31-12-2024 (Important News Clippings)
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Date: 31-12-24
सही नहीं है CPTPP का अवसर गंवाना
अमिता बत्रा, (लेखिका सीएसईपी की सीनियर फेलो और जेएनयू में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर हैं)
अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने मेक्सिको और कनाडा से होने वाले आयात पर ऊंचा कर लगाने का बयान हाल ही में दिया है, जिसके बाद विश्व व्यापार के दो पहलुओं पर आशंका के बादल मंडराने लगे हैं – फ्रेंडशोरिंग (सहयोगी देशों में उत्पादन करना या उनसे कच्चा माल लेना) और अमेरिका-मेक्सिको-कनाडा समझौता (यूएसएमसीए)। पहले का अमेरिका के उन करीबी देशों पर सीधा असर पड़ेगा, जिन्होंने मान लिया होगा कि ट्रंप के शुल्क वृद्धि के फैसले से उनके लिए राह आसान हो जाएगी। बाद वाले पहलू को देखें तो ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में संस्थाओं और कानूनों की समीक्षा होगी, चाहे अतीत में उन्हें अमेरिकी हितपूर्ति के लिए ही क्यों न बनाया गया हो।
कनाडा और मेक्सिको पर ऊंचे शुल्क लगाने से यूएसएमसीए का उल्लंघन होगा, जो उत्तर अमेरिका के इन तीन देशों को तरजीह देने वाला व्यापार समझौता है। 2020 में इसे उत्तर अमेरिकी मुक्त व्यापार समझौते की जगह लागू किया गया था। शुल्क वृद्धि हुई तो 2022 के इनफ्लेशन रिडक्शन एक्ट को भी चुनौती मिलेगी। इस समझौते के तहत मेक्सिको और कनाडा को उत्पाद के मूल स्रोत के मामले में तरजीह दी जाती है ताकि खास तौर पर इलेक्ट्रिक वाहन (ईवी) में क्षेत्रीय आपूर्ति श्रृंखलाओं को बढ़ावा दिया जा सके।
स्पष्ट है कि ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में वैश्विक व्यापार में काफी अनिश्चितता रहेगी। भारत की व्यापार नीति देखें तो जोखिम से बचने के लिए स्थिर, वैकल्पिक संस्थागत व्यवस्थाओं और/अथवा समझौतों में भागीदारी के जरिये व्यापार में विविधता बढ़ाने की जरूरत है। इस समय भारत के सामने तीन बड़े क्षेत्रीय व्यापार समझौतों के विकल्प हैं जो हैं- इंडो-पैसिफिक इकनॉमिक फ्रेमवर्क फॉर प्रॉस्पैरिटी (आईपीईएफ), रीजनल कॉम्प्रिहेंसिव इकनॉमिक पार्टनरशिप (आरसेप) और कॉम्प्रिहेंसिव ऐंड प्रोग्रेसिव ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप (सीपीटीपीपी)।
जोखिम कम करने के लिहाज से सबसे अच्छा तो इन तीनों में भागीदारी करना होगा। इससे व्यापार तथा वैश्विक मूल्य श्रृंखला में में शामिल होने की ज्यादा से ज्यादा संभावनाएं भी खुल जाएंगी। आईपीईएफ की बात करें तो भारत आईपीईएफ के तीनों स्तंभों का सदस्य है। ये स्तंभ हैं: आपूर्ति श्रृंखला, स्वच्छ ऊर्जा, और कर तथा भ्रष्टाचार विरोध। लेकिन वह चौथे स्तंभ यानी व्यापार से अलग रहा है। लेकिन जीवीसी में व्यापार-निवेश गठजोड़ को देखते हुए व्यापार में भारत की भागीदारी के भी पर्याप्त आधार हैं। मगर अभी शायद उसका सही समय नहीं है।
आईपीईएफ समझौतों के परिणाम अलग से नजर नहीं आते और ये समझौते बाध्यकारी होने के बजाय सिफारिशी भर हैं, इसलिए मुक्त व्यापार समझौतों या बड़े क्षेत्रीय व्यापार समझौते की तुलना में यह आर्थिक एकीकरण का कमजोर उपाय साबित होता है। आईपीईएफ कार्यकारी समझौता है और चुनाव प्रचार के दौरान ट्रंप इशारा कर चुके हैं कि जीतने पर वह इसे खत्म कर देंगे। ऐसे में आईपीईएफ के अस्तित्व पर ही संशय मंडरा रहा है।
जहां तक आरसेप और सीपीटीपीपी की बात है तो 2019 में बाहर होने के बाद भारत जोर-शोर से कहता रहा है कि वह आरसेप में वापस नहीं जाएगा। यह तब है, जब आरसेप ने भारत के लिए दरवाजे खोल रखे हैं और इसके स्रोत के नियम, मूल्य श्रृंखला के गहरे एकीकरण आदि से कई फायदे हो सकते हैं। सीपीटीपीपी की बात करें तो नीतिगत रूप से भारत ने इस पर ध्यान ही नहीं दिया है।
सीपीटीपीपी की स्थापना 2018 में हिंद-प्रशांत व्यापार समूह के तौर पर की गई थी। इसमें जापान, सिंगापुर, वियतनाम और ऑस्ट्रेलिया सहित 11 देश शामिल हुए थे। यूनाइटेड किंगडम को इस वर्ष इसका 12वां सदस्य बनाया गया। इसके सात सदस्य आरसेप के भी सदस्य हैं। चीन ने 2020 में इसकी सदस्यता के लिए अर्जी डाली थी मगर अभी तक उसे सदस्य नहीं बनाया गया है।
सदस्यता के लिए औपचारिक आवेदन करने वालों की सूची लंबी है और दक्षिण कोरिया, थाईलैंड तथा इंडोनेशिया जैसे देशों ने इसमें अनौपचारिक रुचि भी दिखाई है। इसके नियम कायदों में विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के नियम शामिल हैं। सदस्य देशों के बीच लगभग सभी वस्तुओं और सेवाओं के लिए शुल्क मुक्त व्यापार मुहैया कराने तथा निवेश का उदारीकरण करने के अलावा सीपीटीपीपी ऊंचे दर्जे के निवेशक संरक्षण नियम, बौद्धिक संपदा अधिकार नियम, व्यापक ई-कॉमर्स संकल्प तथा विवाद निपटारा प्रणाली लागू करता है।
सदस्यता सभी के लिए खुली है लेकिन औपचारिक आवेदन पर विचार तभी होता है, जब सभी सदस्य देश नया सदस्य शामिल करने के लिए कार्यसमूह बनाने पर राजी हों। इसके बाद आवेदन करने वाले देश को समझौतों के उच्च मानकों का पालन करने के लिए तैयार रहना पड़ता है।
पिछले छह साल में केवल एक नया सदस्य शामिल किया गया है और दिलचस्पी रखने वाली दूसरी अर्थव्यवस्थाएं अभी इंतजार ही कर रही हैं। इससे प्रवेश की इस लंबी प्रक्रिया पर सवाल उठे हैं। वैश्विक अनिश्चितता बढ़ती देखकर प्रवेश प्रक्रिया पर पुनर्विचार करने की सलाह आई है और सभी आवेदकों को एक साथ समूह में शामिल करने का सुझाव भी दिया गया है।
ऐसे में भारत के आवेदन के लिए यह समय सही लग रहा है। अगर प्रक्रिया बदली गई तो भारत इससे सबसे बड़े, खुले और नियमों पर चलने वाले व्यापार समूह से बाहर नहीं छूटेगा। प्रवेश प्रक्रिया नहीं बदली तो भी मौजूदा भू-राजनीतिक हालात की वजह से दूसरे देशों के बजाय भारत को जल्दी शामिल किया जा सकता है।
सीपीटीपीपी में शामिल होने का औपचारिक इरादा जाहिर करने से जरूरी सुधार लागू करने और अपने घरेलू नियमों को उच्चतम वैश्विक मानकों के हिसाब से ढालने की भारत की इच्छा और संकल्प भी जाहिर होगा। चीन से अपना निवश हटा रही बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भारत अपने यहां लाना चाहता है। इस लिहाज से भी सीपीटीपीपी के लिए आवेदन कारगर रहेगा। वियतनाम में हम ऐसा होते देख चुके हैं। वह सीपीटीपीपी का सदस्य है और यूरोपीय संघ के साथ उसका मुक्त व्यापार समझौता भी है। इसलिए चीन प्लस वन नीति का उसे काफी फायदा मिल रहा है।
यह सही है कि सीपीटीपीपी के व्यापार नियम पहले ही तय हैं और भारत वहां नियम तैयार करने में योगदान नहीं कर सकेगा। परंतु यह भी समझना चाहिए कि सीपीटीपीपी हर देश को विभिन्न कारोबारी क्षेत्रों में जरूरी मानकों तक पहुंचने का रास्ता और अवधि चुनने की पूरी छूट देता है।
यानी समझौते में नए सदस्यों के लिए छूट भी है और घरेलू सुधारों की पूरी गुंजाइश भी है। यूनाटेड किंगडम को ही देख लीजिए। वहां इस बात पर राय बंटी हुई थी कि निवेश से जुड़े कुछ नियम स्वीकारने का नतीजा क्या होगा। मगर इसी बीच कुछ सदस्य देशों के साथ द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौतों और निवेश संबंधों को ध्यान में रखते हुए समझौतों पर हस्ताक्षर कर दिए गए। सीपीटीपीपी की सदस्यता के लिए यूनाइटेड किंगडम ने जो मोलभाव किया, उसका सावधानी से अध्ययन करना मददगार साबित हो सकता है।
कुल मिलाकर ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में लगातार अनिश्चित होते वैश्विक व्यापार के बीच अगर भारत इस समय सीपीटीपीपी की सदस्यता पाने के लिए औपचारिक आवेदन करता है तो उसे स्थिर, नियमों पर चलने वाली व्यापार व्यवस्था में प्रवेश मिल सकता है और व्यापार तथा वैश्विक मूल्य श्रृंखला की दृष्टि से गतिशील व्यापार समूह में आर्थिक एकीकरण बढ़ाने का मौका भी मिल सकता है।
Date: 31-12-24
बदलाव का संकेत
संपादकीय
आव्रजन नीति को लेकर नवनिर्वाचित अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का रुख बदल गया दिखता है। निश्चित तौर पर भारत से वहां गए लोगों के लिए यह राहत की बात है। हालांकि इस मसले पर ट्रंप के समर्थकों का एक समूह उनका विरोध कर रहा है। दरअसल, ट्रंप ने एच1बी वीजा को बरकरार रखने पर सहमति दे दी है। अपने पिछले कार्यकाल में उन्होंने इस पर प्रतिबंध लगा दिया था, जिसे लेकर विवाद छिड़ गया था। इस बार भी चुनाव अभियान के दौरान उन्होंने अमेरिका प्रथम की नीति पर आगे बढ़ने और आव्रजन नीतियों को कड़ा बनाने का मुद्दा उठाया था। मगर भावी ट्रंप प्रशासन में शामिल किए गए उद्योगपति एलन मस्क और भारतीय मूल के तकनीकीविद विवेक रामास्वामी ने इस पर प्रतिबंध लगाने का विरोध कर दिया। खबरों के मुताबिक, मस्क ने तो यह भी कह दिया कि वे एच1बी वीजा को बचाए रखने के लिए युद्ध तक करने को तैयार हैं। गौरतलब है कि राष्ट्रपति चुनाव अभियान में मस्क खुल कर ट्रंप के समर्थन में रहे। उनका कहना है कि एच1बी खत्म होने से कंपनियों के लिए बाहर से कुशल तकनीशियनों और विशेषज्ञों को लाना संभव नहीं हो पाएगा। रामास्वामी ने भी तर्क दिया कि इससे न केवल कंपनियों, बल्कि अमेरिका का भी बड़ा नुकसान होगा। एच1बी पर प्रतिबंध लगने से सबसे अधिक भारतीय नागरिकों के सामने संकट पैदा हो सकता था। अमेरिका हर साल करीब पैंसठ हजार कुशल तकनीशियनों, चिकित्सकों आदि की भर्ती करता है, जिसमें से करीब पैंतालीस हजार भारतीय होते हैं। यानी हर दस में से सात विशेषज्ञ भारतीय होता है। हाल ही में आई एक रपट के मुताबिक अमेरिका में करीब सवा तीन लाख भारतीय विद्यार्थी अध्ययन करते हैं। एच1बी वीजा उन्हीं लोगों को दिया जाता है, जिन्हें कंपनियां अपनी जरूरत के मुताबिक भर्ती करती हैं। इस वीजा की अवधि तीन साल की होती है और जरूरत पड़ने पर उसे और तीन साल के लिए बढ़ाया जा सकता है। अमेरिका में रह रहे बहुत सारे विशेषज्ञ इसी वीजा के तहत गए हैं। ट्रंप ने अपने पिछले कार्यकाल में जब इस वीजा पर प्रतिबंध लगा दिया, तो लाखों विशेषज्ञों और पेशेवरों के सामने संकट पैदा हो गया था। इस दृष्टि से बेशक दबाव में ट्रंप ने अपना रुख बदल लिया है, अमेरिका में बेहतर भविष्य की तलाश करने वाले हजारों भारतीयों के लिए यह बहुत राहत की बात है।
दरअसल, राजनेता नीतियों में बहुत सारे बदलाव अपना जनाधार बढ़ाने के मद्देनजर कर लेते हैं। एच1बी वीजा को लेकर ट्रंप का रुख भी कुछ वैसा ही था। जब वे पहली बार राष्ट्रपति चुनाव लड़े थे, तब भी विदेशी नागरिकों, खासकर भारतीय मूल के लोगों पर निशाना साधते हुए अमेरिकी युवाओं को भरोसा दिलाया था कि वे बाहरी लोगों से छीन कर उनका हक वापस करेंगे। इसका नतीजा यह हुआ कि अमेरिका में रह रहे भारतीय मूल के लोगों पर नस्लवादी हमले बढ़ गए थे। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि किसी भी देश को गैरकानूनी तरीके से घुसपैठ करने वालों को लेकर चिंतित होना चाहिए। मगर एच1बी वीजा गैरकानूनी गतिविधि को बढ़ावा नहीं देता। अगर इस पर प्रतिबंध लगता, तो उसका खमियाजा वहां की कंपनियों को भुगतना पड़ता । सच्चाई यही है कि अब भी अमेरिका में इतने कुशल तकनीशियन और दूसरे पेशवेर नहीं हैं कि वहां की कंपनियां उनके भरोसे अपना कारोबार चला सकें। इस लिहाज से ट्रंप प्रशासन के नए रुख से न केवल भारतीय युवाओं, बल्कि अमेरिकी कंपनियों को भी राहत मिलेगी।
Date: 31-12-24
हंपी की सधी चाल
संपादकीय
शतरंज में भारत का यह साल बेहतरीन रहा है । इसे कोनेरू हंपी ने विश्व रेपिड शतरज चोपयनशिप का खिताब जीतकर सर भी स्वर्ण में बना दिया है। वह दो बार यह खिताब जीतने वाली दूसरी खिलाड़ी बन गई हैं। इससे पहले सिर्फ चीन की जू वेनजुन ही यह उपलब्धि हासिल कर सकीं थीं। हंपी ने इससे पहले 2019 में यह खिताब जीता था। जहां तक बात भारत के बेहतरीन साल की है तो वह इस साल शतरंज ओलंपियाड में पहली बार खिताब जीतने में सफल रहा और फिर डी. गुकेश ने विश्व खिताब जीतकर सभी को चकित कर दिया था। हंपी 37 साल की हैं और इस साल प्रदर्शन खराब रहने से वह संन्यास लेने तक के बारे में सोचने लगीं थीं। पर हंपी कहती हैं कि जब भी मैं खराब प्रदर्शन की वजह से संन्यास लेने के बारे में सोचती हूं, तब कुछ-न-कुछ करिश्मा हो जाता है। आखिरी राउंड से पहले सात खिलाड़ी शीर्ष पर थे और हंपी को खिताब की बहुत उम्मीद नहीं थी। उनका इस राउंड में इंडोनेशिया की इरीन सुकंदर से मुकाबला था, जिसमें वं काले मोहरों से खेल रहीं थीं । पर आखिरी राउंड की जीत ने उन्हें चैंपियन बनवा दिया । इस साल भारत को शतरंज में मिलीं सफलताएं, इस बात का अहसास कराती हैं कि इस खेल में कभी सोवियत संघ जैसा दबदबा बनाने की तरफ भारत बढ़ता दिख रहा है। भारत को इस स्थिति में पहुंचाने में विश्वनाथन आनंद, दिव्येंदु बरुआ और प्रवीण ठिप्से जैसे दिग्गजों को प्रशिक्षण से जुड़ना है। पर अभी भी देश में सबसे ज्यादा शतरंज के लिए सुविधाएं तमिलनाडु में हैं। इस तरह का शतरंज का माहौल देश के अन्य हिस्सों में बना दिया जाए तो और बेहतर परिणाम आ सकते हैं। यह सच है कि आनंद के विश्व चैंपियन बनने के बाद से भारत में शतरंज को लेकर लोकप्रियता में इजाफा हुआ और अब शतरंज ओलंपियाड जीतने, गुकेश और कोनेरू हंपी के विश्व खिताब जीतने से विश्व में भारतीय दबदबे के हालात बने हैं। यह सही है कि आज हमारे पास गुकेश जैसी क्षमता वाले अर्जुन एरिगेसी, प्रगनानंदा, विदित गुजराती मौजूद हैं और ऐसी ही स्थिति महिला वर्ग में भी है । पर सोवियत संघ जैसा दबदबा बनाने के लिए दर्जनों ऐसे खिलाड़ी तैयार करने होंगे। यह काम आसान नहीं है पर ऐसा भी नहीं है कि किया ही ना जा सके। यह स्थिति आनंद की अकादमी जैसी अकादमियों का देशभर में जाल फैलाकर बनाई जा सकती है।
Date: 31-12-24
नदियों को आपस में जोड़कर यदि सदानीरा कर दिया जाए
पंकज चतुर्वेदी
नदियों को जोड़ने की संकल्पना को मूर्त रूप देने में लगभग 44 साल लग गए और इसके लिए चुना गया देश का वह हिस्सा, जो सदियों से उपेक्षा, पिछड़ेपन और प्यास पलायन के लिए कुख्यात रहा है। 44 हजार करोड़ रुपये से भी अधिक के व्यय और आठ साल के समय में यह स्वप्न साकार हो सकेगा। एकबारगी तो लगता है कि किन्हीं दो बहती नदियों को बस जोड़ दिया जाएगा, ताकि कम पानी वाली नदी भी सदानीरा हो जाए। मगर असल में हो यह रहा है कि छतरपुर और पन्ना जिले की सीमा पर दौधन में केन नदी पर 77 मीटर ऊंचा बांध बनाया जाएगा। इस बांध की जल एकत्र करने की क्षमता होगी 2,853 मिलियन क्यूबिक मीटर योजना यह है कि केन नदी से एकत्र ‘अतिरिक्त पानी’ को दौधन बांध से 221 किलोमीटर लंबी लिंक नहर के जरिये बेतवा नदी में डाल दिया जाएगा। कुल मिलाकर, यह उस केन नदी के जल का बंटवारा है, जो हर बरसात में उफनती तो है, पर साल के लगभग छह महीने इसमें घुटने भर भी पानी नहीं रहता।
केन नदी में बाढ़ का कारण उसमें क्षमता से अधिक जल आ जाना नहीं है। असल में, वहबांदा में चिल्ला घाट पर जहां यमुना से मिलती है, उसका मुख नीचे है और यमुना का बहाव ऊपर है। यमुना में जब पानी अधिक होता है, तो वह केन को पीछे धकेलता है और पलटकर आने वाले पानी से कई गांव डूबते हैं। हमें यह भी समझना होगा कि बाढ़ हर समय तबाही ही नहीं लाती। वह समृद्धि के भी मार्ग प्रशस्त करती है। सच यह भी है कि इसी जल विस्तार के कारण यहां पन्ना के घने जंगल हैं, जो देश में सबसे अधिक बाघों के लिए सुरक्षित स्थान है। बाघ अकेले तो जी नहीं सकते, उनके भोजन के लिए जरूरी लाखों-लाख जानवरों का भी यह आश्रय है। यहां आदिवादी बस्तियां हैं, तो उनके जीविकोपार्जन के साधन तेंदू पत्ते, आचार, महुआ, चिरौंजी के साथ- साथ सागवान के जंगल इसी बाढ़ की देन हैं।
देश की सूखी नदियों को सदानीरा नदियों से जोड़ने की बात लगभग आजादी के समय ही शुरू हो गई थी। प्रख्यात वैज्ञानिक इंजीनियर सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया ने इस पर बाकायदा शोध पत्र प्रस्तुत किया था। उन दिनों पेड़ को उजाड़ने से सभी डरते थे। इसलिए पर्यावरण को नुकसान, बेहद खर्चीली कवायद और अपेक्षित नतीजे न मिलने के डर से ऐसी परियोजनाओं पर क्रियान्वयन नहीं हो पाया। जब देश में विकास का आकलन सीमेंट-लोहे की खपत और उत्पादन से आंकने का दौर आया, तब अरबों-खरबों की परियोजनाओं के झिलमिलाते सपने दिखाने में सरकारें होड़ लगाने लगीं कि ‘नदियों का पानी समुद्र में न जाए, बारिश में लबालब होती नदियों के पानी को गांवों-खेतों में घुसने के बजाय ऐसी जगहों की ओर मोड़ दिया जाए, जहां इसे बहाव मिले और समय – जरूरत पर इसके पानी का इस्तेमाल किया जा सके।’ इस मूल भावना को लेकर नदियों को जोड़ने के पक्ष में तर्क दिए जाते रहे हैं। लेकिन केन-बेतवा के मामले में तो ‘नंगा नहाए क्या और निचोड़े क्या’ की लोकोक्ति सटीक बैठती है। केन और बेतवा, दोनों का उद्गम स्थल मध्य प्रदेश में है। ये दोनों नदियां लगभग समानांतर एक ही इलाके से गुजरती हुई उत्तर प्रदेश में यमुना में मिल जाती हैं। जाहिर है, जब केन के जलग्रहण क्षेत्र में सूखे का प्रकोप होगा, तो बेतवा की हालत भी ऐसी ही होगी। इसलिए जरूरी है कि वैश्विक मौसमी बदलाव के कुप्रभावों के नजरिये से नदियों को जोड़ने की योजना का मूल्यांकन हो ।
यह आकलन भी जरूरी है कि बुंदेलखंड के तीन-चार जिलों को इस विशाल परियोजना से मिलेगा क्या? जितनी रकम इस पर खर्च होने वाली है, उसकी एक चौथाई से भी कम राशि में समूचे बुंदेलखंड के पारंपरिक तालाबों, बावड़ियों और जोहड़ों की मरम्मत की जा सकती है। गौर कीजिए, अंग्रेजों के बनाए पांच बांध 100 वर्ष में ही दम तोड़ गए: आजादी के बाद बने तटबंध व स्टॉप डैम पांच साल भी न चल सके, पर समूचे बुंदेलखंड में एक हजार साल पुराने चंदेल काल के हजारों तालाब उपेक्षा और रखरखाव की कमी के बावजूद आज भी लोगों के गले व खेत तर कर रहे हैं। बुंदेलखंड की किस्मत बदलने के लिए कम व्यय, बगैर विस्थापन व बिना वन कटाई वाली छोटी परियोजनाएं कहीं ज्यादा कारगर होंगी। इनकी योजना भी स्थानीय स्तर पर बननी चाहिए।