30-09-2017 (Important News Clippings)

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30 Sep 2017
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Date:30-09-17

राम जैसे विद्रोह, खुलेपन से मिलेगा खोया वैभव

 अमिष त्रिपाठी,(येलेखक के अपने विचार हैं)
पुरानी पीढ़ी प्राय: दुखी रहती है कि देश का सांस्कृतिक स्तर गिर रहा हैै। उन्हें यकीन है कि रिअलिटी टीवी और बेलगाम इंटरनेट से लैस आधुनिकीकरण की इस हवा में हमारी संस्कृति सूखे पत्ते की तरह उड़ जाएगी। लेकिन इससे यह भी पता चलता है कि संभव है पुरानी पीढ़ी के कई लोग हमारी प्राचीन संस्कृति से जुड़े हों, जो अपने मूल स्वभाव में ही आत्मविश्वास से भरी और खुले दिमाग वाली थी। अपनी इस बात के पक्ष में कुछ उदाहरण देना चाहूंगा।
एक तथ्य जो हम जानते हैं और हमें इस पर बड़ा गर्व भी है कि हमने दुनियाभर के लोगों धर्मों को अपने यहां जगह दी। ईसाई धर्म यूरोप के ज्यादातर देशों में पहुंचने के पहले भारत पहुंच गया था। दो हजार साल से भी ज्यादा पहले यहूदियों को आश्रय मिला। प्राचीन गुजरात ने पारसियों को स्वीकारा। अरबों पुर्तगालियों ने सिद्दी मुस्लिमों को गुलामों की तरह लाया। वे बेड़ियां तोड़कर भागे और पश्चिमी भारत में उन्होंने छोटे-छोटे राज्य स्थापित किए। भारत प्राचीन काल का अमेरिका था, जो वीरों, साहसियों, अत्याचार के मारे और यंत्रणा पाए ऐसे हर तरह के लोगों को स्वीकार करता था, जिनमें बेहतर ज़िंदगी की तड़प थी। दक्षिण-पूर्वी एशियाइयों जैसे विदेशियों ने भारतीय नाम, जीवनशैली और संस्कृति इसलिए अपनाई, क्योंकि वे इसकी जीवंतता से आकर्षित हुए जैसे आज पूरी दुनिया के लोगों ने अपना अमेरिकीकरण कर लिया है। सांस्कृतिक खुलेपन का तो यह हाल था कि ग्रीक लोगों को चाहे हमने मारकर भगा दिया पर उनसे गांधार आर्ट सीखना भूले। इडली आज हमारे सर्वाधिक लोकप्रिय स्नैक्स में से हैं पर शायद यह इंडोनेशिया के तटों से आई है।
यह सांस्कृतिक खुलापन धर्म के संवेदनशील क्षेत्र में भी दिखा। भारत के मौलिक महाकाव्य रामायण के सैकड़ों संस्करण मिलते हैं। कुछ में रावण को एकदम दुष्ट राक्षस ही बताया गया है तो अन्य में वह सिद्धहस्त महान शासक है और भगवान शिव का अनन्य भक्त। सीता भी रामायण के कुछ संस्करणों में सीधी-सादी और आज्ञाकारी हैं, जबकि कुछ अन्य में उन्हें तेजस्वी योद्धा के रूप में वर्णित किया गया है। रामायण के ये सारे संस्करण पूरे सद्‌भाव के साथ बने रहे। उन्हें लोगों का समान आदर प्रेम मिला। लेकिन, यह खुलापन स्वैच्छाचारिता नहीं थी। रामायण के सारे संस्करणों में कमोबेश राम एक आदर्श चरित्र के रूप में उभरते हैं। उनका जीवन कानून के मुताबिक जीवन जीने के लाभ और चुनौतियां दर्शाता है। कानून सम्मत ज़िंदगी समाज के लिए बहुत ही अच्छी है लेकिन, परिवार में तो प्रेम का ही शासन होना चाहिए। कानून का राज निर्मित करना पड़ता है, क्योंकि ज्यादातर लोग नियम-कानूनों का पालन नहीं करते। कानून तोड़ने वाले विद्रोहियों के विपरीत भगवान राम के रूप में हमारे सामने ऐसे अनूठे विद्रोही हैं, जो ऐसेे समाज में रहते हुए नियम-कानूनों का दृढ़ता से पालन करते हैं, जहां कोई कानून का पालन नहीं करता। यह भी खुलेपन का ही पहलू है कि समाज के नियम-कानून आपको स्वीकार्य हैं। मुगल शाहजादे दारा शिकोह ने अपनी किताब ‘दो महासागरों का मिलन’ में मुस्लिम अबु अरवाह (सारी आत्माओं का पिता) और हिंदू परमात्मा के बीच अच्छी समानता खोजी थी। अकबर भी खुद को शाहजहां कहता था यानी दुनिया को आश्रय देने वाला, जबकि तब शासक विश्वविजेता कहलाना पसंद करते थे। शक्तिशाली मौर्य वंश राजवंश में कई धर्मों का सह-अस्तित्व था। चंद्रगुप्त मौर्य शायद जैन था, बिंदुसार आजीविक और अशोक बौद्ध था। राजराजा चोल शैव हिंदू था, जिसने बौद्ध विहारों का निर्माण कराया।
ऐसे बहुत से उदाहरण दिए जा सकते हैं कि हम कभी खुले दिमाग के जिज्ञासु और मिलनसार समाज थे। और यही हमारी दिमाग चकराने वाली सफलता का रहस्य था। ब्रिटिश अर्थशास्त्री एंगस मैडिसन के व्यापक रूप से उद्‌धृत अनुमान के मुताबिक भारत दुनिया का सबसे धनी देश था और विश्व अर्थव्यवस्था में उसका योगदान 25 से 33 फीसदी था! हमारी वर्तमान दशा के लिए हम तुर्क और ब्रिटिश विजेताओं को दोष देते हैं। लेकिन, यह सच नहीं है उन्होंने नहीं, हमने ही खुद को नष्ट किया है, क्योंकि हम हमारी मूल संस्कृति भूल गए, आत्मविश्वास से भरा खुलापन भूल गए। समुद्र पार यात्रा पर पाबंदी लगा दी गई। भारत में विज्ञान और धर्म के बीच कभी टकराव नहीं था पर, हमने वैज्ञानिक दृष्टिकोण छोड़ दिया।हाल के दशकों में दो बंद दिमाग के समूह देश में उभरे हैं। एक वह है, जो भारत के भूतकाल को पूरी तरह खारिज करता है। हमारी विरासत में उसे कुछ मूल्यवान नज़र नहीं आता। वे विदेश मूल्य और प्रभाव थोपना चाहते हैं- एंग्लोफाइल और मार्क्सवादी। इनके विरोध में भारत को महिमा मंडित करने वाला समूह है- जैसे धार्मिक अतिवादी। उन्हें लगता है कि भारत के भूतकाल में जो भी था वह परफेक्ट और संदेह से परे है। उसकी समीक्षा तो छोड़ों, उस पर सवाल भी नहीं उठाए जा सकते। भारत को ये दोनों ही नहीं चाहिए। स्वतंत्रता के बाद चार दशकों तक भारतीय श्रेष्ठि वर्ग पहले समूह से ही रहा और हम देख रहे हैं कि किस तरह की आर्थिक अव्यवस्था और बौद्धिक दरिद्रता उन्होंने पैदा की। दूसरी तरफ पाकिस्तान है, जहां दूसरे समूह का प्रभाव रहा और उसका हाल हम देख ही रहे हैं।पिछली पीढ़ी के विपरीत आज का युवा मुझे उम्मीद से भर देता है। उनमें आत्मविश्वास से भरा वह दिमागी खुलापन दिखता है, जो भूतकाल में भारत का प्रमुख गुण था। उन्हें भारतीय होने पर गर्व हैं लेकिन, वे हमारी विरासत की कुछ बातों से असहमति दिखाने को भी तैयार हैं। जैसे मेरी किताबों पर जाति सूचक सरनेम लिखने के निर्णय को उन्होंने खूब सराहा लेकिन, वे भगवान शिव के बारे में गहराई से जानना भी चाहते हैं। एक मुस्लिम युवा ने लिखा कि मुस्लिम होने पर उसे गर्व है लेकिन, उसे ‘हर हर महादेव’ की अवधारणा से प्रेरणा मिलती है। आज के सारे बेस्टसेलर लेखक भारतीय हैं लेकिन, जब पाउलो कोएल्हो जैसा विदेशी लेखक ऐसी फिलासॉफी लेकर आता है ,जो उन्हें प्रेरित करती है तो युवा उन्हें भी स्वीकार करते हैं। यही युवा देश को उसका खोया गौरव वापस दिलाएंगे।

Date:30-09-17

कृषि संकट के कारण

संपादकीय

केंद्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह ने यह सही कहा कि किसानों की दशा में सुधार न हो पाने का एक कारण छोटी जोत वाले किसानों की बढ़ती संख्या, परंपरागत खेती और कम उत्पादकता है, लेकिन वह इस सब पर केवल चिंता जताकर कर्तव्य की इतिश्री नहीं कर सकते। इसी तरह वह यह शिकायत भी नहीं कर सकते कि किसानों तक आधुनिक एवं वैज्ञानिक कृषि प्रणाली की जानकारी नहीं पहुंच पा रही है। यह जानकारी किसानों तक पहुंचाने को लेकर सक्रियता दिखाने की जिम्मेदारी तो कृषि मंत्रालय की ही है। यह सक्रियता नहीं दिखाई गई, इसकी पुष्टि खुद कृषि मंत्री के इस कथन से होती है कि कृषि सूचना प्रसार से संबंधित तंत्रों के अलग-अलग स्तरों पर काम करने से समन्वय का अभाव है। उन्होंने यह भी माना कि कृषि मंत्रालय में किसानों तक जानकारी पहुंचाने की ढांचागत सुविधाएं तो थीं, लेकिन वे काम नहीं कर रही थीं। क्या इस नाकामी के लिए खुद कृषि मंत्रालय जवाबदेह नहीं? यह ठीक नहीं कि इतने समय बाद इसकी सुधि ली जा रही है कि किसानों तक समय पर सूचनाएं कैसे पहुंचाई जाएं? यह तो पहले दिन से सुनिश्चित किया जाना चाहिए था कि किसान खेती के आधुनिक तौर-तरीकों से परिचित हों। इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि कृषि ज्ञान प्रबंधन निदेशालय सूचना तंत्र को मजबूत बनाने की तैयारी कर रहा है, क्योंकि यह काम तो अब तक हो जाना चाहिए था। अच्छा होगा कि कृषि मंत्रालय यह समझे कि समस्या केवल किसानों को उपयोगी सूचना समय पर पहुंचाने की ही नहीं, बल्कि उसका इस्तेमाल करने की भी है।

कई बार किसान खेती के आधुनिक तौर-तरीकों का इस्तेमाल करने से इसलिए बचते हैैं, क्योंकि वे अपेक्षित नतीजे हासिल होने को लेकर सुनिश्चित नहीं हो पाते। इसी तरह किसान आम तौर पर किसी एक फसल पर ही निर्भर हो जाते हैैं। इस स्थिति में जब कभी पैदावार अपेक्षा के अनुरूप नहीं होती या फिर उपज का सही मूल्य नहीं मिलता तो वे संकट से घिर जाते हैैं। कृषि मंत्रालय के लिए किसानों को परंपरागत खेती से बाहर निकालना पहली प्राथमिकता बननी चाहिए। कृषि मंत्रालय के नीति-नियंताओं को इससे भी अनभिज्ञ नहीं होना चाहिए कि हाल में देश के अनेक हिस्सों में किसानों ने जो धरना-प्रदर्शन किया उसके पीछे मुख्य कारण उन्हें उनकी उपज का सही मूल्य न मिलना था। इस तथ्य से मुंह मोड़ना ठीक नहीं कि किसानों की दशा में सुधार न हो पाने का एक बड़ा कारण उन्हें उनकी उपज का उचित यानी लागत से अधिक मूल्य न मिल पाना है। जब तक इस समस्या का निवारण नहीं होता तब तक उत्पादकता बढ़ाने के उपायों से भी बात बनने वाली नहीं है। एक ऐसे समय जब केंद्र सरकार वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुना करना चाहती है तब उसके पास ऐसा कोई उपाय होना ही चाहिए कि किसानों को अपनी उपज औने-पाने दाम पर न बेचना पड़े। अभी यही हो रहा है। सच यह भी है कि कई बार किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य भी नहीं मिल पाता। जब तक यह स्थिति रहेगी, खेती घाटे का सौदा बनी रहेगी।


Date:29-09-17

पूर्वोत्तर के कांटे

संपादकीय

बुधवार को तड़के एनएससीएन यानी नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल आॅफ नगालिम के खापलांग गुट के उग्रवादियों के खिलाफ हुई सेना की बड़ी कार्रवाई ने एक बार फिर यह रेखांकित किया है कि पूर्वोत्तर में उग्रवाद की समस्या को हल्के में नहीं लिया जा सकता। ताजा कार्रवाई म्यांमा सीमा के नजदीक हुई और इसमें कई उग्रवादी मारे गए। यों उग्रवादी गुट का दावा है कि सेना के तीन जवान भी मारे गए, पर सेना ने इससे साफ इनकार किया है। भारत-म्यांमा सीमा से कोई पंद्रह किलोमीटर दूर लंगखू गांव के पास भारतीय सैनिकों पर उग्रवादियों के हमले के बाद सेना ने यह कार्रवाई की। इससे पहले, जून 2015 में खापलांग गुट के उग्रवादियों के खिलाफ सेना ने बड़ी कार्रवाई की थी। तब भी यह पलटवार की तरह था। पहले उग्रवादियों ने मणिपुर के चंदेल जिले में घात लगा कर बीएसएफ के काफिले पर हमला बोला था, जिसमें अठारह जवान शहीद हो गए थे। इस घटना ने पूर्वोत्तर में उग्रवाद की भयावहता की तरफ पूरे देश का ध्यान खींचा था। तब के क्षोभ और आवेश भरे माहौल में सेना ने म्यांमा की सीमा में कुछ किलोमीटर भीतर जाकर नगा उग्रवादियों पर धावा बोला, जिसमें काफी संख्या में उग्रवादी मारे गए थे। इसे ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ भी कहा गया। मगर ताजा कार्रवाई के बारे में सेना ने खुद कहा है कि यह सर्जिकल स्ट्राइक नहीं थी, क्योंकि कार्रवाई भारतीय सीमा के भीतर ही हुई।

पिछली बार यानी जून 2015 में नगा उग्रवादियों के खिलाफ सैन्य कार्रवाई के लिए अपनी सीमा के उल्लंघन का म्यांमा ने बुरा माना था और इसका इजहार भी किया था। शायद यही वजह होगी कि इस बार उस हद तक जाने से बचा गया या वैसा कोई दावा नहीं किया गया। एनएससीएन के खापलांग गुट की गिनती पूर्वोत्तर के सबसे खतरनाक हथियारबंद गुटों में होती रही है। 1980 में एनएससीएन के गठन के कुछ साल बाद, टी मुइवा और इसाक चिसी स्वू से अनबन के चलते खापलांग इससे अलग हो गए और उन्होंने अपना अलग गुट एनएससीएन (खापलांग) बना लिया। वर्ष 1997 में केंद्र के साथ शांति वार्ता में दोनों गुट शामिल हुए। इसाक-मुइवा गुट के संघर्ष विराम समझौते पर हस्ताक्षर करने के चार साल बाद खापलांग गुट ने भी इस तरह का समझौता स्वीकार कर लिया। पर मार्च 2015 में खापलांग गुट ने शांति समझौते को धता बता कर ‘आजादी के लिए युद्ध’ की घोषणा कर दी। इसी के कुछ दिनों बाद उसने मणिपुर में बीएसएफ के काफिले को निशाना बनाया था। अगस्त 2015 में केंद्र ने जहां इसाक-मुइवा गुट के साथ समाधान की रूपरेखा तलाशने का करार किया, वहीं इसके एक महीने बाद खापलांग गुट को पांच साल के लिए प्रतिबंधित संगठन घोषित कर दिया।

खापलांग गुट खुद तो एक खतरनाक संगठन है ही, इसने पूर्वोत्तर के अन्य उग्रवादी संगठनों को भी यूएनएलएफडब्ल्यू यानी यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट आॅफ वेस्टर्न साउथ ईस्ट एशिया नाम से एक करने में अहम भूमिका निभाई, जिसमें उल्फा का शांतिवार्ता-विरोधी गुट भी शामिल है। इस साल जून में सतहत्तर साल की उम्र में खापलांग की मौत हो गई। अब प्रतिबंधित संगठन एनएससीएन (खापलांग) की कमान खागो कोन्याक के हाथ में है। खापलांग ने भारत सरकार के साथ चौदह साल पुराना संघर्ष विराम समझौता 2015 में एकतरफा ढंग से तोड़ दिया था, पर उनके गुट का म्यांमा के साथ 2012 में हुआ संघर्ष विराम समझौता लागू है। क्या इसलिए कि खापलांग की सामुदायिक जड़ें म्यांमा में थीं? जो हो, एनएससीएन के हिंसक रवैए में फिलहाल कोई बदलाव नजर नहीं आता। इसलिए उसके खिलाफ सैन्य कार्रवाई अपरिहार्य हो जाती है।


Date:29-09-17

Reforms money can’t buy

The government’s grant for police modernisation must be followed by steps to grant the force autonomy from political masters.

Written by Prakash Singh ,The writer, a retired police chief, has been campaigning for police reforms for over two decades.

 In a refreshingly progressive move, the Government of India (GoI) has approved a Rs 25,000-crore internal security scheme to strengthen the law and order apparatus, modernise state police forces and enhance their capacity to combat terrorism. The umbrella scheme, Modernisation of Police Forces (MPF), will be implemented between 2017 and 2020. It has been hailed as “one of the biggest moves towards police modernisation in India.” The scheme has special provisions for women’s security, mobility of police forces, logistical support, hiring of helicopters, upgradation of police wireless, satellite communications, crime and criminal tracking network and systems (CCTNS) and e-prisons. The idea is to assist the states to upgrade their police infrastructure, especially in respect of transport, communications and forensic support, to enable them to effectively tackle the emerging challenges.

Out of the total outlay, the Centre will provide Rs 18,636 crore or about 75 per cent while the states’ share will be Rs 6,424 crore. Under the scheme, J&K, north-eastern states and states affected by Left-Wing Extremism will get a boost of Rs 10,132 crore.It may be recalled that following the 14th Finance Commission recommendations, which increased the state’s share of central taxes from 32 per cent to 42 per cent, the Centre de-linked eight centrally sponsored schemes (CSS) from its support in 2015. These schemes included modernisation of police. The explanation given was that with a higher devolution of resources to the states, they should be able to shoulder the additional burden. We were also told that while central funding of modernisation of police was being stopped, non-plan funding for the same would continue.

The arrangement may have been theoretically sound but it did not work in practice. The majority of state governmentswere disinclined to make any investments in police. As a consequence, modernisation schemes received a setback. Several state police chiefs expressed concern that the battle against Maoists and terrorists of different hues was going to be affected with modernisation grants drying up. Fortunately, the home ministry woke up to the danger in good time and decided to revert to the old arrangement whereby funds for modernisation were released every year. The Cabinet Committee on Security is to be complimented for this decision.The prime minister had, while addressing the directors general of police in Guwahati on November 30, 2014, enunciated the concept of SMART Police. Smartness has two dimensions — external and internal. The external dimension refers to the uniform a policeman wears, the way he carries himself, his weapons, the communication equipment on his person, his mobility, response time, et al. The umbrella scheme would definitely take care of these aspects. It would, no doubt, enhance his capabilities to respond to and deal with the kind of challenges he is confronted with in his day to day work. But the internal dimension of smartness is far more important. As the PM expanded the acronym, the police should be strict and sensitive, modern and mobile, alert and accountable, reliable and responsible, tech-savvy and trained. Unfortunately, there has been hardly any progress in this direction and the umbrella scheme touches upon only some of these essential qualities.

Mobility would certainly increase, and so would alertness. But you just cannot have a sensitive police under the existing dispensation when the police are answerable to the political executive. What we have today is Ruler’s Police. What we need is People’s Police. The police have been accused, with fair justification, of being insensitive to the poor and tribals. Accountability has to be to the Constitution, the laws of the land and the people of the country. Reliability would increase only when the police are objective, fair and impartial. Gadgetry won’t help here. It is the state of mind which matters. And to achieve that state of mind, police must be freed from the stranglehold of politicians. Technology would definitely be of great help — it would, in fact, act as a force multiplier. But bereft of sensitivity and accountability to the people, its gains would be limited.

All said and done, the central government has taken a quantum leap. The umbrella scheme is a positive step and generous financial grants will definitely help. But these must be followed up by structural reforms in the police. The roadmap for the same was laid down by the Supreme Court in 2006. Institutions like the state security commission, police establishment board and complaints authority must be set up in every state in keeping with the directions of the Court. Some states have set up these bodies, but packed them with political stooges, limited their charter and curtailed their powers. Whatever limited compliance is claimed, has actually been farcical. It is time that the GoI seriously thinks about bringing police and public order in the Concurrent List of Schedule VII of the Constitution. Constitutional experts like Fali S. Nariman have strongly spoken in favour of such an amendment.

We take great pride in India being one the fastest growing economies in the world. However, tragically, we are ignoring a simple truth — sustained economic progress needs the solid foundation of good law and order, and we cannot have good law and order in the country unless the police are reorganised, restructured and rejuvenated. Cosmetic improvements will not do. Reforms of a fundamental nature are called for. The colonial police must go. We must have a police committed to giving security to the people, protecting the honour of women, upholding the human rights of all sections, being fair to the minorities and sensitive to the poor and tribals, and above all upholding the rule of law.


Date:29-09-17

चमक बनाम उजाला

 आलोक पुराणिक

सबसे बड़ी चुनौती सरकार के सामने यह है कि अगर रोजगार नहीं पैदा नहीं हो रहे हैं, तो 2019 के चुनावों में क्या जवाब दिए जाएंगे? उज्ज्वला और सौभाग्य योजनाएं कहीं-न-कहीं मतदाताओं को बताने की तैयारियां हैं, पर इनसे अर्थव्यवस्था के मूल मसले हल नहीं होते। मूल मसला यह है कि अर्थव्यवस्था में ऐसी स्थितियां बनें कि रोजगार पैदा हों और हरेक इतना कमा पाए कि किसी मुफ्तखोरी की जरूरत ना पड़े
सौभाग्य योजना लांच हुई है। ‘‘सौभाग्य’ यानी सहज बिजली हर घर योजना के तहत 16000 करोड़ रुपये का खर्च होगा और हर उस घर को बिजली पहुंचाने की कोशिश की जाएगी, जहां पर बिजली नहीं है। योजना के मुताबिक अनुमानित सभी चार करोड़ परिवारों को बिजली कनेक्शन प्रदान करेगा, जिनके पास वर्तमान में बिजली कनेक्शन नहीं है। करीब चार करोड़ परिवारों को मुफ्त बिजली कनेक्शन का सौभाग्य मिलेगा। इससे पहले उज्ज्वला योजना के तहत देश के 709 जिलों में करीब तीन करोड़ गैस कनेक्शन दिए जा चुके हैं। मुफ्त बिजली कनेक्शन और मुफ्त गैस का चूल्हे का गणित देखें, तो करीब चार करोड़ मुफ्त बिजली कनेक्शन और तीन करोड़ मुफ्त गैस कनेक्शन का आर्थिक कनेक्शन भी है और राजनीतिक भी। मुफ्त बिजली कनेक्शन के खर्च का अधिकांश खर्च केंद्र सरकार ही उठाएगी। सोलह हजार करोड़ रुपये का अधिकांश खर्च केंद्र सरकार उठाएगी, इसका अर्थ यह है कि ऐसी योजनाओं के लिए सरकार के पास फंड की कमी नहीं है, जिनके सहारे केंद्र सरकार खुद को गरीब-प्रिय साबित कर सके। भारतीय अर्थव्यवस्था के साइज के हिसाब से यह पूरी 16000 करोड़ रु पये भी बहुत बड़ी रकम नहीं है। अकेले विजय माल्या इस रकम के करीब आधे साइज की रकम यानी करीब 8000 करोड़ रु पये की रकम को खाकर लंदन में बैठा हुआ है। इस रकम का आर्थिक महत्त्व ज्यादा ना भी हो, तो भी राजनीतिक महत्त्व गहरा है।उज्ज्वला योजना के तहत करीब तीन करोड़ गैस कनेक्शन जा चुके हैं। करोड़ों के घरों को छूनेवाली इन योजनाओं का संदेश राजनीतिक तौर पर देने की भाजपा की यह कोशिश करेगी यह सिर्फ सूट-बूटवालों की सरकार नहीं है। गरीबों के सपने की सरकार है। 2019 के आम चुनावों शुरु आती आहटें सुनाई देने लगी हैं। ऐसे भी अनुमान हैं कि 2018 के अंत में ही लोक सभा चुनाव कराए जा सकते हैं यानी तय अवधि से करीब छह महीने पहले। इस हिसाब से देखें, तो एक सवा साल का ही वक्त बचा है सरकार के पास, खुद को साबित करने के लिए। इसलिए यह भी समझा जा सकता है कि सरकार लगभग चुनावी मोड में है, चुनावी तेवर में है। चुनावी तेवर का आशय है कि लगभग हर उस तबके को लुभाया जाए, जो वोट के लिहाज से बहुत महत्त्वपूर्ण है। भाजपा शासित राज्यों में किसानों की कर्जमाफी की योजनाएं लागू हो गई हैं। इस सरकार के सामने दो बुनियादी आर्थिक समस्याएं हैं, जिनके राजनीतिक फलितार्थ हैं। एक तो रोजगार सृजन की और दूसरी विकास दर की। यह बात लगातार साफ हो रही है कि अर्थव्यवस्था से आठ से दस प्रतिशत की दर से विकास करने की स्थिति में नहीं है। आर्थिक सर्वेक्षण खंड दो के हिसाब से तो छह प्रतिशत की विकास दर हासिल करने के लिए भी बहुत मशक्कत करनी पड़ेगी। छह प्रतिशत की दर से विकास करती हुई अर्थव्यवस्था में रोजगार के अवसर डराने वाली तस्वीर तब पैदा करते हैं, जब तमाम रोजगारों को मशीन खत्म करने के संकेत दे रही हो। एक आकलन के मुताबिक और रोबोट-तकनीकी अगले पांच वर्षो में तीस प्रतिशत बैंक नौकरियां खत्म हो जाएंगी। इस आंकड़े की पुष्टि होती है जून 2016 से मार्च 2017 के बीच एचडीएफसी बैंक ने करीब 11000 लोगों के रोजगार खत्म किए हैं। दूसरे महत्त्वपूर्ण बैंक-एक्सिस बैंक ने अपने कुल कर्मिंयों की दस प्रतिशत संख्या यानी करीब 2,500 लोगों की छंटनी की है। यानी कम रोजगार लागत से ज्यादा कारोबार कर पाना संभव हो रहा है। सॉफ्टवेयर क्षेत्र की रोजगार की स्थिति भी सकारात्मक नहीं है। यानी रोजगार फिर आएगा कहां से? कम कुशल लोगों को रोजगार देनेवाले कंस्ट्रक्शन क्षेत्र की हालत खराब चल रही है। तमाम वजहें हैं उसकी चोर किस्म के बिल्डरों ने ग्राहकों को ऐसे लूटा है कि कंस्ट्रक्शन बाजार से ग्राहक गायब हैं। कंस्ट्रक्शन क्षेत्र में नये नियम लागू होने की वजह से छोटे बिल्डरों के लिए काम करना असंभव हो गया है। कुल मिलाकर रोजगार के नये अवसर मुश्किल से आ रहे हैं। निर्यात बढ़ा पाना संभव नहीं हो पा रहा है, विश्व अर्थव्यवस्था का हाल कुछ ऐसा है कि उसमें ज्यादा माल नहीं खपाया जा सकता। ऐसी सूरत में पूरी अर्थव्यवस्था में समग्र चमक पैदा करने का काम मुश्किल होता जा रहा है। ऐसी सूरत में एक रास्ता यह है कि चुनिंदा क्षेत्रों पर फोकस करके उन्हें राहत दी जाए फिर दावा संभव होगा कि अर्थव्यवस्था में इस तरह से तेजी रही है। सबसे बड़ी चुनौती सरकार के सामने यह है कि अगर रोजगार नहीं पैदा नहीं हो रहे हैं, तो 2019 के चुनावों में क्या जवाब दिए जाएंगे? उज्ज्वला और सौभाग्य योजनाएं कहीं-न-कहीं मतदाताओं को बताने की तैयारियां हैं, पर इनसे अर्थव्यवस्था के मूल मसले हल नहीं होते। मूल मसला यह है कि अर्थव्यवस्था में ऐसी स्थितियां बनें कि रोजगार पैदा हों और हरेक इतना कमा पाए कि किसी मुफ्तखोरी की जरूरत ना पड़े। पूरी अर्थव्यवस्था अगर चमक रही हो, तो फिर ऐसे पैबंदों की जरूरत नहीं पड़ती। पर अर्थव्यवस्था में तेज विकास दिखायी नहीं पड़ रहा है। कृषि की स्थिति खासी खराब है। वहां कर्जमाफी से फौरी तौर पर राहत है। पर कृषि की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वहां उत्पादकता बहुत कम है। खेती का काम कुल मिलाकर घाटे का सौदा बन गया है। खेती में बहुत कम उत्पादन में बहुत ज्यादा लोग लगे हुए हैं। यानी खेती पर निर्भर जनसंख्या को कम किया जाना है, अभी खेती में जैसे-तैसे लगे लोगों को खेती से हटाकर कहीं और रोजगार दिया जाना है। पर घूम-फिरकर वही सवाल आ जाता है-कहीं और रोजगार भी है कहां? सरकार के हुनर आधारित शिक्षण-प्रशिक्षण के परिणाम भी ठोस तौर पर आते नहीं दिखते। इस काम के लिए जिम्मेदार राजीव प्रताप रु डी को मंत्री पद से हटाया गया, उसकी मूल वजह यही थी कि उनकी परफारमेंस इस क्षेत्र में दिखायी नहीं दी। कुल मिलाकर उज्ज्वला और सौभाग्य अर्थव्यवस्था के सीमित इलाकों में थोड़ी चमक ला सकते हैं, पर समग्र अर्थव्यवस्था के मसले इनसे हल होनेवाले नहीं हैं। समाधान के वास्ते ज्यादा समग्र सोच और ज्यादा ठोस काम की जरूरत है।