14-11-2024 (Important News Clippings)

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14 Nov 2024
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Date: 14-11-24

Bulldazed no more?

SC read the riot act on ‘bulldozer justice’. But will officials fear courts or netas? We don’t know

TOI Editorial

In defining a penalty for officials responsible for ‘bulldozer justice’, Supreme Court yesterday did good in its attempt to demolish the brazen lawlessness by state govts, including UP, MP, Rajasthan, Assam, Gujarat, Jharkhand, and Delhi. SC made three main points. One, essentiality of rule of law “as a safeguard against arbitrary use of state power”. All important is the “distinction between exercise of power in good faith and misuse in bad faith”. Two, on separation of powers, it said govts step on judiciary’s toes when they randomly pronounce any individual ‘guilty’. Thus, state govts better stand down. Three, SC correctly realised guidelines on razing houses won’t suffice: it included “restitution of demolished property at…(officials’) personal cost in addition to payment of damages”, in pursuit of its goal of “no scope for arbitrariness by officials”.

SC reiterated there’s no place for collective punishment, which is what insta-justice of pulling down houses of so-called accused, or even convicts, is. There’s enough due process even to raze illegal constructions. SC has made that more granular and pan-India. Point is, there never had to be a legitimate reason for netas. The ‘wrong’ could be imagined. For, what but distorted politics can ever explain, or attempt to justify, demolishing the house of a schoolboy in a scuffle with another? Clearly, Udaipur administration had viewed the two boys not as children but from some twisted notion of culprit and victim.

Will govts pay serious heed? Administrations are staffed by officials timid, or fearful, or both. Question is who would they fear more? Courts or political bosses? Bully govts may be a sign of weakness, but when politics is to be done – almost 800 houses govt razed in Haryana’s Nuh belonged to Muslims – this counts as strategy. SC guidelines are unlikely to altogether stop ‘bulldozer justice’. Accountability, for one, is a quantity most nebulous in govt machinery. When personal monetary loss is involved, accountability will be passed around like the ball in football. SC’s order is superb. Let’s see what the executive does.


Date: 14-11-24

कोर्ट का फैसला राज्यों की मनमानी पर लगाम है

संपादकीय

लुडविग लेविसन ने कहा था, ‘प्रजातंत्र अस्तित्व में तो जनता को राजनीतिक स्वतंत्रता दिलाने के लिए आया था, लेकिन कालांतर में इसने उसी जनता को अपने जनमत की ताकत से एक नए किस्म की गुलामी में जकड़ लिया।’ भारत में यह गुलामी राज्य शक्तियों के कानूनेतर विस्तार के रूप में पहले ‘एनकाउंटर’ के नाम पर उभरी और हाल के वर्षों में ‘बुलडोजर न्याय’ में इसका विद्रूप चेहरा दिखा। बुलडोजर न्याय राज्य शक्ति का वह विस्तार था, जिसमें ‘न्याय’ ही नदारद था। नियमतः निर्माण ढाने के पूर्व कम से कम 15 दिन का नोटिस देना और जवाब से असंतुष्ट होने पर आर्डर जारी करना होता है। लेकिन पिछली तारीख में आदेश देकर अचानक दावा किया जाता है कि जवाब नहीं मिला और जितना गैर-कानूनी निर्माण है उसे गिराने की जगह पूरा मकान जमींदोज कर दिया जाता है। देर से ही सही, पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने इस पर प्रभावी रोक लगाई है। फैसले में ध्वस्तीकरण की प्रक्रिया को इतना जटिल और विस्तारित कर दिया है कि प्रशासन और निकायों के लगभग सभी अफसर शामिल होंगे। यानी कोई भी एक अफसर अब जिम्मेदारी नहीं लेगा। जाहिर है ऐसे ‘गलत’ आदेश अमल में लाना अब दुरूह होगा। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला राज्य के निरंकुश होने के स्वभाव पर एक प्रभावी लगाम है।


Date: 14-11-24

बुलडोजर कार्रवाई

संपादकीय

सुप्रीम कोर्ट ने बुलडोजर कार्रवाई पर दिशा-निर्देश जारी करके यह सुनिश्चित करने का काम किया कि अतिक्रमण, अवैध निर्माण के साथ-साथ अपराध के खिलाफ मनमानी कार्रवाई न होने पाए। ऐसा किया जाना आवश्यक था, क्योंकि बुलडोजर कार्रवाई अपराध में लिप्त तत्वों के खिलाफ भी होती थी और इस आधार पर होती थी कि उन्होंने अपना मकान, दुकान या अन्य कोई इमारत अवैध रूप से बना रखी है। शासन-प्रशासन को ऐसी कार्रवाई करने में इसलिए आसानी होती थी, क्योंकि प्रायः लोग अपने भवनों का निर्माण स्वीकृत मानचित्र या तय मानकों के हिसाब से नहीं कराते। बुलडोजर कार्रवाई को इसलिए जनता का समर्थन मिलता था, क्योंकि उसकी यह आकांक्षा रहती है कि अपराधी तत्वों को यथाशीघ्र दंड मिले। इसी कारण बुलडोजर कार्रवाई की सराहना होती थी, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि इस तरह की कार्रवाई में संदिग्ध अपराधी-अभियुक्त का घर-दुकान ध्वस्त होने से उसके स्वजन भी सजा पाते थे। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा कि किसी आरोपित की सजा उसके परिवार वालों को नहीं दी जा सकती। सुप्रीम कोर्ट ने बुलडोजर कार्रवाई को लेकर जो दिशानिर्देश जारी किए, उनके आधार पर इस नतीजे पर भी नहीं पहुंचा जाना चाहिए कि अवैध निर्माण और अतिक्रमण करने वालों के खिलाफ बुलडोजर कार्रवाई का रास्ता बंद होने जा रहा है।

सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों से यह स्पष्ट है कि अनधिकृत निर्माण के खिलाफ नोटिस भेजने और मामले की सुनवाई करने के बाद बुलडोजर कार्रवाई संभव है। इसी के चलते सुप्रीम कोर्ट के फैसले की व्याख्या इस रूप में भी की जा रही है कि इससे माफिया तत्वों और पेशेवर अपराधियों पर नियंत्रण करना आसान हो जाएगा। देखना है कि ऐसा होता है या नहीं? जो भी हो, सुप्रीम कोर्ट के फैसले का असर अतिक्रमण हटाने और जमीनों पर कब्जे रोकने पर नहीं पड़ना चाहिए। इसी तरह अपराधी तत्वों का दुस्साहस भी नहीं बढ़ना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट ने यह सही कहा कि बिना फैसले किसी को दोषी न माना जाए और अपराधी को दंड देना अदालत का काम है, लेकिन प्रश्न यह है कि क्या अदालतें यह काम सही तरह से कर पा रही हैं? अच्छा होता कि सुप्रीम कोर्ट पर इस प्रश्न पर भी गौर करता, क्योंकि यह किसी से छिपा नहीं कि अपराधी और माफिया तत्वों को उनके किए की सजा मुश्किल से ही मिलती है। मिलती भी है, तो बहुत विलंब से। बाहुबली, धनबली किस्म के या फिर राजनीतिक असर वाले अपराधी तत्वों के मामलों में यही अधिक देखने को मिलता है कि वे अपने खिलाफ चल रहे मुकदमों को लंबा खींचने में सफल हो जाते हैं। यह भी किसी से छिपा नहीं कि संगीन अपराध में लिप्त तत्वों को भी शीघ्र सजा नहीं मिल पाती। इसी कारण लोग बुलडोजर कार्रवाई को न्याय की संज्ञा देते हैं। अच्छा होता कि सुप्रीम कोर्ट यह देख पाता कि बुलडोजर कार्रवाई न्याय में देरी की उपज है।


Date: 14-11-24

समस्याओं के हल की राह देखते शहर

हितेश वैद्य, ( लेखक नेशनल इंस्टीट्यूट आफ अर्बन अफेयर्स के पूर्व निदेशक हैं )

बहुत पहले एक कहानी सुनी थी, जिसमें एक माँ भी अपने बच्चे को केवल यह भरोसा दिलाने के लिए पत्थरों का सूप बनाने का अभिनय करती हैं कि जल्द ही उनकी भूख मिट जाएगी। इसके लिए वह चूल्हे पर रखे पानी के बर्तन में पड़े पत्थरों को चम्मच से हिलाती रहती है आज अपने देश में शहरी विकास की चुनौतियों से निपटने के तौर-तरीकों को देखने पर लगता है कि हमारे नीति नियंताओं द्वारा शहरों के विकास के नाम पर पत्थरों का सूप बनाने की कोशिश जारी है। हम एक ऐसी जगह फंस गए हैं, जहां योजनाओं का निर्माण और सुधार की प्रक्रिया सूप बनाने के इसी अभिनय में सिमट गई है। हमें पता ही नहीं है कि हमारी शहरी विकास की भूख कब मिटेगी ? शहरी ढांचे में सुधार के लिए अनगिनत रिपोर्ट, समितियां और नीतियों के निर्माण के बावजूद हालात जस के तस ही हैं इसे देखते हुए शहरी विकास के लिए नवीन दृष्टिकोण अपनाने का समय आ गया है, पुराने तौर-तरीकों से अब काम नहीं चलेगा। वैसे हमारे पास शहरी विकास के लिए योजनाओं और नीतियों की कमी नहीं है। सचिवों की समिति राष्ट्रीय शहरी नीति इंडिया हैबिटेट-3 रिपोर्ट, अर्बन प्लानिंग कैपेसिटी रिफार्म रिपोर्ट और हाल में अमृतकाल की राह के रूप में अन्य कई रिपोर्ट इसके गवाह हैं। अब जरूरत है कि हम इन योजनाओं पर अमल करें और अपने शहरों को वास्तव में बदलें।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने शहरी विकास को जरूरत पर जोर देते हुए जलवायु परिवर्तन और सर्कुलर इकोनमी की बात कही है। इसी तरह वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण भी अपने बजट भाषण में शहरों को आर्थिक विकास के इंजन के रूप में रूपांतरित करने की जरूरत जता चुकी हैं। शहरों का विकास एक जटिल प्रक्रिया है। इसमें सिर्फ इमारतें और सड़कें ही नहीं बनतीं, बल्कि लोगों के जीवन भी बदलते हैं। भारत में तेजी से बढ़ती शहरी आबादी के साथ हमें यातायात जाम, प्रदूषण और गरीबी जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। इसलिए शहरी विकास के लिए हमें सभी पहलुओं- आर्थिक विकास, सामाजिक समावेश, पर्यावरण संरक्षण और लोगों की भागीदारी को समग्र रूप से देखना चाहिए ताकि शहरों का विकास समावेशी, टिकाऊ और सभी के लिए फायदेमंद हो समस्या यह है कि जमीन पर वास्तविक काम करने के बजाय अभी भी रस्म अदायगी की जा रही है। यह गत दिनों यूएन हैबिटेट ग्लोबल स्टेट आफ नेशनल अर्बन पालिसी (एनयूपी) की रिपोर्ट में हमारी अनुपस्थिति से साफ नजर आया। 78 देशों ने अपना शहरी दृष्टिकोण दुनिया के सामने रखा, लेकिन दुनिया को दूसरी सबसे अधिक शहरी आबादी वाला देश भारत का पन्ना खाली रहा। हम इस मामले में और अधिक देरी सहन करने की स्थिति में नहीं हैं। शहरों के सिस्टम एवं नेटवर्क में सुधार, समावेशी विकास पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का मुकाबला, कार्य क्षमता एवं निगरानी तथा आकलन, इन्फास्ट्रक्चर का वित्त पोषण, आर्थिक विकास, कौशल और नवाचार एनयूपी की एक साझा श्रीम रही। हम भी इन मोर्चों पर बदलाव के दौर से गुजर रहे हैं और हमारी तमाम रपटों में ये विषय प्रमुखता से उठे हैं। सवाल हैं कि आखिर हम इन मामलों में विश्लेषण के दौर से आगे बढ़ने और सही मायने में काम शुरू करने में हिचकिचाहट क्यों दिखा रहे हैं? क्यों हम केवल प्रतीकात्मक सुधारों से ही संतुष्ट हैं और ठोस प्रगति करने के बजाय केवल छानबीन करने के उपायों में ही लगे हैं? इस रवैये से तो यही लगता है कि हम बड़े सुधार शुरू करने के लिए जरूरी राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव से जूझ रहे हैं अथवा हमें एजेंसियों के बीच समन्वय कायम करने के तौर-तरीके ही नहीं सूझ रहे हैं।

आज जरूरत अपनी प्राथमिकताएं फिर से तय करने की है। समय आ गया है जब हम प्रतीकात्मक कामकाज करने के बजाय स्पष्ट नजर आने वाली प्रगति की दिशा में काम करें। इससे भी अधिक जरूरी यह है कि हम सबसे पहले शहरी सुधार के लिए आवश्यक पहलों और उनके पीछे के संपूर्ण परिदृश्य को भलीभांति समझ लें। निःसंदेह इनमें से तमाम अच्छी भावना के साथ शुरू की गई हैं, लेकिन यह सवाल पूछा जाना जरूरी है कि इनके पीछे जो दृष्टिकोण हैं, उसका लक्षित वर्ग क्या है, उनसे क्या लाभ होने हैं? यह इसलिए आवश्यक है, क्योंकि हर कोई यह महसूस कर रहा है कि केवल कागजी और कोरी बातों से काम चलने वाला नहीं है कारण चाहे जो भी रहा हो, लेकिन कुछ ठोस न करने की हमें भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। इस निष्क्रियता के दुष्परिणामों को आज हमारे शहर भोग रहे हैं। हमारे शहरों की क्षमता और उनकी संभावना ही समाप्त होती नजर आ रही है। लोगों का भरोसा टूट रहा है कि हम जरूरी शहरी सुधार करने की वास्तविक इच्छाशक्ति रखते हैं। शहरों के ढांचे में सुधार की इच्छाशक्ति का अभाव दूर होना आवश्यक है।

हमें शहरी विकास के लिए एक ऐसे एकीकृत राष्ट्रीय विजन की जरूरत है, जो स्थानीय सरकारों को शक्तियां दे और लोगों की सहभागिता को प्रोत्साहन प्रदान करने का काम करे और हमारा ध्यान उनके क्रियान्वयन पर होना चाहिए, न कि समितियां गठित करने के अंतहीन सिलसिले पर भारत का शहरी भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि हम शहरीकरण प्रक्रिया को कितना प्रभावशाली और नतीजे देने वाली बना पाते हैं। हमारे पास ज्ञान, संसाधनों और क्षमता की कमी नहीं है। इस सबके साथ यदि कुछ और सबसे अधिक जरूरी है तो वह है जेहन में काम करने की ललक पैदा करना हमें ऐसे शहर बनाने होंगे, जो अपने नागरिकों का पूरी तरह खयाल रखने में सक्षम हों।


Date: 14-11-24

बुलडोजर न्याय पर निर्णायक फैसला

कमलेश जैन, ( अधिवक्ता, सुप्रीम कोर्ट )

सुप्रीम कोर्ट द्वारा बुधवार को बुलडोजर कार्रवाई की सीमा तय करना एक दूरदर्शी फैसला माना जाएगा। अदालत ने साफ कर दिया है कि किसी संपत्ति को ने सिर्फ इसलिए नहीं तोड़ा जा सकता, क्योंकि उस संपत्ति का मुखिया कथित आरोपी है। साथ ही, अदालत ने बिंदुवार दिशा-निर्देश जारी करके ऐसे मामलों की सांविधानिक स्थिति भी साफ कर दी है। दरअसल, पिछले कुछ महीनों से कई राज्य सरकारों पर ये आरोप लग रहे थे ऐसी कार्रवाइयों में पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाया जा रहा है, जिससे न्याय की मूल अवधारणा खंडित हो रही है। हालांकि, खबर यह भी है कि इन कार्रवाइयों का नुकसान अल्पसंख्यकों की तुलना में बहुसंख्यक समुदाय को ज्यादा हुआ है।

बहरहाल, माना यही जाता है कि देश में कुल भूमि का करीब 20 प्रतिशत हिस्सा अतिक्रमणकारियों के कब्जे में है। दिल्ली में ही एमसीडी और डीडीए की जमीनों पर, जो फुटपाथ या अन्य उपयोग के लिए तय हैं, पक्के निर्माण करके होटल, गैराज, टैक्सी स्टैंड तक बना लिए गए हैं। इससे आम नागरिकों को होने वाली परेशानियों का बस अंदाजा ही लगाया जा सकता है। ऐसे अतिक्रमण दुर्घटना तक को न्योता देते हैं। इसी तरह, देश में कहीं भी थोड़ी सी खाली सरकारी जगह पर कोई न कोई निर्माण कर लिया गया है। नहीं कुछ तो, धार्मिक ढांचा ही खड़ा कर दिया जाता है, जिसको हटाने में तंत्र के हाथ-पांव फूलने लगते हैं। वक्फ अधिनियम के तहत तो किसी की जमीन वक्फ की संपत्ति घोषित की जा सकती है, जिस पर कोई अन्य दावा भी नहीं कर सकता।

इस पृष्ठभूमि में यदि सुप्रीम कोर्ट के नए दिशा- निर्देशों को पढ़ा जाए, तो नई राह बनती दिख रही है। होता यह है कि कानून की दृष्टि से या आम लोगों की नजर से भी अवैध अतिक्रमण चुभते हैं और उस पर कार्रवाई की मांग की जाती है, लेकिन मुमकिन है कि कार्रवाई करने वाली सरकारी एजेंसियों से भी चूक हो या दस्तावेज का सावधानी से अध्ययन न करना बुलडोजर को लिवा लाए, इसलिए ऐसी कार्रवाइयों में प्रक्रिया के पालन की बात अदालत ने कही है। अदालत का स्पष्ट मानना है कि तंत्र और आम आदमी, यहां तक कि जिसकी संपत्ति ध्वस्त की जानी है, सभी को न्याय मिलना चाहिए। यही कारण है कि अपने दिशा- निर्देश में अदालत ने ऐसी कार्रवाई के लिए समय- सीमा तय करने, नोटिस भेजने, जवाब देने का मौका देने और समझौता योग्य होने पर जुर्माना अदा करके समझौता करने जैसे प्रावधान बताए हैं।

ऐसे मामलों का मानवीय पक्ष कहीं अधिक मजबूत है। यदि किसी आरोपी का घर ध्वस्त कर दिया जाता है, तो बिना किसी गलती के उसके परिजन भी सजा पा जाते हैं, जो हृदयविदारक दृश्य पैदा कर सकता है। हालांकि, दबंगई में किए गए अतिक्रमण पर कार्रवाई उचित जान पड़ती है। जिन मामलों में शक सुबहा हो, वहां पूरे दस्तावेज का बारीकी से अध्ययन होना ही चाहिए, लेकिन जिन मामलों में पहली नजर में ही
तस्वीर साफ हो जाए, उनमें जल्द से जल्द कार्रवाई सुनिश्चित करना आवश्यक है। अगर ऐसा नहीं किया गया, तो एक दिन अव्यवस्था चरम पर पहुंच सकती है। वाकई, अगर किसी ने सही तरीके से जमीन खरीदा है और उसके पास हर दस्तावेज मौजूद हैं, तो उसे ध्वस्त करना तंत्र के लिए गले की फांस बन सकता जनता में भी आक्रोश पैदा होता है, क्योंकि आदमी सब कुछ सह लेता है, पर यह नहीं सह सकता कि जिस मकान को उसने अपने खून-पसीने से सींचा है, जिसकी एक-एक ईंट जोड़ने के लिए मेहनत की है, उसे सिर्फ शक के बिना पर कोई ध्वस्त कर दे।

वास्तव में, अतिक्रमण के मामले में तंत्र कहीं अधिक कुसूरवार नजर आता है, क्योंकि अवैध निर्माण को रोकना उसकी जिम्मेदारी होती है, लेकिन उसके अधिकारी इसे अनदेखा करते हैं। कभी-कभी तो इसके लिए पैसों का भी लेन-देन होता है। ऐसा ही एक मामला मुझे याद है, जब दिल्ली हाईकोर्ट में अवैध अतिक्रमण का एक मामला इसलिए नहीं टिक सका, क्योंकि संबंधित विभाग के अधिकारियों ने लीपापोती कर दी। नतीजतन, उस जगह पर आज अतिक्रमण कहीं अधिक तेजी से हो रहा है।

यह पूरा प्रकरण भूमि सुधार की तरफ भी इशारा कर रहा है। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि हर संपत्ति मालिक अपनी संपत्ति का ब्योरा सार्वजनिक करे और उस पर उचित कर चुकाए । अतिक्रमणकारियों की संख्या चूंकि अपने देश में कम नहीं है, इसलिए ऐसी जमीनों से सरकारी खजाने को चूना लग रहा है। मगर होता यह है कि यह सब एक लंबी प्रक्रिया है और बुलडोजर चलाने का आदेश तुरंत मिल जाता है, इसलिए आसान रास्ता अपना लिया जाता है। जबकि, ऐसी कार्रवाइयों में जमीन के एक टुकड़े को छोड़कर सब कुछ ध्वस्त हो जाता है। इसीलिए, सुप्रीम कोर्ट उचित ही इसके लिए प्राधिकरण के माध्यम से सुनवाई करने की बात कही है। अपेक्षा रहेगी कि यह फास्ट ट्रैक कोर्ट से भी अधिक तेजी से काम करेगा और अंतिम आदेश पारित करके अनधिकृत संरचना के भाग्य का उचित फैसला करेगा। इससे सरकारों के पास कितनी जमीन निकल सकती है और जनता के हित में कितने काम हो सकते हैं, इसका महज अनुमान ही लगाया जा सकता है।

अपराधशास्त्र का एक महत्वपूर्ण और स्थापित सद्धांत है कि जिसने अपराध किया है, सजा उसी को दी जाए। लिहाजा, अतिक्रमणकारियों को ही जेल मिलनी चाहिए, उनके परिजनों को नहीं। हां, यदि पूरी जांच के बाद जमीन अतिक्रमित साबित हो, तो उस पर बुलडोजर चलाने से ऐतराज नहीं होना चाहिए। इसमें शायद ही न्याय के सिद्धांत की अवहेलना होगी। विशेषकर भू माफियाओं के मामले में यही दिखा है कि उनके पास अपने दावे से संबंधित सही कागजात नहीं थे। जब कागज दुरुस्त न हो, तब कानूनी कार्रवाई से किसी को क्यों ऐतराज होगा ? अगर ऐसे मामलों में बुलडोजर नहीं चलेगा, तो जिसने उस पर कब्जा जमा रखा है, वह तो अपना हक बढ़ाता चला जाएगा और निर्दोषों को तंग करता रहेगा। इससे सरकार पर भी उंगली उठेगी और देश का अस्तित्व ही खतरे में पड़ सकता है। हालांकि, यह पूरी कार्रवाई कानून और व्यवस्था के तहत ही हो, जिसको बनाए रखने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सुप्रीम कोर्ट ने उचित ही सरकारों पर डाल दी है।