31-01-2020 (Important News Clippings)

Afeias
31 Jan 2020
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Date:31-01-20

We’re gridlocked

From Bengaluru to Delhi, traffic congestion is sapping our cities and spirits

TOI Editorials

Illustrating the heavy traffic congestion on Indian roads, a report released by a major global location technology specialist has ranked three Indian cities in the top five among 416 cities across 57 countries, for having the worst traffic gridlocks. The ninth edition of TomTom Traffic Index for 2019 has Bengaluru topping the list with Mumbai and Pune in fourth and fifth positions respectively. Delhi comes in eighth, marking an improvement from its fourth position a year ago. Highlighting the plight of commuters in Bengaluru, drivers in the southern tech city spent an average of 71% extra time on the road due to congestion. This translates into Bengaluru residents spending an extra 10 days and three hours driving in peak hours.

Traffic congestion hurts the quality of life, reduces productivity and saps the economic potential of our cities. This gridlock is the result of poor urban planning and public transportation shortfalls, which in Bengaluru have led to an explosion in vehicle population from 50.5 lakh in 2014 to more than 80 lakh in 2019. The subpar bus service and tardy pace of metro rail expansion have made India’s Silicon Valley a commuting nightmare.

The story isn’t very different in other urban centres like Delhi where the metro service may be a lifesaver but lack of adequate buses continues to hobble commuters. Mumbai’s urban rail service still caters to millions but hasn’t been modernised anywhere near potential. In the long term of course we simply need more cities across the country, relieving the pressure on existing ones. But as the Amaravati fiasco shows, the project of building new cities is mired in bureaucracy, land acquisition struggles and above all politics. This must change, otherwise the promise of Indian cities serving as engines of economic growth will remain significantly unmet.


Date:31-01-20

खुशी और गम के बीच झूल रहा है भारत का विकास

संपादकीय

एक व्यापक अध्ययन के अनुसार पिछले पांच वर्षों में सात प्रमुख सेक्टरों में 3.64 करोड़ लोग बेरोजगार हुए, जबकि भारत में हर साल 1.2 करोड़ नए लोग रोजगार के बाजार में खड़े हो जाते हैं। युवा भारत की यह एक डरावनी तस्वीर पेश करता है। लेकिन, दूसरी ओर जब वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की मुखिया बताती हैं कि भारत की आर्थिक सुस्ती अस्थायी है और जल्द ही देश इससे निकल जाएगा तो कुछ तसल्ली मिलती है। इसी संस्था ने पिछले अक्टूबर में भारत सहित पूरी दुनिया में आर्थिक सुस्ती के स्पष्ट संकेत दिए थे। एक अन्य संस्था ब्लूमबर्ग ने भी बताया है कि भारत ने पिछले माह में विनिर्माण और सेवा क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन किया है। वर्तमान सुस्ती के जल्द ही खत्म होने के आसार हैं। जहां एक ओर अर्थशास्त्रियों का एक वर्ग भारत के विकास को लेकर बहुत आशान्वित नहीं है, वहीं एक अन्य वर्ग सकारात्मक तस्वीर पेश करता है। सामान्य जनता में एक भ्रम की स्थिति है। वह भले यह न समझ पा रही हो कि जीडीपी ग्रोथ का उसकी जिंदगी से कितना सीधा संबंध है, लेकिन रोजमर्रा की चीजों की खुदरा कीमतों में वृद्धि से उसकी स्थिति बदतर हो रही है। बेटे की लगी नौकरी हाथ से चले जाने या जवान इंजीनियर बेटे को नौकरी न मिलने का दंश उसे डरा रहा है। आगामी बजट में कंपनियों को टैक्स में छूट देने का दबाव बढ़ रहा है। लेकिन, पिछले कई बजट में पाया गया है कि ऐसी छूट से कुछ दिन के लिए सेंसेक्स भले ही उछाल मारे पर इससे न तो उद्योगों का विस्तार होता है आैर न ही रोजगार के अवसर बढ़ते हैं। अगर किसानों को या सामान्य वर्ग को राहत मिलती है तो उससे देश की आबादी में दो-तिहाई मध्यम व निम्न-मध्यम वर्ग की क्रय शक्ति बढ़ती है। नतीजतन सूक्ष्म, लघु व मध्यम उद्योग (एमएसएमई) को काम मिलता है, जिससे रोजगार तत्काल बढ़ते हैं। रोजी पाने वाले लोग भी उपभोक्ता सामान खरीदने लगते हैं। यानी अर्थव्यवस्था में एक चेन-रिएक्शन शुरू होता है। शायद वर्तमान आर्थिक संकट से निकलने का सबसे सुगम रास्ता यही है। बड़े उद्योगों के मुकाबले एमएसएमई सेक्टर में निवेश आठ गुना नौकरियां पैदा करता है। ऐसे संकेत हैं कि वर्तमान सरकार आगामी बजट में किसानों और मध्यम वर्ग के लिए राहत का मार्ग चुनेगी।


Date:31-01-20

पद की गरिमा

संपादकीय

केरल विधानसभा में राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान के साथ जैसा व्यवहार किया गया उसे संसदीय अभद्रता ही कहा जाएगा। पहले तो उन्हें वह अभिभाषण पढ़ने के लिए विवश किया गया जो संवैधानिक मर्यादा के अनुकूल नहीं था और फिर उनके खिलाफ विपक्षी सदस्यों की ओर से नारेबाजी भी कराई गई। सत्तापक्ष और विपक्ष के ऐसे दुराचरण के बाद भी राज्यपाल ने जिस तरह अभिभाषण का वह हिस्सा पढ़ा जिस पर उन्हें आपत्ति थी उससे उन्होंने अपने पद की गरिमा ही बढ़ाई। राज्य सरकार को इसका गुमान हो सकता है कि उसने राज्यपाल को नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए विरोधी अभिभाषण पढ़ने के लिए बाध्य किया, लेकिन वह उनकी असहमति की अनदेखी नहीं कर सकती जो उन्होंने सदन में ही दो टूक शब्दों में व्यक्त की। इसके पहले केरल विधानसभा सीएए के विरोध में एक प्रस्ताव भी पारित कर चुकी है।

संवैधानिक तौर-तरीकों को धता बताकर पारित किए गए इस प्रस्ताव पर कांग्रेस ने सत्तारूढ़ वाम दलों के साथ खड़े होना पंसद किया था। ऐसा ही प्रस्ताव पश्चिम बंगाल विधानसभा ने भी पारित किया और उस दौरान कांग्रेस और वाम दलों ने सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस का साथ दिया। इस पर हैरानी इसलिए नहीं, क्योंकि सीएए के विरोध में सबसे अधिक सक्रिय कांग्रेस, वाम दल और तृणमूल कांग्रेस ही है। यह महज दुर्योग नहीं कि इन्हीं दलों का जनाधार तेजी से खिसकता जा रहा है।

यह हास्यास्पद है कि विपक्षी दल एक ओर संविधान एवं लोकतंत्र की दुहाई देने में लगे हुए हैं और दूसरी ओर संवैधानिक मर्यादा को तार-तार भी कर रहे हैं। अब तो वे राज्यपाल सरीखे संवैधानिक पद का भी निरादर करने में जुट गए हैं। जहां केरल सरकार ने सीएए के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाने के पहले राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान को सूचित करना जरूरी नहीं समझा वहीं बंगाल सरकार राज्यपाल जगदीप धनखड़ को कदम-कदम पर अपमानित करने का अभियान छेड़े हुए है। विगत दिवस कलकत्ता विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में उनसे नोबेल विजेता अभिजीत बनर्जी को दिए जाने वाले सम्मान पत्र पर हस्ताक्षर कराने के बाद उन्हें मंच तक नहीं जाने दिया गया।

क्या यह राज्यपाल के साथ की जानी वाली खुली अभद्रता नहीं? आखिर ऐसी अभद्रता को बढ़ावा दे रहे दल किस मुंह से संविधान की बात कर रहे हैं? यदि विपक्षी दल और खासतौर पर कांग्रेस यह समझ रही है कि अराजकता का माहौल बनाकर वह अपने राजनीतिक हित साध सकती है तो यह उसकी भूल है। मुट्ठी भर लोगों के जरिये अराजकता फैला रहे राजनीतिक दलों को यह पता होना चाहिए कि देश उनकी इस अराजक राजनीति को अच्छी तरह देख रहा है और वह चुप नहीं बैठने वाला।


Date:31-01-20

धरती को बचाना है तो लाइफस्टाइल बदलिए

अनिल पी जोशी

ऊर्जा के सीमित उपयोग के लिए आयोजित अंतरराष्ट्रीय गोष्ठियां आमतौर पर औपचारिकताओं में ही निपटा ली जाती हैं। दुनिया में कोई भी ऐसा देश नहीं है जो अपने हिस्से के विकास को रोकना चाहता हो। कोई भी कार्बन उत्सर्जन पर अंकुश नहीं लगाना चाहता क्योंकि दुनिया में आज भी कोयला ही उर्जा का सबसे बड़ा स्रोत है। कम से कम आने वाले दो-तीन दशकों में हम कोयला का विकल्प तैयार नहीं कर पाएंगे। यही वजह है कि वह चाहे पैरिस का समझौता हो या फिर क्योटो में लिए गए निर्णय, हम उन पर आज तक अमल नहीं कर पाए हैं।

वैसे दुनिया में कोयले की खपत में कुछ हद तक कमी आई है। आज पूरी उर्जा का 42 प्रतिशत कोयले से आता है। अगर दुनिया के आंकड़ों को देखें तो वर्ष 2010 में कोयले पर आया खर्च 134 अरब डॉलर था, जबकि वर्ष 2018 में इस पर 80 अरब डॉलर का खर्च हुआ। पर भारत में तस्वीर नहीं बदली। यहां वर्ष 2010 में कुल खर्च करीब 6 अरब डॉलर था, जो 2018 में 8 अरब डॉलर हो गया। चीन ने जरूर इस मामले में तत्परता दिखाई। वह कोयले की खपत के मामले में काफी आगे था, लेकिन अब उसने इसे नियंत्रित किया है। वहां वर्ष 2010 में कोयले पर 50 अरब डॉलर खर्च हुए लेकिन 2018 तक उसने यह खर्च 30 अरब डॉलर पर ला दिया। जाहिर है चीन ने वैश्विक समझौतों का थोड़ा-बहुत सम्मान किया है, लेकिन अभी बहुत कुछ और करना बाकी है। वहां 2019 में कार्बन उत्सर्जन को कम करने की जो भी तैयारी हुई वह संतोषजनक नहीं है। भारत में गत वर्ष 1.8 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन बढ़ा है, जो वर्ष 2018 की तुलना में कम है। दुनिया के बड़े देशों की ऊर्जा आवश्यकताएं लगातार बढ़ रही हैं। लेकिन उन्हें इसकी भरपाई के रूप में कुछ न कुछ योगदान करना चाहिए ताकि इससे एकत्रित फंड से संयुक्त राष्ट्र विकासशील देशों को राहत दे सके।

दुर्भाग्य यह है कि बड़े देश इस तरह के योगदान से सीधे कतरा जाते हैं। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, सऊदी अरब जैसे मुल्क किसी भी तरह की भागीदारी से अब पीछे हट रहे है। अमेरिका और ब्राजील के राष्ट्रपतियों ने तो साफ कह दिया है कि जलवायु परिवर्तन जैसा कोई मुद्दा है ही नहीं। उसका एक कारण यह भी हो सकता है कि उन राष्ट्रों का नेतृत्व वर्ग किसी न किसी उद्योग का हिस्सा होता है या उससे लाभान्वित होता है। इसलिए वह ऐसे निर्णय के साथ नहीं होता जिससे उसके व्यक्तिगत हित पर चोट पहुंचे।

शहरीकरण और औद्योगीकरण के कारण भारत में ऊर्जा की मांग में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है, जिसे पूरा करने का सबसे अधिक दबाव कोयला चलित ताप विद्युत संयंत्रों पर है। यही वजह है कि ये ताप विद्युत संयंत्र देश में सबसे बड़े कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जक बन गए हैं। भारत विश्व का तीसरा सबसे बड़ा कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जक है। भारत कार्बन उत्सर्जन से होने वाले सामाजिक-आर्थिक नुकसान के मामले में विश्व में पहले स्थान पर है। एक टन कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन पर भारत को 86 डॉलर का नुकसान वहन करना पड़ता है। वहीं, 48 डॉलर प्रति टन के नुकसान के साथ अमेरिका दूसरे स्थान पर है।

भारत में विद्युत उत्पादन की मांग पर नजर डालने पर मालूम होता है कि यह प्रतिवर्ष 6.67 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है, जबकि उत्पादन में वृद्धि 5.78 प्रतिशत की दर से हो रही है। हमारे देश में उत्पादन के 30 प्रतिशत से ज्यादा हिस्से की बर्बादी बिजली को गंतव्य तक पहुंचाने में ही हो जाती है। यही वजह है कि मांग और उत्पादन में इतने कम फर्क के बावजूद पर्याप्त बिजली की सप्लाई नहीं हो पाती है। भारत विद्युत ऊर्जा के उत्पादन में विश्व में तीसरे स्थान पर है जबकि चीन और अमेरिका क्रमशः पहले और दूसरे स्थान पर आते हैं। भारत सरकार ने देश में कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन के बढ़ते स्तर और पैरिस समझौता द्वारा तय किए गए मानकों को गंभीरता से लेते हुए वर्ष 2030 तक इसमें 33 से 35 प्रतिशत तक कमी लाने का लक्ष्य रखा है। इसकी पूर्ति के लिए स्वच्छ ऊर्जा के उत्पादन को बढ़ावा देने के साथ ही कोयला आधारित विद्युत संयंत्रों पर निर्भरता को क्रमिक रूप से कम करने का फैसला किया है। सरकार ने मार्च 2022 तक स्वच्छ ऊर्जा में 175 गीगावाट तक की वृद्धि का लक्ष्य निर्धारित किया है जिसमें 100 गीगावाट सौर, 60 गीगावाट पवन और 15 गीगावाट अन्य स्रोतों से पूरा करने का लक्ष्य है।

आज खाद्य सुरक्षा सबसे बड़ा मुद्दा है। एक अध्ययन के अनुसार यह पाया गया है कि अगर ऊर्जा की खपत इसी तरह बढ़ती चली गई तो बढ़ते कार्बन डाई ऑक्साइड के कारण दुनिया में 17 करोड़ लोग सीधे खाद्य असुरक्षा के शिकार हो जाएंगे। इनमें भारत के भी लोग होंगे। जलवायु परिवर्तन का भारत पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ने वाला है। यहां लगभग 65 प्रतिशत कृषि वर्षा पर ही निर्भर है और अगर वातावरण में इस तरह के बदलाव आए तो खेती बुरी तरह प्रभावित होगी।

कार्बन डाई ऑक्साइड के बढ़ते स्तर के कारण वातावरण में तापक्रम बढ़ेगा और इसका सीधा असर ग्लेशियरों पर भी पड़ेगा। एक अनुमान है कि वर्ष 2021 तक अगर हालात यही रहे तो दुनिया में ग्लेशियर तीव्रगति से पिघलेंगे और समुद्र तल में तेजी से वृद्धि होगी। अंतरराष्ट्रीय चर्चाओं से बहुत कुछ हासिल नहीं होता। सच तो यह है कि अब हमें अपने ही स्तर पर समस्या को समझकर अपने को बढ़ते प्रदूषण से और बिगड़ती परिस्थितियों से बचाना होगा। यह तभी संभव है जब हम अपनी आदतें बदलें और नई जीवन पद्धति को अपनाने के लिए तैयार रहें। हमें वर्तमान की कई सुख-सु‌विधाएं छोड़ने के लिए भी तैयार रहना होगा।


Date:31-01-20

विभाजनकारी हो सकता है उत्तर-दक्षिण का अंतर

राष्ट्रीय सौहार्द बरकरार रखने के लिए आवश्यक है कि राजस्व आवंटन तथा संसदीय सीटों की संख्या निर्धारित करने के मामले में सन 1971 की जनगणना को ही मानक बनाए रखा जाए। बता रहे हैं जैमिनी भगवती

जैमिनी भगवती

सन 1990 के दशक के आरंभ में आर्थिक सुधारों की शुरुआत होने के बाद के तीन दशकों में दक्षिण भारत के राज्यों की प्रति व्यक्ति आय में उत्तर भारत के बड़े राज्यों की तुलना में ज्यादा इजाफा हुआ है। सन 1990-91 में कर्नाटक की प्रति व्यक्तिआय बिहार और उत्तर प्रदेश की प्रति व्यक्ति आय की तुलना में क्रमश: 1.7 और 1.3 गुना ज्यादा थी। वर्ष 2017-18 तक यह अंतर बढ़कर 4.7 और 3.3 गुना हो चुका था। यह सिलसिला जारी है। एक के बाद एक वित्त आयोगों द्वारा किए गए कर राजस्व आवंटन की बात करें तो यह निरपवाद रूप से विभिन्न राज्यों की आबादी से संबंधित रहा है। उदाहरण के लिए 14वें वित्त आयोग के विचारणीय विषयों में कहा गया है कि जहां करों के बंटवारे तथा अन्य अनुदान देने की बात हो वहां आयोग को आमतौर पर सन 1971 की आबादी के आधार को निर्धारक मानना चाहिए। हालांकि कहा यह भी किया गया कि आयोग सन 1971 के बाद आबादी के स्वरूप में आए बदलाव को भी ध्यान मेंं रख सकता है।

14वें वित्त आयोग की रिपोर्ट के खंड 8 का शीर्षक है ‘केंद्रीय कर राजस्व की साझेदारी’ और इसमें कहा गया है कि ‘हालांकि हमारा मानना है कि आबादी के पुराने आंकड़ों का इस्तेमाल करना उचित नहीं है लेकिन हम विचारणीय विषयों के दायरे से बंधे हुए हैं।’ व्यक्तिगत स्तर पर राज्य सरकारों और केंद्र सरकार के बीच कर राजस्व की साझेदारी को लेकर मतभेद रहे हैं। 15वें वित्त आयोग के विचारणीय विषयों में बदलाव करके कहा गया है कि राज्यों को आवंटन के पहले कुल राजस्व के एक हिस्से को बाहरी रक्षा और आंतरिक सुरक्षा पर होने वाले व्यय के लिए अलग किया जाना चाहिए। कुछ राज्य सरकारों ने इसकी जमकर आलोचना की। अब यह स्पष्ट हो चुका है कि आयोग के विचारणीय विषयों में चुनिंदा बदलाव करना आवश्यक था।

अतीत में वित्त आयोगों ने देश की सुरक्षा को खतरे को केंद्र और राज्यों के बीच संसाधनों का आवंटन करते समय ध्यान में रखा था। अभी हाल ही में राज्यों ने यह मांग की कि उन्हें उन उपकरों और अधिभार में से हिस्सा मिलना चाहिए जो केंद्र सरकार ने एकत्रित किए हैं। हालांकि संविधान में उल्लिखित मौजूदा प्रावधानों के मुताबिक अभी केंद्र सरकार ऐसे राजस्व को पूरी तरह अपने पास रख सकता है। दिसंबर 2019 में जब जीएसटी परिषद में असहमति बनी और लॉटरी पर कराधान को लेकर एक निर्णय पर मतदान हुआ तो ऐसा पहली बार हुआ क्योंकि इससे पहले जीएसटी परिषद के तमाम निर्णय आम सहमति से हुए थे।

15वें वित्त आयोग के विचारणीय विषयों में यह भी कहा गया है कि ‘उसे अपनी अनुशंसाएं करते समय सन 2011 की आबादी के आंकड़ों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए।’ सन 2011 की जनसंख्या के आंकड़ों का इस्तेमाल करने के बाद भी देखें तो भी उत्तर भारत के राज्यों में प्रति व्यक्ति आय, दक्षिण भारत के राज्यों की प्रति व्यक्ति आय की तुलना में कम थी। इसका परिणाम 15वें वित्त आयोग द्वारा उत्तर भारत के राज्यों को किए जाने वाले राजस्व आवंटन में इजाफे के रूप में सामने आ सकता है।

जाहिर है आवंटित राशि 14वें वित्त आयोग द्वारा आवंटित राशि की तुलना में अधिक होगी। जाहिर है इससे देश के दक्षिणी हिस्से में मौजूद राज्यों में काफी असंतोष उत्पन्न हो सकता है। मेरी समझ यह कहती है कि सन 1971 की आबादी के आंकड़ों को वित्त आयोग द्वारा किए जाने वाले आवंटन से जोडऩा उत्तरी भारत के राज्यों के साथ गलत व्यवहार नहीं होगा। यदि उत्तर भारत के बड़े राज्य बेहतर विकास प्रबंधन करने में सफल रहते तो उनकी आबादी में तेज इजाफा शायद उनके लिए लाभप्रद साबित होता। राज्यों के साथ ‘निष्पक्ष’ व्यवहार किया जाना चाहिए लेकिन अतीत का कमजोर आर्थिक प्रदर्शन उनके बीच प्राथमिकता देने वाले और पक्षपात करने वाले व्यवहार का कारण नहीं होना चाहिए।

चाहे जो भी उत्तर प्रदेश और बिहार के अनेक लोग अस्थायी या स्थायी तौर पर उच्च प्रति व्यक्ति आय वाले राज्यों में रहने चले जाते हैं। संभव है कि उक्त तरीका जो 14वें वित्त आयोग की रिपोर्ट में उल्लिखित है, उसे 15वें वित्त आयोग द्वारा अपना लिया जाए। खासतौर पर यह देखते हुए कि आबादी के भार और जनांकीय बदलाव के संकेतकों को अलग-अलग पेश किया जाना चाहिए। पिछले कुछ समय से दक्षिण भारत के राज्यों में इस बात को लेकर चिंता का वातावरण रहा है कि नए सिरे से परिसीमन की कवायद होने के बाद कैसे लोकसभा में उनकी सीटों की तादाद में कमी आएगी। सन 2002 में हुए 84वें संविधान संशोधन के अनुसार संसदीय क्षेत्रों का यह पुनर्आवंटन सन 2031 की जनगणना के मुताबिक किया जाना चाहिए (इंडियाज इमर्जिंग क्राइसिस, लेखक: मिलन वैष्णव और जेमी हिंटसन)।

अटकल यह है कि दक्षिण भारत को लोकसभा सीट के मामले में उत्तर भारत के हाथों 45 सीटों का नुकसान हो सकता है। स्पष्ट है कि दक्षिण के राज्यों को यह बात कतई स्वीकार्य नहीं होगी। केंद्र सरकार के मौजूदा इरादों को लेकर अशांत होने की वजह नहीं है। बहरहाल, हकीकत यह है कि 15वें वित्त आयोग द्वारा 2011 की जनगणना के आधार पर राज्यों को धन आवंटित करने की बात से अवश्य राज्यों में चिढ़ पैदा हो सकती है। अब से 10 वर्ष बाद यानी 2031 में यदि दक्षिण भारत के राज्यों की लोकसभा सीट कम की जाती हैं तो उनमें भारी नाराजगी पैदा होगी। हालांकि कम प्रति व्यक्ति आय वाले उत्तर भारत के राज्यों की प्रतिक्रिया में भी कोलाहल सुनाई पड़ सकता है। ऐसे में राष्ट्रीय सौहार्द के लिए बेहतर यही होगा कि अगले तीन दशक तक एक बार फिर संसद सदस्यों की तादाद और संसाधनों का आवंटन, दोनों मामलों में सन 1971 की जनगणना को ही मानक रखा जाए।


Date:30-01-20

चीते की फिक्र

संपादकीय

जिन वन्यजीवों के सामने जीवन-स्थितियां चुनौतीपूर्ण हैं और जिनके कम या लुप्त होने के खतरे मंडरा रहे हैं, उनके संरक्षण के लिए सरकारी कवायदों में कमी नहीं है। इसके बावजूद कई ऐसे पशु-पक्षी हैं, जो धीरे-धीरे विलुप्ति की कगार पर पहुंच चुके हैं। यों बाघ और शेर सहित कई अन्य वन्यजीवों के मामले में राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक अभियान चले हैं और इस वजह से उनकी संख्या में गिरावट पर कुछ हद तक नियंत्रण पाया गया है, लेकिन दुर्लभ प्रजाति के भारतीय चीते जैसे कुछ पशुओं को लेकर इस तरह की चिंता अभी सामने नहीं आई है। यही वजह है कि इसके सामने विलुप्त होने का खतरा ज्यादा है। इसके मद्देनजर राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण यानी एनटीसीए ने सुप्रीम कोर्ट में आवेदन दायर कर नामीबिया से अफ्रीकी चीता लाने की अनुमति मांगी थी।

मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने प्राधिकरण की मांग पर सकारात्मक रुख जाहिर किया और केंद्र सरकार को अफ्रीकी चीते को भारत में उचित प्राकृतिक वास तक लाने की इजाजत दे दी। अदालत ने अपनी निगरानी में काम करने वाली तीन सदस्यों की एक समिति का गठन किया है, जो इस मुद्दे पर फैसला लेने में एनटीसीए का मार्गदर्शन करेगी। विलुप्त होने के खतरे सामना कर रहे भारतीय चीते के लिए जताई जाने वाली चिंता से आगे निश्चित रूप से यह एक व्यावहारिक फैसला है, लेकिन सवाल है कि आखिर तब क्या किया जा रहा था जब इस दुर्लभ प्रजाति के पशु की जीवन-स्थितियों के सामने संकट गहरा रहा था!

हालांकि शीर्ष अदालत के सामने यह यह दलील दी गई कि अफ्रीकी चीते को उचित वास तक लाने का काम फिलहाल प्रायोगिक तौर पर किया जाएगा, ताकि इस बात का आकलन किया जा सके कि वे भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल ढल पाते हैं या नहीं। इस पक्ष पर ज्यादा गंभीरता से काम करने की जरूरत इसलिए भी है कि दुनिया की अलग-अलग जलवायु में रहने वाले जीवों की प्रकृति अपनी पर्यावरण स्थितियों के अनुकूल होती है और दूसरी जगहों पर ले जाए जाने पर उनकी मौत तक हो जा सकती है। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि वन्यजीवों के संरक्षण से संबंधित कानूनों को धता बताने और इंसानी बस्तियों के विस्तार के साथ-साथ वन क्षेत्रों का दायरा छोटा होते जाने से लेकर पर्यावरण में तेजी से बदलाव की वजह से पहले ही अनेक जंगली जीवों के अस्तित्व के सामने चुनौतियां गहरा रही हैं।

कुछ समय पहले सामने आए एक शोध अध्ययन में यह बताया गया था कि पिछली सदी की शुरुआत में समूची दुनिया में लगभग एक लाख चीते थे। लेकिन आज घटते हुए इनकी संख्या सात हजार से भी नीचे आ चुकी है। यहां तक कि जिस अफ्रीकी देश केन्या के मासीमारा को चीतों का गढ़ माना जाता है, वहां भी इनकी तादाद में अनुमान से ज्यादा गिरावट पाई गई। यह विडंबना देश के लगभग हर क्षेत्र में कायम दिखती है कि जब तक किसी समस्या का स्तर गहराते हुए चिंता के गंभीर पैमाने तक नहीं पहुंच जाता है, तब तक संबंधित महमकों की नींद नहीं खुलती।

वन्यजीवों की दुनिया पर नजर रखने वालों और पर्यावरणविदों की ओर से लगातार समय-समय पर ऐसी अध्ययन रिपोर्ट जारी की जाती हैं, जिसमें विलुप्ति के खतरे का सामना करने वाले जीवों को लेकर व्यापक सुझाव होते हैं। लेकिन मुश्किल यह है कि इन पर समय रहते गौर नहीं किया जाता। यह बेवजह नहीं है कि भारत सहित दुनिया भर में कई ऐसे वन्यजीवों का अस्तित्व खतरे में है या कई विलुप्त भी हो गए, जिन्हें बचाया जा सकता था।


Date:30-01-20

A mindset problem

The government should use the MGNREGS as a means to spur the rural economy

Editorial

It needs no reiteration that the Mahatma Gandhi National Rural Employment Guarantee Scheme (MGNREGS) has acted as insurance for landless labourers during crop failures, agrarian crises and periods of a stressed economy. With the ongoing economic slowdown resulting in depressed rural wages and the lack of adequate opportunity to work, the MGNREGS has provided much needed succour and this explains why demand for it has peaked in the last few months across various parts of the country. The report that 15 States have already overshot budgets for the scheme’s implementation and many have not been able to pay wage dues should be a cause for concern. Compounding the situation is the fact that the Centre is on the verge of running out of funds. This problem was not unexpected. While in absolute terms, the allocations for the scheme in the budget presented in July 2019 were higher compared to the previous financial year, the outlay fell in relative terms as a percentage of the overall allocations. The outlay was also lower than the actual expenditure in the previous year, which indicated the importance of the scheme in arresting rural distress.

MGNREGS has been in place for more than a decade. The present Central government’s approach has been to treat it as a secondary scheme that cannot be done away with. Several studies have pointed to its effect on the lives of the rural poor by providing employment in the agricultural off-season, offering alternative jobs during years of lean agricultural growth and as a safety net during crop failures. Researchers have also found that a large proportion of those availing the scheme are from the 18-30 age group, which suggests that this has addressed the problem of youth unemployment, which according to official statistics has peaked in recent years. Besides, other studies have also shown that MGNREGS has improved agricultural productivity where it has been implemented properly. The scheme, by now, should have been an ideal vehicle for rural development and not just a fallback option. It could also involve rural workers in skilled work and pay them more wages for asset creation beyond just roads, wells and check-dams. A change in mindset is therefore key in not just tiding over problems such as funding and wage-delays, but also in using them as an opportunity to address the slowdown. Economists have pointed to a slowing of rural consumption, which has also dragged down the economy. By paying wages adequately, and on time, to rural workers, the government could allow for more spending and consumption and stimulate the economy. A more meaningful allocation for the scheme in the budget is therefore a much needed imperative.