06-04-2024 (Important News Clippings)

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06 Apr 2024
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Date:06-04-24

जनतांत्रिक राजनीति की नई शैली

बद्री नारायण, ( लेखक जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, प्रयागराज के निदेशक हैं )

लोकसभा चुनाव का प्रचार जोर पकड़ रहा है। विभिन्न दलों द्वारा चुनाव क्षेत्रों के टिकट निर्धारित किए जा रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तो रैलियों के साथ रोड शो भी शुरू हो गए हैं। इसे देखते हुए कहा जा सकता है कि चुनाव प्रचार में भाजपा ने बढ़त ले ली है। मोदी एक लोकप्रिय नेता ही नहीं, बल्कि आज की जनतांत्रिक राजनीति के शिल्पकार के रूप में उभर रहे हैं। देश की जनतांत्रिक राजनीति में अनेक बड़े नेता हुए, किंतु उनमें से कई बनी-बनाई लीक पर ही चलते रहे। कुछ ही हुए, जिन्होंने अपनी राजनीति के लिए नया रास्ता बनाया। यदि प्रधानमंत्री मोदी की राजनीति को गहराई से विश्लेषित करें तो प्रतीत होगा कि उन्होंने अपनी राजनीति की एक नई शैली विकसित की है। वह राजनीति के ऐसे शिल्पकार के रूप में उभरे हैं, जो भारतीय परंपरा में अपनी जड़ें जमाए हुए हैं। इसका एक कारण उनका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक के रूप में कार्य करना है।

यदि मोदी के राजनीतिक क्रियाकलापों की व्याख्या से कोई एक सूत्र तलाशें तो वह है सतत नवोन्मेष। इस नवोन्मेष की दिशा उनकी भारत के भविष्य की अवधारणा से बनती एवं आकार लेती है। उन्होंने जिस प्रकार 2047 तक विकसित भारत एवं हजार वर्ष के बाद के भारत का सपना देखा है, उसका स्वरूप भविष्य में और उभर कर आना है। इस नवोन्मेष की दूसरी दिशा थके, हारे, उदासीन जन में आशा जगाने की राजनीति विकसित करना एवं उन आशाओं को पूरा करने के लिए लोगों में सतत क्षमता निर्माण की नीति पर काम करना है।

पिछले दिनों मैं उत्तर भारत के एक गांव में एक पिछड़े सामाजिक समूह के युवाओं से बात कर रहा था। मेरी बातों में महंगाई, गरीबी, बेरोजगारी का संदर्भ आ रहा था। उन युवाओं ने कहा-‘अब देश पहले जैसी दशा में नहीं है। देश आगे बढ़ रहा है। सबके आगे बढ़ने का रास्ता दिख रहा है। नौकरी मिली तो ठीक, नहीं तो कुछ धंधा, रोजगार कर लेंगे। बैंक लोन, स्टार्टअप की अनेक योजनाएं मोदी जी चला रहे हैं।

यह सब सुनकर मुझे लगा कि आधार तल पर लोगों में एक प्रकार की आशा जगी है और जड़ता टूटी है। बनारस, अयोध्या, उज्जैन जैसे तीर्थों के आधुनिकीकरण ने बड़े पैमाने पर तीर्थयात्रियों को आकर्षित किया है। उत्तर प्रदेश के पर्यटन विभाग के अनुसार 2023 में उत्तर प्रदेश में 48 करोड़ पर्यटक आए, जिनमें से 16 लाख बाहर के देशों के थे। पर्यटकों के आवागमन ने इन तीर्थ केंदों के आसपास के गांवों, कस्बों में मुद्रा का प्रवाह बढ़ाया है। इससे भी लोगों में जड़ता टूटी है एवं विकास की आशा जगी है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की राजनीतिक शैली का एक तत्व लोगों में भविष्य के प्रति आशा सृजित करना भी है। मोदी एक ऐसे राजनीतिज्ञ हैं, जिन्होंने अपनी राजनीति में भविष्य को विमर्श एवं नियोजन का विषय बनाया है। हमारे पहले के कई प्रधानमंत्री या तो समकालीन समस्याओं के दबाव में या अपनी दृष्टिगत सीमा के कारण छोटे कालखंडों यथा पंचवर्षीय विकास की योजनाओं में ही बंध कर रह गए। उनके पास दीर्घकालीन भविष्य का सोच नहीं था। पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के भाषणों को सुनें तो ‘भविष्य’ शब्द उनमें प्रायः आपको मिलेगा ही नहीं। राममनोहर लोहिया ने अपने एक आलेख में भारतीय राजनीति के इस संकट की तरफ इशारा किया था। उन्होंने कहा था कि भारत में राजनीतिक दलों में भविष्य के बारे में सोचने की क्षमता नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी की राजनीतिक शैली में एक अन्य तत्व सत्ता की राजनीति को सामाजिक राजनीति में रूपांतरित करना है। वह बार-बार कहते हैं कि सत्ता की राजनीति के पार जाकर हमें समाज से अपनी राजनीति को जोड़ना होगा। यहां वह हमें महात्मा गांधी की शैली में संवाद करते दिखते हैं, जहां वह विदेशी साम्राज्यवाद के विरुद्ध अपने संघर्ष को अछूतों के उद्धार, पंथक एकता और अनेक सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध अपने अभियानों से बल प्रदान करते थे। मोदी ने भी अपने रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात’ को सामाजिक परिवर्तन से जोड़ने के साथ अनेक छोटे-छोटे सामाजिक मुद्दों को भी अपनी व्यापक राजनीति में जगह दी है। छात्रों से संवाद, परीक्षा पे चर्चा, युवाओं में तनाव बढ़ने की चिंता, स्क्रीन टाइम के बारे में संदेश, पंच प्रण की अवधारणा, काशी-तमिल संगमम् के माध्यम से विभिन्न संस्कृतियों को जोड़ने के प्रयासों को उन्होंने अपनी राजनीति से जोड़ा है। समाज के हाशिये पर रहने वालों को भी ‘मन की बात’ में वह जगह देते रहे हैं। ऐसे में सत्ता की राजनीति विकास, आशा एवं सामाजिक मुद्दों की राजनीति में बदल जाती है। उन्होंने अपनी राजनीति में धर्म एवं अध्यात्म की उपस्थिति को भी नए ढंग से परिभाषित किया है। साधु-संतों, मंदिरों, सूफी स्थलों से अपने प्रतीकात्मक संबंध स्थापित करते हुए उन्होंने जनता के विभिन्न वर्गों के मन में प्रवेश पाया है। यही कारण है कि उनकी छवि आज मात्र एक राजनेता की नहीं रह गई है, बल्कि उसके पार चली गई है। इस छवि ने एक सामाजिक नेता, सांस्कृतिक कार्यकर्ता तथा लोगों की छोटी-छोटी समस्याओं में शामिल रहने वाले व्यक्तित्व का प्रतीक गढ़ा है। स्पष्ट है कि उनकी इस छवि ने विपक्ष की कठिनाई बढ़ा दी है।

यह उल्लेखनीय है कि भाजपा ने इस बार अपने कई विवादास्पद या विवाद पैदा करने वाले नेताओं का टिकट काट दिया है। अनंत कुमार हेगड़े, प्रज्ञा ठाकुर, रमेश बिधूड़ी जैसे नेता शायद यह मानते थे कि विवाद पैदा कर राजनीति की जा सकती है। इनका टिकट कटना भी प्रधानमंत्री मोदी की नई राजनीतिक शैली की तरफ इशारा कर रहा है। 2019 के लोकसभा चुनाव में अपने विजयी उम्मीदवारों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था कि विवाद से बचिए। पिछले दिनों भी उन्होंने दोहराया कि पार्टी नेता विवाद से बचें और सिर्फ विकास कार्यों की चर्चा करें। इसे हम एक प्रकार से एक ऐसे समय जनतांत्रिक राजनीति में सकारात्मक राजनीति के निर्माण की शैली के रूप में देख सकते हैं, जब अनेक नेता विवाद एवं नकारात्मक चर्चा से अपनी राजनीतिक प्रसांगिकता बनाए रखना चाहते हैं। देखना होगा कि भारतीय राजनीति में आगे चल कर यह शैली कैसे फलती-फूलती एवं विकसित होती है और विपक्ष उसका सामना कैसे करता है?


Date:06-04-24

विश्व व्यापार संगठन का क्या होगा भविष्य

अजय छिब्बर, ( लेखक जॉर्ज वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट फॉर इंटरनैशनल इकनॉमिक पॉलिसी के प्रतिष्ठित विजिटिंग स्कॉलर हैं )

विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) की स्थापना 1 जनवरी, 1995 को की गई थी। इसे दूसरे विश्वयुद्ध के अंत के बाद सबसे बड़ा अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक सुधार बताया गया था। ऐसा इसलिए कि इसने जनरल एग्रीमेंट ऑन टैरिफ्स ऐंड ट्रेड (जीएटीटी) का विस्तार करते हुए सेवाओं और बौद्धिक संपदा को व्यापार में शामिल कर दिया था। डब्ल्यूटीओ की शुरुआत के बाद विवाद निस्तारण की नई प्रक्रिया शुरू हुईं।

इससे तीन मसले उत्पन्न हुए। पहला, चीन को लगातार ‘विकासशील अर्थव्यवस्था’ दिखाए रखना। दूसरा चीन द्वारा विशेष सब्सिडी वाले सरकारी उपक्रमों का इस्तेमाल करना जिससे उसे अनुचित लाभ मिला और बाजार अर्थव्यवस्था बनने की उसकी प्रगति धीमी हुई। तीसरा, आरोप है कि डब्ल्यूटीओ अपील संस्था हद से आगे बढ़ गई है और कुछ देशों ने इसकी विवाद निस्तरण व्यवस्था का दुरुपयोग करके अनुचित लाभ हासिल किया है।

दोहा दौर की वार्ता पर सहमति नहीं बन पाने के बावजूद वैश्विक व्यापार का आकार दोगुना से अधिक हो गया और वैश्विक टैरिफ में 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट तक गिरावट आई। तब से क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसेप) और अटलांटिक पार साझेदारी के लिए व्यापक और प्रगतिशील समझौते जैसे क्षेत्रीय व्यापार समझौते आगे बढ़े हैं। परंतु इस बात के स्पष्ट संकेत हैं कि अमेरिका और चीन अब समांतर और प्रतिस्पर्धी कारोबारी क्षेत्र विकसित कर रहे हैं। इस बीच एक दूसरे के साथ उनका कारोबार जारी है।

अमीर देशों में विनिर्माण कमजोर होने तथा भारत समेत कई विकासशील देशों में समय से पहले ही औद्योगीकरण की प्रक्रिया समाप्त होने से मुक्त व्यापार का राजनीतिक परिदृश्य बदल गया है। रिचर्ड बाल्डविन का कहना है कि वैश्वीकरण का अगला दौर सेवा व्यापार से उत्पन्न होगा जिसे वैश्वीकरण 4.0 का नाम दिया जाएगा।

परंतु 2020 से व्यापार में सुधार, खासकर सेवा क्षेत्र और सीमा पार के वित्तीय प्रवाह से यही संकेत मिलता है कि वैश्वीकरण जारी रह सकता है लेकिन उसकी गति काफी धीमी हो सकती है। यह गति वैश्विक वित्तीय संकट से पहले की तुलना में धीमी रहने वाली थी और भूआर्थिक कारणों से इसकी प्रकृति क्षेत्रीय रह सकती है।

आर्टिफिशल इंटेलिजेंस सेवा व्यापार में वृद्धि को लेकर चौंका सकती है लेकिन अब तक इसका प्रभाव अस्पष्ट है। मौजूदा वैश्विक व्यापार व्यवस्था में संरक्षणवाद बढ़ रहा है और कोविड तथा यूक्रेन युद्ध ने आपूर्ति श्रृंखला को झटका दिया है। अपने देश में तथा मित्र देशों में उत्पादन करने के प्रयास किए जा रहे हैं खासतौर पर अहम रणनीतिक क्षेत्रों मसलन सेमीकंडक्टर चिप आदि के मामले में। हालांकि जिंस के मामले में तमाम प्रतिबंधों के बावजूद व्यापार बढ़ रहा है। रूसी तेल पर प्रतिबंध की नाकामी यही दिखाती है।

डब्ल्यूटीओ ने विवाद निपटाने के लिए अधिक औपचारिक प्रणाली पेश की। इसमें विशेषज्ञों की एक अपील संस्था शामिल है जो विवादों पर निर्णय करती है लेकिन अब वह व्यवस्था अब सही नहीं रही। उसने विकासशील देश जैसे दर्जे की इजाजत दी जिसने खास अवधि के लिए विशेष प्रकार की रियायतों की व्यवस्था की। दोहा दौर की वार्ता में समझौते के अभाव के बावजूद डब्ल्यूटीओ व्यवस्था ने सही ढंग से काम किया। हालांकि बाद में दिक्कत होने लगी।

चीन जैसे कुछ देशों खुद ही खुद को विकासशील देश बताया जाना अनुचित था क्योंकि उनके पास भारी भरकम व्यापार अधिशेष था। ध्यान रहे अब चीन दुनिया का सबसे बड़ा कारोबारी और दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश है। विशेष सब्सिडी वाले सरकारी उपक्रमों का इस्तेमाल भी एक मुद्दा था खासकर चीन के मामले में क्योंकि यह अनुचित लाभ देता है।

अमेरिका ने अपील संस्था में नए सदस्यों की नियुक्ति को रोक दिया है जिससे कामकाज प्रभावित हो रहा है। चीन और यूरोपीय संघ समेत 26 देशों के समूह ने एक वैकल्पिक प्रणाली तैयार की है जिसे बहुपक्षीय अंतरिम अपील मध्यस्थता समझौते (एमपीआईए) का नाम दिया गया है लेकिन उनके निर्णय उन पर लागू नहीं हैं जो इसके पक्ष नहीं हैं। उसने हाल के वर्षों में एकतरफा ढंग से शुल्क बढ़ा दिया गया और बाकियों ने प्रतिरोध किया जिसका असर डब्ल्यूटीओ की कार्यप्रणाली पर पड़ा।

बहुपक्षीय समझौतों पर प्रगति नहीं होने को लेकर हताशा का माहौल है। इसके लिए सहमति की आवश्यकता है इसलिए मतदान की व्यवस्था बनाने की मांग उठ रही है। भारत तथा कई विकासशील देशों ने ऐसे रवैयों का विरोध किया है। ई-कॉमर्स, निवेश संरक्षण और पर्यावरण तथा श्रम मानकों को लेकर भी कोई हल नहीं निकल पा रहा है।

बारहवीं मंत्रिस्तरीय कॉन्फ्रेंस में कुछ मुद्दों पर सहमति बनी मसलन मछलीपालन की सब्सिडी, महामारी को लेकर प्रतिक्रिया, खाद्य असुरक्षा और ई-कॉमर्स आदि अहम थे क्योंकि वे बहुपक्षीय थे और इन्होंने सबसे कठिन मुद्दों को हल करने की उम्मीद दी। परंतु तेरहवें सम्मेलन में इस दिशा में कोई प्रगति नहीं हुई। सेवा क्षेत्र का व्यापार तेजी से बढ़ा और इसमें आगे और इजाफा होने की उम्मीद है। ई-कॉमर्स में टैरिफ पर 25 वर्ष की रोक को तेरहवें सम्मेलन में 2026 तक दो वर्ष के लिए बढ़ा दिया गया। इसके जारी रहने की उम्मीद है।

अतीत में भारत को वैश्विक व्यापार समझौतों को बिगाड़ने वाला माना गया है जबकि उसने खुद को विकसित देशों के अनुकूल व्यवस्था में अपने तथा विकासशील देशों के हितों का बचाव करने वाले देश के रूप में देखा। वैश्विक व्यापार में धीमापन आने के बावजूद भारत का विकास विश्व निर्यात में हिस्सेदारी बढ़ाने की उसकी क्षमता पर निर्भर करता है। यह 1990 के 0.5 फीसदी से बढ़कर 2022 में 2.5 फीसदी हो गया और 2030 तक इसके चार फीसदी होने की उम्मीद है।

करीब दो अरब डॉलर के इस अनुमानित निर्यात में सेवा निर्यात की हिस्सेदारी आधी होगी। देश में संरक्षणवादी लॉबी के बढ़ने के बावजूद हमारे हित अधिक खुली विश्व व्यवस्था से जुड़े हुए हैं। संभव है कि डब्ल्यूटीओ अधिक खुली व्यापार व्यवस्था का उत्तर न रह जाए। भारत को मुक्त व्यापार समझौतों पर अधिक यकीन करना होगा। यूनाइटेड किंगडम, यूरोपीय संघ और अमेरिका के साथ समझौते जरूरी होंगे। आरसेप में शामिल होना भी एक विकल्प है लेकिन तब भारतीय बाजार चीन के आयात से पट जाएगा।

यूरोपीय संघ की कार्बन बॉर्डर समायोजन प्रणाली तथा अमेरिका के उच्च टैरिफ के कारण बढ़ते संरक्षणवाद की आशंका के बीच और चीन के सब्सिडी आधारित निर्यात मॉडल पर काम करते रहने के कारण व्यापार नियमों पर वैश्विक सहमति बन पाने की संभावना बहुत कम है। वैश्विक समृद्धि में महत्त्वपूर्ण योगदान के बावजूद डब्ल्यूटीओ बड़ी कारोबारी शक्तियों के लिए अनुकूल नहीं रह गया है और अगर कुछ नाटकीय नहीं घटित होता है तो यह अपने अंतिम पड़ाव पर है।


Date:06-04-24

चीन की कुटिलता

संपादकीय

चीन ने भारत के विरुद्ध टकराव एवं संघषर्पूर्ण रवैया जारी रखते हुए अरुणाचल प्रदेश के 30 स्थानों के नए नामों की चौथी सूची जारी की है। इससे जाहिर होता है कि इसने अपनी विस्तारवादी नीति का परित्याग नहीं किया है। चीन की यह प्रतिक्रिया प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की 9 मार्च को अरुणाचल प्रदेश की यात्रा के करीब एक पखवाड़े बाद आई है। हालांकि प्रधानमंत्री की इस यात्रा के समय ही चीन ने अपना राजनयिक विरोध दर्ज कराया था। मोदी ने अरुणाचल प्रदेश में 13 हजार फीट की ऊंचाई पर बनी सेला सुरंग का उद्घाटन किया था। इस सुरंग से क्षेत्र में भारतीय सैनिकों की आवाजाही सुगम हो जाएगी। भारत सरकार ने अरुणाचल प्रदेश को लेकर चीन की प्रतिक्रिया को खारिज कर दिया है। विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा है कि अरुणाचल प्रदेश भारत का अभिन्न हिस्सा था, है और हमेशा रहेगा। राजनयिक स्थिति यह है कि भारत तिब्बत को चीन का हिस्सा मानता है, लेकिन चीन अरुणाचल प्रदेश को विवादास्पद करार देता है। इसी आधार पर पिछले अनेक वर्षो से चीन की ओर से स्टेपल वीजा जारी किए जाते हैं। वस्तुत: चीन यह अपेक्षा रखता है कि समूची दुनिया उसकी संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करे, लेकिन विडंबना देखिए कि वह स्वयं दूसरे देशों की संप्रभुता का सम्मान नहीं करता। यही कारण है कि पिछले कुछ वर्षो के घटनाक्रम से स्पष्ट होता है कि चीन ने दुनिया विशेषकर एशियाई देशों का सहयोग गंवाया है। जापान, दक्षिण कोरिया, वियेतनाम और कई आसियान देश दक्षिण चीन सागर और आसपास के समुद्री क्षेत्रों में चीन की दादागीरी को लेकर आशंकित हैं। वर्ष 2020 में पूर्वी लद्दाख की गलवान घाटी में चीनी सेना के दु:स्साहस से उसने भारत का भी विश्वास खोया है। वस्तुत: अरुणाचल में चीन के अनधिकृत दावे से स्पष्ट होता है कि वह भारत को ऐसा देश समझता है, जिसे कभी भी नुकसान पहुंचा सकता है। लेकिन गलवान घाटी की घटना के बाद भारतीय खेमे में भी दृढ़ता आई है। चीन तिब्बत को अपना स्वायत्तशासी प्रदेश कहता है तथा भारत भी ‘एक चीन नीति’ के तहत ताइवान के साथ तिब्बत को चीन का हिस्सा स्वीकार करता है। आने वाले दिनों में यह स्थिति बदल सकती है।