20-11-2024 (Important News Clippings)

Afeias
20 Nov 2024
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Date: 20-11-24

Teachers, teach thyselves

Meet AI’s challenges to traditional education by dropping bits of that tradition

TOI Editorials

What happens when a powerful tool like AI meets the traditional teaching model? Anxiety, friction and litigation. An LLM student at OP Jindal University won a case against the institution, which had declared his work AI-generated, and failed him for plagiarism. While his own argument hinged on technicalities around the university’s policies on plagiarism and copyright, such cases and complications are bound to pop up in classrooms and workplaces. As AI models are trained on large datasets, narrow claims of authorship and attribution are hard to establish. This tech is new and it destabilises certain formats of evaluation, like the periodic exam or essay. But there’s no point being on a collision course with AI. Like search engines and smartphones, AI tools will have to be assimilated, and harnessed.

Students have every incentive to use AI for shortcuts, to load it with grunt-work, use it to polish their prose and so on. It can be a learning aid to detangle jargon, or help those whose imperfect language skills distract from their grasp over a subject. Teachers will have to rethink their idea of academic/workplace integrity. They will have to test students’ mastery of the hows and whys, not the whats.

AI is a burbler that can produce plausible answers. But education is about mind wrestling with study material. Teachers and students should know it’s easy to game one’s homework, but both self-respect and interest in a subject demand our actual attention. The poet Joseph Fasano responded to a student who used AI to write a poem, “I know your days are precious/on this earth./But what are you trying/to be free of?/The living? The miraculous/task of it?/Love is for the ones who love the work.” Teachers, get it.


Date: 20-11-24

Prison tag

Tracking devices may be used if they aid bail, help free up jail space

Editorial

The suggestion for the introduction of elec- tronic tracking of prisoners granted pa- role or furlough may merit consideration as a viable means of decongesting prisons. The idea of having a pilot programme to make under- trials who pose low or moderate risk wear devic- es that will track and restrict their movements has been mooted in a research report of the Su- preme Court of India’s Centre for Research and Planning. This is not the first time the use of elec- tronic tracking has been considered, though. The Model Prisons and Correctional Services Act, 2023, contains a provision that says “prisoners may be granted prison leave on the condition of their willingness to wear electronic tracking dev- ices” so that their movement and activities may be monitored. It speaks of cancelling the leave in case of any violation. The study points out that Odisha was the first State to propose the use of tamper-proof electronic trackers on undertrials accused of non-heinous offences to reduce con- gestion in jails. Such a measure would extend the concept to grant of bail. However, it also points out correctly that there are no guidelines or mini- mum standards for when and how the technolo- gy can be deployed without violating the prison- ers’ rights. The use of technology for tracking the movement of those allowed to leave prison on some conditions does raise such concerns.

The Court, earlier this year, disapproved of im- posing bail conditions that would infringe their right to privacy of the accused. The context in that case was a bail condition that the accused should pin his location on Google Maps and share it with the investigating officer. However, it ought not to mean that electronic tagging should be re- jected out of hand. A Parliamentary Standing Committee had approved of cost-effective devic- es being used with the consent of the accused, citing the possible gains of avoiding rights viola- tion, reducing administrative costs and decon- gesting prisons. Rising occupancy in prisons has been a matter of concern in the last few years. Of- ficial statistics put the number of prisoners in the country’s jails at 5,73,220 on December 31, 2022, amounting to 131.4% of the total capacity. There- fore, any move that will reduce the occupancy, including the use of tracking technology, ought to be a welcome measure. Several jurisdictions in the world deploy devices to track the movement of certain categories of offenders. It would be log- ical to use them to ensure that prisoners released recently do not approach their victims again or enter locations associated with their crimes. If the trackers were to be compact in terms of size and visibility, it could also make the beneficiaries of bail shed their reluctance to wear them for fear of stigmatisation.


Date: 20-11-24

19 माह से जल रहे मणिपुर में हालात कैसे सुधरेंगे?

संपादकीय

संविधान निर्माताओं ने केंद्र सरकार को अनुच्छेद 356 के रूप में एक ब्रह्मास्त्र दिया ताकि जब राज्यों में संविधान असफल होता दिखे तो उसका शासन अपने हाथ में लेकर केंद्र सामान्य स्थिति बहाल करे। स्थिति जानने के लिए केंद्र राज्यपाल का मोहताज न रहे इसलिए प्रावधान बनाया गया। ‘अगर राष्ट्रपति राज्यपाल से रिपोर्ट प्राप्त होने पर या ‘अन्यथा’ संतुष्ट हो कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है कि राज्य का शासन इस संविधान के उपबंधों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता वह ‘….’। यहां ‘अन्यथा’ शब्द से केंद्र को राज्य की स्थिति के सम्यक आकलन की निर्बाध छूट मिलती है। इसके ठीक पहले का प्रावध ( अनुच्छेद 355 ) बताता है कि यह केंद्र का कर्तव्य है कि वह राज्य की आंतरिक संकट से निपटने में मदद करे। केंद्र मणिपुर में 19 माह से जातिवादी संघर्ष में जल रहे लाखों लोगों के प्रति अपने कर्तव्य को समझे। मात्र अर्ध सैनिक बल की 300 कंपनियां भेजना केंद्र के कर्तव्य की इतिश्री नहीं है। मणिपुर में भाजपा के सीएम लगातार असफल हो रहे हैं। सहयोगी दल उनके खिलाफ केंद्र को लिख रहे हैं फिर भी केंद्र का संज्ञान न लेना चिंताजनक है। ऐसे संघर्ष में जन-विश्वास जीतने और शांति बहाली के लिए निरंतर प्रशासनिक दृढ़ता और राजकीय सदाशयता की जरूरत होती है। केंद्र को राजनीतिक लाभ-हानि भूलकर सीधे अनुच्छेद 356 के तहत शासन अपने हाथ में लेना चाहिए।


Date: 20-11-24

रचनात्मक अर्थव्यवस्था का नेतृत्व करता भारत

अश्विनी वैष्णव, ( लेखक केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री हैं )

“आप पूरी दुनिया में भारत के डिजिटल प्रतिनिधि हैं। आप वोकल फार लोकल के ब्रांड एंबेसडर हैं।” इस साल के शुरू में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा प्रथम नेशनल क्रिएटर अवार्ड प्रदान करते समय कहे गए ये प्रेरक शब्द भारत की रचनात्मक अर्थव्यवस्था की परिवर्तनकारी भूमिका को उजागर करते हैं। आज हमारे रचनाकार केवल कहानीकार नहीं हैं, वे राष्ट्र का निर्माण कर भारत की पहचान को आकार दे रहे हैं और वैश्विक स्तर पर इस क्षेत्र की गतिशीलता का प्रदर्शन कर रहे हैं। आज से गोवा में 55वां भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (आइएफएफआइ) का आरंभ हो रहा है, जिसकी थीम ‘युवा फिल्म निर्माता- भविष्य अब है।’ अगले आठ दिनों में आइएफएफआईसैकड़ों फिल्मों के प्रदर्शन के साथ फिल्म क्षेत्र के दिग्गजों के साथ संवाद करेगा। इसमें वैश्विक सिनेमा की सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाओं को सम्मानित किया जाएगा। वैश्विक और भारतीय सिनेमाई उत्कृष्टता का यह संगम भारत की रचनात्मक अर्थव्यवस्था को नवाचार, रोजगार और सांस्कृतिक कूटनीति के एक केंद्र के रूप में व्यक्त करता है।

भारत की रचनात्मक अर्थव्यवस्था 30 बिलियन डालर के उद्योग के रूप में सामने आई है, जो सकल घरेलू उत्पाद में लगभग 2.5 प्रतिशत का योगदान देती है और 8 प्रतिशत कार्यबल को रोजगार प्रदान करती है। सिनेमा, गेमिंग, एनीमेशन, संगीत, प्रभावशाली मार्केटिंग और अन्य गतिविधियों को समाहित करने वाला यह क्षेत्र भारत के सांस्कृतिक परिदृश्य की जीवंतता को दर्शाता है। 3,375 करोड़ रुपये मूल्य वाले एक प्रभावशाली मार्केटिंग क्षेत्र और 2,00,000 से अधिक पूर्णकालिक सामग्री निर्माताओं के साथ यह उद्योग भारत की वैश्विक आकांक्षाओं को आगे बढ़ाने वाली एक गतिशील शक्ति है। गुवाहाटी, कोच्चि और इंदौर आदि शहर रचनात्मक केंद्र बन रहे हैं, जो विकेंद्रीकृत रचनात्मक क्रांति को बढ़ावा दे रहे हैं।

भारत के 110 करोड़ इंटरनेट उपयोगकर्ता और 70 करोड़ सोशल मीडिया उपयोगकर्ता रचनात्मकता के इस लोकतंत्रीकरण को आगे बढ़ा रहे हैं। सोशल मीडिया प्लेटफार्म और ओटीटी सेवाएं रचनाकारों को विश्व स्तर पर दर्शकों से सीधे जुड़ने में सक्षम बनाती हैं। क्षेत्रीय सामग्री और स्थानीय स्तर की कहानी कहने की प्रतिभा ने कथा को और विविधता प्रदान की है, जिससे भारत की रचनात्मक अर्थव्यवस्था वास्तव में समावेशी बन गई है। ये सभी कंटेंट क्रिएटर आर्थिक स्तर पर अभूतपूर्व सफलता प्राप्त कर रहे हैं। इनके दस लाख से ज़्यादा फालोअर्स हैं और ये प्रति माह 20,000 से 2.5 लाख रुपये तक कमा रहे हैं। यह व्यवस्था आर्थिक रूप से लाभकारी है और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति और सामाजिक प्रभाव के लिए एक मंच भी।

रचनात्मक अर्थव्यवस्था का गहरा प्रभाव है, जो सकल घरेलू उत्‍पाद के विकास से कहीं आगे तक विस्‍तारित है। यह पर्यटन, आतिथ्य और प्रौद्योगिकी सहित विभिन्न क्षेत्रों के सहायक उद्योगों को काफी प्रभावित करता है। इसके अलावा डिजिटल प्लेटफार्म उपेक्षित लोगों की आवाज भी मजबूती से उठाता है। यह सामाजिक समावेशन, विविधता और सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण को भी समृद्ध करता है। कथ्‍य प्रस्‍तुत करने की अपनी कला द्वारा भारत ने बालीवुड से लेकर क्षेत्रीय सिनेमा तक अपनी वैश्विक साफ्ट पावर को मजबूती दी है, जो विश्व मंच पर प्रचुर सांस्कृतिक भाव प्रदर्शित करता है।

भारत की रचनात्मक अर्थव्यवस्था को वैश्विक मंच पर उच्च स्थान पर पहुंचाने के लिए सरकार तीन प्रमुख स्तंभों पर प्राथमिकता से ध्यान दे रही है: प्रतिभा संकलन और उनकी क्षमता बढ़ाना, सृजनकारों के लिए बुनियादी ढांचा सुदृढ़ करना और फिल्म कथ्य शिल्प को सशक्त बनाने की प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करना। यह दृष्टिकोण भारतीय रचनात्मक प्रौद्योगिकी संस्थान (आइआइसीटी) की स्थापना, नवरचना और रचनात्मकता को बढ़ावा देने के लिए सरकार की प्रतिबद्धता दर्शाता है। आइआइसीटी का उद्देश्य भारतीय सृजनकारों, चाहे वे सिनेमा, एनिमेशन, गेमिंग या डिजिटल कला क्षेत्र के हों, को घरेलू स्तर पर और एक एकीकृत सांस्कृतिक शक्ति के रूप में तथा वैश्विक मनोरंजन के क्षेत्र में अग्रणी बनाना सुनिश्चित करना है। फिल्म निर्माण में भारत मनोरंजन सामग्री निर्माण का भविष्य फिर से परिभाषित कर रहा है।

विश्व आडियो विजुअल एवं मनोरंजन शिखर सम्मेलन (वेव्स) देश को कंटेंट निर्माण और अनूठे विचार के साथ वैश्विक शक्ति के रूप में स्थापित करने की ऐतिहासिक पहल है। वेव्स ऐसा मंच है, जहां सृजनकार, इस उद्योग के अग्रणी और नीति निर्माता आडियो विजुअल और मनोरंजन क्षेत्रों के भविष्य को आकार देने के लिए साथ मिले हैं। क्रिएट इन इंडिया चैलेंज भारत की सृजनात्मक अर्थव्यवस्था (क्रिएटर इकोनमी) की संभावनाओं को उजागर करने के लिए डिजाइन की गई। एक अग्रणी पहल है। वेव्स की तैयारी के हिस्से के रूप में शुरू की गई इन चुनौतियों का उद्देश्य एनिमेशन, गेमिंग, संगीत, ओटीटी कंटेंट और इमर्सिव स्टोरीटेलिंग जैसे प्रमुख क्षेत्रों में प्रतिभाओं को प्रेरित एवं सशक्त बनाना है।

जब हम आइएफएफआईमें सिनेमाई प्रतिभा के इस आठ दिवसीय उत्सव की शुरुआत कर रहे हैं, तो संदेश स्पष्ट है: भारत के रचनाकार वैश्विक रचनात्मक अर्थव्यवस्था का नेतृत्व करने के लिए तैयार हैं। भारत सरकार नीतिगत सुधारों, बुनियादी ढांचे के विकास और नवाचार के लिए प्रोत्साहन के माध्यम से इस क्षेत्र का समर्थन करने के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध है। हमारे रचनाकारों के लिए कार्रवाई का आह्वान सरल, लेकिन गहरा है। वे 5G, वर्चुअल प्रोडक्शन और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसी अत्याधुनिक तकनीक अपनाएं तथा ऐसे प्लेटफार्म का लाभ उठाएं, जो भौगोलिक बाधाओं को पार करते हैं और ऐसी कहानियां बताते हैं, जो भारत की अनूठी पहचान दर्शाते हुए वैश्विक स्तर पर गूंजती हैं। भविष्य उन लोगों का है जो नवाचार करते हैं, सहयोग करते हैं और सहजता से सृजन करते हैं। आइए हम साथ मिलकर यह सुनिश्चित करें कि हर भारतीय रचनाकार एक वैश्विक कहानीकार बने, ताकि भविष्य को आकार देने वाली कहानियों के लिए पूरा विश्व भारत की ओर देखे।


Date: 20-11-24

देश की राजधानी का घुटता दम

संपादकीय

वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग (CAQM) द्वारा ग्रेडेड रिस्पॉन्स ऐक्शन प्लान (ग्रेप) के चरण चार को अधिसूचित किए जाने के एक दिन बाद भी दिल्ली की हवा की गुणवत्ता में मामूली सुधार ही देखने को मिला। राजधानी में इस सप्ताह वायु गुणवत्ता सूचकांक अथवा एक्यूआई 450 के ऊपर बना रहा। इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय ने बिल्कुल सही कहा कि प्रदूषण से बचने के उपायों के क्रियान्वयन में देरी हो रही है। ग्रेप-4 के अंतर्गत दिल्ली में ट्रकों के आवागमन पर रोक, दिल्ली में पंजीकृत बीएस-4 और उससे नीचे की श्रेणी के डीजल चालित मझोले मालवाहक वाहनों तथा भारी मालवाहक वाहनों पर प्रतिबंध, विनिर्माण और तोड़फोड़ की गतिविधियों पर अस्थायी रोक, शैक्षणिक संस्थानों में विद्यार्थियों को बुलाकर पढ़ाने पर रोक तथा कार्यालयों में 50 फीसदी लोगों को घर से काम करने का विकल्प देने जैसी बातें शामिल हैं।

जाहिर सी बात है कि इनमें से कोई भी कदम समस्या को हल करने वाला नहीं है। प्रदूषण बहुत अधिक बढ़ा हुआ है और वह लगातार ‘गंभीर’ से भी ऊपर की श्रेणी में है। भूरे रंग की गहरी धुंध ने न केवल राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) का दम घोंट रखा है बल्कि उसने रेल और हवाई यातायात को भी प्रभावित किया है।

मौसम विज्ञान सहित कई ऐसी तमाम वजह हैं जिनके चलते दिल्ली और उत्तर भारत के अधिकांश हिस्सों के निवासी खुद को नाउम्मीद स्थिति में पाते हैं। यह सिलसिला सालों से चल रहा है। पराली जलाने का सिलसिला भले ही नया और मौसमी है लेकिन निर्माण कार्यों से उड़ने वाली धूल, कचरा जलाने से लगने वाली आग, वाहनों से होने वाला प्रदूषण और कोयला आधारित बिजली संयंत्रों से होने वाला प्रदूषण वर्षों से दिक्कत दे रहा है। एक दिलचस्प बात यह है कि सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी ऐंड क्लीन एयर (सीआरईए) द्वारा किया गया एक नया अध्ययन इस पुरानी मान्यता पर सवाल उठाता है कि पंजाब और हरियाणा में अक्टूबर-नवंबर के महीने में पराली को जलाया जाना ही दिल्ली की हवा की गुणवत्ता में खराबी का प्रमुख उदाहरण है।अध्ययन बताता है कि एनसीआर में मौजूद ताप बिजली घर पराली जलाए जाने की तुलना में 16 गुना अधिक प्रदूषण फैलाते हैं। ताप बिजली संयंत्र एनसीआर के इकलौता उद्योग हैं जिनमें कोयले के इस्तेमाल की इजाजत है।वहीं भारतीय उष्णदेशीय मौसम विज्ञान संस्थान (आईआईटीएम) का ताजा अध्ययन दिखाता है कि पराली का जलाया जाना एनसीआर की हवा गुणवत्ता खराब करने में 38 फीसदी योगदान करता है। इसकी सबसे अधिक हिस्सेदारी 2024 में रही। वाहनों से होने वाला प्रदूषण भी अहम योगदान करता है।अतीत की पहलें जिनमें निजी वाहनों पर एक किस्म की रोक शामिल रही है, वे अपेक्षित परिणाम पाने में मददगार नहीं हो सके हैं। अनुमान है कि परिवहन और उद्योग जगत शहर में प्रदूषण के दो प्रमुख कारक हैं क्योंकि सभी चौराहों पर यातायात की भीड़ के कारण उत्सर्जन का भारी दबाव रहता है।स्पष्ट है कि इसके लिए किसी एक को दोष नहीं दिया जा सकता है। दीर्घकालीन हल की अनुपस्थिति में प्रतिबंधात्मक उपाय मसलन निर्माण कार्यों पर रोक आदि के सीमित लाभ होंगे जबकि ऐसे कदम निर्माण श्रमिकों की आजीविका पर असर डालेंगे जो पहले ही कई-कई हफ्तों तक बेरोजगार रहते हैं।बहरहाल, इसका प्रभाव केवल सबसे वंचित वर्ग तक सीमित नहीं रहेगा। खराब हवा के कारण उत्पन्न जन स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं लंबी अवधि के दौरान आर्थिक प्रभाव भी डालेंगी। दुर्भाग्यवश देश में राजनीतिक प्रतिबद्धता और जनता का दबाव दोनों सीमित हैं और इसलिए पर्यावरण संबंधी चिंताएं हल नहीं हो पा रही हैं।भारत जैसे जीवंत लोकतंत्र में यह बात रहस्यमय है। इसके परिणामस्वरूप सरकार ने कई छिटपुट उपाय अपनाए हैं, जिनसे समस्या हल करने में कोई मदद नहीं मिली। राजनीतिक दल आरोप-प्रत्यारोप में लगे हैं, जिससे आवश्यक समन्वय नहीं हो पा रहा है।जरूरत इस बात की है कि दीर्घकालिक योजना अपनाई जाए जो एनसीआर तथा उत्तर भारत के अधिकांश इलाकों को रहने योग्य बनाने में मदद करे। इसकी वजह चाहे पराली जलाना हो, वाहन प्रदूषण हो या ताप बिजली घर की चिमनी का धुआं, इसे हल करना ही होगा। इसके लिए सरकार को पहल करनी होगी और सर्वोच्च न्यायालय को दबाव बनाना होगा।इसके साथ ही सिविल सोसाइटी के प्रभावशाली नागरिकों को इसकी प्रगति पर निगाह रखनी होगी। अल्पावधि के आर्थिक हितों को आम नागरिकों के जीवन जीने के बुनियादी अधिकारों पर भारी नहीं पड़ने देना चाहिए।


Date: 20-11-24

बुरे काम के बुरे नतीजों का पुराना सबक नहीं भूलें

सुरेंद्र कुमार, ( पूर्व राजदूत )

क्या शापित व्यक्ति शाप से बच सकता है? हालांकि, यह साबित करने के लिए कोई निर्विवाद अनुभवजन्य अध्ययन नहीं है, पर कई मशहूर डॉक्टरों का मानना है कि जिन रोगियों को अच्छे संदेश मिलते हैं और जिनके लिए उनके रिश्तेदार, दोस्त और प्रशंसक प्रार्थना करते हैं, वे तेजी से ठीक होते हैं। अनेक चिकित्सक भी दुआ के असर पर यकीन करते हैं। अक्सर याद किया जाता है कि 1982 में फिल्म कुली की शूटिंग के दौरान अमिताभ बच्चन बुरी तरह घायल हुए थे। बड़े डॉक्टर भी उनके पूर्ण स्वस्थ होने की गारंटी नहीं दे पा रहे थे। पूरे भारत में अमिताभ के प्रशंसकों ने उनके पूर्ण और शीघ्र स्वस्थ होने की प्रार्थना की। मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों, मजारों और चर्चों में प्रार्थनाएं हुईं। कमाल देखिए, अमिताभ बच गए और 82 की उम्र में भी मजबूती से काम कर रहे हैं ! बिना शक साबित होता है : दुआओं में बहुत दम है|

रामायण और महाभारत काल में, विद्वान ऋषि-मुनि के पास कोई सेना या टैंक या मिसाइल नहीं होती थी। वह पीड़ा पहुंचाने वालों को श्राप देते थे और श्राप के विनाशकारी प्रभाव से कोई बच नहीं पाता था। रामायण के बाल कांड में दिलचस्प उदाहरण है। ऋषि गौतम की अनुपस्थिति में उनकी पत्नी अहल्या की सुंदरता से मोहित होकर भगवान इंद्र ने गौतम ऋषि का रूप धरकरगलत काम किया। जब गौतम ऋषि को व्यभिचार का पता चला, तब इंद्र को श्राप मिला ही, ऋषि ने अहल्या को पत्थर में बदल जाने का श्राप दे दिया। वर्षों बाद जब राम आए, तभी अहल्या का उद्धार हुआ। राजा दशरथ ने मरने से पहले कौशल्या को बताया था कि श्रवण कुमार को उन्होंने गलती से मार डाला था, तो उसके माता-पिता ने उन्हें श्राप दिया था कि वह भी अपने बेटों को देखने के लिए तरसते मरेंगे।

हम सभी भगवान कृष्ण की कथा जानते हैं। कौरवों की मां गांधारी ने कृष्ण को श्राप दिया था कि पूरा यादव वंश समाप्त हो जाएगा। कृष्ण स्वयं एक पेड़ के नीचे आराम करते समय एक शिकारी के प्रहार के बाद शरीर त्याग को विवश हुए थे। ध्यान रहे, मध्यकाल में संत कबीर ने असहायों पर अत्याचार न करने का उपदेश देते हुए दोटूक कहा था- दुर्बल को न सताइए जाकी मोटी हाय । मुए ढोर के चाम से लौह भसम हो जाए। लगभग हर धर्म कहता है, असहाय को न सताइए, पर क्या होता है?

यह एक खुला रहस्य है कि 1979 में पाकिस्तानी राष्ट्रपति जिया-उल-हक ने जुल्फिकार अली भुट्टो की जान बचाने के लिए भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी सहित विश्व के नेताओं की 30 से अधिक दया अपीलों को नजरअंदाज कर दिया था। उन्हें जरा भी एहसास नहीं था कि भुट्टो की फांसी के दस साल बाद वह भी संदिग्ध हवाई दुर्घटना ( 17 अगस्त, 1988) में छोटे-छोटे टुकड़ों में उड़ जाएंगे और उनकी मौत भुट्टो से भी बदतर होगी। क्या’ अभिशाप और अभिशापित’ की घटनाएं इजरायल – हमास – हिजबुल्लाह संघर्ष में भी प्रतिबिंबित हो सकती हैं? लंबे समय से चले आ रहे इस संघर्ष में 20,000 से भी अधिक मासूम बच्चों ने अपनी जान गंवाई है और जीवित बचे लोगों का जीवन नरक से भी बदतर बीत रहा है। क्या संघर्ष के उस बड़े क्षेत्र में लोग मदद या प्रार्थना की गुहार नहीं लगा रहे हैं? क्या कहीं कोई सर्वोच्च शक्ति है, जो देर-सबेर गलत काम करने वालों को दंडित करेगी ? ईश्वर या कुदरत की योजनाओं को कौन समझ सकता है ? केवल समय बताएगा।

गांधीजी कहते थे कि यदि आप अपनी आंखों के सामने अनियंत्रित हिंसा होते देखते हैं और इसका विरोध नहीं करते हैं और सक्षम होने के बावजूद इसे रोकने के लिए कुछ नहीं करते हैं, तो आप भी हिंसा के लिए समान रूप से दोषी हैं। अमेरिका और उसके पश्चिमी सहयोगी गाजा व लेबनान में फलस्तीनियों की सामूहिक हत्याओं के क्यों मूकदर्शक बने हुए हैं और मलबे के अंतहीन अंबार के बीच रोटी की तलाश में भूख से मर रहे गाजावासियों की दुर्दशा से क्यों प्रभावित नहीं हैं?

इजरायली प्रधानमंत्री नेतन्याहू का कहना है, वह हमास और हिजबुल्लाह को इजरायल के खिलाफ अपराधों के लिए दंडित कर रहे हैं, पर ऐसा करते हुए इजरायल के हाथों जो अपराध हो रहे हैं, क्या उसके लिए उन्हें सजा नहीं मिलनी चाहिए?