31-07-2024 (Important News Clippings)

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31 Jul 2024
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Date: 31-07-24

Justice Under Water

Trial courts, as CJI has said, are not applying common sense in bail hearings. Fault lies largely with HCs.

TOI Editorials

In Delhi’s basement drowning case, a 50-year-old who drove past the tuition centre, navigating the waterlogged road, was sent to judicial custody for 14 days by Tis Hazari court. Yesterday, court reserved its order on his bail plea. The charge? That the rainwater his SUV displaced aggravated the surge. That cops arrested a passerby rather than pursue those who ignored alerts of the basement’s vulnerability, or those officials who’ve turned away from blatant rule-breaking, says a lot. But perhaps, more extraordinary is the court’s reaction. Just what is going on in the name of ‘justice’? That the court opted to stay its order on the bail plea exemplifies exactly the kind of court action SC and CJI caution about.

CJI-speak | Days ago, CJI in Bengaluru said judges must have “robust common sense”, that unless judges “separate the grain from the chaff in criminal jurisprudence”, “just solutions” were unlikely. He said trial courts “play it safe” when they deny bail, pinpointing the problem to the “suspicion with which grant of relief is viewed”. In 2022, CJI had said there exists a “sense of fear” among district judges that, if not sorted out, would render trial courts “toothless” and higher appellate courts “dysfunctional”.

Fear & rebuke | The bottom line is, SC has no power of supervision over HCs, but HCs enjoy such power over trial courts. Trial judges are indeed apprehensive, not least of high courts’ adverse remarks and of their orders getting overturned – both of which impact their careers. Recall Kejriwal’s bail, granted by a special judge, who took investigators to task in her order, saying the agency wasn’t acting without bias. Delhi HC dragged out its overturning of the bail and called the trial court order “perverse”. In another money laundering case early July, SC expressed its shock that Delhi HC “casually stayed” a “reasoned order granting bail”, without specifying any reason. SC said, “What signals are we sending?”

Internal matter | The signals are that no-bail is trial courts’ template. There’s another reason for this, which SC articulated in its landmark order in Satender Kumar Antil vs CBI (2022). SC said given the “abysmally low” conviction rate in criminal cases, courts “tend to think that the possibility of conviction being nearer to rarity, bail applications will have to be decided strictly, contrary to legal principles”. In essence, denial of bail doubles as punishment. Only HCs can give trial court judges the courage to apply common sense.


Date: 31-07-24

Option or stratagem?

Court should limit Governor’s power to refer Bills to President without cause.

Editorial

The manner in which some Governors have been dealing with legislation passed by the State legislatures is a travesty of the Constitution. After the Supreme Court of India intervened in the case of Punjab and raised questions about the action or inaction of Governors in Tamil Nadu and Telangana, it was believed that incumbents in Raj Bhavans would end their deliberate inaction on Bills passed by the Assemblies. However, it appears that on finding that their supposed discretion to sit indefinitely on the Bills or withhold assent to them has been significantly curtailed, Governors have taken to the stratagem of sending Bills they disapprove of to the President for consideration. When the President refuses assent, based on the advice of the Union government, there is no recourse left for the State legislatures. This has given rise to the question whether the provision for reservation of some Bills for the President’s consideration is being misused for subverting federalism. In other words, the Centre is given a contrived veto over State laws — something not envisaged in the Constitution. This is precisely the question that Kerala has raised in its writ petition before the Court, challenging the Governor’s action in sending the Bills to the President and the latter’s refusal of assent. It is now quite an appropriate time for the Court to adjudicate the question and place limitations on the use of the option given to Governors.

It is worth recalling that in the Punjab case, the Court ruled that Governors do not have a veto over Bills, and that whenever they withheld assent, they were bound to return the Bills to Assembly; and if the Assembly adopted the Bills, with or without amendments, they were bound to grant assent. In the case of Telangana, the Court observed that Governors were expected to act on Bills “as soon as possible”, underscoring that the phrase had significant constitutional content and that constitutional functionaries would have to bear this in mind. It is quite surprising that the Governors of West Bengal and Kerala have learnt nothing from these judgments and observations. Seven Bills from Kerala that may not normally require the President’s assent were sent up to Rashtrapati Bhavan; four were refused assent without any reason being assigned. The inaction on these Bills range from 23 to 10 months. West Bengal has also challenged the inaction on some Bills, a few of which may have been referred to the President. The issue transcends the political considerations that may have inspired the action or inaction on the part of the Governor. At its core, it concerns the question whether the Constitution permits such indirect central intervention in the legislative domain of the States.


Date: 31-07-24

भारत और रूस के संबंधों पर अमेरिकी रुख बेमानी है

संपादकीय

सही या गलत दृष्टा के नजरिए पर निर्भर है। वैश्विक कूटनीति में राष्ट्रों के आचरण और उनके बीच आपसी संबंधों को भी इसी फ्रेमवर्क में देखना चाहिए। पिछले दिनों प्रधानमंत्री मॉस्को गए, पुतिन से गले मिले, हालांकि अपने संबोधन में उन्होंने रूसी बमबारी से यूक्रेन के बच्चों की हुई मौत पर अपनी वेदना स्पष्ट रूप से बताई। वहीं, अमेरिका ने इस यात्रा पर कहा कि उसने ‘सख्त लहजे’ में भारत से बात की है। यह अलग बात है कि भारत ने भी उसी लहजे में वाशिंगटन को राष्ट्रों के आपसी सबंध चुनने के अधिकार के सम्मान की नसीहत दी। लेकिन यह अमेरिकी नासमझी ही कही जाएगी कि उसके एनएसए जेक सुलिवन ने भारत को डराने के लिए कहा कि रूस स्थाई रूप से और हर क्षण भारत की जगह चीन के साथ जाएगा और चीन को मजबूत करेगा। पहले अमेरिका को यह समझना होगा कि इतिहास गवाह है, जब अमेरिका भारत के खिलाफ पाकिस्तान को हथियार और पैसे देकर भड़काता था, तब से आज तक युद्धभूमि हो या यूएनओ की सुरक्षा परिषद्, अगर कोई एक देश भारत को बिना शर्त स्थाई तौर पर समर्थन देता आ रहा है, तो वह रूस है। दूसरे क्या स्वयं भारत चीन को उस शत्रुवत नजर से देख रहा है, जिसके प्रभाव में वह रूस का साथ छोड़कर अमेरिका को खुश करने लगे? चीन से हमारा द्वि-पक्षीय ट्रेड इसका गवाह है। हम लम्बी- दुर्गम भारत-चीन सीमा पर चाहे जितना भी सतर्क रहें, व्यापार में चीन को अभी विस्थापित करने की स्थिति में नहीं हैं। सच बात तो यह है कि ट्रेड में अमेरिका भी चीन को खारिज नहीं कर पा रहा है। अगर उम्मीद के विपरीत इजराइली प्रधानमंत्री नेतन्याहू अमेरिकी संसद में फिलिस्तीन की लड़ाई को अंतिम लक्ष्य तक पहुंचाने की गर्जना करते हुए और हथियार व धन की मांग करते हैं और अमेरिका चुपचाप सुनता तो मित्र चुनने की यही आजादी भारत को क्यों न हो?


Date: 31-07-24

कोचिंग-उद्योग में जरूरी सुधार करने का समय आ गया है

चेतन भगत, ( अंग्रेजी के उपन्यासकार )

पिछले सप्ताह दिल्ली में एक कोचिंग सेंटर के बेसमेंट में पानी भर जाने से यूपीएससी की तैयारी कर रहे तीन छात्रों की मौत हो गई। ये मौतें कई स्तरों पर कुप्रबंधन को दर्शाती हैं- खराब जल-निकासी व्यवस्था, तलघर में अनधिकृत क्लास, इमारतों का घटिया डिजाइन और भीड़भाड़ वाले कोचिंग सेंटर, जो कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं।

कोचिंग-उद्योग में तेजी से वृद्धि हुई है। हर बड़े शहर में कोचिंग सेंटरों के होर्डिंग्स लगे हैं। आज एक छात्र तब तक जीवनयापन नहीं कर सकता, जब तक वह किसी कोचिंग सेंटर में शामिल न हो जाए। स्कूल और कॉलेज में होने वाली पढ़ाई काफी नहीं है। स्कूल में बेहतर अंक लाने, कॉलेज के लिए प्रवेश परीक्षा पास करने, नौकरी की परीक्षा पास करने और अकादमिक रूप से कुछ भी सार्थक हासिल करने के लिए आज कोचिंग सेंटर मौजूद हैं। यहां तक कि अन्य (अधिक प्रतिष्ठित) कोचिंग सेंटरों में शामिल होने के लिए भी कोचिंग सेंटर हैं! छात्रों का समय कोचिंग सेंटरों के तहखाने की कोठरियों में बीतता है। वे 1% चयन-दर वाली परीक्षा पास करने की तैयारी में वहां जाते हैं और उम्मीद लगाते हैं कि उस साल उसका पेपर लीक नहीं हुआ होगा। अगर आप अस्वीकृत हो जाते हैं (जो कि 99% के साथ होता है), तो आपको स्वयं ही संघर्ष करना पड़ेगा। अगर आपके माता-पिता अमीर हैं, तो वो आपको किसी निजी कॉलेज में दाखिला दिलवा देंगे या अपने सम्पर्कों के माध्यम से नौकरी दिलवा देंगे। अगर नहीं, तो भगवान ही आपका मालिक है!

कोचिंग-उद्योग ने हताश विद्यार्थियों में अपने लिए एक बड़ा अवसर देखा है। यह एक शानदार बाजार है। सिर्फ डॉक्टर बनने की परीक्षा (नीट) में 2.3 करोड़ परीक्षार्थी थे। इसका अन्य विभिन्न व्यवसायों और कॉलेजों में गुणा करें तो आप करोड़ों ऐसे हताश छात्रों को पाएंगे, जो कड़ी प्रतिस्पर्धा के बीच अपने लिए किसी अवसर की तलाश में हैं। अगर आप उन्हें परीक्षा में पास होने का मौका दे सकते हैं, तो आप उनके लिए भगवान की तरह हैं। ऐसे में कोचिंग क्लास द्वारा लिए जाने वाले कुछ लाख रुपए क्या मायने रखते हैं? इसके लिए पिताजी कर्ज लेंगे; मां गहने बेच देंगी और परिवार के सदस्य अपनी जरूरतों को ताक पर रख देंगे!

अगर विशुद्ध व्यवसाय की नजर से देखें तो बहुत कम उद्योग इतने पैमाने पर जरूरतमंद ग्राहकों की गारंटी दे सकते हैं। ऐसे में क्या आश्चर्य कि हाल के वर्षों में वेंचर कैपिटल और निजी इक्विटी फर्मों ने कोचिंग-व्यवसाय में करोड़ों का निवेश किया है। भारत में लोग महंगे सामान खरीद सकते हों या नहीं, लेकिन वो हर हाल में अपने बच्चों को कोचिंग क्लास में भेजेंगे और इसके लिए मोटी रकम देंगे! समस्या कोचिंग क्लासेस द्वारा पैसा कमाने की नहीं है। समस्या तब पैदा होती है जब ग्राहक की मजबूरी तमाम किस्म के शोषणकारी व्यवहारों को जन्म देती है। कोचिंग क्लासेस को अच्छे से पता होता है कि कौन-से छात्र किसी प्रवेश परीक्षा में पास नहीं हो पाएंगे। फिर भी वे छात्रों को दाखिला देते हैं, केवल इसलिए क्योंकि वे भुगतान करने के लिए तैयार हैं।

दूसरी बेईमानी है कक्षा में ज्यादा से ज्यादा छात्रों को ठूंस लेना या छात्रों को पढ़ाने के लिए किसी भी सस्ती सुविधा को ले लेना। कक्षा या तलघर में एक और छात्र को ठूंसने की कोई अतिरिक्त लागत नहीं होती, लेकिन नए छात्र से सौ प्रतिशत शुल्क लिया जाता है। यही कारण है कि हमारे यहां जर्जर इमारतों में ठसाठस भरे कोचिंग क्लासरूम की भरमार है। कोचिंग सेंटर की कक्षा कैसी होनी चाहिए, इसके कोई दिशा-निर्देश नहीं हैं। कुछ बड़े कोचिंग संस्थानों में निवेशकों का पैसा लगा होने के कारण उन पर हर कीमत में आगे बढ़ने का दबाव होता है। इसके लिए वे छात्रों को दाखिला देने और उन्हें कक्षाओं में तब तक ठूंसने से बाज नहीं आते, जब तक कि उनका दम घुटने न लगे। यही वजह है कि चीन ने एडटेक कंपनियों पर प्रतिबंध लगा दिया है और वह इस क्षेत्र को गैर-लाभकारी बनाना चाहता है।

कोचिंग-उद्योग में सुधार की बहुत जरूरत है। सबसे बड़ा सुधार टेस्टिंग प्रणाली में होना चाहिए। ऐसी परीक्षा आयोजित करने का कोई मतलब नहीं, जिसमें महज आधा प्रतिशत का चयन हो और जिसके लिए छात्र कोचिंग सेंटर की कोठरी में दो साल तक प्रयास करते करें। एक अधिक तर्कसंगत टेस्टिंग प्रणाली अपने आप कोचिंग-उद्योग को दुरुस्त कर देगी। एक और बड़ा सुधार अर्थव्यवस्था को खोलना होगा, ताकि हमारे पास वर्तमान की तुलना में कहीं अधिक संख्या में अच्छी नौकरियां हों। सरकारी नौकरियों के लिए दीवानगी भी निजी क्षेत्र में पर्याप्त अच्छी नौकरियों की उपलब्धता की कमी के कारण है। हमें कोचिंग सेंटर्स के लिए एक आचार-संहिता बनाने की जरूरत है, जिसमें शोषण और अनैतिक उपायों पर रोक लगाने वाली एक पूरी प्रणाली मौजूद हो।


Date: 31-07-24

जनगणना में देरी से कई समस्याएं सामने आ रही हैं

ज्यां द्रेज़, ( प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री और समाजशास्त्री )

भारत की जनगणना का इतिहास बहुत पुराना है। इसे उन्नीसवीं सदी के अंत में अंग्रेजों ने शुरू किया था। शायद उन्होंने इस विशाल देश पर शासन करना आसान बनाने के लिए ऐसा किया हो। कारण चाहे जो भी हो, दशकीय-जनगणना इतिहासकारों, समाजशास्त्रियों, अर्थशास्त्रियों और कई विद्वानों के लिए सूचना का एक महत्वपूर्ण स्रोत बन गई है। उदाहरण के लिए, जनगणना के आंकड़ों से ही हमें लगभग 50 साल पहले भारतीय समाज की एक बड़ी समस्या का पता चला था : लड़कों की तुलना में लड़कियों की उच्च मृत्यु दर।

1881 से 2011 तक, हर दस साल में प्रत्येक दशक के पहले वर्ष में जनगणना की जाती थी। इसके अनुसार अगली जनगणना 2021 में होनी थी। हालांकि, कोविड संकट ने केंद्र सरकार को जनगणना स्थगित करने के लिए मजबूर कर दिया। तब से तीन साल बीत चुके हैं, और अगली जनगणना के लिए अभी भी सक्रिय तैयारी का कोई संकेत नहीं है। जबकि सौ से अधिक देशों ने कोविड के दौरान या उसके बाद जनगणना की है।

जनगणना में देरी कई समस्याएं पैदा कर रही है। उदाहरण के लिए, हम 2011 के बाद से साक्षरता की प्रगति का आकलन करने में असमर्थ हैं। कोविड के दौरान लगभग दो साल स्कूल बंद रहे, हमें यह जानने की जरूरत है कि इससे बच्चों की पढ़ने-लिखने की क्षमता पर क्या असर पड़ा। जनगणना कई अन्य उद्देश्यों के लिए भी महत्वपूर्ण है। जैसे, यह प्रवासी श्रमिकों के बारे में जानकारी का स्रोत है। राज्यों के बीच कर-राजस्व के आवंटन के लिए इसकी जरूरत है। इसका उपयोग कई सर्वेक्षणों के लिए एक रूपरेखा के रूप में किया जाता है।

जनगणना के आंकड़ों की आवश्यकता का एक और कारण है। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम में सार्वजनिक वितरण प्रणाली का न्यूनतम कवरेज ग्रामीण क्षेत्रों में 75% और शहरी क्षेत्रों में 50% निर्धारित किया गया है। 2013 में अधिनियम के लागू होने के बाद ये अनुपात 2011 की आबादी पर लागू किए गए और 80 करोड़ व्यक्ति सस्ते अनाज के हकदार बने। यदि वही अनुपात वर्तमान आबादी पर लागू किए जाते तो शायद आज अन्य 10 करोड़ लोग सस्ते अनाज से लाभान्वित होते। दूसरे शब्दों में, आज लगभग 10 करोड़ लोग जन-वितरण प्रणाली से वंचित हैं, क्योंकि सरकार पुरानी जनगणना के आंकड़ों का उपयोग कर रही है।

संविधान के 84वें संशोधन के अनुसार, अगला परिसीमन 2026 के बाद पहली जनगणना के आधार पर किया जाना है। परिसीमन का अर्थ है निर्वाचन क्षेत्र की सीमाओं का नवीनीकरण। अंतरराज्यीय परिसीमन यह सुनिश्चित करता है कि लोकसभा सीटों में विभिन्न राज्यों की हिस्सेदारी कमोबेश उनकी जनसंख्या हिस्सेदारी के बराबर हो। राज्यांतर्गत परिसीमन सुनिश्चित करता है कि सभी निर्वाचन क्षेत्रों की जनसंख्या लगभग समान हो। 1973 के बाद से अंतरराज्यीय परिसीमन नहीं किया गया है। इस बीच, भारत के उत्तरी राज्यों की आबादी दक्षिणी राज्यों की आबादी की तुलना में तेजी से बढ़ी है। इसलिए आबादी में उत्तरी राज्यों का हिस्सा आज 1973 की तुलना में ज्यादा है। अंतरराज्यीय परिसीमन के बाद लोकसभा में इन राज्यों का हिस्सा बढ़ जाएगा और दक्षिणी राज्यों का हिस्सा घट जाएगा। यह समायोजन भाजपा के पक्ष में होगा, क्योंकि वह दक्षिण की तुलना में उत्तर में ज्यादा लोकप्रिय है। संभव है कि भाजपा 2029 के चुनाव से पहले परिसीमन करवाना चाहती हो। इसके लिए 2027 या 2028 में जनगणना करानी होगी, क्योंकि संविधान के अनुसार परिसीमन 2026 के बाद पहली जनगणना के आधार पर होना चाहिए। शायद यही कारण है कि जनगणना में बार-बार देरी हो रही है।

यह भी संभव है कि लोकसभा चुनावों के बाद भाजपा ने अपना विचार बदल दिया हो। पहला, दक्षिण में भाजपा की लोकप्रियता बढ़ी है और उत्तर में कुछ स्थानों पर गिरावट आई है। दूसरा, परिसीमन के कारण दक्षिण भारत में कुछ विरोध -प्रदर्शन होने की संभावना है। शायद भाजपा जनगणना जल्दी कराने का फैसला ले और अगली जनगणना के बाद परिसीमन को स्थगित कर दे।


Date: 31-07-24

भारतीय मूल के लोगों की महत्ता

विवेक काटजू, ( लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं )

पूरी दुनिया की नजरें इस समय अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव पर लगी हैं। इस बार के चुनाव के साथ भारतीय कड़ियों का दुर्लभ संयोग जुड़ा है। वर्तमान उपराष्ट्रपति कमला हैरिस जहां डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर से राष्ट्रपति पद की प्रत्याशी बनने के बहुत करीब हैं, वहीं रिपब्लिकन पार्टी ने जिन जेडी वेंस को उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया है, उनकी पत्नी उषा वेंस की जड़ें भी भारत से जुड़ी हैं। हैरिस और उषा दोनों ही दूसरी पीढ़ी की अमेरिकी हैं। वेंस के अपनी ससुराल वालों के साथ बहुत मधुर संबंध हैं तो स्वाभाविक रूप से उषा अपने पति के अभियान में अहम भूमिका निभाएंगी। हैरिस प्रत्यक्ष और उषा परोक्ष रूप से भारतीय मूल के उन लोगों की सूची का एक हिस्सा बन गई हैं, जो पश्चिमी देशों में उच्च राजनीतिक पदों पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। यह सूची बहुत लंबी है। भारतीय मूल के ऋषि सुनक कुछ समय पहले तक ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रहे। उनकी पत्नी अक्षता मूर्ति भी भारतीय मूल की हैं, जो दिग्गज उद्यमी एनआर नारायणमूर्ति की बेटी हैं। ऋषि और अक्षता ने हिंदू धर्म में अपनी आस्था भी कभी नहीं छिपाई।

आयरलैंड और पुर्तगाल की कमान भी ऐसे नेता संभाल चुके हैं, जिनकी जड़ें आंशिक रूप से भारतीय मूल की रहीं। आयरलैंड के पूर्व प्रधानमंत्री लियो वराडकर के पिता भारतीय, जबकि पुर्तगाल के पूर्व प्रधानमंत्री अंटोनियो कोस्टा के पिता आंशिक रूप से भारतीय थे। भारतीय मूल के लोग कनाडा की राजनीति पर भी अपनी छाप छोड़ रहे हैं। इसके अलावा मारीशस, गुयाना, फिजी और त्रिनिदाद एंड टोबैगो में भारतीय मूल के लोग सरकारों का नेतृत्व कर चुके हैं। इनमें से अधिकांश नेता भारत से अपना जुड़ाव महसूस करते हैं, लेकिन यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता अपने राष्ट्रीय हितों की पूर्ति से जुड़ी है। हाल में सुनक के मामले में यह स्पष्ट रूप से देखने को मिला। उनके कार्यकाल के दौरान न तो मुक्त व्यापार समझौते को लेकर बात आगे बढ़ पाई और न ही विजय माल्या जैसे भगोड़े के प्रत्यर्पण पर सहमति बनी। इतना ही नहीं, भारत विरोधी खालिस्तानी तत्वों पर अंकुश लगाने में भी उनकी सरकार नाकाम रही। यह दर्शाता है कि राजनीतिक पटल पर ऐसे लोगों के उभार पर भारत के कुछ वर्गों में जिस प्रकार का उत्साह एवं उल्लास का भाव दिखता है, वह भारत के लिए किसी प्रकार के राजनीतिक या कूटनीतिक लाभ में परिणत नहीं हो पाता।

परिस्थितियां यही कहती हैं कि विदेश में रहने वाले भारतीयों को लेकर स्पष्ट दृष्टिकोण आवश्यक है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए हमें भारतीय मूल के लोगों यानी पीआइओ और प्रवासी भारतीयों यानी एनआरआइ के बीच अंतर को समझना होगा। इनमें से एनआरआइ तो पूरी तरह से भारतीय हैं और उनके हितों की रक्षा एवं कल्याण का पूरा दारोमदार सरकार का है, जबकि पीआइओ विदेशी हैं, जिन्हें भारत के एक प्रकार के ‘अघोषित नागरिक’ के तौर पर ओसीआइ कार्डधारक के रूप में गिना जाता है। इससे कई बार भ्रम की स्थित बन जाती है। भारतीय संविधान दोहरी राष्ट्रीयता को मान्यता नहीं देता। इसलिए, जब कोई भारतीय किसी अन्य देश का नागरिक बन जाता है तो उसकी भारतीय नागरिकता स्वत: समाप्त हो जाती है। इसलिए, ओसीआइ कार्डधारकों के पास कोई राजनीतिक अधिकार नहीं होता। इन कार्डधारकों के पास भारत के लिए विस्तारित वीजा होता है और वे अन्य विदेशी नागरिकों की तुलना में भारतीय अर्थव्यवस्था में कहीं अधिक बड़े दायरे में सहभागिता कर सकते हैं। ऐसे में बेहतर होगा कि ओसीआइ कार्ड को कुछ नया नाम दिया जाए, ताकि किसी भी प्रकार के भ्रम की गुंजाइश न रहे।

भाजपा सरकार ने भारतीय मूल के लोगों और भारत के बीच कड़ियां जोड़ने की ओर काफी ध्यान दिया है। इसी कड़ी में प्रवासी भारतीय दिवस जैसे वार्षिक आयोजन के साथ ही प्रवासी भारतीय सम्मान भी दिए जाते हैं। पीआइओ की भारतीय सांस्कृतिक जड़ों को समृद्ध करने के लिए उन्हें साधने में कोई हर्ज भी नहीं। पीआइओ को भी भारत के साथ आर्थिक जुड़ाव की दिशा में हरसंभव अवसर दिए जाने चाहिए, जिससे परस्पर लाभ मिल सके। इसके साथ ही हमें यह भी स्वीकार करना चाहिए कि एक समय मजदूरों के रूप में गए भारतीयों ने भी विदेश में स्थानीय संस्कृति को अपना लिया है। मारीशस की ही मिसाल लें तो वहां उम्रदराज पीआइओ भले ही आज भी भोजपुरी बोलते हों, लेकिन उनकी युवा पीढ़ी ने उस क्रियोल भाषा को अपना लिया है, जिसे अधिकांश मारीशसवासी बोलते हैं। यह प्रक्रिया प्रवासी समुदाय की परिपक्वता को ही दर्शाती है।

अमेरिका जैसे देशों में प्रवासी समुदायों को अपनी लाबी बनाने की गुंजाइश दी जाती है, ताकि वे अपने मूल देश और अमेरिका के बीच राजनीतिक कड़ियां जोड़ने का माध्यम बन सकें। वहां सबसे ताकतवर लाबी यहूदियों की है, जो इजरायल के लिए काम करती है। भारत को भी भारतीय पीआइओ संगठनों के साथ सहभागिता को लेकर हिचकना नहीं चाहिए और वहां भारतीय लाबी को मजबूत करने के प्रयास करने चाहिए, जो पहले ही काफी सशक्त हो चुकी है। इसी लाबी ने परमाणु समझौते में अहम भूमिका निभाई थी। उस समझौते ने भारत-अमेरिका संबंधों की दशा-दिशा ही बदल दी थी। कई यूरोपीय देशों विशेषकर ब्रिटेन में भी ऐसा ही देखने को मिला। हालांकि राजनीतिक रूप से सक्रिय पीआइओ की कुछ मुद्दों पर अलग राय से असहजता की स्थिति भी बन जाती है। खालिस्तान को लेकर अमेरिका और कनाडा में ऐसा देखा भी गया। भारत को भी पीआइओ की अपने देशों के प्रति निष्ठा को लेकर संदेह नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसी स्थिति में भारत के साथ उनके जुड़ाव की कड़ी फायदे के बजाय नुकसान का सबब बन जाएगी। कई बार विदेशी नेता पीआइओ के बीच किसी भारतीय नेता की लोकप्रियता का लाभ भी उठाना चाहते हैं। स्वाभाविक है कि भारतीय नेताओं को ऐसे मामलों में नहीं पड़ना चाहिए, क्योंकि ऐसी स्थिति दोधारी तलवार की तरह हो जाती है। अच्छी बात है कि भारत के राजनीतिक दलों ने विदेश में भी अपने प्रकोष्ठ बनाने आरंभ कर दिए हैं। एनआरआइ को भारत की राजनीतिक हलचल में दखल का पूरा अधिकार है। हालांकि उन्हें लामबंद करने को लेकर पार्टियों को कुछ संयम का परिचय भी देना चाहिए।


Date: 31-07-24

कम शुल्क दर से बढ़ेगा निर्यात

संपादकीय

केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने करीब 50 उत्पादों पर सीमा शुल्क कम करने का जो निर्णय लिया है वह स्वागतयोग्य है। इसे देश की बाह्य प्रतिस्पर्धा बढ़ाने के प्रयास से जुड़े कदम के रूप में भी देखा जा सकता है। उन्होंने अगले छह महीने में सीमा शुल्क ढांचे की व्यापक समीक्षा की भी घोषणा की। फिलहाल मोबाइल फोन, चमड़ा, फेरो-निकल, ब्लिस्टर कॉपर और पेट्रोल उत्खनन गतिविधियों समेत कई क्षेत्रों में सीमा शुल्क या तो समाप्त कर दिया गया है या फिर बहुत कम कर दिया गया है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि 25 अहम खनिजों को सीमा शुल्क से मुक्त कर दिया गया है। इससे नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र में देश की घरेलू उत्पादक क्षमता को मदद मिलेगी और साथ ही अन्य रणनीतिक उद्योगों मसलन रक्षा और ई-मोबिलिटी में भी यह मददगार होगा।

यह बदलाव देश की व्यापार नीति में संरक्षणवाद और आयात प्रतिस्थापन के जगह बना लेने के कई वर्ष बाद आया है। आयात में कमी करने के प्रति झुकाव को 2018 के बजट में ही देखा जा सकता है। घरेलू उद्योगों के संरक्षण और रोजगार निर्माण बढ़ाने के लिए 40 से अधिक आयात पर टैरिफ को बढ़ाया गया। इसमें वाहन कलपुर्जे से लेकर मोमबत्ती और फर्नीचर तक सब शामिल थे। पहले भारत ने कुछ इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों मसलन मोबाइल फोन के कलपुर्जों, टेलीविजन और माइक्रोवेव ओवन पर आयात शुल्क बढ़ाया। 2010-11 से 2020-21 तक भारत की औसत शुल्क वृद्धि काफी बढ़ गई। देश के टैरिफ लाइन के अनुपात मे 15 फीसदी से अधिक इजाफा हुआ और यह 11.9 फीसदी से बढ़कर 25.4 फीसदी पर पहुंच गई।

सरकार ने सीमा शुल्क को आगे राजस्व जुटाने का उपाय नहीं मानकर बढ़िया किया है। अब यह बात अच्छी तरह स्वीकार्य है कि केवल व्यापारिक खुलापन ही भारत को वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में अहम हिस्सेदार बना सकता है। मिसाल के तौर पर स्मार्टफोन और उपभोक्ता इलेक्ट्रॉनिक्स के क्षेत्र में। भारत का मोबाइल फोन निर्यात 2023-24 में 15.6 अरब डॉलर हो गया जबकि 2022-23 में यह 11.1 अरब डॉलर था। पिछले वर्ष देश ने 102 अरब डॉलर मूल्य के इलेक्ट्रॉनिक सामान का निर्माण किया। इसके बावजूद निर्यात वृद्धि मोटे तौर पर देश में विनिर्माण के बजाय असेंबली तक सीमित है। लीथियम आयन सेल्स या सेमीकंडक्टर चिप्स जैसे घटकों का निर्माण भारत में नहीं हो रहा है। अधिकांश वास्तविक मूल्यवर्द्धन चीन, दक्षिण कोरिया, जापान और वियतनाम जैसे देशों में हो रहा है।

गैर टैरिफ गतिरोध भी ऊंचे हैं। विश्व व्यापार संगठन द्वारा वर्ल्ड टैरिफ प्रोफाइल 2024 में जारी आंकड़े बताते हैं कि भारत एंटी डंपिंग शुल्क लगाने के मामले में अमेरिका के बाद दूसरे स्थान पर है। 2023 में भारत ने 45 एंटी डंपिंग जांच शुरू कीं और 14 मामलों में शुल्क लगाया जबकि देश में 133 एंटी डंपिंग उपायों ने 418 उत्पादों को प्रभावित किया। प्रतिपूरक शुल्क भी बहुत अधिक हैं। 2023 में भारत ने 17 मामलों में प्रतिपूरक शुल्क लगाए जिन्होंने 28 उत्पादों को प्रभावित किया। एक निर्यातक के रूप में भारत के खिलाफ 173 उत्पादों के मामले में कुल 44 प्रतिपूरक कदम हैं। चाहे जो भी हो रणनीति में बदलाव नजर आ रहा है। विश्व व्यापार संगठन के आंकड़ों के अनुसार भारत की औसत शुल्क दर 2022 के 18.1 फीसदी से कम होकर 2023 में 17 फीसदी रह गई। भारत को हर क्षेत्र में शुल्क कम करने की आवश्यकता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि सीमा शुल्क की समीक्षा इस दिशा में अहम कदम होगी। इस बीच भारतीय कारोबारियों को बढ़ती वैश्विक प्रतिस्पर्धा से निपटना होगा। शुल्क दर में कमी प्रतिस्पर्धा बढ़ाने में मददगार होगी।


Date: 31-07-24

कृषि भंडारण बिना विकास की कहानी अधूरी

विनायक चटर्जी, ( लेखक बुनियादी ढांचा विशेषज्ञ और द इन्फ्राविजन फाउंडेशन के संस्थापक एवं प्रबंध ट्रस्टी हैं। लेख में वृंदा सिंह का सहयोग )

बुनियादी ढांचे पर होने वाली चर्चाएं अमूमन ऊर्जा, परिवहन और पानी तक ही केंद्रित रहती हैं, लेकिन 2022 में लागू की गई राष्ट्रीय लॉजिस्टिक पॉलिसी अब तक उपेक्षित रहे भंडारण बुनियादी ढांचा क्षेत्र की स्थिति को उजागर करने में काफी हद तक कामयाब रही है। औद्योगिक एवं वाणिज्यिक भंडारण क्षमता के बुनियादी ढांचे को तो डेवलपर आज की जरूरतों के हिसाब से ढाल रहे हैं, लेकिन कृषि क्षेत्र से जुड़ी भंडारण क्षमता बुरी तरह उपेक्षा की शिकार है। ये भंडारण अभी भी पुराने ढर्रे पर ही काम कर रहे हैं, जिन पर फौरी तौर पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है।

इन्वेस्ट इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत का भंडारण बाजार 2022 के बाद से 15.64 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर से बढ़ रहा है, लेकिन यह वृद्धि अधिकांशत: औद्योगिक एवं वाणिज्यिक भंडारण क्षमता के जरिये ही दिख रही है। कृषि क्षेत्र में हालत बिल्कुल उलट है, जो कई संकटों से जूझ रहा है। आधुनिक भंडारण ढांचा और इससे जुड़ी सुविधाएं उपलब्ध नहीं होने के कारण कृषि अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है। खासकर फसल कटाई के बाद उपज की बड़े पैमाने पर बरबादी हो रही है। ऐसे देश में जहां ग्रामीण आबादी की जीवनधारा ही कृषि आधारित हो और लगभग आधे लोगों की रोजी-रोटी इसी से चलती हो, वहां भंडारण क्षमताओं को लेकर इस प्रकार की उपेक्षा काफी गंभीर मामला है।

इंडिया इन्फ्रास्ट्रक्चर रिसर्च के अनुसार कृषि भंडारण क्षमता जून 2023 में 14.5 करोड़ टन थी, जिनके वर्ष 2026-27 तक 22.3 करोड़ टन तक बढ़ाने की सख्त जरूरत है। भारत में फसल कटाई के बाद उपज की बरबादी बहुत ज्यादा होती है। इसे देखते हुए कृषि भंडारण क्षमता के विकास पर ध्यान दिया जाना बहुत ही आवश्यक है।

वर्ष 2022 में सरकार समर्थित एक अध्ययन से पता चलता है कि देश में फसल कटाई से लेकर खपत तक के सफर में सब्जी और फलों में 5 से 13 प्रतिशत की बरबादी होती है, जबकि तिलहन और मसालों जैसी अन्य फसलों में यह हानि 3 से 7 प्रतिशत तक है। इससे वार्षिक स्तर पर अर्थव्यवस्था को अनुमानित 1.52 लाख करोड़ रुपये का नुकसान होता है।

देश में पर्याप्त कोल्ड स्टोरेज तथा परिवहन के साधनों के अभाव में मूल्य वर्धित कृषि उपज न तो समय पर संरक्षित हो पाती है और न ही आगे आपूर्ति की जाती है। इससे पूरी आपूर्ति श्रृंखला के दौरान भारी मात्रा में कीमती उपज बरबाद हो जाती है। यह नुकसान 3.7 से 3.9 करोड़ टन भंडारण क्षमता उपलब्ध होने के बावजूद हो रहा है।

कृषि भंडारण क्षमता का भौगोलिक स्तर पर उचित वितरण नहीं होने से भी समस्या गंभीर हो रही है। उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, गुजरात, पंजाब और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में तो अधिक भंडारण क्षमता है जबकि बिहार और मध्य प्रदेश में इसकी भारी कमी है। खास यह कि ज्यादातर कोल्ड स्टोरेज में केवल एक ही फसल (अनाज और आलू) रखने की व्यवस्था होती है। अन्य फसलों के भंडारण की सुविधा इनमें नहीं होती। इसलिए देशभर में भंडारण क्षमता को उन्नत कर इनमें सभी या एक से अधिक कृषि उपज रखने की व्यवस्था किए जाने की सख्त जरूरत है।

वेयरहाउसिंग डेवलपमेंट ऐंड रेग्युलेटरी अथॉरिटी (डब्ल्यूडीआरए) को इस दिशा में काम करने के लिए सक्रिय भूमिका निभानी होगी। गोदाम (विकास एवं नियमन) अधिनियम 2007 के तहत गठित इस एजेंसी से उम्मीद की जाती है कि यह भंडारण क्षमताओं के विकास, संचालन विनियमन और रसीद व्यवस्था को बढ़ावा दे।
नियामकीय संस्था भविष्य को ध्यान में रखकर रणनीतियां बनाएं और भंडारण क्षेत्र में गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए सक्रिय भूमिका निभाए। डब्ल्यूडीआरए की पंजीकरण व्यवस्था को व्यापक हितधारकों से सलाह-मशविरा लेकर वास्तविकता के आधार पर तार्किक बनाना होगा। आज डब्ल्यूडीआरए से पंजीकृत भंडार की संख्या गिनती की 10 भी नहीं है।

जिम्मेदारियों का विकेंद्रीकरण कर और राज्यों को व्यापक नियामकीय भूमिका निभाने की इजाजत देकर डब्ल्यूडीआरए को अन्य महत्त्वपूर्ण काम अपने हाथ में लेने चाहिए। इससे भंडारण क्षमता का विस्तार तो होगा ही, इनके आधुनिकीकरण, निगरानी और प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार करने में भी मदद मिलेगी। भंडारण सुविधाओं की वास्तविक उपलब्धता के बारे में सटीक जानकारी देने, इनकी क्षमता का पूर्ण उपयोग, ई-नाम यानी इलेक्ट्रॉनिक-नैशनल एग्रीकल्चरल मार्केट (कृषि उत्पादों की बिक्री के लिए देश भर में काम करने वाला इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म) आदि की स्थिति जानने के लिए एक डिजिटल पोर्टल शुरू किया जाना चाहिए। इससे बाजार में नए अवसरों के द्वार खुलेंगे। ई-नाम से जुड़ना खासतौर पर बहुत ही महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इससे पारदर्शी कीमतों के बारे में जानकारी हासिल करने और किसानों को उनके क्षेत्र से बाहर के बाजारों तक पहुंच उपलब्ध कराने में मदद मिलेगी।

इलेक्ट्रॉनिक निगोशिएबल वेयरहाउस रिसीट (ई-एनडब्ल्यूआर) की भूमिका भी बढ़ानी होगी। पारंपरिक कागज वाली रसीद की जगह लाया गया ई-एनडब्ल्यूआर एक डिजिटल दस्तावेज होता है, जिसे डब्ल्यूडीआरए से पंजीकृत भंडारण जारी करते हैं। इसका उद्देश्य ऋण उपलब्धता बढ़ाने के साथ-साथ वस्तुओं को एक से दूसरी जगह ले जाए बिना बिक्री करना तथा भंडारण में पारदर्शिता लाकर कृषि उत्पाद भंडारण और कारोबार को आसान बनाना है। ट्रेडिंग प्लेटफार्म से जुड़ने की संभावनाओं और नियामकीय निगरानी व्यवस्था में सुधार के बावजूद ई-एनडब्ल्यूआर को अपनाने की गति बहुत धीमी रही है।

वेयरहाउस रेटिंग की व्यवस्था भी थोड़ी सख्त बनानी होगी। इससे उसकी विश्वसनीयता बढ़ेगी और ऋणदाताओं में भरोसा जमेगा। इससे अंतत: किसानों के लिए वित्तीय लाभ के द्वार खोलने एवं बाजार की कार्यक्षमता में सुधार करने में मदद मिलेगी। इस दिशा में इसी साल मार्च में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा सहकारी क्षेत्र में विश्व का सबसे बड़ा अनाज गोदाम जैसी पहल शुरू की गई है।

इस महत्त्वाकांक्षी परियोजना का उद्देश्य 1.25 लाख करोड़ रुपये की लागत से अगले पांच साल में उत्पन्न होने वाले 7 करोड़ टन अनाज के रखरखाव के लिए भंडारण सुविधाएं विकसित करना है। प्रायोगिक परियोजना की शुरुआत हो चुकी है। भंडारण क्षमता बनाने और अन्य जरूरी कृषि संबंधी बुनियादी ढांचा विकसित करने के लिए 500 प्राइमरी एग्रीकल्चरल क्रेडिट सोसाइटीज (पीएसीएस) की नींव रख दी गई है, लेकिन आधुनिक कृषि-भंडारण अभियान को राज्यों और सहकारी क्षेत्र की जकड़न से बाहर निकालना होगा।

केंद्र सरकार ने देशभर में कृषि भंडारण के बुनियादी ढांचे को मजबूत करने के लिए कई कदम उठाए हैं। प्रधानमंत्री कृषि संपदा योजना इनमें सबसे खास है जो एग्रो प्रसंस्करण कलस्टर की एग्रो-मैरीन प्रसंस्करण एवं विकास की योजना है। कुल 46 अरब रुपये बजट वाली इस योजना को 2026 तक बढ़ा दिया गया है। इसका जोर मेगा फूड पार्क और संयुक्त कोल्ड स्टोरेज श्रृंखला पर अधिक है, ताकि भंडारण सुविधाओं को बढ़ाकर फसल कटाई के बाद उपज में होने वाली हानि से बचा जा सके।

भंडारण सुविधाओं के विस्तार के लिए भारतीय खाद्य निगम एवं राज्य एजेंसियों के साथ सहयोग से प्राइवेट एंटरप्रिन्योर्स गारंटी योजना शुरू की गई है। संयुक्त कोल्ड स्टोरेज श्रृंखला जैसी योजनाओं से भंडारण क्षमताओं का आधारभूत ढांचा मजबूत करने में मदद मिल सकती है, जबकि राष्ट्रीय नीतियों के अनुसार आधुनिक स्टील सिलोस का विकास करने से अनाज भंडारण सुविधाओं में वृद्धि होगी।

यदि इस क्षेत्र में अग्रणी बनना है तो राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक के वेयरहाउस इन्फ्रास्ट्रक्चर फंड जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से हर्मेटिक स्टोरेज और मशीनीकृत लोडिंग/अनलोडिंग जैसी आधुनिक भंडारण तकनीकों को बढ़ावा देने वाली नीतियां बनानी होंगी। साथ ही ब्याज में छूट जैसी योजनाओं समेत अन्य वित्तीय प्रोत्साहन दिए जाने की भी आवश्यकता है। ऐसे विकासोन्मुखी प्रयासों से भंडारण क्षेत्र में निजी निवेश को बढ़ावा मिलेगा। जिला या क्लस्टर स्तर पर गुणवत्ता परख, ग्रेडिंग और परीक्षण सुविधाएं स्थापित कर उन्हें भंडारण व्यवस्था से जोड़ा जा सकता है।

चूंकि भारत 5 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने के लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है, इसलिए उसे कृषि भंडारण के बुनियादी ढांचे जैसी अर्थव्यवस्था की कमजोर कडि़यों को मजबूत करने पर प्राथमिकता से ध्यान देना होगा। इन चुनौतियों की पहचान कर और दूरदर्शी रणनीति अपनाकर डब्ल्यूडीआरए देश की कृषि रीढ़ को मजबूत और लचीला बना सकता है। एक दृढ़ और सहायक नियामकीय वातावरण के जरिये जब तक आधुनिक, भरोसेमंद एवं सक्षम कृषि भंडारण पारिस्थितिकी तंत्र खड़ा नहीं होगा तब तक भारत के विकास की कहानी अधूरी ही कही जाएगी।


Date: 31-07-24

तबाही के इलाके

संपादकीय

केरल में वायनाड के मेप्पाडी के पास सोमवार की रात को अचानक हुए भूस्खलन से जैसी तबाही हुई, उससे एक बार फिर यही रेखांकित हुआ है कि कुदरत के सामने समूची व्यवस्था कई बार लाचार हो जाती है। हालांकि प्रकृति के कहर को रोका भले न जा सके, लेकिन इससे बचाव के उपाय जरूर किए जा सकते हैं, ताकि जानमाल के नुकसान को कम से कम किया जा सके। वायनाड में रात के दो-तीन बजे को बाद तीन बार भूस्खलन हुआ और उससे वहां अब तक सौ से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है, करीब सौ लोगों को अस्पताल में भर्ती कराया गया और काफी लोग लापता बताए जा रहे हैं। हताहतों की संख्या और बढ़ सकती है। यों राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन बल के कर्मचारियों सहित अन्य महकमों के राहतकर्मियों ने बचाव के लिए हर संभव प्रयास किया है, मगर त्रासदी है कि भूस्खलन से तबाह एक क्षेत्र पूरी तरह से अलग-थलग हो गया, जहां पहुंचना आसान नहीं है। भारी बारिश की वजह से राहत कार्य में बाधा पेश आई है।

गौरतलब है कि केरल में पिछले कुछ दिनों से लगातार भारी बारिश हो रही है, जिससे कई जगहों पर जनजीवन अस्त-व्यस्त है। मगर अब वहां कई जगहों पर बाढ़ और भूस्खलन जैसी त्रासदी भी दिखने लगी है। वायनाड में पहले भी घनघोर बारिश और उसकी वजह से भूस्खलन की घटनाएं होती रही हैं। मगर सोमवार रात वहां जो हुआ, उसने वायनाड के साथ-साथ सभी जगहों के लोगों के सामने एक खौफ का मंजर पैदा कर दिया है। पहाड़ों के बीच बसे और हरा-भरा स्वर्ग कहे जाने वाले वायनाड की पारिस्थितिकी को बेहद नाजुक माना जाता है। पश्चिमी घाट के नजदीक होने की वजह से वहां भूस्खलन का खतरा बना रहता है। पश्चिमी घाट में तीव्र ढलान है और मानसून में भारी बारिश से मिट्टी इतनी गीली और ढीली हो जाती है कि भूस्खलन के मामले बढ़ जाते हैं। जाहिर है, यह स्थिति अगर कुदरतन पैदा होती है, तो इसे तत्काल रोकना शायद मुमकिन नहीं है, मगर हर वर्ष बारिश के मौसम में भूस्खलन की आशंका के मद्देनजर बचाव के एहतियाती इंतजाम जरूर किए जा सकते हैं।


Date: 31-07-24

रोजगारपरक योजनाएं लागू करना जरूरी

सुशील देव

केंद्र सरकार के नये बजट में बिहार के विकास को लेकर कई बड़ी घोषणाएं की गई हैं। घोषणाएं केंद्र में सरकार गठन से जुड़ी राजनीतिक मजबूरियों से भी जुड़ी हैं। बिहार में रोजगारपरक योजनाएं लागू करना जरूरी दरअसल, बिहार के मामले में अभाव और गरीबी की बात नई नहीं है। रोजी-रोजगार को लेकर लाखों लोग हर साल पलायन करने के लिए मजबूर हैं। बड़े उद्योग तो दूर वहां छोटे और मझोले उद्योगों की राह भी कठिन रही है। अलबत्ता, बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री एवं महादलित नेता जीतन राम मांझी के केंद्रीय सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम मंत्री बनने के बाद कुछ उम्मीदें जरूर जगी हैं।

खुद मांझी भी मानते हैं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उन्हें अपने विजन का मंत्रालय दिया है ताकि छोटे और मझोले उद्योगों को बढ़ाकर विकसित भारत के लक्ष्य तक पहुंचा जा सके। शपथ ग्रहण के तुरंत बाद मोदी सरकार में सबसे उम्रदराज इस मंत्री ने इस दिशा में ईमानदारी और लगन से काम करने का भरोसा भी जताया है। ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहर के लिए प्रसिद्ध बिहार फिर से आर्थिक समृद्धि और रोजगार सृजन के नये आयाम तलाश रहा है।

ऐसे में इस मंत्रालय की भूमिका वरदान साबित हो सकती है। दरअसल, बिहार में छोटे और मझोले उद्योगों का राज्य की आर्थिक संरचना को मजबूती देने में बड़ा योगदान है, जिसमें राज्य के कृषि आधारित उद्योग, हस्तशिल्प, खादी, हथकरघा उद्योग प्रमुख रूप से शामिल हैं। एमएसएमई मंत्रालय की विभिन्न योजनाएं-प्रधानमंत्री रोजगार सृजन कार्यक्रम, मुद्रा योजना, स्टार्टअप इंडिया आदि बिहार के उद्यमियों के लिए विशेष रूप से लाभकारी साबित हो रही हैं। इनके माध्यम से नवाचार और उद्यमिता को बढ़ावा मिला है, जिससे रोजगार के नये अवसर सृजित हो रहे हैं।

अलबत्ता, दरकार इस बात की है कि राज्य के उद्यमियों को मंत्रालय की योजनाओं और सुविधाओं के बारे में विस्तृत जानकारी हो और उनका सही तरीके से क्रियान्वयन हो। उद्यमियों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम, वर्कशॉप और मार्केटिंग कैंप का आयोजन भी किया जाना चाहिए। मांझी के मंत्री बनने से बिहार की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार की संभावनाएं बढ़ी हैं। उनके नेतृत्व में मंत्रालय के अब तक के कामकाज से लगता है कि मांझी का ध्यान शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के अवसरों पर है।

रोजगार अवसर बढ़ाने के लिए उनका अनुभव और योजनाएं बिहार के युवाओं के लिए लाभकारी साबित हो सकती हैं। कृषि और उद्योगों के विकास के माध्यम से रोजगार सृजन की बात कारगर साबित हो सकती है। राज्य की आर्थिक संरचना में एमएसएमई पहले से महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इनको नई मदद और सुविधाएं औद्योगिक विकास का विकेंद्रित ढांचा खड़ा कर सकती हैं, जिससे कई क्षेत्रों के लोगों के जीवन में बदलाव संभव है।

दिलचस्प है कि बिहार की बदली राजनीति के साथ प्रदेश में विकास की नई बयार बह रही है। बजट में बिहार के लिए 26 हजार करोड़ के पैकेज के ऐलान के बाद खासकर औद्योगिक विकास को लेकर उम्मीदें कोरी नहीं कही जा सकतीं। गया में औद्योगिक विकास, काशी की तर्ज पर महाबोधि और विष्णुपद मंदिर कॉरिडोर, राजगीर और नालंदा का विकास, पटना-पूर्णिया एक्सप्रेसवे, बक्सर-भागलपुर राजमार्ग और गंगा नदी पर दो पुलों के निर्माण आदि की महत्त्वपूर्ण घोषणा निश्चित रूप से बिहार की तरक्की का नया आयाम साबित होगा। बजट की घोषणा रोजगार, कौशल विकास और पर्यटन की संभावनाओं से भरी है। जरूरी है कि इस दिशा में तेजी से काम हो और जमीनी स्तर पर किसी तरह का राजनीतिक विरोध या दुविधा आड़े न आए। गौरतलब है कि बजट में कौशल विकास और रोजगार के साथ गरीब, युवा, महिला और किसानों पर बल दिया गया है, जिसे विकास का सकारात्मक संकेत कहा जा सकता है।

बैंकों से ऋण लेना भी आसान कर दिया गया है। मुद्रा लोन की सीमा 10 से 20 लाख कर दी गई है। खरीदारों को ट्रेडर्स प्लेटफार्म पर अनिवार्य रूप से शामिल करने के लिए कारोबार की सीमा को 500 करोड़ से घटाकर 250 करोड़ कर दी गई है। एमएसएमई क्षेत्र में 50 मल्टी प्रोडक्ट फूड यूनिट स्थापित करने के लिए भी वित्तीय सहायता दी जाएगी और पारंपरिक कारीगरों को इंटरनेशनल मार्केट में उनके प्रोडक्ट बेचने में सक्षम बनाया जाएगा। उनके लिए पीपीपी मोड में ई-कॉमर्स निर्यात केंद्र भी स्थापित किए जाएंगे। केंद्र सरकार की पहल को आर्थिक जानकार अच्छा संकेत मान रहे हैं, लेकिन सबसे अधिक जरूरी होगा कि जो घोषणाएं की गई हैं, उनको लेकर राजनीतिक सहयोग और समन्वय का एक बड़ा आदर्श बिहार देश के सामने रखे।

देश की आबादी जितनी तेजी से बढ़ रही है, उसके अनुरूप रोजगार अवसर पैदा करना अति आवश्यक होगा। बिहार उत्तर प्रदेश के बाद दूसरा बड़ा राज्य है, राज्य के युवाओं द्वारा हर साल काफी संख्या में रोजगार के लिए दूसरे शहरों को पलायन करना चिंताजनक है। ऐसे में मोदी सरकार ने जिस तरह बिहार का बेहतर बजट देने के साथ ही बिहार के पूर्व सीएम मांझी को एमएसएमई मंत्री बनाया है, उससे निश्चित ही राज्य का न केवल विकास होगा, बल्कि उद्योग और रोजगार का नया ढांचा विकसित होगा।


Date: 31-07-24

वायनाड के भूस्खलन से क्या कुछ सबक पाएंगे हम

सुशील कुमार रोहेला, ( भूभौतिकी वैज्ञानिक )

केरल के वायनाड में भूस्खलन से हुई भारी तबाही ने एक बार फिर अनियोजित विकास की ओर हमारा ध्यान खींचा है। कई जान चली गई है। उत्तर से लेकर दक्षिण भारत तक पहाड़ों का चरित्र कमोबेश एक जैसा ही है। हां, हिमालय के पहाड़ अभी तुलनात्मक रूप से नए जरूर हैं, जिसके कारण यहां की मिट्टी दक्षिण के पहाड़ों की तरह सख्त नहीं हुई है, पर उत्तर से लेकर दक्षिण तक भूस्खलन की जो घटनाएं हम देख रहे हैं, उनकी एक बड़ी वजह मानवीय गतिविधियां हैं। हम विकास और निर्माण-कार्यों के नाम पर लगातार पहाड़ काट रहे हैं, लेकिन उसे दरकने से बचाने के लिए जिन-जिन उपायों की जरूरत है, उस पर बमुश्किल अमल कर पा रहे हैं। अब तो पहाड़ की चोटियों पर ऊंची इमारतें बनती दिखने लगी हैं। इसके लिए पेड़ों की जमकर कटाई की जाती है। जाहिर है, जब पत्थर को थामने वाले कुदरती साधनों को हम खत्म कर देंगे, तो पहाड़ टूटेंगे ही। रही-सही कसर मानसून पूरी कर देता है। इस मौसम में पहाड़ों पर दबाव बढ़ जाता है, जिस कारण वे भरभराकर गिरने लगते हैं। पिछले दिनों कर्नाटक में ऐसा ही हुआ था।

अनियोजित विकास के हिमायती कहते हैं कि भौगोलिक परिस्थितियों के कारण भी भारत में भूस्खलन की घटनाएं बढ़ी हैं। निस्संदेह, पहाड़ खुद भी कभी-कभी भूस्खलन के माध्यम से स्थिर होते हैं। भूकंप भी वक्त-बेवक्त इसकी वजह बनते हैं। मगर हाल-फिलहाल की घटनाएं मूलत: उन जगहों पर ही दिखी हैं, जहां पर निर्माण-कार्य हुए हैं। जहां प्रकृति को बिल्कुल भी छेड़ा नहीं गया है, वहां से भूस्खलन की खबरें नहीं आई हैं। दिक्कत यह भी है कि हम विकास के नाम पर पहाड़ों के साथ खिलवाड़ तो करते हैं, लेकिन सुरक्षात्मक दीवार पुश्ता, जिसे रिटेनिंग वॉल कहते हैं, नहीं बनाते। विकास-कार्य बेशक होने चाहिए, क्योंकि पहाड़ पर रहने वाले लोगों को भी अच्छी सड़कों या इमारतों की जरूरत है, लेकिन ऐसा करते हुए उन उपायों को अमल में लाना चाहिए, जो इंसानी जान की सुरक्षा कर सकें। कई जगहों पर पहाड़ को काटने के बाद महज पांच फुट का रिटेनिंग वॉल लगाते मैंने देखा है। यह उचित नहीं है। उत्तराखंड में भूस्खलन की बढ़ी घटनाओं की यह एक बड़ी वजह है। हम चाहें, तो चिह्नित स्थानों पर कैंडलनट, बे्रडफूट, बांस जैसे पेड़ अथवा वेटिवर जैसी घास भी लगा सकते हैं, जिनकी मजबूत जड़े़ पहाड़ी मिट्टी को थामे रखने में काफी मददगार मानी जाती हैं।

ऐसा नहीं है कि अपने देश में इस बाबत दिशा-निर्देश नहीं है। गाइडलाइन तैयार है, लेकिन उसका पालन ढंग से नहीं हो रहा। इसके लिए हमें स्थानीय निकायों पर भरोसा करना होगा। जब तक उनको इस अभियान में शामिल नहीं करेंगे, हरेक मानसून में तबाही की खबरें आती रहेंगी। नियमों का पालन स्थानीय निकाय ही सुनिश्चित कर सकते हैं। उनको पता होता है कि निर्माण-कार्यों की वजह से कहां कितनी अस्थिरता हुई है और उसे स्थिर करने के लिए किस तरह के उपाय किए जाने चाहिए। फिर चाहे वह दीवार पुश्ता लगाना हो या पेड़-पौधों का रोपण या फिर कुछ और। इस तरह के प्रयास कितने कारगर होते हैं, इसका पता कोई जापान जाकर लगा सकता है। वहां की पहाड़ियों को स्थिर बनाए रखने के लिए जालियां तक लगाई गई हैं। ऐसे उपाय कुछ महंगे जरूर होते हैं, पर काफी कारगर माने जाते हैं। अपने देश में टिहरी बांध में ढलानों की कटाई के बाद अच्छे सुरक्षात्मक उपाय किए गए हैं, पर अन्य जगहों पर उचित व्यवस्था नहीं दिखती। कई इलाकों में तो पहाड़ से पत्थर सीधे सड़क पर आ गिरते हैं, जिससे जान-माल का नुकसान होता है। ताइवान ने अपने यहां दवाबमापी यंत्र लगाकर अलहदा प्रयोग किया है। इससे उसे समय-पूर्व पता चल जाता है कि पहाड़ पर कितना दबाव है और वह लोगों को पहाड़ के दरकने को लेकर आगाह कर देता है।

जाहिर है, भारत में भी भूस्खलन से निपटने के लिए समय-पूर्व चेतावनी प्रणाली की जरूरत है। इससे हम जान-माल के नुकसान से काफी हद तक बच सकते हैं। बेशक, केंद्र सरकार इसको लेकर गंभीर है, लेकिन जब तक स्थानीय स्तर पर जागरूकता नहीं आएगी, तब तक मनमाफिक परिणाम हमें नहीं मिल सकेंगे। लिहाजा, जागरूकता की शुरुआत निचले स्तर से ही करनी होगी।