31-05-2024 (Important News Clippings)
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बढ़ते तापमान का पहला नुकसान खेती को होगा
संपादकीय
समाजशास्त्रीय अवधारणा है कि चार हजार साल की सभ्यता को खत्म होने में चंद घंटे लगते हैं अगर दुनिया को पांच वक्त का भोजन न मिले। सारा विकास, नागरिक चेतना, नैतिकता, संस्थाएं, दर्शन, धर्म तभी तक हैं, जब तक यह डर नहीं है कि भविष्य में भोजन पर खतरा हो सकता है। तापमान और कृषि उपज का उलटा रिश्ता है। खेती खुले में होती है और मौसम – सापेक्ष है, लिहाजा अगर औसत तापमान 2 डिग्री भी बढ़ जाए तो दुनिया में गेहूं-धान-दलहन-तिलहन के उत्पादन में 10 प्रतिशत का अंतर आ सकता है। आज दुनिया में कुल खाद्यान्न उत्पादन (2850 मिलियन टन) हमारी सभी किस्म की जरूरतों से इतना अधिक है कि हम उसे सड़ा – जलाकर एथेनोल बनाते हैं और जानवरों को खिलाते हैं ताकि उनका मांस स्वयं खा सकें। लेकिन आबादी बढ़ रही है, पर्यावरण असंतुलन के कारण तापमान बढ़ रहा है और अनाज उत्पादन पर नया खतरा मंडरा रहा है। अधिक उपज के चक्कर में उत्तर भारत के प्रमुख अनाज उत्पादक राज्यों का किसान गेहूं-चावल की खेती में इतने भूगर्भ जल का दोहन करता है कि जमीन की गुणवत्ता घटने लगी है। किसानों की नाराजगी से डरे शासक वर्ग इन फसलों की बुवाई या पानी के दोहन पर अंकुश तक नहीं लगा पा रहे हैं।
Date: 31-05-24
इस बार बेरोजगारी चुनावों में एक निर्णायक फैक्टर है
आरती जेरथ, ( राजनीतिक टिप्पणीकार )
चुनाव नतीजों के बाद अगली सरकार चाहे जिसकी बने, एक बड़ी चुनौती पहले से ही मौजूद है : रोजगारों का सृजन। दो महीने लंबे चुनाव-अभियान के दौरान देश भर के मतदाताओं- खासकर युवाओं ने बेरोजगारी को अपनी सबसे प्रमुख समस्या बताया। बेरोजगारी को एक महत्वपूर्ण चुनावी मुद्दे के रूप में पहली बार इस साल मार्च-अप्रैल में लोकनीति-सीएसडीएस सर्वेक्षण में उठाया गया था। यह सर्वेक्षण मतदान से ठीक पहले हुआ था। इसमें पाया गया कि पिछले चुनावों के विपरीत, इस बार बेरोजगारी एक निर्णायक फैक्टर के रूप में उभरकर सामने आ रही है।
ऐसे में आश्चर्य होता है कि भाजपा ने अपने चुनाव-अभियान में इस मुद्दे पर बात करने की जरूरत नहीं समझी। पार्टी के चुनाव घोषणा-पत्र में 2036 के ओलिंपिक खेलों की मेजबानी से लेकर सभी ट्रेन संबंधी सेवाओं के लिए एक ‘सुपर एप’ बनाने तक के वादे किए गए, लेकिन बेरोजगारी की जमीनी हकीकत से वो मेल नहीं खाते हैं। वास्तव में, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने तो बेरोजगारी के मुद्दे को ही नकार दिया। हाल ही में एक प्रमुख राष्ट्रीय दैनिक को दिए साक्षात्कार में उन्होंने कहा, ‘दुर्भाग्य से लोगों ने रोजगार को सरकारी नौकरी से जोड़ दिया है। 130 करोड़ की आबादी में किसी भी सरकार के लिए सभी को नौकरी देना असंभव है।’ शाह की बात सही है कि सरकारों के पास रोजगार देने की सीमित क्षमता है। तब निजी क्षेत्र का विस्तार करके इस कमी को पूरा किया जाना चाहिए, खासकर छोटे और मध्यम स्तर के उद्योगों में, जहां अकुशल और अर्ध-कुशल श्रमिकों को समायोजित किया जा सकता है। याद रहे कि देश की वर्कफोर्स में एक बड़ी संख्या ऐसे अकुशल और अर्ध-कुशल कामगारों की ही है।
इसके बावजूद शाह की टिप्पणी कठोर थी, क्योंकि वे एक ऐसी सरकार के शीर्ष नेता की ओर से आई थी, जो 22 करोड़ श्रमिक परिवारों का प्रभावशाली नेटवर्क बनाने पर गर्व करती है। मोदी सरकार ने इन परिवारों को अन्य लाभों के अलावा मुफ्त मासिक राशन, मुफ्त रसोई गैस कनेक्शन, मुफ्त शौचालय, सब्सिडी युक्त सस्ते घर, प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण लाभ और मुफ्त स्वास्थ्य बीमा दिया है। जब इतना सब दिया जा सकता है तो नौकरियां क्यों नहीं? सच तो यह है कि जब आप एक लाभार्थी-संस्कृति विकसित करते हैं, जिसमें लोग इतने बड़े पैमाने पर सरकार की ओर से मुफ्त सौगातें पाने के अभ्यस्त हो चुके हों, तब वे अपने दैनिक जीवन में मानवीय श्रम और प्रयास की भावना को गंवाने लगते हैं। राजकोषीय घाटे के प्रबंधन पर दबाव के बावजूद सरकार ने कल्याणकारी योजनाओं की अपनी सूची में कटौती नहीं की है, जाहिर है चुनावी लाभ के लिए।
सरकारी नौकरियां आर्थिक सुरक्षा, स्थायित्व और अपने रुतबे की वजह से एक औसत भारतीय का हमेशा से ही सपना रही हैं। दुर्भाग्य से, पिछले दस वर्षों में सरकार ने भर्ती में भारी कटौती की है। अग्निवीर योजना ने सशस्त्र बलों और अर्धसैनिक बलों में स्थायी नौकरी की उम्मीदों को आघात पहुंचाया है। विनिवेश से भी सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में नौकरियां कम हुई हैं। सरकारी भर्ती के लिए परीक्षाओं में लगातार पेपर लीक हो रहे हैं और पिछले कई वर्षों से यूपी और बिहार जैसे राज्यों में न के बराबर भर्तियां हुई हैं। स्वरोजगार करने वालों और रेहड़ी-पटरी आदि के लिए उदारतापूर्वक कर्ज जरूर दिए जा रहे हैं, लेकिन आकांक्षी वर्गों की महत्वाकांक्षाएं इस तरह के रोजगारों से कहीं अधिक की हैं। विकसित भारत के विजन के रूप में जिस नई अर्थव्यवस्था की बात की गई थी, वह अभी भी बहुत दूर है।
दूसरी तरफ, विपक्ष ने बेरोजगारी को अपना मुख्य चुनावी मुद्दा बना लिया है। कांग्रेस के घोषणा-पत्र में केंद्र सरकार में स्वीकृत पदों पर 30 लाख रिक्तियों को भरने, सरकारी विभागों और सार्वजनिक उपक्रमों में संविदा कर्मचारियों को नियमित करने और अग्निवीर योजना को खत्म करने सहित कई वादे किए गए हैं। हालांकि इस बात पर कोई स्पष्टता नहीं है कि कांग्रेस सरकारी खजाने पर इस अतिरिक्त बोझ को कैसे वहन करेगी, जिससे यह आशंका बढ़ रही है कि ये वादे भी कहीं कागजों पर ही न रह जाएं। बिहार और यूपी में पिछले कुछ वर्षों में कई बार तब हिंसा भड़की है, जब नौकरी के इच्छुक उम्मीदवार पेपर लीक और सरकारी भर्तियों को अचानक रद्द करने के विरोध में सड़कों पर उतर आए थे। बढ़ती बेरोजगारी को लेकर गुस्सा साफ है और यह हर जगह उबल रहा है, खासकर हिंदी पट्टी में। 4 जून के बाद निर्मित होने वाली सरकार इनको अनदेखा करके अपना ही नुकसान करेगी।