30-01-2020 (Important News Clippings)

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30 Jan 2020
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Date:30-01-20

शर्जिल इमाम का बयान व देशद्रोह की परिभाषा

संपादकीय

शर्जिल इमाम देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार हो गया। आईआईटी, बॉम्बे से कम्प्यूटर इंजीनियर और नौकरी छोड़कर जेएनयू से शोधकर्ता बने इस वाम रुझान वाले बेहद प्रतिभावान युवा ने सरकार के पास उपलब्ध वीडियो में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में एक भाषण में कहा- ‘अगर हमारे पास पांच लाख लोग हों तो हम उत्तर-पूर्व को भारत से काट देंगे। अगर स्थायी तौर पर नहीं तो महीने-दो महीने के लिए। रास्तों और रेल मार्गों पर कूड़ा और पत्थर फैला दो, असम और इंडिया कटकर अलग हो जाएं तभी ये लोग हमारी बात सुनेंगे। और हम यह कर सकते हैं, क्योंकि पूर्वोत्तर और भारत को जोड़ने वाले चिकन नेक कॉरिडोर में मुसलमानों की बड़ी आबादी है’। द्रविड़ आंदोलन के दौरान तमिलनाडु के बड़े नेता सीएन अन्नादुरै ने राज्यसभा में अपने पहले भाषण में आज से 58 साल पहले कहा था- ‘द्रविड़ अपनी खुद-मुख्तारी की मांग करते हैं, ताकि वे दक्षिण भारतीयों के लिए अपना एक अलग देश बना सकें’। लेकिन, संसद ने इसे हंसकर टाल दिया। 1995 में बलवंत सिंह मामले में सुप्रीम कोर्ट ने खालिस्तान जिंदाबाद के नारे को कहीं से भी देशद्रोह नहीं माना, बल्कि केदारनाथ सिंह बनाम बिहार सरकार के 1962 के उस फैसले को बहाल रखा, जिसमें अंग्रेजों के ज़माने की देशद्रोह की धारा 124अ को ही असंवैधानिक माना गया था। कहते हैं कि प्रजातंत्र मजबूत होता है तो वैयक्तिक स्वतंत्रता या अभिव्यक्ति की आजादी को उत्तरोत्तर उदार बनाया जाता है। अमेरिकी संविधान निर्माता मेडिसन लगभग 250 वर्ष पहले यह कह सकते हैं कि अभिव्यक्ति की आजादी (प्रेस की स्वतंत्रता) भले ही कांटेदार हो, लेकिन इन कांटों वाली शाखाओं को काटने के बजाय इन्हें भी बढ़ने दें, क्योंकि इनसे फलों का विकास भी होगा। फिर प्रश्न यह है कि 70 साल के गणतंत्र के बाद क्या आज सरकारें असहिष्णु और दमनकारी हैं? इसे गहराई से देखने पर समझ में आता है कि पड़ोसी मुल्क का भारत में आतंक पैदा करने का सिंगल पॉइंट कार्यक्रम, ऐतिहासिक कारणों से बहुसंख्यकवाद का आक्रामक होना, कुछ कानूनी संशोधन के कारण सरकार के प्रति अविश्वास इस तनाव का कारण है। इस्लामिक आतंकवाद और धुर-वामपंथ के साथ होने से आतंक को नया आयाम मिलने का ख़तरा बढ़ गया है, लिहाज़ा सरकार का बेहद सख्त और सतर्क होना लाजमी है।


Date:30-01-20

नक्सलवाद व आतंकवाद में गठजोड़ का खतरा

अल्पसंख्यकों और वाम बुद्धिजीवियों में अविश्वास व आक्रामक बहुसंख्यकवाद से उभरा तनाव

एन के सिंह

चार दशक से पाक समर्थित आतंकवाद के सामने भारत में सबसे बड़ी चुनौती बौद्धिक व वैचारिक समर्थन न मिलने की रही है। लेकिन, एक ओर वर्तमान सरकार के प्रति अल्पसंख्यकों व वामपंथी सोच वाले बुद्धिजीवियों में अविश्वास और दूसरी ओर आक्रामक बहुसंख्यकवाद से उभरते सामाजिक तनाव ने आज शहरों में जमीन तलाशते नक्सलवाद और पाक समर्थित आतंकवाद को नजदीक ला दिया है। प्रवर्तन विभाग के नए खुलासे के अनुसार अल्पसंख्यक कट्टरवाद को बढ़ावा देने के साथ देश के तमाम इलाकों में हिंसक विरोध के पीछे खड़े पापुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) के खाते में 120 करोड़ रुपए जमा होना, देश के तमाम विश्वविद्यालयों में छात्र आंदोलन होना और वाम बुद्धिजीवियों का घरों से बाहर निकलना एक गहरे नए खतरे का संकेत है।

ध्यान रहे कि इंदिरा गांधी के काल तक आनंदमार्गियों को तत्कालीन सोवियत संघ का समर्थन इस कदर मिला कि रूसी नागरिक विमान, जंगलों में उनके लिए हथियार गिराते थे, लेकिन आईबी और अन्य पुलिस संस्थाओं ने इसे ख़त्म कर दिया, क्योंकि इसे व्यापक समर्थन नहीं था। आज स्थिति बदली है। पिछले चार साल से खुफिया संस्थाएं इस बढ़ते इस्लामिक नक्सल गठजोड़ को लेकर सरकार को आगाह कर रही हैं, लेकिन सरकार ने या तो राजनीतिक लाभ के लिए या अदूरदर्शिता के कारण आज अल्पसंख्यकों के मन में डर पैदा कर दिया कि उन्हें कभी भी डिटेंशन कैंप में डाला जा सकता है। सरकार को इस डर को ख़त्म करने के लिए समुचित उपाय करने थे, न कि उसी जोश में राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) के साथ राष्ट्रीय भारतीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरआईसी) को भी पूरी देश में लागू करने का संसद के पटल से ऐलान करना।

कोई एक दशक पहले इंटेलिजेंस एजेंसियों को कुछ मामलों में पाक समर्थित आतंकी संगठनों और नक्सलियों के बीच कुछ हथियारों के आदान-प्रदान के संकेत मिले थे, लेकिन ये गठजोड़ वैचारिक मतभेद, उद्देश्य विभेद और भौतिक क्षेत्र के अलग-अलग होने के कारण आगे नहीं बढ़ पाए। हालांकि, शहरी नक्सलवाद की अवधारणा और रणनीति का जिक्र कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओवादी) के 2004 में पैदा होने पर बने अर्बन पर्सपेक्टिव शीर्षक वाले दस्तावेज में विस्तार से मिलता है। भारतीय खुफिया एजेंसियों को भी यह दस्तावेज तत्काल मिल गया था। इसमें कहा गया था कि बिना शहरों पर कब्जा किए नई माओवादी व्यवस्था लाना असंभव है।

भीमा कोरेगांव (महाराष्ट्र) की 1 जनवरी, 2018 की घटना, जिसमें एक दलित की मौत हो गई और दो वर्गों के बीच हिंसा ने देशभर को चौंका दिया, दो साल बाद फिर गरम हो गया है। केंद्र सरकार ने इसे नक्सल आतंकवाद का नया चरण मानते हुए इसकी जांच राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) को सौंपने का फैसला पिछले हफ्ते किया है। यहां प्रश्न यह उठाता है कि इस घटना में शहरी नक्सलवाद के पदचिह्न क्या आज दो साल बाद दिखाई दिए? और अगर हां, तो केंद्र की आतंकवाद को लेकर कछुआ गति किस राष्ट्रवाद का परिचायक है? अगर नहीं, तो दो साल पहले ही इसकी जांच इस एजेंसी को क्यों नहीं सौंपी गई? जब घटना हुई थी तो केंद्र और राज्य दोनों में भाजपा और शिवसेना का शासन था और तब राज्य की पुलिस ने अलगार परिषद के 10 सदस्यों को जेल में डाल दिया था। यह भी आरोप था कि प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश का एक पत्र भी पुलिस के हाथ लगा है और इस घटना के तार माओवादियों से जुड़े हैं, जिन्हें शहरों में रह रहे वामपंथी बुद्धिजीवी मदद कर रहे हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि शहरों ही नहीं गांवों में भी नक्सलवादी सोच आसानी से नहीं पनप सकती। इसका प्रमाण नक्सलवाद के आज लगभग मरणासन्न स्थिति में पहुंचने से स्पष्ट है। वहीं पाक समर्थित आतंकवाद भारत के अल्पसंख्यकों में जड़ें नहीं जमा सका है। लेकिन, जब अस्तित्व का संकट दिखाई देने लगता है तो वह वर्ग चंदा भी देगा, शाहीन बाग में बैठेगा भी और संविधानप्रदत्त हर साधन का इस्तेमाल भी करेगा। उधर, वाम रुझान जो कि कुछ प्रोफेसरों और नौकरी की तलाश में समय व्यतीत कर रहे छात्रों/युवाओं की बौद्धिक जुगाली तक सीमित हो चुका था, उसको सरकार के रवैये से फिर कुछ ताकत मिली है। फिर देश के प्रमुख अखबारों में जब रामचंद्र गुहा सरीखे सम्मानित बुद्धिजीवी की पुलिस द्वारा हाथ पकड़ कर प्रदर्शन स्थल से ले जाते हुए फोटो छपती है तो विश्व समुदाय, यूरोपियन यूनियन की संसद और अमेरिकी संस्थाएं भी वर्तमान सरकार के खिलाफ हो जाती हैं। शायद सरकार नहीं समझ पा रही है कि नक्सल-इस्लामिक आतंकी गठजोड़ और 18 करोड़ मुसलमानों के मन में अस्तित्व खत्म होने का डर भारत को एक बड़ी अशांति की ओर ले जा सकता है या फिर वह यह समझ रही है कि बहुमत की राजनीति हर कदम को सही साबित करने की कुंजी है।


Date:29-01-20

स्वागतयोग्य समझौता

संपादकीय

उम्मीद की जानी चाहिए कि केंद्र‚ असम राज्य और बोडो आंदोलन के चार धड़ों के साथ त्रिपक्षीय समझौते से 1987 से जारी बोडो विवाद का पटाक्षेप हो जाएगा। हालांकि 27 वर्षो में यह तीसरा बोडो समझौता है‚ और 1993 तथा 2003 के समझौते शांति स्थापित करने में नाकाम रहे। इस समझौते के खिलाफ भी दूसरे मूलवासी समूहों का विरोध शुरू हो गया है। राज्य के कुछ खास इलाकों में 12 घंटे का बंद भी आयोजित किया गया। दरअसल‚ इस समझौते के तहत बनने वाला बोडोलैंड प्रादेशिक क्षेत्र (बीटीआर) 1993 के समझौते से बनी बोडोलैंड स्वायत्त परिषद (बीएसी) की जगह लेगा तो नई बोतल में पुरानी शराब जैसा ही होगा। बीएसी का क्षेत्र पश्चिम में सोंकोश नदी से लेकर पूरब में पचनोई नदी तक या ब्रह्मपुत्र के उत्तरी किनारे तक रहा है। इस पर बोडो आंदोलनकारियों में असंतोष है‚ वे पूर्ण राज्य की मांग करते रहे हैं। लेकिन पूर्ण राज्य की मांग कम से कम समझौते में शामिल गुटों ने छोड़ दी है। राजबंशी और दूसरे आदिवासी समूहों को इसलिए आशंका है कि बीटीआर में उनके अपने इलाके भी न आ जाएं। इन समूहों में भी कई तरह के आदिवासी हैं। फिलहाल‚ यह बीटीआर संविधान की छठी अनुसूची में शामिल आदिवासी अंचलों की तर्ज पर ही बनेगा जिसे केंद्र से विकास के लिए राशि भी मिलेगी। दरअसल‚ असम की कहानी इतनी पेचीदी है कि उसे सुलझाने के चक्कर में हर सरकार फंस जाती है। हाल में असम समझौते के तहत वहां सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर बनाने की पहल ही इस कदर उलझा साबित हुई है कि राज्य और केंद्र में भाजपा की अगुआई वाली सरकारें उसमें उलझती जा रही हैं। एनआरसी से 19 लाख लोग बाहर हुए और उनमें अधिकांश हिंदू ही हैं तो उन्हें मदद देने के लिए केंद्र को सीएए लाना पड़ा‚ जिसमें सरकार और फंस गई। असम में इसके विरोध के मद्देनजर उसे वहां के आदिवासियों और मूलवासियों को तरह–तरह से रियायतें देने की कोशिशें जारी हैं। कुछ इलाकों को सीएए के दायरे से पहले ही बाहर रखा गया है‚ तो उसी कड़ी में अब बोडो समझौते के जरिए एक खास वर्ग की आहत भावनाएं शांत करने की कोशिश की गई है। लेकिन इसके विरोध के मद्देनजर कहीं सरकार दूसरी पेचीदगी में न उलझ जाए। इस आशंका को ध्यान में रखा गया है तो अच्छी बात है‚ वरना बोडोलैंड में असंतोष फिर भड़क सकता है।


Date:29-01-20

राष्ट्रपिता का राष्ट्रवाद

अरविन्द मोहन

राष्ट्रपिता का राष्ट्रवाद। देश में हर बात पर राष्ट्रवाद भारी हो तब यह विषय बहुत जरूरी हो जाता है। संयोग से गांधी के डेढ सौवें साल के साथ आयोजनों की धूम भी है‚ और राष्ट्रवाद का शोर मचाने वालों के अनिवार्यतः गांधी विरोधी सुर के चलते भी इस सवाल को जांचना जरूरी लगता है। गांधी से बडा राष्ट्रवादी कौन होगा। इसलिए जब हम गांधी के राष्ट्रवाद की चर्चा कर लेंगे या उसके बारे में थोडी समझ बना लेंगे तब यह विचार करना भी आसान हो जाएगा कि आज का शोर कितना जरूरी है‚ और इस शोर के साथ अपने आचरण में हमें क्या बदलाव करना चाहिए क्योंकि आज राष्ट्र सचमुच के संकट में है।

एक विभाजन तो गांधी के समय ही हो गया और उसे लाख चाहकर भी वे खुद नहीं रोक पाए पर आज हम जिस विभाजक मानसिकता को बढाते जा रहे हैं‚ उसमें राष्ट्र के टुकडे–टुकडे हों न हों‚ वह गर्त में जरूर गिरेगा। गांधी के अंदर जब औपनिवेशिक शोषण‚ अन्याय और भेदभाव से लडने का भाव आया तब उसका स्वरूप ठीक–ठीक वही नहीं था‚ जो आज राष्ट्रवाद के नाम पर समझाया जा रहा है। गांधी और हमारे राष्ट्रीय नेताओं का मानना था कि भारत में दिखने वाली इतनी विविधता असल में बिखराव की चीज नहीं है। दरअसल‚ हमारे यहां विविधता में बुनियादी एकता है। भारत भले राजनैतिक रूप से अंगरेजी हुकूमत वाले दौर की तरह एक इकाई न हो पर उसके सभी प्रदेशों‚ लोगों‚ मजहबों‚ भाषाओं और बोलियों में कोई आपसी बैर नहीं रहा है। हजारों साल से सभी मजे से साथ हैं‚ और इनके बीच एक बुनियादी एकता है। गांधी के पहले के नेता इस स्थापना को सामने लाने के साथ ही उन सभी मोर्चों पर सक्रिय रहे जिनसे यह एकता दिखे या बढे। तिलक महाराज ने इसके लिए गणेश पूजा की मुहिम चलाई तो बंगाल में सार्वजनिक दुर्गा पूजा की शुरु आत उसी दौर में हुई‚ वरना पूजा पहले अपनी–अपनी बाडी की ही चीज थी। लिखने–पढने–बोलने से लेकर अनेक तरह के आयोजनों के जरिए इस राष्ट्रीयता को स्थापित किया गया। राष्ट्रीयता की यह अवधारण काफी हद तक युरोपीय थी और भारत ही नहीं‚ पूरब के समाजों के लिए अनजान थी लेकिन जब पश्चिमी औपनिवेशिक सत्ता से लडना हो तो उसे उसी की जुबान में जवाब देना जरूरी था।

केशव चंद्र सेन जैसे लोगों ने ईसाई मत अपना लिया था‚ लेकिन सती के देश भर में बिखरे अंगों के बीच एकता और सार्वजनिन दुर्गा पूजा के आयोजनों से उन्होंने अपना राष्ट्रवादी विमर्श आगे किया। एक बडी पहल विवेकानंद ने की–हिंदुस्तान में समाज की जडता को तोडने और झकझोरने की।दर्शन के बीच हिंदुस्तानी ज्ञानी कथनी और करनी के भेद को भूल गया था। वह छुआछूत बरतने या औरत से दोयम दरजे के व्यवहार को अनैतिक नहीं मानता था जबकि दर्शन और अध्यात्म की बहुत बातों का ज्ञान उसे हासिल था। गांधी ने तिलक–पाल–सेन वाली लाइन के साथ विवेकानंद की लाइन को भी माना‚ अपनाया और आगे बढाया. बल्कि उन्होंने विवेकानंद के लाइन को ज्यादा ही माना। समाज को एक करने‚ कमजोर और गरीब का पक्ष लेने से लेकर आथक और राजनैतिक रूप से मजबूत राष्ट्र का निर्माण और दुनिया में अच्छे मूल्यों को आगे बढाने वाले स्वतंत्र मुल्क के तौर पर भारत को विकसित करने के सपने को विवेकानंद से भी ज्यादा गांधी ने आगे बढाया। स्वामी जी को इसका ज्यादा वक्त नहीं मिला‚ लेकिन गांधी ने हिंदुस्तान लौटने के पूर्व ही यह राय साफ कर ली थी कि उन्हें कैसा हिंदुस्तान बनाना है‚ उसकी दुनिया में क्या भूमिका होगी और पश्चिमी शैतानी सभ्यता का क्या विकल्प होगा।

हमने देखा है कि जो गांधी दक्षिण अीका की लडाई में हिंदू–मुसलमान एकता और औरतों की भागीदारी के साथ लडते हैं‚ भारत आते ही पंचम वर्ण अर्थात अछूतों के साथ काम की रूपरेखा को अंजाम देने लगते हैं। चम्पारण पहुंच कर सबसे पहले महिलाओं की स्थिति पर चर्चा करते हैं। अपने पहले राष्ट्रव्यापी आंदोलन में खिलाफत के सवाल को केंद्रीय बनाते हैं। चम्पारण से ही वैकल्पिक शिक्षा‚ ग्रामोद्योग‚ गोशाला–पशुपालन और स्वच्छता–स्वास्थ्य के प्रयोग शुरू करते हैं। प्राकृतिक चिकित्सा और शराबबंदी की मुहिम चलाते हैं‚हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का अभियान शुरू करते हैं‚ दक्षिण में हिंदी प्रचार के लिए अपने बेटे समेत अनेक प्रियजनों को भेजते हैं और देश को आथक रूप से स्वावलंबी बनाने के लिए खादी की मुहिम उनके लिए जनून का रूप लेती है तो हरिजन उद्धार के लिए भीख मांगना उनकी राष्ट्रीय पहचान बन जाती है। वे पश्चिमी पोशाक और शानोशौकत को अपनाने की जगह आम हिंदुस्तानी की तरह लंगोट पर आ जाते हैं। उनके ‘राष्ट्र’ अर्थात रामराज्य में सिर्फ बराबरी‚ भाईचारा‚ सबकी बुनियादी जरूरतों का खयाल ही रखने की बात न थी‚ सबको सम्मान और निर्भयता का वायदा भी था। उनका हिंदुस्तान सबको बराबरी का अधिकार की बात पहले दिन से करता है तो दुनिया में अन्याय के खिलाफ लडाइयों में मददगार की भूमिका निभाने लगा था। गुजरात की बाढ‚ बिहार के भूकंप जैसी आपदाओं को भी अपने से संभालने लगा था. गांधी ने तिरंगे का अपमान किया हो‚ उसकी परवाह न की हो इसका कोई उल्लेख नहीं है‚ लेकिन गरीब के शरीर पर कपडा डालना उनका जनून था। उनके लिए खादी का खुरदुरापन या मोटे अनाज का भदेसपन समान व्यवहार की चीज थे। हर औरत–मर्द से बराबरी का व्यवहार‚ सादगी‚ मितव्ययिता और अनुशासन में से कुछ भी दिखावटी और दूसरों के करने की चीज न थी। पक्का वैष्णव होते हुए भी मन्दिर जाने की जरूरत तभी महसूस हुई जब दलितों को मन्दिर प्रवेश कराना था। कई विश्वविद्यालय/विद्यापीठ और हजारों स्कूल–कॉलेज बनवाने का जतन किया पर कहीं मन्दिर–मस्जिद या मूत लगवा कर राष्ट्रवाद को आगे नहीं बढाया। ॥ गांधी ने क्या–क्या किया‚ कैसे किया‚ किस सोच से किया यह गिनवाना आसान नहीं है पर उनकी दिशा‚ सोच और मंशा को बताना मुश्किल नहीं है। अगर उनको राष्ट्रपिता कहा और गिना जाता है तो इसक सीधा सा मतलब है कि आज जो राष्ट्र है उसको बनाने‚ मौजूदा स्वरूप देने में उनकी भूमिका सबसे बडी‚ सबसे ज्यादा थी। और जो राष्ट्र उन्होंने बनाया वह सिर्र्फ औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के लिए दुनिया का मॉडल ही नहीं बना‚ अन्याय से लडाई में उनका हथियार सत्याग्रह आज सबका हथियार बन रहा है। गांधी की अहिंसा ही नहीं विकास का वैकल्पिक मॉड़ल दुनिया को मुक्ति का रास्ता नजर आता है। वह लोहिया की इस बुनियादी स्थापना को सही साबित करता है कि भारत जब–जब उदार हुआ है दुनिया में उसका विस्तार हुआ है। जब–जब कट्टरता बढी है भारत कमजोर व खंडित हुआ है। आज राष्ट्रपिता के राष्ट्रवाद के साथ इस चीज को भी याद करने की जरूरत है।


Date:29-01-20

बोडो समझौते से बंधी उम्मीदें

रविशंकर रवि

बोडो समझौते की सबसे महत्वपूर्ण बात यही है कि इस समझौते में बोडो जनजाति समूह की राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करके असम के एक और विभाजन को टाल दिया गया है। बोडो संगठनों की अधिकांश मांगें मान ली गई हैं। यही वजह है कि अलग राज्य के लिए लोकतांत्रिक आंदोलन करने वाले ऑल बोडो स्टूडेंट्स यूनियन और बंदूक उठाने वाले नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड के सभी गुट नए समझौते पर हस्ताक्षर करने को सहमत हो गए। बोडोलैंड क्षेत्रीय परिषद के मौजूदा अध्यक्ष हाग्रामा मोहिलारी के नेतृत्व वाले बोडोलैंड लिबरेशन टाइगर्स ने अटल बिहारी वाजपेयी के शासन में 10 फरवरी, 2003 को हथियार डाल दिए थे। इसके बाद बोडोलैंड क्षेत्रीय परिषद का गठन हुआ था, लेकिन दूसरी तरफ नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड का हिंसक आंदोलन जारी रहा। वहीं ऑल बोडो स्टूडेंट्स यूनियन ने अपना लोकतांत्रिक आंदोलन जारी रखा।

अलग राज्य की उनकी मांग की कई वजहें थीं। सबसे बड़ी वजह थी असम सरकार की उपेक्षापूर्ण नीति। लेकिन मौजूदा समझौते के तहत बोडो जनजातीय समूह को अब अधिक अधिकार मिलेंगे। प्रस्तावित बोडोलैंड टेरिटोरीयल रीजन को पर्याप्त वैधानिक, प्रशासनिक और वित्तीय अधिकार मिल जाएंगे। परषिद के सदस्यों की संख्या भी 60 कर दी गई है, यानी उनके पास लगभग पूरी विधानसभा होगी। इससे उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरी हो जाएगी। बोडो के मैदानी इलाके को अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्राप्त है, लेकिन पहाड़ी इलाके में उन्हें यह सुविधा प्राप्त नहीं थी, जो पूरी तरह से अव्यावहारिक था। बोडो इलाके में बोडो माध्यम के स्कूल खोलने में आनाकानी की जाती थी। नए समझौते के बाद वे लोग अपनी भाषा के विकास के लिए स्कूल स्थापित कर सकेंगे और इसके लिए एक अलग निदेशालय भी होगा, यानी अब शिक्षा का अधिकार प्रस्तावित परिषद बीटीआर के पास होगा। बोडो भाषा को असम की सरकारी भाषा के रूप में मान्यता दी गई है। बोडो भाषा के लिए देवनागरी लिपि का प्रचलन है।

इस समझौते को देश के अन्य इलाकों में अलग राज्य की मांग करने वाले संगठनों के समक्ष एक मॉडल के रूप में रखा जा सकेगा। यह समझौता इस बात को रेखांकित करता है कि बिना किसी राज्य का विभाजन किए क्षेत्र विशेष की जनता की मांगों को पूरा करने के लिए कदम उठाए जा सकते हैं। इस समझौते का असम के साथ पूरे पूर्वोत्तर भारत पर दूरगामी असर पडे़गा। इस समझौते की सबसे बड़ी सफलता यह है कि इसमें नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड के सभी गुटों को शामिल कर लिया गया, जिससे समझौते को मजबूत आधार मिल गया है। यदि समझौता किसी एक गुट के साथ किया जाता, तो वह स्थाई समाधान नहीं हो सकता था, क्योंकि जब दूसरे गुट के साथ समझौता होगा, तो नए सिरे से समझौता करना होगा। यही बात नगालैंड में एनएससीएन से जारी शांति वार्ता पर लागू होती है। यदि नगालैंड में एक उग्रवादी गुट के साथ समझौता होगा, तो दूसरे गुटों का हिंसक आंदोलन जारी रहेगा। इसका मतलब समस्या के स्थाई समाधान से मुंह चुराना होगा। समझौते का राजनीतिक लाभ तो मिल जाएगा, लेकिन ऐसा समझौता कभी स्थाई समाधान नहीं हो सकता है। अच्छी बात यह है कि केंद्र सरकार नगा उग्रवाद के मामले में भी सभी गुटों से वार्ता कर रही है, ताकि समझौते में सभी गुटों को शामिल किया जाए। पूर्वोत्तर में अक्सर अलग-अलग गुटों से समझौता होता रहा है। इसलिए कुछ दिनों की शांति के बाद उग्रवादी हिंसा फिर शुरू हो जाती है। असम के पहाड़ी जिले में कई समझौते हो चुके, पर कुछ दिनों के बाद असंतुष्ट उग्रवादी एक नया गुट बनाकर हिंसा आरंभ करते रहे हैं। बोडो समझौते में इस बात का ध्यान रखा गया है।

पूर्वोत्तरके लोग अपनी भाषा और संस्कृति के मामले में काफी संवेदनशील रहे हैं। कई जनजातीय समूहों की आबादी कुछ हजार ही होगी। बहरहाल, जिस तरह से बोडो को असम की सरकारी भाषा बनाया गया है, उसका असर पूर्वोत्तर की दूसरी भाषाओं और बोलियों पर भी पडे़गा। उन भाषाओं और बोलियों का इस्तेमाल करने वाले छोटे-छोटे समूहों में यह विश्वास बढे़गा कि केंद्र सरकार उनकी भाषा और बोली के संरक्षण के लिए कदम उठाएगी।

यह कहना गलत नहीं होगा कि एक लंबे आंदोलन के बाद असम की ब्रह्मपुत्र घाटी में फैले बोडो जनजातीय लोगों को आखिरकार अपना हक मिल गया। वैसे उनका आंदोलन अलग राज्य के लिए आरंभ हुआ था। बोडो जनजाति आजादी के समय मेघालय से सटे बांग्लादेश की सीमा तक फैली थी। लेकिन अवैध घुसपैठ की वजह से वे लोग पीछे हटते रहे। उन्हें दूसरे लोगों के साथ रहना पसंद नहीं था। वे पीछे हटते-हटते भूटान की सीमा तक आ गए। इसके बाद उनके अंदर अतिक्रमण के खिलाफ गुस्सा बढ़ा, जिसके परिणामस्वरूप उन्होंने अलग बोडो राज्य की मांग के साथ1966 में प्लेन ट्राइबल कौंसिल ऑफ असम की अगुवाई में आंदोलन आरंभ कर दिया। तब ‘उदयाचल’ नामक अलग राज्य के गठन के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति जाकिर हुसैन को एक ज्ञापन भी सौंपा गया गया था। बाद में उग्रवादी हिंसा आरंभ हो गई। उसी बीच ऑल बोडो स्टूडेंट्स यूनियन का गठन हुआ और इसके अध्यक्ष उपेन ब्रह्म ने असम को बराबर दो हिस्से में बांटने के लिए लंबा आंदोलन किया। सरकारी दमन बढ़ा, तो एक के बाद दूसरे उग्रवादी संगठन का जन्म होने लगा। पहले बोडोलैंड सिक्युरिटी फोर्स (बीएसएफ) नामक उग्रवादी संगठन का जन्म हुआ। उनके बीच विभाजन के बाद नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड का गठन हुआ। इसमें भी विभाजन हुआ और हाग्रामा मोहिलारी के नेतृत्व में एक नया संगठन- बोडो लिबरेशन टाइगर्स का जन्म हुआ। इन दोनों संगठनों के बीच गुटीय हिंसा में सैकड़ों लोग मारे गए। उतार-चढ़ाव के बीच आंदोलन चलता रहा। इस आंदोलन में चार हजार से अधिक लोग मारे गए।अब करीब 1,500 उग्रवादी अपने हथियार डालने की समारोहपूर्वक तैयारी कर रहे हैं। यदि समझौते को ईमानदारी से जमीन पर उतारा गया, तो उस पूरे क्षेत्र के विकास को नई गति मिलेगी। साफ है, इसका प्रभाव दूसरे आंदोलनरत पिछडे़ इलाकों पर भी पड़ेगा। लेकिन इसमें असम सरकार और बोडो नेतृत्व को अपने अरमानों को साकार करने की पहल करनी होगी, वरना यह समझौता प्रभावहीन हो जाएगा।