19-04-2024 (Important News Clippings)

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19 Apr 2024
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Date:19-04-24

किसानों को खेती का तरीका बदलना होगा

संपादकीय

आंकड़े गवाह हैं कि खेती लगातार अलाभकर होती जा रही है। कृषि अर्थशास्त्रियों ने इस बात को राज्यवार नए आंकड़ों से समझाया है। भले ही मप्र, पंजाब, राजस्थान के किसान कुल बोए गए रकबे में गेहूं पैदा कर प्रति हेक्टेयर क्रमशः 53.92, 51.36 और 42.45% (सी-2 लागत पर ) लाभ कमा रहे हों पर महाराष्ट्र के खेतिहर को सर्वाधिक घाटा (16.82% ) होता है। लेकिन अगर इन राज्यों में कृषि-जीडीपी प्रति हेक्टेयर देखें तो आन्ध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु के किसान एक हेक्टेयर में देश में सर्वाधिक क्रमश: 6.43 लाख, 5.19 लाख और 5.14 लाख रुपए का उत्पादन करके खुशहाल हैं, जबकि पंजाब 13वें स्थान पर (3.71 लाख) है और वहां खेत तेजी से बंजर हो रहे हैं। बेहतर आय के लिए बहु-फसली खेती, डेयरी और मछली पालन या अन्य नकदी फसलें बोनी होंगी। उत्तर भारत के किसानों ने अगर खेती का तरीका नहीं बदला और मात्र गेहूं-चावल तक सीमित रहे तो स्थिति बिगड़ती जाएगी। कई रिपोर्ट्स में बताया है कि पंजाब में खेती से कुल जीडीपी का 80 फीसदी केवल गेहूं और चावल से आता है, जबकि आंध्र में 24 प्रतिशत कृषि, वैल्यू एडेड मत्स्य पालन से और तमिलनाडु में 39 प्रतिशत फलों की खेती से आता है। वैसे भी पंजाब में पानी का दोहन खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है। ना भूलें कि लोग अब अनाज से हट कर फल, दूध, हाई-प्रोटीन डाइट ले रहे हैं।


Date:19-04-24

इजराइल – ईरान टकराव से तेल के दाम उछल सकते हैं

मनोज जोशी, ( अंडरस्टैंडिंग द इंडिया चाइना बॉर्डर के लेखक )

इजराइल और ईरान के बीच जो कुछ हो रहा है, वह भारत के लिए भी बड़ी चिंता का विषय है। शनिवार को हमला शुरू होने से पहले ईरानी फौज ने होर्मुज के जलडमरूमध्य में एक मालवाहक जहाज को जब्त कर लिया था, जिसमें चालक दल के 25 सदस्यों में से 17 भारत के थे जहाज का स्वामित्व आंशिक रूप से एक इजराइली के पास था और इस कार्रवाई का उद्देश्य मध्य-पूर्व क्षेत्र में तनाव बढ़ाना था। इजराइल पर ईरानी हमले के तुरंत बाद भारत ने इस पर गंभीर चिंता व्यक्त करते हुए एक बयान जारी किया और तत्काल तनाव कम करने का आह्वान किया। तेहरान से बातचीत में अलग से जहाजकर्मियों की हिरासत का मुद्दा भी उठाया और चालक दल से मिलने की अनुमति मिली।

वैसे इजराइल और ईरान लंबे समय से इस क्षेत्र में शैडो-वॉर लड़ रहे हैं। इजराइल ईरानी अधिकारियों और परमाणु वैज्ञानिकों की हत्या करता है तो ईरान हिजबुल्ला और हूती सहयोगियों की मदद से इजराइली ठिकानों पर हमला बोलता है लेकिन गत 1 अप्रैल को इजराइलियों ने कथित रूप से दमिश्क में एक ईरानी कॉन्सुलेट पर हमला कर दिया, जिसमें कुद्स फोर्स के सात वरिष्ठ अधिकारी मारे गए। यह ईरान के इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड्स कॉप्स (आईआरजीसी) की एक इकाई है। इसके बाद ईरान को लगा कि अब उसे इजराइल के खिलाफ सीधे जवाबी कार्रवाई करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा।

शनिवार रात एक बड़े हमले के माध्यम से उसने ऐसा ही किया । इजराइल ने अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जॉर्डन और सऊदी अरब की मदद से ईरानी ड्रोन और मिसाइल हमले को सफलतापूर्वक रोक दिया। अगर एक भी मिसाइल इजराइल में घुस जाती और उसके हमले में कई इजरायली मारे जाते तो तेल अवीव को जवाबी हमला बोलने में कोई हिचकिचाहट नहीं होती। लेकिन हमलों से अपना लगभग पूर्ण बचाव करने के बाद इजराइल के लिए इस अमेरिकी दबाव को नजरअंदाज करना मुश्किल था कि वह भले अभी अपनी जीत की घोषणा कर दे, लेकिन जवाबी कार्रवाई न करे। हालांकि इजराइल के प्रधानमंत्री नेतन्याहू पर उनके दक्षिणपंथी गठबंधन के सदस्यों की ओर से ईरान को मुंहतोड़ जवाब देने का बहुत दबाव है। इसका एक कारण यह भी है कि इससे इजराइल द्वारा गाजा में किए गए विनाश से भी दुनिया का ध्यान भटकेगा।

7 अक्टूबर को इजराइल पर हमास के आतंकवादी हमले के बाद से ही भारत ने स्थिति को शांत करने के लिए मध्य-पूर्व क्षेत्र के सऊदी अरब, ईरान, इजराइल, मिस्र और फिलिस्तीन के साथ-साथ यूरोप के नेताओं से बात की है। लेकिन भारत इससे अधिक कुछ कर नहीं सकता है। भारत के ईरान के साथ लंबे समय से रणनीतिक संबंध हैं, वहीं मोदी सरकार ने रक्षा के क्षेत्र में इजराइल के साथ गहरे संबंध विकसित किए हैं। इजराइल ने पिछले दशक में 2.9 अरब डॉलर मूल्य की मिसाइलें, रडार और निगरानी और लड़ाकू ड्रोन हमें निर्यात किए हैं। ईरानी तेल-गैस भी भारत के लिए हाइड्रोकार्बन के निकटतम स्रोत हैं। अमेरिकी प्रतिबंधों से पहले भारत ईरानी तेल का बड़ा खरीदार था।

भारत इस तथ्य से भी अवगत है कि इस्लामी कट्टरवाद की लहर में भी भारत कभी शिया चरमपंथियों के निशाने पर नहीं रहा था। दरअसल, भारत और ईरान दोनों ही पाकिस्तान और अफगानिस्तान से सुन्नी चरमपंथियों द्वारा आतंकवाद के निर्यात को लेकर चिंतित हैं। इसके अलावा, पाकिस्तानी नाकाबंदी को देखते हुए ईरान ने भारत को चाबहार और बंदर अब्बास

के बंदरगाहों के माध्यम से मध्य एशिया और यूरोप के लिए एक रास्ता प्रदान किया है। भारत ने 2016 में चाबहार को विकसित करने के लिए 85 करोड़ डॉलर का निवेश किया था और तेहरान को 15 करोड़ डॉलर की क्रेडिट लाइन भी दी थी। ईरान-इजराइल संघर्ष के चलते तेल की कीमतों में वृद्धि से भी भारत अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित हो सकता है। भारत आज कच्चे तेल का दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा उपभोक्ता है और अपनी अधिकांश ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वह आयात पर ही निर्भर है।

विश्लेषकों का मत है कि मध्य-पूर्व तनाव के चलते तेल की कीमतें बढ़कर 100 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच सकती हैं। आज भारत ईरानी कच्चा तेल तो नहीं खरीद रहा है, लेकिन गत मार्च में उसने सऊदी अरब, इराक और यूएई से अपने कुल तेल आयात का 48 प्रतिशत हिस्सा लिया था । इराकी और सऊदी तेल होर्मुज के जलडमरूमध्य से ही होकर आता है और तनाव बढ़ने पर ईरानी इसकी नाकाबंदी कर सकते हैं।


Date:19-04-24

लोकतंत्र पर ही सवाल है वंशवाद

राज कुमार सिंह, ( लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं )

भारतीय राजनीति में वंशवाद नया मुद्दा नहीं, पर इसका बढ़ते जाना बड़े खतरे की ओर इशारा है। राजनीतिक दल एक-दूसरे पर परिवारवाद के आरोप लगाते हैं, पर सच यह है कि कोई किसी से पीछे नहीं। पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में उनकी बेटी इंदिरा गांधी को आगे बढ़ाए जाने के साथ ही परिवारवाद का सवाल उठने लगा था। इंदिरा के प्रधानमंत्री बनने के बाद जिस तरह पहले संजय और फिर राजीव गांधी को आगे बढ़ाया गया, उसके बाद तो वंशवाद का आरोप कांग्रेस पर स्थायी रूप से चस्पा हो गया। विडंबना है कि सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को वंशवाद में कोई बुराई नजर नहीं आती। आश्चर्य नहीं कि कांग्रेस परिवारों का समूह ज्यादा नजर आती है।

सबसे बड़े लोकतंत्र की विद्रूपता देखिए कि जो दल और नेता वंशवाद के लिए कभी कांग्रेस को कोसते थे, वे अपनी वंशबेल बढ़ाने में उससे भी आगे निकल गए। क्षेत्रीय दल तो हैं ही परिवार केंद्रित, बाकी का हाल भी अलग नहीं। देश के लिए निर्णायक बताए जा रहे 2024 के लोकसभा चुनाव में भी वंशवाद सर्वत्र है।

अक्सर विकृतियों के लिए उत्तर भारत को जिम्मेदार मान लिया जाता है, पर भ्रष्टाचार की तरह वंशवाद में भी पूरा भारत एक है। उत्तर प्रदेश में स्व. मुलायम सिंह यादव के बेटे अखिलेश और पुत्रवधू डिंपल के अलावा भाई-भतीजों समेत कई अन्य स्वजन चुनाव मैदान में हैं। आकाश आनंद बसपा सुप्रीमो मायावती के उत्तराधिकारी भतीजा होने के नाते ही हैं।

एनडीए में शामिल संजय निषाद और ओमप्रकाश राजभर को अपने हिस्से आई एक-एक सीट पर अपने बेटों से बेहतर उम्मीदवार नहीं मिले। भाजपा उम्मीदवार राजवीर सिंह पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के बेटे हैं। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के बेटे पंकज विधानसभा चुनाव लड़ते रहे हैं। बिहार में तो लालू यादव के चुनाव लड़ने वाले परिजनों की बढ़ती सूची ने आइएनडीआइए पर ही सवालिया निशान लगा दिया है। चिराग पासवान की पहचान रामविलास पासवान का बेटा होना भी है। रामविलास स्वजनों और रिश्तेदारों को राजनीति में लाने से नहीं चूके। यह कैसा सामाजिक न्याय है, जो परिवार से आगे नहीं देख पाता?

राजस्थान में भी वंशवाद में किसी ने कसर नहीं छोड़ी है। भाजपा एक परिवार में एक टिकट के तर्क के सहारे अपने परिवारवाद का बचाव करती है, लेकिन विधायक विश्वनाथ सिंह की पत्नी को राजसमंद से लोकसभा टिकट दिया गया है। जयपुर शहर में भंवरलाल शर्मा के निधन के बाद बेटी उम्मीदवार है। कभी तीसरी धारा की राजनीति के बड़े चेहरे रहे नाथूराम मिर्धा की पौत्री ज्योति मिर्धा भाजपा के टिकट पर नागौर से चुनाव मैदान में हैं तो पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के बेटे दुष्यंत सिंह झालावाड़ से फिर चुनाव लड़ रहे हैं।

कांग्रेस के कद्दावर नेता रहे शीशराम ओला के बेटे बृजेंद्र झुंझुनू से चुनाव लड़ रहे हैं तो पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बेटे वैभव जालोर-सिरोही से मैदान में हैं। झालावाड़-बारा सीट पर पूर्व मंत्री प्रमोद जैन की पत्नी उर्मिला उम्मीदवार हैं। मध्य प्रदेश में पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री कमल नाथ के बेटे नकुल नाथ फिर छिंदवाड़ा से चुनाव मैदान में हैं तो सीधी से पूर्व मंत्री इंद्रजीत पटेल के बेटे कमलेश्वर चुनाव लड़ रहे हैं। विधायक अभय मिश्रा की पत्नी नीलम रीवा से उम्मीदवार हैं।

हिमाचल प्रदेश के मंडी में कांग्रेस ने प्रदेश अध्यक्ष प्रतिभा सिंह के बेटे विक्रमादित्य को उतारा है। हमीरपुर से भाजपा प्रत्याशी अनुराग ठाकुर पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के बेटे हैं तो चंडीगढ़ से उम्मीदवार संजय टंडन भी पंजाब के पूर्व मंत्री बलरामजी दास टंडन के बेटे हैं। दिल्ली में बांसुरी स्वराज को सुषमा स्वराज की बेटी के नाते ही भाजपा का टिकट मिला है। हरियाणा में रतनलाल कटारिया के निधन के बाद उनकी पत्नी बंतो को अंबाला से टिकट दिया गया।

बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के उत्तराधिकारी माने जा रहे भतीजे अभिषेक डायमंड हार्बर से चुनाव लड़ रहे हैं तो सुवेंदु अधिकारी के भाई सौमेंदु अधिकारी कांथी से भाजपा उम्मीदवार हैं। महाराष्ट्र में खुद वंशवाद के सहारे आगे आए उप मुख्यमंत्री अजित पवार अब पत्नी सुनेत्रा को भी चुनाव लड़ाने जा रहे हैं तो मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे का बेटा भी फिर चुनाव लड़ रहा है। भाजपा उम्मीदवारों में पीयूष गोयल, रक्षा खडसे, पंकजा मुंडे, सुजय विखे पाटिल समेत अनेक नाम परिवारवाद की ही देन हैं।

कर्नाटक में कांग्रेस ने कम से कम नौ मंत्रियों समेत दर्जन भर नेताओं के रिश्तेदारों को टिकट दिया है, जिसे मुख्यमंत्री सिद्दरमैया जनता की मांग बता रहे हैं। मल्लिकार्जुन खरगे अपने बेटे प्रियांक के कर्नाटक में मंत्री होने के बावजूद दामाद राधाकृष्ण को गुलबर्गा से चुनाव लड़ाने का मोह नहीं छोड़ पाए। उप मुख्यमंत्री डीके शिवकुमार के भाई सुरेश बेंगलुरु ग्रामीण से चुनाव मैदान में हैं। भाजपा के वरिष्ठ नेता केएस ईश्वरप्पा ने अपने बेटे को टिकट न मिलने पर पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा के बेटे बीवाई राघवेंद्र के विरुद्ध निर्दलीय चुनाव लड़ने का एलान कर दिया है।

येदियुरप्पा के दूसरे बेटे बीवाई विजयेंद्र विधायक के साथ-साथ कर्नाटक भाजपा अध्यक्ष भी हैं। भाजपा ने दावणगेरे से पूर्व केंद्रीय मंत्री जीएम सिद्धेश्वर का टिकट काट कर उनकी पत्नी गायत्री को दे दिया। लोकसभा चुनाव लड़ रहे पूर्व मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई भी पूर्व मुख्यमंत्री एसआर बोम्मई के बेटे हैं। पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा के बेटे पूर्व मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी और पौत्र प्राज्वल रेवण्णा अपनी पार्टी जद (एस) के उम्मीदवार हैं, तो बेंगलुरु ग्रामीण सीट पर देवेगौड़ा के दामाद सीएन मंजूनाथ भाजपा के। यह सूची लंबी है।

वंशवाद के पोषक तर्क देते हैं कि आखिरकार तो जनता ही चुनती है, पर वे यह नहीं बताते कि दशकों तक काम करने वाले कार्यकर्ताओं से पद और टिकट की बाजी नेता का परिजन कैसे मार ले जाता है? यह अध्ययन वंशवाद को बेनकाब करनेवाला है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में 30 प्रतिशत सदस्य राजनीतिक परिवारों से रहे। दलों और राज्यों की दृष्टि से भी ज्यादा फर्क नहीं दिखता। मसलन कांग्रेस ने 31 प्रतिशत टिकट वंशवाद के चलते दिए, तो भाजपा में यह प्रतिशत 21 रहा। महिला सशक्तीकरण के नाम पर भी राजनीतिक परिवारों की महिलाएं ही लाभार्थी बन रही हैं। सपा, टीडीपी, द्रमुक और बीआरएस जैसे दलों में तो सौ प्रतिशत ऐसा ही होता है।


Date:19-04-24

म्यांमार के हालात और क्षेत्रीय सुरक्षा का प्रश्न

श्याम सरन, ( लेखक पूर्व विदेश सचिव हैं और म्यांमार में भारत के राजदूत रह चुके हैं )

म्यांमार एक महत्त्वपूर्ण पड़ोसी है। भारत की सुरक्षा और बेहतरी में उसकी अहम भूमिका है। दोनों देशों के बीच 1,400 किलोमीटर लंबी सीमा है। भारत में पूर्वोत्तर के चार संवेदनशील राज्य-अरुणाचल प्रदेश, नगालैंड, मणिपुर और मिजोरम इस सीमावर्ती देश से लगे हुए हैं। दोनों देशों की सीमा के इधर और उधर समान जातीय समूहों के लोग रहते हैं। नगा, कुकी और मिजो (इन्हें म्यांमार में चिन कहा जाता है) दोनों देशों में बसे हुए हैं।

देश के पूर्वोत्तर इलाके में दशकों तक व्याप्त रही अशांति के दौरान नैशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (खपलांग) अथवा एनएससीएन-के, यूनाइटेड लिबरल फ्रंट ऑफ असम (उल्फा) और कुकी नैशनल काउंसिल ने सीमा पार म्यांमार में अड्डा बनाए रखा।

सन 1980 तक म्यांमार ही वह रास्ता था जिसकी मदद से भारत के विद्रोही समूह दक्षिणी चीन के युन्नान से हथियार और सैन्य प्रशिक्षण हासिल करते। भारत द्वारा सन 1990 के दशक में मिलिट्री जुंटा यानी सैन्य शासन (तमरॉ) से संपर्क कायम करने की एक वजह पूर्वोत्तर की अशांति से निपटना और देश में चीन के बढ़ते प्रभाव का मुकाबला करना भी था। इसका अर्थ यह था कि पहले जहां भारत की नीति आंग सान सू ची तथा उनकी नैशनल लीग ऑफ डेमोक्रेसी (एनएलडी) का समर्थन करने की थी, उसे अब स्थगित करना था। तब से भारत के बुनियादी रुख में कोई बदलाव नहीं आया है।

2016 में जब देश में आंशिक रूप से लोकतंत्र कायम हुआ और अंग सान सू ची उसकी राजनीतिक नेता बनीं (उन्होंने स्टेट काउंसलर का पद संभाला), तब भी भारत ने जुंटा के साथ मजबूत रिश्ता कायम रखा और देश में उसकी ताकत और भूमिका को मान्यता दी। इसमें इस बात से भी मदद मिली कि खुद सू ची ने परदे के पीछे सेना की ताकतवर भूमिका को स्वीकार किया।

2021 के चुनावों में जब एनएलडी को जबरदस्त जीत हासिल हुई और ऐसी संभावना बनी कि लोकतांत्रिक बदलाव की प्रक्रिया आगे बढ़ेगी तब सेना प्रमुख मिन अंग हलाइंग के अधीन सैन्य शासन ने तख्तापलट किया और चुनाव नतीजों को अवैध घोषित करते हुए सू ची समेत राजनेताओं को गिरफ्तार कर लिया। बाद में उन पर देशद्रोह का इल्जाम लगाया गया। परंतु सन 1991 में जहां सेना ने इसी तरह एनएलडी के पक्ष में गए चुनाव नतीजों को अवैध बताकर खारिज कर दिया था, इस बार उसका शासन गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहा है। इतिहास में पहली बार ऐसे हालात हैं जहां सैन्य शासन को उखाड़ फेंके जाने का भी खतरा है। यह कैसे हुआ?

म्यांमार की जटिल राजनीति में तीन अहम प्रतिभागी हैं। सैन्य शासन सबसे शक्तिशाली और संगठित शक्ति है। जातीय समूह जिनमें से 17 बड़े हैं, वे दूसरे अहम भागीदार हैं। वे पूरे देश में फैले हुए हैं और सन 1948 में ब्रिटिशों से देश की आजादी के बाद से ही सैन्य शासन के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष में रहे हैं। कई समूह अधिक क्षेत्रीय स्वायत्तता की मांग कर रहे हैं।

तीसरा अहम प्रतिभागी है बर्मन बहुसंख्यक जो देश के प्रमुख हिस्सों पर काबिज हैं और जिन्होंने सैन्य शासन के खिलाफ असैन्य लोकतांत्रिक विपक्ष कायम किया। सन 1991 के बाद से इसका प्रतिनिधित्व एनएलडी ने किया है जिसका नेतृत्व सू ची के पास है। बर्मन बहुसंख्यक विभिन्न जातीय समूहों की अलगाववादी गतिविधियों के भी खिलाफ हैं, हालांकि उन्होंने एक प्रकार से संघीय नीति को स्वीकार किया है। जातीय समूह एनएलडी और बर्मन बहुसंख्यकों को लेकर शंकालु रहे हैं।

म्यांमार में तीन ध्रुवों वाली स्थिति बरकरार है। अगर तीन में से दो भागीदार एक दूसरे के साथ समझ बना लेते हैं तो तीसरा अलग-थलग हो जाएगा। सन 1991 के चुनाव के बाद यही हुआ था। उस समय जब चीन की मदद से सैन्य शासन अधिकांश जातीय समूहों के साथ शांति समझौते और युद्ध विराम में सफल रहा तब उसे यह आजादी मिल गई कि वह असैन्य विपक्ष के साथ क्रूरता से निपटे। आज सैन्य शासन दो वजहों से मुश्किल में है।

सू ची के नेतृत्व में एनएलडी अहिंसक विरोध के लिए प्रतिबद्ध है लेकिन इस बार उसने सशस्त्र प्रतिरोध का रास्ता चुना है। उसने राष्ट्रीय एकता सरकार (एनयूजी) नामक समांतर सरकार बनाई है। पीपुल्स डिफेंस फोर्स (पीडीएफ) के नाम से उसकी अपनी सेना है। यह सेना विभिन्न जातीय समूहों की सेनाओं के साथ मिलकर लड़ रही है। इनमें कचिन इंडिपेंडेंस ऑर्गनाइजेशन, द करेन नैशनल यूनियन, द कारेन्नी प्रोग्रेसिव पार्टी और चिन नैशनल फ्रंट शामिल हैं। कुछ अन्य जातीय समूहों ने भी हाथ मिलाया है। इसमें म्यांमार डेमोक्रेटिक अलायंस आर्मी का ट्रिपल ब्रदरहुड अलायंस, ताआंग नैशनल आर्मी और अराकान आर्मी शामिल है।

म्यांमार के उत्तरी शान राज्य में सफलताओं के लिए यही गठबंधन जिम्मेदार है। वह राज्य चीन की सीमा से लगा हुआ है। गत 11 अप्रैल को थाई अधिकारियों ने इस बात की पुष्टि की थी कि माए सोत के सामने म्यावाडी में दोनों देशों की बीच की अहम सीमा करेन नैशनल यूनियन के नेतृत्व वाली सेना के हाथों ढह गई। इन सेनाओं ने ड्रोन का इस्तेमाल करके राजधानी नेपिडॉ में सैन्य ठिकानों पर हमले किए।

सैन्य शासन दबाव में है, उसके सैनिकों का नैतिक बल गिरा हुआ है। अगर भारत, चीन और थाईलैंड के साथ संलग्न सीमा वाला पूरा इलाका प्रतिरोधक सेनाओं द्वारा नियंत्रित होता है तो जुंटा के लिए आर्थिक हालात बहुत मुश्किल हो जाएगी। चीन एक तरफ सैन्य शासन का समर्थन कर रहा है तो वहीं कई बार वह जातीय समूहों के साथ स्थानीय सौदे करता है जो सीमावर्ती इलाकों पर काबिज हैं।

म्यांमार में गृह युद्ध पहले ही भारत तक आना शुरू हो चुका है। म्यांमार के आम नागरिक और सैनिक दोनों लड़ाई से बचने के लिए सीमा पार कर भारत आ रहे हैं। मिजोरम की सरकार सीमापार के इन जातीय भाइयों को शरण दे रही है। भारत सरकार ने सीमा के कुछ हिस्से की बाड़ेबंदी करने और दोनों देशों के बीच नि:शुल्क आवागमन बंद करने का निर्णय लिया है लेकिन इससे यह आवाजाही रुकती नहीं नजर आती।

सीमा बहुत लंबी है और कई जगह से आवागमन संभव है। घने जंगल हैं और जल धाराएं भी। अब शायद वक्त आ गया है कि हम सैन्य शासन के समर्थन की रणनीति की समीक्षा करें। संभव है प्रतिरोधक सेनाओं और एनयूजी के साथ चुपचाप संवाद कायम हो। एनयूजी को वैधता हासिल है क्योंकि वह एक निष्पक्ष चुनाव में जीते हुए प्रतिनिधियों से बनी है। अगर हम वक्त से आगे नहीं रहे तो पूर्वोत्तर में शांति और स्थिरता प्रभावित हो सकती है। मणिपुर में छिड़ी हिंसा, चेतावनी का संकेत हो सकती है।


Date:19-04-24

क्या तीसरे विश्व युद्ध की है दस्तक

राजीव सक्सेना

मध्य-पूर्व के बिगड़ते हालात के बाद से ही दुनिया भर में गूगल पर तेजी से ‘वर्ल्ड वॉर श्री’ सर्च किया जा रहा है । इस्राइल और ईरान के बीच लंबे समय से जारी छाया युद्ध 13 अप्रैल को तब खुल कर सामने आ गया जब उसने इस्राइल पर सैकड़ों ड्रोन और मिसाइलें ये कहते हुए दागीं कि ये दमिश्क में उसके कॉन्सुलेट (वाणिज्य दूतावास) पर इस्राइल के हवाई हमले का जवाब है। इस संघर्ष का सीधा मतलब भारत में कच्चे तेल आयात पर असर की आशंका है।

बता दें कि शनिवार को इस्राइल पर ईरान के पहले सीधे हमले में ईरान, इराक, सीरिया और यमन से 300 से अधिक मिसाइलें और ड्रोन दागे गए, जिनमें से अधिकांश को इस्राइल और उसके सहयोगियों द्वारा मार गिराया गया। तेहरान ने कहा कि यह हमला 1 अप्रैल को सीरिया में उसके वाणिज्य दूतावास पर कथित इस्राइली हवाई हमले की प्रतिक्रिया में था जिसमें 13 लोग मारे गए थे। अब तक लगता है कि इस्राइल ने केवल राजनयिक आक्रमण से ही जवाब दिया है। इसके विदेश मंत्री ने 30 से अधिक देशों से ईरान के मिसाइल कार्यक्रम पर प्रतिबंध लगाने का आग्रह किया। ईरान में एक प्रमुख सैन्य, राजनीतिक और आर्थिक ताकत ‘इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कॉप्स’ (आईआरजीसी) को आतंकवादी संगठन घोषित करने का भी आह्वान किया है। उधर, रूस पहले ही ईरान के पक्ष में खड़े होने की बात कह चुका है। क्रेमलिन के प्रवक्ता दिमित्री पेसकोव ने पूछे जाने पर कि क्या तेहरान ने इस्राइल पर हमले के बारे में रूस को पहले से जानकारी दी थी, पेसकोव का कहना है कि उन्हें इस मामले पर कुछ नहीं कहना है। उल्लेखनीय है कि ईरान हमास का समर्थन करता है लेकिन मध्य-पूर्व में हाल के दिनों में किसी भी प्रकार के सीधे हस्तक्षेप से इनकार करता है। हालांकि लेबनान के भीतर से इस्राइल पर मिसाइलें दागने, जॉर्डन में अमेरिकी सैन्य अड्डों पर ड्रोन हमले और लाल सागर में पश्चिमी देशों के समुद्री जहाजों को निशाने बनाने के आरोप अप्रत्यक्ष रूप से ईरान पर लगते रहे हैं क्योंकि इन हमलों के लिए ईरान समर्थित गुटों को जिम्मेदार ठहराया गया है। आखिर, ये गुट कौन से हैं, और ईरान के तार इनसे किस तरह जुड़े हुए हैं? मध्य-पूर्व में कई हथियारबंद गुट हैं, जिनके तार ईरान से जुड़ते हैं। इनमें गाजा में हमास, लेबनान में हिज्बुल्लाह, यमन में हूती विद्रोही शामिल हैं। ईरान सीरिया, इराक और बहरीन में भी कई गुटों का समर्थन करता है। इसे प्रतिरोध की धुरी (एक्सिस ऑफ रेजिस्टेंस) कहा जाता है. इनमें कई गुटों को पश्चिमी देशों में ‘आतंकवादी समूह’ करार दिया गया है। असल में इन गुटों का उद्देश्य ‘मध्य-पूर्व को अमेरिकी और इस्राइली खतरों से सुरक्षित रखना है। ईरान को सबसे बड़ा खतरा अमेरिका से है और उसके बाद नंबर आता है इस्राइल का। ईरान उसे मध्य-पूर्व में अमेरिका के प्रॉक्सी के रूप में देखता है। ईरान ने इसलिए क्षेत्र में एक ऐसा नेटवर्क बनाया है जिसके जरिए वो अपनी ताकत को प्रोजेक्ट करता है।

ईरान के सहयोगी गुटों ने गाजा में जारी सैन्य संघर्ष के दौरान इस्राइल को निशाना बनाया है। हिज्बुल्लाह ने लेबनान से रॉकेट दागे हैं, तो यमन के हूती विद्रोहियों ने लाल सागर में मालवाहक जहाजों को निशाना बनाया है। इनमें प्रमुख घटना 28 जनवरी को घटी थी जब एक अमेरिकी सैन्य अड्डे पर हुए हमले में तीन अमेरिकी नागरिक मारे गए थे। इसकी जिम्मेदारी ‘इस्लामिक रेजिस्टेंस इन इराक’ नामक संगठन ने ली थी। इस हमले के जवाब में अमेरिका ने ईरान की कुदस फोर्स और उससे जुड़े इराक और सीरिया के मिलिटेंटों को निशाना बनाया था। इसके बाद अमेरिका और ब्रिटेन ने एक साझे ऑपरेशन में यमन के हूती विद्रोहियों पर हवाई हमले किए थे। एक अप्रैल को सीरिया की राजधानी दमिश्क में स्थित ईरान कॉन्सुलेट पर हुए हमले के लिए ईरान इस्राइल को दोषी मानता है।

जानकारों का मानना है कि ईरान अपने साथियों और सहयोगियों के नेटवर्क के जरिए जो कुछ कर रहा है, उसकी तुलना में उसका परमाणु कार्यक्रम इस्राइल और पश्चिमी देशों के लिए अधिक बड़ी समस्या है। दूसरी तरफ ईरान को यह अच्छी तरह से मालूम है कि इस्राइल और अमेरिकी सैनिक ताकत के साथ बड़ी लड़ाई उसके लिए खतरनाक साबित हो सकती है। ईरानी मामलों के एक्सपर्ट अली वाएज कहते हैं कि इस्राइल पर ईरान के मिसाइल हमलों के बाद युद्ध छिड़ने के डर को सिरे से खाजि नहीं किया जा सकता। ईरान-इस्राइल संघर्ष का सीधा मतलब है कि भारत में कच्चे तेल आयात पर असर पड़ेगा। संघर्ष बढ़ने पर तेल संकट की आशंका जताई जा रही है। दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ने से भारतीय शेयर बाजारों, सोने और कच्चे तेल की कीमतों पर काफी असर पड़ा है। इसके साथ ही भारत से ईरान को बासमती और चाय के निर्यात पर भी असर पड़ने की आशंका है। लेकिन आगे सबसे बड़ा असर कच्चे तेल के आयात पर हो सकता है।


Date:19-04-24

भारत का समर्थन

संपादकीय

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता पर भारत की दावेदारी दिनोंदिन मजबूत होती जा रही है। अमेरिका ने फिर एक बार भारत की स्थायी सदस्यता के अनुकूल टिप्पणी की है। दरअसल, दुनिया के सबसे अमीर लोगों में शुमार टेस्ला के सीईओ एलन मस्क ने यह मामला उठाया था और उस पर पूछे गए सवाल का अमेरिकी विदेश विभाग ने जवाब दिया है। एक प्रेस वार्ता के दौरान, अमेरिकी विदेश विभाग के प्रधान उप-प्रवक्ता वेदांत पटेल ने कहा है कि राष्ट्रपति ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में अपनी टिप्पणियों में पहले भी इस बारे में बात की है और हम निश्चित रूप से सुरक्षा परिषद सहित संयुक्त राष्ट्र संस्था में सुधारों का समर्थन करते हैं। अमेरिका का यह कूटनीतिक जवाब भारत के साथ-साथ एलन मस्क को भी खुश करने की दिशा में अगर दिया गया है, तो भी इसके महत्व को समझा जा सकता है।\nअमेरिका का हर बयान सोची-समझी रणनीति के तहत होता है और चूंकि भारत सरकार आने वाले दिनों में एलन मस्क के लिए देश के दरवाजे खोलने वाली है, इसलिए भी एलन मस्क और अमेरिका के विचारों की बयार भारत की दिशा में बह रही है। यह खुशी की बात जरूर है, पर ऐसा नहीं कि इससे भारतीय लोग अभिभूत हो जाएं। भारत में जब टेस्ला के उत्पादों की बिक्री बढ़ेगी, तब जाहिर है, मस्क के साथ ही अमेरिका फायदे में रहेगा। विगत तीन महीने से एलन मस्क को यह एहसास हुआ है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत का न होना बेतुका है। भारत सबसे बड़ी आबादी वाला लोकतंत्र है और उसे अफ्रीका महादेश के साथ सुरक्षा परिषद में शामिल किया जाना चाहिए। ध्यान रहे, सुरक्षा परिषद में अमेरिका, रूस, फ्रांस, इंग्लैंड और चीन स्थायी सदस्य हैं। यह अक्सर कहा जाता है कि भारत ने उदारतावश अपनी जगह चीन को सौंप दी थी, पर आज की सबसे बड़ी सच्चाई यह है कि चीन ही सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता का सबसे बड़ा विरोधी है। फ्रांस, अमेरिका, रूस तो समय-समय पर भारत का पक्ष लेते रहे हैं, पर इन देशों ने भी कोई ठोस पहल नहीं की है। कथनी और करनी में जमीन-आसमान का फर्क है। जैसे ही सुरक्षा परिषद के विस्तार की बात चलती है, अनेक देशों के नामों की चर्चा शुरू हो जाती है, ऐसा जान-बूझकर किया जाता है, ताकि विचारों की खींचातानी में निर्णय टल जाए। \nयह बात दुनिया का हरेक देश जानता है कि संयुक्त राष्ट्र धीरे-धीरे अप्रभावी होता जा रहा है। आक्रामक देशों के सामने नख-दंत हीन होता जा रहा है। यह देखने वाली बात है कि ज्यादातर देशों में तानाशाह जैसे नेता सत्ता में हैं, जो साम्राज्यवादी मनसूबे पाले हुए हैं। सुरक्षा परिषद के दो स्थायी सदस्यों रूस और चीन की विस्तारवादी नीतियां तो संयुक्त राष्ट्र के कारगर होने में अब सबसे बड़ी बाधा हैं। जिस चीन की नजरें भारतीय जमीन पर गड़ी हैं, वह भला क्यों चाहेगा कि भारत विश्व स्तर पर ज्यादा रसूखदार हो जाए? मगर यह समय का तकाजा है कि भारत को दुनिया में आज नहीं, तो कल उचित स्थान देना ही पडे़गा। जैसे एलन मस्क ने भारत के पक्ष में मुंह खोला है, ठीक उसी तरह से भारतीय भूमि या विशाल बाजार से भरपूर लाभान्वित होने वाले देश और दुनिया के अन्य उद्यमियों को भी भारत की पैरोकारी मजबूती से करनी चाहिए। हमारे विदेश मंत्री एस जयशंकर का यह कहना बहुत सही है कि ‘दुनिया आसानी से और उदारता से चीजें नहीं देती है; कभी-कभी आपको उन्हें लेना पड़ता है।