30-10-2019 (Important News Clippings)
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कश्मीर पर अब पाकिस्तान का खेल खत्म
पडोसी देश की विदेशी नीति का भट्ठा बैठा,प्रधानमंत्री इमरान खान के खिलाफ मुहीम शुरू
वेदप्रताप वैदिक, (भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष)
यूरोपीय संघ के 27 सांसद कश्मीर में हैं, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सऊदी अरब में हैं, पाकिस्तान में इमरान खान के खिलाफ जबर्दस्त मुहिम शुरू हो ही चुकी है और इस्लामी स्टेट का सरगना बगदादी मारा गया है। इस सभी खबरों का कुलजमा असर क्या है? क्या यह नहीं कि पाकिस्तानी विदेश नीति या यूं कहें कि पाकिस्तान की भारत नीति का भट्ठा बैठ गया है? पाकिस्तानी विदेश नीति भारत नीति के अलावा क्या है? भारत से कश्मीर कैसे छीनना, भारत से बांग्लादेश का बदला कैसे लेना, हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत को नीचा कैसे दिखाना, भारत की बराबरी करना- यही पाकिस्तान की विदेश नीति का मुख्य लक्ष्य रहा है। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए पाकिस्तान किसी भी हद तक जाने को तैयार है। उसे जिससे भी हाथ मिलाने की जरूरत हो, वह उसके गले पड़ने को भी तैयार रहता है। फिर चाहे यह अमेरिका हो, चीन हो, सऊदी अरब हो या ब्रिटेन हो।
भारत ने ज्यों ही 5 अगस्त को कश्मीर के भारत में पूर्व विलय की घोषणा की और अनुच्छेद 370 व 35 ए को विदा किया, बेचारे इमरान खान पर मुसीबत का पहाड़ टूट पड़ा। संयुक्त राष्ट्र ने सारे मामले का संज्ञान तो लिया, लेकिन वह तटस्थ ही रहा। कश्मीर भारत का आंतरिक मामला है, इस पर ठप्पा लगता गया। चीन ने विरोध जरूर किया लेकिन, उसका जोर उसके दावे वाले लद्दाख के हिस्से के केंद्रीय क्षेत्र बनने पर रहा। चीनी नेता शी जिनपिंग ने भारत यात्रा के दौरान अपने रवैए को पहले से भी पतला कर दिया। चीन के अस्पष्ट समर्थन के बदले इमरान को चीन के उइगर मुसलनामों पर हो रहे जुल्मों पर चुप्पी साधनी पड़ी।
पाकिस्तान के लिए सबसे बड़ा धक्का यह रहा कि कश्मीर पर सबसे बड़े इस्लामी देश सऊदी अरब ने भारत का साथ दिया। संयुक्त अरब अमीरात ने भी साथ दिया। ज्यादातर मुस्लिम देश चुप रहे। सिर्फ तुर्की और मलेशिया ने भारत के विरुद्ध थोड़ा मुंह खोला, लेकिन भारत ने इन दोनों को करारा जवाब दिया। मोदी ने अपनी तुर्की यात्रा स्थगित कर दी और मलेशिया से उसके तेल का आयात बंद कर दिया। अब सऊदी अरब के साथ सामरिक भागीदारी का जो समझौता हो रहा है, वह पाकिस्तान के पसीने छुड़ाने के लिए काफी है। यह ठीक है कि इस्लामी देश होने के कारण सऊदी अरब से पाकिस्तान के संबंध घनिष्ठ बने रहेंगे लेकिन, पाकिस्तान की तरह भारत उसके सामने याचक मुद्रा में खड़ा नहीं होगा।
कश्मीर पर भारत ने ऐतिहासिक कदम ऐसे वक्त पर उठाया है, जबकि पाकिस्तान आंतरिक मुसीबतों में बुरी तरह फंसा हुआ है। उसकी सबसे बड़ी मुसीबत तो अंतरराष्ट्रीय वित्तीय टास्क फोर्स ने कर रखी है। उसे वह कब काली सूची में डाल देगा, कुछ पता नहीं। पाकिस्तान पर दबाव है कि वह आतंकियों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाए। इमरान की क्या बिसात कि वह फौज के इन प्रेमियों पर हाथ डाल सके। वे खुद के शिकंजे में फंसे हुए हैं। पाकिस्तान के लोग अपने उसी नेता को सलाम बजाते हैं, जो भारत को तंग करता हुआ दिखाई पड़ता है। वह चाहे फौजी हो या चुना हुआ प्रधानमंत्री हो। इमरान भारत को तंग तो क्या कर पा रहे हैं, वे खुद ही बहुत तंग हो रहे हैं। पाकिस्तान के सारे प्रमुख विरोधी दल अब एकजुट होकर ‘इमरान हटाओ’ का नारा बुलंद कर रहे हैं। जमीयत के नेता फजलुर रहमान के इस आंदोलन में बिलावल भुट्टो और नवाज़ शरीफ की पार्टी भी शामिल हो गई है। इमरान को उम्मीद थी कि तालिबान से पिंड छुड़ाने और अफगानिस्तान से निकल भागने की खातिर अमेरिका पाकिस्तान का पक्ष लेगा, लेकिन कश्मीर के सवाल पर अमेरिका सिर्फ मानव अधिकार की बात कहकर चुप हो जाता है। अब तो बगदादी का सफाया करके अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने पाकिस्तान को फिर नया संदेश दिया है। वह दशहतगर्दी को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करेगा।
ऐसा लगता है कि विदेशों में रहने वाले पाकिस्तानी नागरिक अभी तक इस नई अंतरराष्ट्रीय हवा को छू नहीं पाए हैं, इसलिए वे लंदन और वाशिंगटन में कश्मीर के सवाल पर अब भी प्रदर्शन और धक्का-मुक्की करते रहते हैं। कल लंदन में हुए प्रदर्शन में 40 हजार लोगों के आने का एलान हुआ था, लेकिन पांच हजार भी नहीं आए। मैं लंदन के एक पाकिस्तानी मुशायरे में शामिल हुआ। वहां हुए हर भाषण और गजल-पाठ में कश्मीर का रोना रोया गया। मेरे पिछले पखवाड़े के लंदन प्रवास के दौरान कई पाकिस्तानी पत्रकारों ने पूछा कि आपने कश्मीरियों की जुबान पर ताले क्यों लगा रखे हैं। मैंने कहा कि मैं भी उसके खिलाफ हूं, लेकिन आपसे पूछता हूं कि जुबान चलाना ज्यादा जरूरी है या जीवन चलाना? कुछ कश्मीरी नेताओं को तत्काल जुबान चलाने की छूट दे दी जाती तो पता नहीं कितने कश्मीरियों का जीवन चला जाता। खून की नदियां बह जातीं। कश्मीरियों से पूछिए कि उन्हें क्या प्यारा है? जुबान प्यारी है या जान प्यारी है?
अब जबकि स्कूल, कॉलेज और बाजार खुल गए हैं, इंटरनेट और फोन चल रहे हैं, ऐसे में यूरोपीय देशों के सांसदों को कश्मीर दिखाने की हिम्मत सरकार ने की है। उसे चाहिए कि अब वह भारतीय नेताओं और पत्रकारों को भी कश्मीर जाने की छूट दे। जेल में बंद कश्मीरी नेताओं को भी छोड़ें। कश्मीर पर दुनिया के रवैये से पाकिस्तान का मनोबल टूट चुका है। उसके फुलाए हुए गुब्बारे अब कश्मीर में कैसे उड़ेंगे?
इसमें शक नहीं कि पिछले लगभग तीन महीने कश्मीर में जितनी कम खूंरेजी हुई है, वह विलक्षण है। अब ज्यों-ज्यों छूट मिल रही है, आतंकी घटनाएं घट रही हैं। राज्यपाल सत्यपाल मलिक को इतिहास इस बात का श्रेय अवश्य देगा कि इस आपातकाल में आम कश्मीरियों की मदद करने में सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी। जहां तक 35 ए का सवाल है, सरकार को उसका विकल्प ढूंढ़ना होगा। कश्मीर को हमें कश्मीर बनाए रखना है। उसे हमें नोएडा या गाजियाबाद नहीं बना देना है। गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में यह ठीक ही कहा था कि कश्मीर को फिर से राज्य का दर्जा भी दे सकते हैं। यदि कश्मीर लोग आतंकियों के चंगुल में न फंसे और शांतिपूर्वक रहें तो वह दिन दूर नहीं, जबकि पाकिस्तानी कब्जे का कश्मीर और असली कश्मीर मिलकर भारत और पाकिस्तान के बीच सद्भाव का सेतु बन जाएं। दोनों देशों के बीच कश्मीर को खाई बनाए बनाए रखने का पाकिस्तानी खेल अब खत्म हो चुका है।
बगदादी का खात्मा
संपादकीय
दुनिया के सबसे खूंखार और वहशी आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट के सरगना अबू बकर अल बगदादी को सीरिया में मार गिराया जाना एक बड़ी कामयाबी है। चूंकि इस घिनौने आतंकी सरगना को मार गिराने की घोषणा खुद अमेरिकी राष्ट्रपति ने की इसलिए इसके प्रति सुनिश्चित हुआ जा सकता है कि इस बार उसके मारे जाने की सूचना सही है। यह कुछ वैसी ही कामयाबी है जैसी अल-कायदा सरगना ओसामा बिन लादेन को खत्म करके हासिल की गई थी। हालांकि इन दोनों आतंकियों को मार गिराने में तब सफलता मिली जब उनके संगठनों की कमर तोड़ी जा चुकी थी, लेकिन इसके बाद भी उनका खात्मा आवश्यक था। चूंकि इन दोनों आतंकियों ने अमेरिका को सीधी चुनौती दी इसलिए उसने उन्हें घेर कर मारा।
कहना कठिन है कि बगदादी के खात्मे से अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप को घरेलू स्तर पर वैसी राजनीतिक सफलता मिलेगी या नहीं जैसी ओबामा को लादेन के अंत से मिली थी, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि जेहादी आतंकवाद अभी भी दुनिया के तमाम हिस्सों में अपना सिर उठाए है और फिर भी अमेरिका उससे लड़ने के प्रति प्रतिबद्ध नहीं दिखता।
पश्चिम एशिया, अफ्रीका के साथ एशिया के अनेक हिस्सों में किस्म-किस्म के आतंकी संगठन अभी भी रक्त-पात करने में लगे हुए हैं। चिंता की बात यह है कि इनमें से कुछ न केवल भारत के पड़ोस में सक्रिय हैं, बल्कि उन्हें पाकिस्तान की ओर से हर तरह का संरक्षण भी मिल रहा है। इससे भी बड़ी चिंता की बात यह है जैश और लश्कर सरीखे पाकिस्तान आधारित जो आतंकी संगठन भारत पर निगाह लगाए हुए हैं उनके रिश्ते अफगानिस्तान में खून बहा रहे तालिबान से हैं।
यह कोई शुभ संकेत नहीं कि अभी हाल तक अमेरिका तालिबान से समझौता करने को लालायित था। अमेरिका और तालिबान के बीच फिर से बातचीत शुरू होने के आसार अभी भी हैं। अमेरिका के रवैये ने तालिबान को तो बेलगाम किया ही है, उसके संरक्षक पाकिस्तान को भी बल प्रदान किया है। इससे बड़ी विडंबना और कोई नहीं सकती कि अफगानिस्तान में करीब-करीब हर दिन आतंकी धमाके कर रहे तालिबान के सरगना बीते दिनों पाकिस्तान के मेहमान बने।
भारत आतंकियों की इस मेहमाननवाजी की अनदेखी नहीं कर सकता और उसे करना भी नहीं चाहिए, क्योंकि कश्मीर में जेहादी आतंक का दमन अभी भी शेष है। भारत और साथ ही दुनिया के अन्य देश इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकते कि जेहादी आतंकवाद जिस विचारधारा की उपज है वह पहले की तरह फल-फूल रही है। बगदादी का खात्मा राहतकारी तो है, लेकिन यह ध्यान रखा जाए तो बेहतर कि आतंक की विष बेल को जड़ से उखाड़ा जाना शेष है।
रोजगार संकट का संकेत
संपादकीय
भारतीय अर्थव्यवस्था गहरी मंदी की चपेट में है और आंकड़े बताते हैं कि निकट भविष्य में तेज सुधार की कोई संभावना नहीं है। वाहन बिक्री जैसा शीर्ष संकेतक सुर्खियां बटोर रहा है लेकिन जमीन पर हालात उत्साहजनक नहीं है। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के अधीन रोजगार पाने के लिए युवाओं की लगातार बढ़ती कतार इसकी बानगी है। द इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित एक रिपोर्ट बताती है कि 2018-19 में मनरेगा में काम करने वाले 18 से 30 आयु वर्ग के श्रमिकों की संख्या 70.7 लाख पहुंच गई जबकि 2017-18 में यह केवल 58 लाख थी। 2013-14 के बाद इन आंकड़ों में लगातार गिरावट आई थी लेकिन चालू वर्ष में लगातार बड़ी तादाद में लोग इसके तहत रोजगार चाह रहे हैं।
इस बदलाव की वजह की जांच जरूरी है लेकिन इस रोजगार गारंटी योजना में 18 से 30 वर्ष की उम्र के लोगों का बढ़ता नामांकन प्रथम दृष्ट्या यही बताता है कि रोजगार के अवसरों की भारी कमी है। अप्रैल-जून तिमाही का सकल घरेलू उत्पाद आंकड़ा बताता है कि विनिर्माण क्षेत्र की वृद्घि घटकर 5.7 फीसदी रह गई। जबकि विनिर्माण क्षेत्र का विस्तार गिरकर 0.6 फीसदी रह गया। इन क्षेत्रों में कमजोर गतिविधि और श्रम की खपत कर पाने में इनकी अक्षमता के कारण युवाओं ने मनरेगा के तहत रोजगार के लिए प्रयास शुरू किया। आशंका यह भी है कि कृषि क्षेत्र की समस्याओं ने ग्रामीण क्षेत्रों में श्रम की मांग को प्रभावित किया हो।
बहरहाल, एक और अहम पहलू है जिस पर ध्यान देने की आवश्यकता है। नीति आयोग का 2017 का एक प्रपत्र दर्शाता है कि ग्रामीण भारत की करीब दोतिहाई आय अब गैर कृषि गतिविधियों से उत्पन्न होती है। विनिर्माण और निर्माण क्षेत्र का करीब आधा उत्पादन ग्रामीण क्षेत्रों में होता है। सेवा क्षेत्र के उत्पादन में भी इस क्षेत्र की काफी अहम हिस्सेदारी है। यह देखना भी दिलचस्प होगा कि क्या ग्रामीण क्षेत्रों में विनिर्माण इकाइयां अपने आकार के कारण और वस्तु एवं सेवा कर के लागू होने के बाद अर्थव्यवस्था के औपचारिक होने के चलते नुकसान उठा रही हैं। यद्यपि ग्रामीण इलाकों में विनिर्माण इकाइयां पूंजी आधारित हैं लेकिन उत्पादन का दबाव रोजगार पर असर डाल सकता है।
व्यापक स्तर पर देखें तो अर्थव्यवस्था की रोजगार तैयार कर पाने संबंधी अक्षमता के दीर्घकालिक असर होने वाले हैं। जैसा कि ताजा आर्थिक समीक्षा में दर्ज किया गया, देश जननांकीय बदलाव से गुजर रहा है और श्रम योग्य आबादी का अनुपात बढ़ रहा है। अनुमान है कि 2021 से 2031 के बीच श्रमिक उम्र की आबादी में सालाना 97 लाख की दर से इजाफा होगा। बाद के वर्षों में वृद्घि में कमी आएगी। भारत इस अवसर को यूं ही गंवा नहीं सकता। बिना पर्याप्त रोजगार तैयार किए इस बढ़ती श्रमयोग्य आबादी का पूरा लाभ नहीं लिया जा सकता। जैसा कि प्रमाण से भी संकेत मिलता है कि फिलहाल ऐसा नहीं हो रहा है। इस रुख में बदलाव लाने के लिए और अधिक निवेश की आवश्यकता होगी जिससे ज्यादा रोजगार तैयार होंगे। इस संदर्भ में सरकार ने कॉर्पोरेट कर दर में कमी करके अच्छा किया है। बीते कुछ वर्षों के दौरान भारत विश्व बैंक की कारोबारी सुगमता रैंकिंग में तेजी से ऊपर उठा है। बहरहाल, विश्व बैंक के अध्यक्ष डेविड मालपास ने सही कहा है कि भारत को अभी काफी कुछ करने की आवश्यकता है। खासतौर पर भूमि प्रबंधन और अनुबंध प्रवर्तन के क्षेत्र में। ऐसा करके ही निवेश आकर्षित किया जा सकता है। ऐसे में सुधारों की गति तेज करनी होगी। केवल उच्च निवेश और तेज वृद्घि से ही रोजगार के पर्याप्त अवसर तैयार हो सकते हैं। जो परिस्थितियां युवा श्रमिकों को मनरेगा में जाने के लिए मजबूर कर रही हैं उन्हें बदलना होगा।
आतंकी का अंत
संपादकीय
उसका खौफ तो अभी भी था, लेकिन इस्लामिक स्टेट का कथित खलीफा अल-बगदादी पिछले कई महीनों से एक हारती हुई ताकत की तरह था। इराक और सीरिया के वे सारे इलाके उससे मुक्त कराए जा चुके थे, जिन पर कभी उसका नृशंस राज चलता था। ऐसी खबरें लगातार आ रही थीं कि वह भागता फिर रहा है। रविवार को जब हम अपने देश में दीपावली मनाने की तैयारियां कर रहे थे, अमेरिकी फौज ने बगदादी को उसकी उसी मांद में मार गिराया, जहां वह पिछले काफी समय से छिपा हुआ था। इस्लामिक स्टेट के इस सरगना का मारा जाना पूरी दुनिया के लिए राहत की एक बड़ी खबर है। यहां तक कि पश्चिम एशिया के उन देशों के लिए भी, जिनका राजकाज अभी भी इस्लामिक रीति-नीति से चलता है। बगदादी ने जो पागलपन पैदा किया था, उसका पहला खतरा भी इन्हीं देशों को था। लेकिन इस्लामिक स्टेट का खतरा सिर्फ इसी तक सीमित नहीं था।
वह तरह-तरह से पूरी दुनिया को घेर रहा था। एक छोटे से दौर में इसने तकरीबन पूरी दुनिया के नौजवानों को गुमराह करने की कोशिश की। यहां तक कि यूरोप और अमेरिका के आधुनिक समाज के बहुत सारे नौजवान खिलाफत कायम करने का सपना लेकर इराक पहुंचने लग गए थे। चंद भारतीय नौजवान भी इस जाल में फंसे। और राहत इसलिए भी कि इराक और सीरिया में इस्लामिक स्टेट का आधार भले ही खत्म होने लगा था, लेकिन उसका काला झंडा दुनिया के अलग-अलग हिस्सों की कई ताकतों के हाथों में दिखने लगा था। और तो और, हमारे पड़ोसी पाकिस्तान और अफगानिस्तान तक में। हम यह भी कह सकते हैं कि बगदादी की मौत से उन लोगों को भी न्याय मिला है, जिनका उसकी फौज ने बड़ी निर्ममता से कत्लेआम किया था। उन औरतों को भी न्याय मिला, जिनसे इसके गुर्गों ने न सिर्फ बलात्कार किया, बल्कि उसे जायज भी ठहराया। और उन पत्रकारों को भी, जो रिर्पोटिंग के लिए गए थे और उनके सिर कलम कर दिए गए।
इसके आगे असल सवाल फिलहाल यह है कि क्या इसके बाद दुनिया उस आतंक से मुक्त होने की ओर बढे़गी, जो इस समय हम सबकी पहली जरूरत भी है और पहली मुराद भी? कुछ साल पहले जब अमेरिका ने पाकिस्तान में अल-कायदा के सर्वेसर्वा ओसामा बिन लादेन को मार गिराया था, तब भी यही उम्मीद बांधी गई थी। मगर ऐसा हुआ नहीं। महत्वपूर्ण यह भी है कि अल-कायदा और इस्लामिक स्टेट लगभग एक जैसे हालात की उपज थे। पहले सोवियत संघ और फिर अमेरिका के अफगानिस्तान को बीच मंझधार में छोड़ने से जो शून्य पैदा हुआ, उसी में अल-कायदा विकसित हुआ था। इस्लामिक स्टेट भी इसी तरह अस्तित्व में आया। जो ताकतें बाद में सबसे बर्बर आतंकी संगठन बनीं, महाशक्तियां कभी उन्हीं की हमजोली थीं। बगदादी का अंत महाशक्तियों के लिए अपने गिरेबान में झांकने का वक्त भी है।
दुनिया की पहली चुनौती अब यही होनी चाहिए कि फिर कोई लादेन या बगदादी न पैदा हो। यह सच है कि पिछले कुछ समय में पूरी दुनिया में वे ताकतें कमजोर हुई हैं, जो सौहार्द, भाईचारे और प्रेम की बात करती हैं। नफरत का बोलबाला बढे़गा, तो अल-बगदादी जैसे लोग ही सामने आएंगे। इसलिए हर तरह की कट्टरता और नफरत को खत्म करना ही हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए।
Date:29-10-19
बगदादी की मौत के मायने
आदिल राशिद, (रिसर्च फेलो, इंस्टीट्यूट फॉर डिफेंस स्टडीज ऐंड एनालिसिस)
वैश्विक सुरक्षा के लिहाज से अबू बकर अल-बगदादी का मारा जाना काफी अहमियत रखता है। बर्बर आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट, यानी आईएस का यह सरगना दुनिया का नंबर एक वांछित आतंकवादी था और अपनी मनमर्जी खलीफा बन बैठा था। ऐसे में, यह समझा जा सकता है कि जब ‘खलीफा’ का अंत हो जाए और उसने अपने उत्तराधिकारी की घोषणा न की हो (हालांकि अंतरराष्ट्रीय मीडिया के मुताबिक अब्दुल्ला करदाश को नया सरगना बनाया गया है), तो उसके कथित जेहाद को कितना बड़ा झटका लगेगा। बगदादी की मौत से खासतौर से सीरिया और इराक में गंभीर असर पड़ेगा, जहां उसके मुख्यालय रहे हैं। शनिवार की रात अमेरिकी सेना ने आईएस को जबर्दस्त चोट पहुंचाई है।
हालांकि बगदादी के आखिरी वक्त के विश्लेषण से आईएस की कई रणनीतियों के संकेत मिलते हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की घोषणा के मुताबिक, उसे उत्तर पश्चिमी सीरियाई प्रांत इदलिब के बारिशा कस्बे में मार गिराया गया है। यह इलाका अल-कायदा के सहायक संगठन हुर्रास अल-दीन का गढ़ माना जाता है। आईएस का जन्म बेशक अल-कायदा की कोख से ही हुआ है, लेकिन बाद में दोनों संगठनों के आपसी मतभेद इतने गहरे हो गए थे कि दोनों एक-दूसरे को निशाना बनाने लगे थे। बगदादी का इदलिब आना यह बताता है कि आईएस अब इतना कमजोर हो चुका है कि वह अपने दुश्मन से हाथ मिलाने को आतुर है। अपने पुराने संबंधों को वह फिर से जिंदा करने की कोशिश कर रहा है।
अच्छी बात है कि पूरी दुनिया में दहशत फैलाने में जुटी वैश्विक जेहादी तंजीमों को जो देश अब तक मदद करते आए हैं, वे भी इनके खिलाफ हो गए हैं। पश्चिम एशियाई देशों की सेनाएं अब इन संगठनों के खिलाफ सक्रिय हैं। सऊदी अरब की फौज यमन में, तो तुर्की की सेना सीरिया में हमलावर हैं। ईरान भी जंग में उतर चुका है। इसका अर्थ है कि पश्चिम एशिया के ये देश अब अपनी फौजों को सीधे-सीधे इन गुटों के खिलाफ उतार रहे हैं। इससे जाहिर तौर पर ये ‘नॉन स्टेट एक्टर्स’ कमजोर पड़ने लगे हैं। आलम यह है कि श्रीलंका में बीते अप्रैल में जब सीरियल बम धमाके किए गए थे, तो आईएस ने दो दिनों के बाद हमले की जिम्मेदारी ली और ऐसा कोई प्रत्यक्ष वीडियो प्रमाण भी तुरंत जारी नहीं किया, जो अपने दावे के समर्थन में वह आमतौर पर पेश करता रहा है। स्पष्ट है, सीरिया में इसका नियंत्रण तंत्र बुरी तरह तबाह हो चुका है और बगदादी की मौत से इसकी सांगठनिक हैसियत भी खत्म होती दिख रही है।
तो क्या बगदादी के अंत के साथ आईएस का भी खात्मा हो गया है? फिलहाल इसका सटीक जवाब नहीं दिया जा सकता। नई परिस्थिति में संभव है कि इससे जुड़े संगठन अपनी तरफ से कुछ करने की कोशिश करें। अभी उनका मनोबल भले ही कमजोर हुआ हो, लेकिन अपनी उपस्थिति दिखाने के लिए वे किसी आतंकी घटना को अंजाम दे सकते हैं। दरअसल, आतंकवाद को लेकर ठोस रूप से कुछ भी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। इसका चरित्र अनुमानों से परे माना जाता है। तब भी मौजूदा परिस्थिति यही बता रही है कि वैश्विक आतंकी संगठनों पर प्रहार बढ़ा है और ये जमातें आपसी मतभेदों को खत्म कर किसी भी तरह से एक होने की कोशिश कर रही हैं। इसलिए सिर्फ आईएस पर ही चोट करने से वैश्विक आतंकवाद का अंत नहीं हो सकता।
इन संगठनों का एक और चरित्र गौर करने लायक है। जब कभी सीरिया में इनको कोई बड़ा आघात लगता है, तो दूसरे मुल्कों में इनकी गतिविधियां तेज हो जाती हैं। ऐसा करने का मकसद अपने समर्थकों को अपनी मौजूदगी दिखाना होता है, ताकि यह संदेश दिया जाए कि संगठन या विचारधारा को कोई खास झटका नहीं लगा है। इसीलिए बगदादी की मौत के बाद संभव है कि दुनिया भर में जेहादी गतिविधियां तेज हो जाएं। भारत पर भी समान रूप से खतरा है, जिसके लिए नई दिल्ली को चौकस रहना होगा। इसका अंदेशा इसलिए भी है, क्योंकि इसी साल मार्च में जब आईएस सीरिया के बगूस में अपनी पकड़ खो रहा था, तब उसके एक महीने के बाद उसने श्रीलंका में सिलसिलेवार बम धमाके किए थे। इस बार भी बगदादी की मौत के बाद वह कुछ करने की योजना बना सकता है, जिससे तमाम मुल्कों को सतर्क व सावधान रहने की जरूरत है।
जरूरी यह भी है कि वैश्विक आतंकी संगठनों को अलग-अलग बांटकर निशाना बनाने की बजाय एक मानकर उन पर हमला बोला जाए। आईएस, अल-कायदा या किसी भी अन्य जेहादी समूह को अब एक मानना इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि ये तमाम तंजीमें एकजुट होने लगी हैं। आने वाले दिनों में हो सकता है कि ये सभी इकट्ठा हो जाएं। इनमें एकता बढ़ने की यह आशंका मानव समाज के हित में नहीं है।
एक बात और। बगदादी की मौत के बाद आईएस भी अल-कायदा की राह (ओसामा बिन लादेन की मौत के बाद) पर बढ़ता दिख रहा है। बेशक इसके नए सरगना की घोषणा कर दी गई है और यह बताया जा रहा है कि परोक्ष रूप से अब्दुल्ला करदाश ही संगठन चलाता रहा है, फिर भी इसके पास ऐसा कोई अड्डा या तंत्र नहीं बचा है, जिससे यह देश-दुनिया में अपनी सक्रियता दिखा सके। इसलिए संभव है कि भविष्य में हम किसी नए गुट का नाम सुनें, जो इसी संगठन की कोख से निकला हो।
Death of a terrorist
Baghdadi is dead, but the conditions that gave rise to the Islamic State still remain
Editorial
The death of Abu Bakr al-Baghdadi, the founder-leader of the Islamic State, is a major setback to the dreaded terrorist organisation. Baghdadi, who rose to international notoriety in July 2014 when he appeared in the pulpit of Mosul’s grand al-Nuri mosque as the leader of the new ‘Caliphate’ announced by his group, “died like a dog”, according to U.S. President Donald Trump. He was hiding in a village in Idlib, the Syrian province controlled by al-Qaeda-linked jihadists and pro-Turkey rebels, when U.S. Special Forces launched an operation on Saturday. Mr. Trump says Baghdadi blew himself up in a tunnel while he was surrounded, killing himself and three of his sons. At the height of its power in 2014, the Caliphate established by Baghdadi controlled territories as large as Great Britain straddling the Iraqi-Syria border. Spread from Deir Ezzor in eastern Syria to Mosul in northern Iraq and with Raqqa its de facto capital, the Caliphate drew in radicalised young Muslims world-wide into its fold, fought the Syrian and Iraqi national armies as well as rebel groups in Syria, and unleashed violence against anyone who disagreed with its version of Islam and against minority groups in Islam and non-Muslims. Baghdadi presided over the rise of his group as a death cult, bringing back memories of medieval religious conflicts.
But the Caliphate was a short-lived phenomenon. The cities the IS once ruled were liberated. Its jihadists are on the run. Now that Baghdadi is also gone, the IS is at the weakest point of its short history. But it does not mean the group is defeated. The IS, like its peers in global jihadism such as al-Qaeda, is not a completely leader-dependent organisation. It is fundamentally an insurgency comprising ideologically linked autonomous cells and loyal to one leadership. So Baghdadi’s death, while a blow to the organisation and its propaganda, does not mean that IS operations are over. Second, the geopolitical conditions that led to the IS’s creation have not changed much. When Abu Musab al-Zarqawi was killed by the U.S in 2006, it was a setback to the al-Qaeda in Iraq (AQI), the organisation that he led. After his death, Sunnis in northern Iraq rose against the AQI, which, along with a surge in U.S. troops in Iraq, pushed the group to retreat from the cities and towns. But it did not finish the AQI off. When Syria began plunging into chaos in the early days of the civil war in 2011, the AQI, under Baghdadi’s leadership, morphed into a bigger, more powerful terrorist machinery — the IS. What happened to the IS now is similar to what happened to the AQI then. With the IS’s double loss, the focus should now be on stabilising Iraq and Syria and ending the conditions that led to the rise of the AQI and the IS. Otherwise, Baghdadi’s death would not mean much for the global fight against terrorism.
National dishonour
We need to ask why India lags behind its neighbours in combating hunger, malnutrition
Harsh Mander, [Mander is a human rights worker and writer]
The abiding disgrace of new India is that despite unprecedented quantities of wealth and the vulgar ostentation which has become customary in the gaudy glitter of city life, India is unable to overcome hunger and malnourishment. This is even more unconscionable when government warehouses are overflowing with stocks of rotting rice and wheat. The 2019 Global Hunger Index (GHI) report brings sombre tidings this year: India’s poorer neighbours — Bangladesh, Nepal, and even Pakistan — have overtaken India in the battle against hunger.
Hunger is the failure to access the calories that are necessary to sustain an active and healthy life. It results in intense human suffering and indignity, as parents are forced to helplessly watch their children ache as they sleep hungry, as their brains and bodies are unable to grow to full potential, and, as they fall ill too often and are snatched away too early.
This is a colossal national dishonour for two reasons. One, this suffering is entirely preventable. Given appropriate public policies — sensitively designed, adequately resourced and effectively implemented — the country has both the wealth and the food stocks many times over to end hunger entirely. The relative success of our neighbours in combating hunger — Nepal emerging from 15 years of civil war and Pakistan still torn by internal conflict — is a sobering reminder of what India has not accomplished. Two, this failure does not spur public outrage and the introspection that it should.
The GHI report ranks India at a lowly 102 out of 117 countries listed. The GHI scores are based on four indicators — undernourishment (the share of population with insufficient calorie intake); child wasting (children with low weight for height, indicating acute undernutrition); child stunting (children with low height for age, reflecting chronic undernutrition); and child mortality (death rate of children under five).
Among all the countries included in the report, India has the highest rate of child wasting (which rose from the 2008-2012 level of 16.5 per cent to 20.8 per cent). Its child stunting rate (at 37.9 per cent) also remains shockingly high.
The report is instructive as it explains why Bangladesh and Nepal have surged ahead of a much wealthier India. The Bangladesh success story is attributed to pro-poor economic growth raising household incomes as well as significant improvements in “nutrition-sensitive” sectors like education, sanitation and health. Nepal, likewise, shows increased household wealth, maternal education, sanitation, health and nutrition programmes.
What must India do better to at least keep pace with its South Asian neighbours in tackling hunger? This is the question that Dipa Sinha, Parth Shrimali and I seek to answer in our essay in the latest 2018-19 India Exclusion Report of the Centre for Equity Studies.
We observe the cruel irony of the largest population of food-insecure people being food producers — farm workers, tenants, marginal and small farmers, fish workers and forest gatherers. To end hunger, food producers must be supported to receive adequate remuneration. We recommend sound measures to protect farmer incomes, including income transfers to farmers, minimum support-price guarantees and crop insurance, and a massive expansion of farm credit. For farm workers, a refocus on land reforms is called for, and, a greatly expanded and effectively managed rural employment guarantee programme with attention to land and watershed development, small irrigation and afforestation. There must also be an urgent and comprehensive shift to sustainable agricultural technologies less dependent on irrigation, chemical fertilisers and pesticides, to reverse our agri-ecological crisis.
The other large food-vulnerable population comprises informal workers. Hunger can’t be combated without addressing the burgeoning job crisis. It also entails labour reforms which protect job security, fair work conditions and social security of all workers. We also argue that the time has come for an urban employment guarantee programme, to help build basic public services and infrastructure for the urban poor — especially slum and pavement residents, and the homeless. This should also include employment in the care economy, with services for child-care, children and adults with disability and older persons.
The Public Distribution System must be universalised (excluding income tax payees), and should distribute not just cereals but also pulses and edible oils. Further, we need to reimagine it as a decentralised system where a variety of crops are procured and distributed locally. Both pre-school feeding and school meals need adequate budgets, and the meals should be supplemented with nutrient-rich foods such as dairy products, eggs and fruits. Social protection also entails universal pension for persons not covered by formal schemes, universal maternity entitlements to enable all women in informal work to rest and breast-feed their children, a vastly expanded creche scheme, and residential schools for homeless children and child workers.
Malnourishment results not just from inadequate food intakes, but also because food is not absorbed due to frequent infections caused by bad drinking water, poor sanitation and lack of healthcare. India’s nutrition failures are also because of persisting gaps in securing potable water to all citizens, and continued open defecation despite optimistic official reporting. There is an urgent requirement for a legally enforceable right to healthcare, with universal and free out-patient and hospital-based care, free diagnostics and free medicines.
All of this is not unknown. Yet, India continues to fail children born in impoverished households, to homeless people and single mothers, and to oppressed castes and social groups. Our economic policy continues to be trapped in an elite capture, dominated by measures that support big businesses to the exclusion of farmers and workers. Social rights are broken and betrayed.
At its core, the reason for India’s continuing failures to end hunger and malnutrition of its millions is the indifference of people who have never known the agony of involuntary hunger. This is ultimately the result of our enormous cultural comfort with inequality, our gravest and most culpable civilisational flaw.