधिकाधिक खपत से होने वाले मानसिक और बौद्धिक हास को ब्रेन रॉट कहते हैं। चिंता की बात यह है कि भारत में किशोरों और युवाओं का एक बड़ा वर्ग सोशल मीडिया पर रोजाना घंटों स्तरहीन कंटेंट देखता है। देश में हाल के कुछ वर्षों में समाज सोच के स्तर पर दो धड़ों में विभाजित है। ऐसे में एआई व्यक्ति की पसंद को जानकर उसी प्रकार के स्तरहीन, फर्जी और उन्मादी कंटेंट लगातार सोशल मीडिया के जरिए फीड कर रहा है। इससे करोड़ों किशोर और युवा क्य के लोगों की मानसिक क्षमता का लगातार ह्रास हो रहा है ‘ब्रेन रॉट’ का सबसे पहला दर्ज प्रयोग समाज सुधारक और गांधी के आदर्श हेनरी डेविड थोरो की सन् 1854 में लिखी किताब ‘वाल्डेन’ में मिलता है। थोरो ने इसका प्रयोग गूढ़ व गंभीर मुद्दों पर समाज की घटती समझ और उसे हल्का करके देखने की प्रवृत्ति को मानसिक और बौद्धिक क्षमता के ह्रास के रूप में बताने के लिए किया था। ऑक्सफोर्ड ने इसे फिर से उजागर कर दुनिया में सोशल मीडिया में घटिया कंटेंट के बढ़ते चलन और एक बड़े वर्ग द्वारा इसे कंज्यूम किए जाने के खतरे से आगाह किया है।


Date: 04-12-24

शिक्षा क्षेत्र में हो एआई का समुचित इस्तेमाल

अजय मोहंती

एक समाचार की सुर्खियां हैं: ‘शिक्षकों: एआई आपकी नौकरियां ले लेगा!’ एक अन्य सुर्खी सवाल करती है, ‘क्या एआई विश्वविद्यालयों में निरर्थक नौकरियों को खत्म कर देगा?’ तीसरी सुर्खी कहती है, ‘छात्रों ने विश्वविद्यालय की परीक्षा में एआई की मदद से धोखाधड़ी की’ इन दिनों रोज ऐसी खबरें हमें देखने को मिलती हैं। ये खबरें न केवल ऑनलाइन समाचार पत्रों में देखने को मिलीं बल्कि दुनिया के कुछ अत्यंत प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थानों के जर्नल्स में भी नजर आईं। स्कूल, कॉलेज और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में आर्टिफिशल इंटेलिजेंस यानी एआई को लेकर जो कुछ कहा जा रहा है उसे किस तरह समझा जाए?

अगर कुछ देर के लिए इन बातों पर विचार किया जाए तो दरअसल कहा यह जा रहा है कि शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन आ रहे हैं और एक व्यक्ति के रूप में मेरी चिंता जो दरअसल इस मध्यवर्गीय मान्यता पर आधारित है कि अच्छी शिक्षा व्यवस्था प्रगति और आर्थिक तरक्की का सबसे अहम वाहक है, अगर ऐसा है: क्या एक देश के रूप में हम अपने स्कूलों, कॉलेजों, भारतीय प्रबंधन संस्थानों, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों और चिकित्सा महाविद्यालयों आदि में एआई का सही तरीके से इस्तेमाल कर रहे हैं?

अभी तक यह माना जा रहा था कि हाल के दिनों के अन्य तकनीकी नवाचारों मसलन कंप्यूटर और इंटरनेट की तरह एआई भी मौजूदा शिक्षा व्यवस्था में उपयोगी और सहायक भूमिका निभाएगा। परंतु अब हमारे सामने स्थिति यह है कि शायद एआई की वजह से सीखने और सिखाने की हमारी जांची-परखी तकनीक, स्कूल और कॉलेज तथा विश्वविद्यालयों जैसे संस्थान और परीक्षा आदि की व्यवस्था में बुनियादी बदलाव लाना पड़ सकता है।

मैं एक ऐसा व्यक्ति हूं जिसने दिन के चार-पांच घंटे पाइथन प्रोग्रामिंग में बिताए हैं, अपने मनोरंजन के लिए कई उभरते अलगोरिद्म का इस्तेमाल किया है (मेरे लिए यह वैसा ही है जैसे मेरे कुछ दोस्तों के लिए टीवी या मोबाइल पर क्रिकेट मैच देखना), ऐसे में मेरा निजी मत अब तक यही रहा है कि एआई के बारे में अधिकांश खबरें बढ़ाचढ़ाकर पेश की गई या चौंकाने वाली रही हैं। मसलन, माइक्रोसॉफ्ट द्वारा ओपनएआई (चैटजीपीटी बनाने वाली) में 14 अरब डॉलर देकर हिस्सेदारी खरीदी गई है। उसकी यह कोशिश शायद गूगल को सर्च या खोज में पछाड़ने की रणनीति का हिस्सा थी। गूगल इस कारोबार से अरबों डॉलर कमाती है। परंतु अब मुझे चिंता हो रही है कि एआई तकनीक में शायद बाजार हिस्सेदारी और राजस्व से अधिक कुछ दांव पर लगा है। खासतौर पर शिक्षा जैसे अहम क्षेत्र में। मैं खुद दिन में कई बार चैटजीपीटी का इस्तेमाल करता हूं और अपनी शंकाओं का निवारण करता हूं। मिसाल के तौर पर मैं उससे पूछता हूं कि स्वस्थ रहने के लिए एक व्यक्ति को दिन में कितने मिनट पैदल चलना चाहिए।

चैटजीपीटी जवाब देता है, ‘अच्छा स्वास्थ्य बरकरार रखने के लिए एक वयस्क व्यक्ति को रोज शाम 30 से 60 मिनट तक तेज पैदल चलना चाहिए। हृदय के स्वास्थ्य, वजन के प्रबंधन और तनाव से राहत के लिए इतनी तेज गति से चलना चाहिए कि दिल की धड़कनें बढ़ें लेकिन आप बातचीत करने के लायक रहें।’

इस बात ने मुझे राहत दी क्योंकि इससे मुझे एहसास हुआ कि मैं अपने चिकित्सक की सलाह पर जो कर रहा हूं वह एकदम सही दिशा में है। अगर मैंने एक सर्च इंजन से यही सवाल किया होता तो उसने मुझे वेबसाइट्स के अनगिनत लिंक प्रदान किए होते, जिन्हें मुझे खोलकर पढ़ना पड़ता।मुझे लगता है कि चैटजीपीटी और अन्य एआई विकल्पों की ओर जाने की एक प्रमुख वजह यह है कि वे इंसानों की तरह बातचीत करते हैं। इसके अलावा मेरे दिमाग में कई ऐसे सवाल हैं जिनके बारे में मुझे पता नहीं है कि उन्हें किस तरह पूछा जाए। उदाहरण के लिए, ‘कृपया मुझे बताएं कि मुंबई में इतनी सारी ऊंची इमारतें खाली क्यों पड़ी हैं?’चैटजीपीटी का जवाब है, ‘मुंबई की खाली पड़ी ऊंची इमारतें संपत्ति की बढ़ी हुई कीमतों, नियामकीय देरी, अनबिके मकानों, डेवलपर्स के दिवालिया होने और शहरी चुनौतियों के बीच मध्य वर्ग के खरीदारों की सीमित क्षमता के कारण है।’ ऐसा जवाब इस मुद्दे को लेकर बुनियादी समझ पैदा करने में मदद करता है।

आज पूरी दुनिया में यह चिंता है कि स्कूल या कॉलेज के छात्र चैटजीपीटी या अपने मोबाइल फोन की मदद से परीक्षा के सवालों के जवाब तलाश कर सकते हैं। फिर चाहे निबंध लिखना हो, बहुविकल्पीय प्रश्नों के उत्तर तलाशने हों या कंप्यूटर प्रोग्रामिंग से जुड़ी पहेलियों का जवाब तलाशना हो। इसके परिणामस्वरूप सभी तरह की परीक्षाओं के लिए परीक्षा कक्षों में मोबाइल फोन ले जाने पर रोक लगा दी गई। फिर चाहे वे सेंट्रल बोर्ड ऑफ सेकंडरी एजुकेशन की परीक्षाएं हों या आईआईएम की प्रवेश परीक्षा। परंतु इन सभी बातों के चलते मुझे आश्चर्य हो रहा है कि क्या स्कूल और कॉलेजों के हमारे शिक्षण और परीक्षण में अधिक बुनियादी बदलावों की आवश्यकता है। मौजूदा व्यवस्था यह है कि छात्र कक्षाओं में रोज कई घंटों तक शांति से बैठे रहते हैं और इसके बाद घर जाकर पढ़ने और लिखने (गृहकार्य) जैसे अकादमिक काम करते हैं। कई जगह से ऐसे सुझाव आए हैं (कैलिफोर्निया स्थित खान अकादमी के संस्थापक और सीईओ साई खान ने भी अपनी हालिया पुस्तक ब्रेव न्यू वर्ड्स में यही कहा है) कि छात्रों को ‘गृहकार्य’ के रूप में दिया जाने वाला काम स्कूल में ही करने देना चाहिए और रिकॉर्ड किए गए लेक्चर घर में अपनी सुविधा से देखना चाहिए।

जॉर्जिया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलजी में कंप्यूटर विज्ञान के जानेमाने प्रोफेसर अशोक गोयल ने एआई आधारित आभासी शिक्षण सहायक ‘जिल वॉटसन’ विकसित किया है जो इस प्रकार डिजाइन है कि छात्रों की जिज्ञासाओं को ऑनलाइन हल किया जा सके। माना जा रहा है कि इस नवाचार ने ऑनलाइन शिक्षा के प्रभाव और दायरे को बहुत बढ़ाने का काम किया है, खासकर जॉर्जिया टेक के कंप्यूटर विज्ञान विभाग के ऑनलाइन मास्टर ऑफ साइंस के अध्ययन में। क्या आज का समय सन 1448 जैसा है जब गुटेनबर्ग प्रेस का अविष्कार किया गया था। उसकी बदौलत किताबों के जरिये ज्ञान और शिक्षा, दोनों सभी लोगों को उपलब्ध हो सके। इससे पहले इंसानों को खुद किताबों की प्रतियां लिखकर तैयार करनी होती थीं।


Date: 04-12-24

हमें भी गंभीर होना पड़ेगा

नूपुर द्विवेदी पाण्डेय

अपराजिता का मन पढ़ाई में नहीं लगता। उसकी दसवीं की परीक्षा सिर पर है, लेकिन वह हमेशा इस सोच में खोयी रहती है कि मैं इंस्टाग्राम पर क्या पोस्ट करूं जिससे मेरे सारे दोस्त हतप्रभ हो जाएं। उसकी ख्याली दुनिया उसकी असली दुनिया से बहुत परे है अपनी ख्याली दुनिया में वह रोज मेहनत से दूसरों को बढ़ावा देती है। असल दुनिया में अपने लिए यह काम नहीं कर पाती। उसके कुछ कारण हैं, जिनमें से एक कि वह असल और काल्पनिक दुनिया में ऐसी उलझ कर रह गई है कि उसको भी नहीं पता कि कब सोशल मीडिया की झूठी दुनिया खत्म होती है और असल दुनिया का कड़वा सच शुरू होता है। इस ऊहापोह का परिणाम यह है कि आज वह पढ़ाई में पीछे होती जा रही है, जबकि दिमाग की बहुत तेज है। अपराजिता जैसे कितने ही बच्चे आज सोशल मीडिया के सच और कल्पना के बीच में पिस कर रह गए हैं।

ऐसे समय पर ऑस्ट्रेलिया का 16 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए सोशल मीडिया पर प्रतिबंध लगाने का फैसला ऐतिहासिक माना जा रहा है। पिछले साल संयुक्त राज्य अमेरिका के सर्जन जनरल डॉ. विवेक मूर्ति ने सोशल मीडिया और युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर एक दस्तावेज जारी किया था, जिसमें उन्होंने देशों से यह अपील कि वे सोशल मीडिया उपयोग के पूर्ण प्रभाव को बेहतर तरीके से समझें ताकि वे कुछ ऐसी नीतियां ले कर आएं जो बच्चों के हित में हो। सोशल मीडिया आज हमारे घर, परिवार और जीवनशैली का अभिन्न हिस्सा बन चुका है। माता-पिता सोशल मीडिया द्वारा अपने बच्चों के संपर्क में रहते हैं।

सुनने में भले ही अजीब लगे मगर आज की सच्चाई यही है कि सोशल मीडिया मुसीबत का कारण बना ही इसलिए, क्योंकि बड़ों ने इसको अपनी सहूलियत का जरिया बना लिया है। अब इस लेख को लिखने के लिए गूगल जैसे सर्च इंजन का इस्तेमाल किया जा रहा, इस मुद्दे पर लोगों की राय क्या है उसका सर्वे लिंकेडिन और व्हाट्सएप्प के माध्यम से किया जा रहा और मजे की बात यह भी है कि सोशल मीडिया कितना कष्टकारी है, यह भी सोशल मीडिया के जरिये ही बताया जा रहा है। है न कमाल की स्थिति ! अक्सर जब भी कोई आर्टिकल, या लेख लिखना होता है तो मेरी कोशिश होती है कि मैं लोगों से उसके बारे में राय लूं। इस बार भी ली। प्रश्न था क्या भारत में माता-पिता को अपने बच्चों के सोशल मीडिया उपयोग पर अधिक सख्त नियंत्रण रखना चाहिए, या सरकार को बच्चों के लिए प्रतिबंध लगाना चाहिए? ज्यादातर अभिभावकों को यह लगता है कि यह माता-पिता और सरकार दोनों को जिम्मेदारी है (65 फीसद)। कुछ का यह मानना है कि सरकार को पहल करनी चाहिए (20 फीसद) और कुछ पूरी तरह माता-पिता की जिम्मेदारी मानते हैं। सच तो यह है, कायदे कानून कितने भी कड़े क्यों न हो अभिभावक अपनी जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ सकते। घर में जब 3 लोग सोशल मीडिया स्टेटस को अपने सामाजिक प्रतिष्ठा से जोड़ेंगे तो चौथा बच्चा तो इसको संभावित रूप से मान्य ही समझेगा। फिर हम सही और वह गलत कैसे ?

एक ऐसे ही चर्चा में किसी ने अपना अनुभव साझा किया, कि यह खुद अपने माता पिता की सोशल मीडिया पर हर चीज शेयर करने की आदत से परेशान है और चाहते हैं कि कोई उनकी मदद करे। सुन कर हंसी भी आई और फिर लगा, बस अब यही सुनना बाकी था।

हर किस्से के कई पहलू

हर किस्से के कई पहलू होते हैं और सोशल मीडिया प्रतिबंध के भी हैं। क्योंकि सोशल मीडिया हमारे जीवन का हिस्सा बन गय है इसमें अगर मैं निष्पक्ष रूप से देखूं तो इसके कई सामाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक प्रभाव देखने मिल सकते हैं। एक-एक करके सब पर नजर डालते हैं।

सामाजिक : कैपिओस द्वारा जारी ग्लोबल सोशल मीडिया रिपोर्ट के अनुसार सोशल मीडिया का सबसे ज्यादा उपयोग दोस्तों और परिवार से जुड़े रहने के लिए होते हैं। बच्चे इस रिपोर्ट से परे नहीं है। बच्चे भी चाहते हैं कि वह अपने दोस्तों से हमेशा हर वक्त जुड़े रहे और शायद यह सही है, लेकिन यह भी बताता है, कि अब हमारा समाज वह सीमित दायरा नहीं बल्कि पूरा विश्व है जो शायद उतना सुरक्षित भी नहीं।

आर्थिक : कुछ तो सीधे और साफ प्रभाव है, जैसे कि सोशल मीडिया कंपनियों को नुकसान का सामना करना पड़ेगा, जुर्माना और दंड अलग, लेकिन एक बड़ा सवाल जो आ रहा है कि सरकार इसकी निगरानी कैसे रखेगी और इसी में काफी आर्थिक व्यवस्था की जरूरत है। नियम तभी तक लागू हो सकते है, जब तक उनके तोड़ के तरीकों को अनुशासित किया जाए।

मानसिक : बच्चों का गुस्सा, माता पिता की हताशा, शिक्षकों में झुंझलाहट – इन सब मानसिक और भावनात्मक परिणामों से जूझने के लिए हमको तैयार रहना चाहिए। ऐसे में यह जरूरी है कि हम बच्चों को सिर्फ यह न बताए कि सोशल मीडिया गलत है या उससे दूर रहो, बल्कि उनको ऐसे संसाधन दे, जिससे वह अपने समय और मन को सकारात्मक तरीके से उपयोग कर सके।

जब मैं तथ्यों की तलाश में थी, कि विश्व में 16 साल से कम के कितने बच्चे सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हैं तो ज्यादातर सर्वे हमें 18 साल से ऊपर के उपभोगताओं का डाटा देते हैं और शायद यही सबसे बड़ा सामाजिक चुनौती है। सबसे बड़ी मुश्किल होती है जानकारी का न होना, इस वक्त विश्व में 5.22 बिलियन सोशल मीडिया identities है जो हमारी कुल आबादी का 65 फीसद हिस्सा है। बहरहाल, किसी भी प्रतिबंध या रोक का पहला असर उसका प्रतिरोध होता है और यह स्थिति भी कुछ अलग नहीं। बच्चे बगावत करेंगे और यहां सिर्फ माता-पिता या सरकार ही नहीं, पूरे समाज की जिम्मेदारी बन जाती है कि इस मुहिम को सफल बनाए।


Date: 04-12-24

जो उद्योग रोजगार बढ़ाए, उसे ही धन प्रोत्साहन दिया जाए

मदन सबनवीस, ( वरिष्ठ अर्थशास्त्री )

कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (ईपीएफओ) के आंकड़ों से पता चलता है कि हर साल लगभग 120-130 लाख औपचारिक नौकरियां जुड़ती हैं। यह अच्छी खबर है। दूसरी ओर, सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के आंकड़ों से पता चलता है कि इस साल बेरोजगारी दर 7.2 प्रतिशत से 9 प्रतिशत के बीच रही है। बेरोजगारी (साप्ताहिक स्थिति) परराष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) के आंकड़ों से पता चला है कि तिमाही आधार पर बेरोजगारी 6.5 प्रतिशत से 6.7 प्रतिशत के बीच रही है। इस प्रकार हमें मिले-जुले संकेत मिलते हैं।

साल 2024-25 के केंद्रीय बजट में सरकार ने एक रोजगार संबद्ध योजना (ईएलआई) पेश की थी, जिसके तहत पहली बार काम पाने वाले कर्मचारियों को दो साल के लिए उनकी ओर से वेतन या भविष्य निधि योगदान आवंटन किया गया था। सरकार ने शीर्ष कंपनियों में इंटर्नशिप योजना भी शुरू की है, पर क्या कंपनियों को अपने कर्मचारियों की संख्या बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करने का कोई सीधा तरीका हो सकता है? केंद्र और राज्य सरकारें नीतियां बनाती हैं, भौतिक और वित्तीय बुनियादी ढांचा प्रदान करती हैं, जिससे निजी क्षेत्र को विकास करने में मदद मिलती है। रोजगार संबंधी योजना बनाते समय निजी कंपनियां हमेशा उत्पादकता व लाभ को देखती हैं। कोविड के बाद लोगों को नौकरियां देने के स्थान पर प्रौद्योगिकी के अधिक इस्तेमाल पर जोर रहा है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) के चलन में आने के साथ ही नौकरी पर लोगों की मांग घटने की स्पष्ट आशंका है। सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) के क्षेत्र में भी अतिरिक्त कर्मचारी रखने की अवधारणा पुरानी हो चुकी है। वहां अब नियुक्ति बहुत जरूरी होने पर ही की जाती है।

सरकार के लिए नीतिगत प्रतिक्रिया यह हो सकती है कि वह नौकरियों से जुड़ी प्रोत्साहन (जेएलआई) योजना के माध्यम से निजी क्षेत्र को वित्तीय प्रोत्साहन प्रदान करे, जो इसकी उत्पादन संबद्ध प्रोत्साहन (पीएलआई) योजना को प्रतिबिंबित करती है। सरकार का जोर उत्पादन बढ़ाने पर होता है। वह चाहती है कि ज्यादा निवेश हो और उत्पादन बढ़े। कई कंपनियों ने लगभग 14 व्यावसायिक क्षेत्रों में उपलब्ध इस योजना में भागीदारी के लिए आवेदन किया है, इसके तहत महज लक्ष्य पूरा करने वालों को पुरस्कृत या प्रोत्साहित किया जाता है।

यहां यह जरूरी है कि रोजगार देने वाली कंपनियों को प्रोत्साहन दिया जाए। लोगों की भर्ती करने वाली कंपनियों के लिए भुगतान दो बुनियादी तरीकों से डिजाइन किया जा सकता है। सबसे पहले, यह सब्सिडी के रूप में दिया जा सकता है, जिसमें वृद्धिशील टर्न ओवर के 4-6 प्रतिशत की समान राशि दी जाए, बशर्ते कंपनी पिछले तीन वर्षों में अपने कर्मचारियों की संख्या में शुद्ध रूप से पांच प्रतिशत की वृद्धि करे। इतने कर्मचारियों को तो नियुक्ति मिलनी ही चाहिए। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में आठप्रतिशत की वृद्धि होने पर कॉरपोरेट कर्मचारियों की संख्या में सात-आठ प्रतिशत की वृद्धि होती है। आने वाले वर्षों में छह-सात प्रतिशत या जीडीपी में उससे अधिक की वृद्धि मानते हुए भी पांच प्रतिशत नौकरी बढ़ाना बहुत ज्यादा नहीं है। यहां प्रोत्साहन के रूप में देय राशि को कंपनी के प्रति कर्मचारी टर्नओवर से भी जोड़ा जा सकता है। इसलिए जब उत्पादन बढ़ता है, तो नियोक्ता को लाभ के साथ ही रोजगार की गति भी बनाए रखनी चाहिए।

एक अन्य विकल्प, पांच प्रतिशत की कर कटौती भी हो सकती है, बशर्ते उससे समान लक्ष्य पूरा हो। गौरतलब है, 2019 में सरकार ने कम टैक्स दरों का विकल्प दिया था। हालांकि, इससे निवेश में उतनी बढ़ोतरी नहीं हुई, जितनी उम्मीद की जा रही थी। आज रोजगार से जुड़ी कर रियायतें एक महत्वपूर्ण उद्देश्य पूरा कर सकती हैं। आज देश में रोजगार बढ़ाने की बहुत जरूरत है।

रोजगार से जुड़ी प्रोत्साहन योजना समयबद्ध इंटर्नशिप कार्यक्रम चलाने या नियोक्ताओं की ओर से भविष्य निधि भुगतान की तुलना में अधिक प्रभावी साबित हो सकती है, जैसा इस साल केंद्रीय बजट में घोषणा हुई थी। रोजगार देने के लिए कंपनियों को आगे आना चाहिए। लाभ और निवेश के साथ रोजगार देना भी कंपनियों की प्रतिबद्धताओं में शामिल है। सरकारों को भी चाहिए कि ज्यादा रोजगार देने वाली कंपनियों का ज्यादा ध्यान रखें।