15-11-2024 (Important News Clippings)
To Download Click Here.
Date: 15-11-24
Our Cities Need Real Mayors With Real Job
Leverage knowledge of local issues
ET Editorials
In ‘If Mayors Ruled the World: Dysfunctional Nations, Rising Cities’, political theorist Benjamin R Barber argues that nation-states, bogged down by ideological disputes and sovereign rivalries, are failing to address global challenges such as climate change, terrorism and poverty. In contrast, cities and their mayors are performing better, leveraging their knowledge of local issues, public participation, and a democratic inclination for creativity, innovation and collaboration. Former NYC mayor Michael Bloomberg, for instance, made significant strides in public health, while Buenos Aires mayor H R Larreta has created green jobs.
In India, however, de facto mayors are a rarity, despite the 74th Constitutional Amendment Act (CAA) of 1992, which aimed to enhance the capacity and effectiveness of urban local bodies (ULBs). CAA sought to transfer specific responsibilities from state governments to ULBs, encouraging public participation and improving local administrative capacities. Yet, while states pay lip service to devolution, mayors in India are largely powerless. There is no uniformity in tenure or elections, and their roles have been reduced to ceremonial positions with minimal control over funds and responsibilities. ULBs, including prominent ones like MCD, operate below par. Delayed elections, such as the MCD polls that finally took place on Thursday after a delay of seven months, underscore fragility of these structures.
With states reluctant to transfer real power and resources to ULBs, local governments lack planning capabilities, transparency and accountability, and are under-resourced. In practice, cities are often managed by district magistrates and municipal commissioners — officials whose focus may not align with long-term needs of urban planning. India’s mayors need to be empowered. Then they can tackle pressing local — real — issues, ranging from public health to climate resilience. To be truly viksit, transform the mayor’s job from ceremonial to substantive. The buck starts here.
Date: 15-11-24
Money Makes the World Go Round
ET Editorials
Tackling climate change is expensive business, especially for developing countries that are not only bearing the brunt of impacts, but must also ensure a green and just transition of their economies, all while maintaining growth. The agenda at the ongoing COP29 in Baku is significant for the ‘global south’: reaching an outcome on a newly negotiated climate finance target, the New Collective Quantified Goal (NCQG). NCQG will define future annual finance flows from developed to developing countries. It’s set to replace commitments made by developed countries in 2009 to provide $100 bn a year by 2020 to support climate action in developing countries, a target that has only been met once in 2022.
Climate finance has always been a sticky issue. Monday’s backroom agenda fight over whether the dialogue on implementing last year’s global stocktake outcomes should prioritise finance demonstrates how contentious this topic is. The global situation — Trump in the White House, collapse of the German government, the war in Ukraine — adds layers of difficulty.
Without a finance agreement, developing countries will find it difficult to raise their climate ambition. Their estimated needs requirement is $6.8 tn by 2030. Baku must deliver and signal to the broader financial system. But differences persist on key elements like who pays, whether support should be in grants or loans, and if sources should be public or private. Meeting this challenge will require out-of-the-box approaches, flexibility and compromise, as well as a willingness to move beyond long-held national and group positions. Failure to do so will create a two-speed global energy transition that leaves developing countries behind yet again. And that is not an option.
Date: 15-11-24
विस्तारित आयुष्मान को आसान बनाने की जरूरत
संपादकीय
गुजरात में सात आयुष्मान कार्डधारकों के नाम पर बीमा का भारी क्लेम वसूलने के लिए एक निजी अस्पताल ने बगैर जरूरत के उनकी एंजियोप्लास्टी कर दी। इससे दो मरीजों की जान चली गई। उधर, सरकार ने विस्तारित आयुष्मान योजना के तहत 70 साल से ऊपर के सभी पांच करोड़ वृद्धों को इस मुफ्त स्वास्थ्य योजना से जोड़ने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। पांच लाख लोगों ने अपना पंजीकरण भी करा लिया है। देखना होगा कि भ्रष्ट सिस्टम और नैतिक पतन के बीच यह योजना कैसे अमल में लाई जाएगी। इस विस्तारित आयुष्मान योजना के लिए अलग से किसी बजट का प्रावधान नहीं हुआ है, ना ही इन पांच करोड़ नए लोगों के लिए कोई अतिरिक्त व्यवस्था हुई है। स्वास्थ्य सेवा के पहले से ही लचर ढांचे का विस्तार न करने की स्थिति में योजना के पंजीयन के बाद भी बुजुगों के लिए चुनौतियां बरकरार रहेंगी। केंद्र सरकार की योजना सोच के स्तर पर अद्वितीय है लेकिन राज्यों की ढिलाई, सरकारी अस्पतालों में साधनहीनता और इससे उपजी उदासीनता, निजी अस्पतालों का भ्रष्टाचार और कई वृद्धों का अशिक्षित और शारीरिक रूप से अक्षम होना इस योजना पर नजर लगा सकता है। बेहतर होता कि केंद्र पंजीयन प्रक्रिया खत्म करके आधार कार्ड को ही एक मात्र दस्तावेज मानते हुए इलाज की छूट देता।
Date: 15-11-24
कब थमेगी साइबर ठगी
संपादकीय
डिजिटल अरेस्ट का भय दिखाकर लोगों के साथ ठगी करने के मामले जिस तरह थमने का नाम नहीं ले रहे हैं, उससे यही स्पष्ट होता है कि पिछले दिनों प्रधानमंत्री की ओर से लोगों को साइबर ठगों के इस हथकंडे के प्रति चेताने और संबंधित एजेंसियों की ओर से सक्रियता दिखाए जाने की सूचनाएं आने के बाद भी नतीजा ढाक के तीन पात वाला है। यह चिंताजनक है कि न केवल डिजिटल अरेस्ट की धमकी देकर ठगने के मामले बढ़ रहे हैं, बल्कि ठगी की राशि भी बढ़ती जा रही है। अब तो लोगों से करोड़ों रुपये की ठगी की जा रही है। ठगी का शिकार होने वालों मे पढ़े-लिखे और जानकार समझे जाने वाले लोग भी बढ़ रहे हैं। कई मामलों में यह भी देखने में आया है कि साइबर ठगी के शिकार लोग शर्मिंदगी के कारण पुलिस के पास शिकायत दर्ज कराने से हिचकते हैं। सरकारी एजेंसियां चाहे जो दावे करें, बहुत कम मामलों में ठगी गई राशि बरामद होती है और ठगों को गिरफ्तार किया जाता है। यह तब है, जब ठगी गई राशि देश के ही खातों में ट्रांसफर कराई जाती है। इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि सरकार की ओर से यह स्पष्ट किया जा चुका है कि सीबीआइ, ईडी, आयकर विभाग आदि उसकी किसी भी एजेंसी की ओर से डिजिटल अरेस्ट जैसी कार्रवाई नहीं की जाती।
इसमें संदेह है कि आम लोग साइबर ठगों की चालबाजी से भली तरह जागरूक हो चुके हैं। जागरूकता के अभाव का एक कारण यह भी है कि सरकार ने साइबर ठगों और उनकी ठगी के नित-नए तरीकों के प्रति लोगों को सही तरह सतर्क नहीं किया है। यदि यह समझा जा रहा है कि समाचार पत्रों में एक-दो विज्ञापन जारी करने अथवा प्रधानमंत्री की ओर से मन की बात कार्यक्रम में इस समस्या को रेखांकित करने से लोग डिजिटल अरेस्ट के बहाने की जा रही ठगी के काले कारोबार से अवगत हो गए हैं तो यह सही नहीं। सरकार को न केवल साइबर ठगों की कमर तोड़ने के लिए और अधिक सख्ती का परिचय देना होगा, बल्कि लोगों को जागरूक करने का कोई व्यापक अभियान भी चलाना होगा। अच्छा हो कि इस पर विचार किया जाए कि कुछ दिनों के लिए मोबाइल कालर ट्यून के जरिये लोगों को चेताया जाए कि इस-इस तरह की फोन काल आए तो सावधान हो जाएं। साइबर ठगी के बढ़ते मामले केवल देश को डिजिटल करने के अभियान को ही चोट नहीं पहुंचा रहे हैं, बल्कि भारत की छवि भी खराब कर रहे हैं। साइबर ठग पहले लोगों को लालच देकर ठगते थे। अब वे लोगों को धमकाकर अथवा उनका मोबाइल फोन हैक करके यही काम कर रहे हैं। साफ है कि उनका दुस्साहस बढ़ रहा है। उनका बढ़ता दुस्साहस सुरक्षा एजेंसियों की नाकामी का ही परिचायक है। यह नाकामी निराश करने वाली है।
Date: 15-11-24
मजबूत हों स्थानीय निकाय
संपादकीय
भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने स्थानीय निकायों की राजकोषीय स्थिति पर अध्ययन की शुरुआत करके तथा उसके निष्कर्षों को प्रकाशित करके अच्छी शुरुआत की है। नगर निकायों की वित्तीय स्थिति पर पहली ऐसी रिपोर्ट नवंबर 2022 में प्रकाशित की गई थी। उसके बाद पंचायती राज संस्थाओं की वित्तीय स्थिति पर एक अध्ययन पेश किया गया। रिजर्व बैंक ने अब 2019-20 से 2023-24 के बजट अनुमानों के आधार पर नगर निकायों की वित्तीय स्थिति पर आधारित एक रिपोर्ट प्रकाशित की है। अध्ययन में देश भर के 232 नगर निकायों को शामिल किया गया है। भारत में अक्सर स्थानीय निकायों पर सीमित नीतिगत ध्यान दिया जाता है। आंशिक तौर पर ऐसा इसलिए हुआ कि तुलनात्मक स्वरूप में आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। यह भी उम्मीद की जानी चाहिए कि रिजर्व बैंक का यह अध्ययन जरूरी नीतिगत ध्यान आकृष्ट करेगा और सार्वजनिक बहस को समृद्ध करेगा।
स्थानीय निकायों को मजबूत बनाना अत्यधिक आवश्यक है। नगर निकायों के संदर्भ में यह बात ध्यान देने लायक है कि भारत का तेजी से शहरीकरण हो रहा है और उसे नागरिक क्षमताएं विकसित करने की आवश्यकता है। फिलहाल जो हालात हैं उनके मुताबिक भारत का करीब 60 फीसदी सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) शहरी इलाकों में उत्पन्न हो रहा है और 2050 तक उसकी करीब 50 फीसदी आबादी शहरी इलाकों में रहने लगेगी। बहरहाल अधिकांश नगर निकाय इस बदलाव से निपटने के लिए तैयार नहीं हैं, मोटे तौर पर ऐसा इसलिए कि उनके पास संसाधन नहीं हैं। जैसा कि रिजर्व बैंक की रिपोर्ट दिखाती है, नगर निकायों की राजस्व प्राप्तियां जीडीपी का केवल 0.6 फीसदी हैं। यह मामूली आंकड़ा भी चुनिंदा नगर निकायों के पक्ष में झुका हुआ है। केवल 10 नगर निकाय कुल राजस्व प्राप्तियों में 60 फीसदी के हिस्सेदार हैं। नगर निकायों का कुल व्यय जिसमें राजस्व और पूंजीगत व्यय शामिल है, वह 2023-24 के बजट अनुमान में जीडीपी के 1.3 फीसदी के बराबर था। नगर निकायों के राजस्व में संपत्ति कर, कुछ शुल्क और उपयोग शुल्क आदि शामिल होते हैं। संपत्ति कर उसके कुल राजस्व में करीब 60 फीसदी होता है।
नगर निकाय केंद्र और राज्य सरकारों के अनुदान पर बहुत अधिक निर्भर होते हैं। राज्य सरकारों, राज्यों के वित्त आयोग के अनुदान तथा अन्य जगहों से आने वाली राशि की बात करें तो 2019-20 और 2022-23 में वह इनकी राजस्व प्राप्तियों में 30 फीसदी की हिस्सेदार रही। केंद्र सरकार का हस्तांतरण उनके राजस्व में 2.5 फीसदी का हिस्सेदार रहा। नगर निकाय बाजार से भी उधारी लेते हैं, हालांकि यह उनके जीडीपी का केवल 0.05 फीसदी है। नगर निकायों की वित्तीय स्थिति दुरुस्त करने की जरूरत है। इसके साथ ही उन्हें बेहतर प्रदर्शन करने लायक बनाना होगा। अधिकांश विकसित और विकासशील देशों में सामान्य सरकारी राजस्व और व्यय में स्थानीय निकायों की हिस्सेदारी बहुत अधिक है। राजकोषीय शक्तियों में इजाफा तथा सामाजिक जवाबदेही, आर्थिक और सामाजिक परिणामों को बेहतर बनाने में मदद करेंगे। लोकतांत्रिक व्यवस्था में मतदाताओं के लिए यह हमेशा आसान होता है कि वे अपने स्थानीय राजनीतिक नेतृत्व को जिम्मेदार ठहराएं।
नगर निकायों की वित्तीय स्थिति में सुधार के लिए विभिन्न स्तरों पर हस्तक्षेप की जरूरत होगी। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि निकायों को खुद अपना राजस्व बढ़ाने पर काम करना होगा। उदाहरण के लिए संपत्ति कर में सुधार की जरूरत है क्योंकि संपत्तियों का मूल्यांकन बढ़ रहा है। कराधान का दायरा और गुंजाइश बढ़ाने के लिए तकनीक का भी इस्तेमाल करना होगा। इन निकायों को उपयोगकर्ता शुल्क को भी समुचित बनाना होगा। कुल मिलाकर सरकार के उच्च स्तरों पर निर्भरता कम करने की जरूरत है जिससे राजस्व के बारे में एक अनुमान लग सकेगा। एक संभावना यह है कि जरूरी कानूनी बदलावों के बाद स्थानीय निकायों को वस्तु एवं सेवा कर में हिस्सा दिया जाए। इससे न केवल इन निकायों को विकास परियोजनाओं को बेहतर बनाने में मदद मिलेगी बल्कि वे अधिक अनुकूल शर्तों पर ऋण भी जुटा सकेंगे। कुछ नगर निकायों ने बॉन्ड बाजार का रुख भी किया है। अब वक्त आ गया है कि भारत स्थानीय निकायों की स्थिति और भूमिका पर नए सिरे से विचार करे।
Date: 15-11-24
बुलडोजर पर लक्ष्मण रेखा
संपादकीय
सुप्रीम कोर्ट ने बुलडोजर से की जा रही कार्रवाई पर दूरदर्शी फैसला सुनाते हुए इसे असंवैधानिक बताया है, जिसका स्वागत किया जाना चाहिए। कुछ महीनों से उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, झारखंड और दिल्ली में बुलडोजर न्याय के तहत आपराधिक मामलों में आरोपियों के मकानों और अन्य संपत्तियों को ध्वस्त किया जा रहा है। शीर्ष अदालत ने इस कार्रवाई पर लक्ष्मण रेखा खींच दी है। जस्टिस बीआर गवई और केवी विश्वनाथन की बेंच ने अपने फैसले में कहा है कि किसी आरोपी का घर सिर्फ इसलिए नहीं गिराया जा सकता कि उस पर किसी अपराध का आरोप है। विद्वान जजों ने फ्रांस में प्रबुद्धता युग के राजनीतिक विचारक और न्यायविद् चार्ल्स डी मॉन्टेस्क्यू के शक्तियों के पृथक्करण सिद्धांत के तहत कहा कि आरोपों पर फैसला करना न्यायपालिका का काम है, कार्यपालिका का नहीं। जाहिर है कि भारतीय संविधान में सरकार के तीनों अंगों के कार्यों के विभाजन का प्रावधान है। न्यायाधीश और न्यायपालिका का काम पुलिस और प्रशासन के अधिकारी कैसे कर सकते हैं। उदार लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था नागरिकों के राजनीतिक अधिकारों के साथ-साथ व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करने के उद्देश्य से राज्य की शक्तियों को सीमित करती है। यह फैसला राज्य के कार्यों को सीमित करने और कानून का शासन स्थापित करने वाला है। अदालत कहा है कि विधि का शासन लोकतांत्रिक शासन का मूल आधार है जो सुनिश्चि करता है कि कोई व्यक्ति जघण्य अपराध का दोषी पाया भी जाता है, तो भी राज्य कानून की उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना उसके घर पर बुलडोजर नहीं चला सकता। अदालत ने बुलडोजर कार्रवाई के संबंध में सख्त गाइडलाइं जारी की हैं। कोई अधिकारी अदालत के निर्देशों का पालन नहीं करता है और किसी के घर पर बुलडोजर चलाता है तो उस पर अवमानना और अभियोजन की कार्रवाई की जाएगी और ध्वस्त संपत्ति की लागत उसकी जेब से वसूली जाएगी। अतिक्रमण के आरोपी को नोटिस भेजने, जवाब देने का मौका आदि प्रावधान बनाए गए हैं। लेकिन अदालत ने सार्वजनिक स्थलों पर अवैध निर्माण को इन निर्देशों के दायरे से मुक्त रखा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि विधि शासन को मजबूत करने की दिशा में यह फैसला मील का पत्थर साबित होगा।
Date: 15-11-24
जागरूकता भी जरूरी
संपादकीय
केंद्र सरकार ने कोचिंग इंस्टीट्यूट्स के विज्ञापनों को लेकर गाइडलाइंस जारी की हैं। अब कोचिंग सेंटर 100% चयन या नौकरी का वादा नहीं कर सकेंगे। भ्रामक और गुमराह करने वाले विज्ञापनों पर जुर्माना लगाया जा सकता है। कोचिंग सेंटर अब अवधि, फैकल्टी, रैंकिंग, रिफंड पॉलिसी को लेकर झूठे वादे नहीं कर सकते । शुल्क संरचना, परीक्षा में चयन की दर, चयन की गारंटी जैसे भ्रामक वादे भी नहीं कर सकते। केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण द्वारा तैयार दिशा-निर्देश ढेरों शिकायतें मिलने के बाद जारी किए गए हैं। ‘कोचिंग सेंटरों में भ्रामक विज्ञापन की रोकथाम’ वाले शीर्षक द्वारा कोचिंग को अकादमिक सहायता, शिक्षा, मार्गदर्शन, अध्ययन कार्यक्रम और ट्यूशन को शामिल करने के लिए परिभाषित किया गया है। वे किसी भी टॉपर का नाम उसकी लिखित अनुमति के बगैर अपने प्रमोशन के लिए नहीं प्रयोग कर सकेंगे। सेंटर को अपने मान्यताप्राप्त होने या न होने का विवरण भी स्पष्ट तौर पर देना होगा। देश में कोचिंग सेंटर संपूर्ण व्यवसाय के तौर पर काम कर रहे हैं जो बेहतरीन भविष्य के सपने देखने वाले छात्रों को लुभाने के लिए विज्ञापनों का भरसक प्रयोग करते हैं। छोटे से लेकर बड़े शहरों तक इनका जंजाल फैला हुआ है। ये भ्रामक प्रचार द्वारा प्रलोभन देते हैं, और मोटी रकम वसूलने का काम करते हैं। राष्ट्रीय उपभोक्ता हेल्पलाइन पर इनकी शिकायतें बढ़ती जा रही हैं। प्राधिकरण ने 54 कोचिंग सेंटर को पिछले दिनों नोटिस जारी किया जिन पर साढ़े चौव्वन लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया है। असल में तो यह सरकारी लापरवाही का नतीजा है। कोई भी उपभोक्ता सेवा सरकार के संज्ञान में आए गैर कैसे प्रचलित हो सकती है। उस पर भी कोचिंग सेंटरों जैसी सेवाएं, जिनके विशाल होर्डिंग्स सड़कों पर नजर आते हैं तथा बड़े-बड़े विज्ञापनों से समाचार-पत्र भरे पड़े होते हैं। कहा जा सकता है, देरी से ही सही आखिर व्यवस्था चेती तो है। मगर यह सवाल भी बड़ा है कि इन दिशा-निर्देशों की अवहेलना करने वालों पर सख्ती कैसे और कितनी देर की जाएगी? छात्रों को भी इन नियमों का ख्याल रखते हुए प्रवेश लेना सीखना होगा। ख्याल रखें, आसान मार्ग के लोभ में झूठे वायदों और भ्रामक विज्ञापनों के भरोसे रहना जोखिम भरा साबित हो सकता है।