30-01-2019 (Important News Clippings)

Afeias
30 Jan 2019
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Date:30-01-19

Banks Need Reform, Not Exhortations

ET Editorials

The right incentives and the right institutional framework, complete with rigorous governance norms, are what bankers need to lend to deserving borrowers without reservation, not exhortations by either the interim finance minister or the RBI governor. Any credit decision involves judgment of risk. Not all wrong calls are malafide.

Nevertheless, bankers worry that enforcement agencies would come calling on them even when there is no malfeasance. At a performance review of state-owned banks, finance minister Piyush Goyal sought to assuage the morale of bank chiefs, saying the government would protect genuine commercial decisions. But who would decide whether a decision was genuine or not? Is the reassurance temporary or contingent? Such questions should be made redundant by reforming the ownership structure of banking, banking governance and the incentive structure of bankers. The government should vest bank ownership in a holding company whose board should appoint boards of individual banks. The holding company can leverage its capital to inject capital in banks, and shield banks from politicians and bureaucrats who meddle with decision making.

It can institute a remuneration structure that rewards the performance of bankers, aligning it with the performance over time of assets that they originate. The largest chunk of their total remuneration must be a long-term variable pay linked to the performance of bank stocks to promote the culture of maximising returns. That is the global norm including in investment banks that offer hefty incentives to get the best talent.

The profitability of state-owned banks will improve when they step up MSME loans. MSMEs would then not have to turn to assorted non-banking finance companies and informal lenders for their needs. Banks need to get the expertise to assess MSME loan viability. They need to hire more people, acquire new skills and invest in IT and data mining. Institutional and governance reforms, besides capital infusion, should be the government’s focus.


Date:30-01-19

बेनामी संपत्ति की समस्या

संपादकीय

आयकर विभाग की ओर से दी गई यह सूचना कोई बहुत उत्साहित करने वाली नहीं है कि उसने बेनामी लेनदेन (निषेध) अधिनियम के तहत अब तक 6,900 करोड़ रुपये की संपत्तियां जब्त की हैं। नवंबर 2016 में जब बेनामी संपत्तियों संबंधी अधिनियम में संशोधन किया गया था तो यह माना गया था कि इसके जरिये कालेधन वालों पर शिकंजा कसने में आसानी होगी, लेकिन यदि करीब दो साल बाद लगभग सात हजार करोड़ रुपये की ही बेनामी संपत्ति जब्त की जा सकी है तो फिर इसका मतलब है कि इस तरह की संपत्ति हासिल करने वाले कानूनी कार्रवाई से बचे हुए हैं।

इसमें संदेह है कि आयकर विभाग की ओर से इस आशय का प्रचार करने से बात बनेगी कि लोग बेनामी संपत्तियों की जानकारी देने के लिए आगे आएं। इसी तरह इसमें भी संदेह है कि ऐसी कोई चेतावनी प्रभावी साबित होगी कि बेनामी संपत्ति अर्जित करने वाले अथवा ऐसी संपत्ति की खरीद-फरोख्त में सहायक बनने वाले दंड का पात्र बनेंगे। यह सही है कि संशोधन के बाद बेनामी कानून कहीं अधिक प्रभावी हो गया है, लेकिन समस्या यह है कि बेनामी संपत्ति का पता लगाना अभी भी मुश्किल है। इस मुश्किल का कारण यह है कि जमीन-जायदाद संबंधी रिकॉर्ड सही तरह से तैयार नहीं किए जा सके हैं। यह आवश्यक ही नहीं, बल्कि अनिवार्य है कि जमीन-जायदाद संबंधी दस्तावेजों का कंप्यूटरीकरण किया जाए। कालेधन और भ्रष्टाचार पर अंकुश तभी लग सकता है जब चल के साथ अचल संपत्ति की छानबीन भी आसान हो सके। यह ठीक नहीं कि बेनामी संपत्ति खरीदना अभी भी आसान बना हुआ है।

बेनामी संपत्तियों की जब्ती से जुड़े मामलों में यही अधिक देखने में आ रहा है कि आम तौर पर वही लोग आयकर विभाग की गिरफ्त में आ पा रहे हैं जो किसी घपले-घोटाले में फंस जा रहे हैं। आयकर विभाग की यह अपेक्षा तो उचित है कि आम लोग बेनामी संपत्ति की बुराई को खत्म करने में सरकार का सहयोग करें, लेकिन ऐसा तो तभी हो सकता है जब आम लोगों को इस बारे में कुछ पता हो। बेनामी संपत्ति भ्रष्टाचार का तो जरिया हैै ही, कालेधन को खपाने-छिपाने का स्रोत भी है। बेनामी संपत्ति वाले तमाम लोग राजनीति में भी सक्रिय हैं। नेताओं के साथ नौकरशाह भी बेनामी संपत्ति के जरिये अपनी काली कमाई ठिकाने लगाते हैं।

यदि सरकार बेनामी संपत्ति वालों पर सचमुच शिकंजा कसना चाहती है तो उसे आयकर विभाग को आवश्यक संसाधनों से लैस करने के साथ ही यह भी देखना होगा कि बेनामी संपत्तियों के मामलों की सुनवाई के लिए न्यायिक प्राधिकरण अपनी पूरी क्षमता के साथ काम करने में सक्षम हो। अभी ऐसी स्थिति नहीं है और इसी कारण करोड़ों रुपये की संपत्तियों की जब्ती के मामले अधर में अटके हैं। नए बेनामी कानून के तहत सरकार को एक प्राधिकरण का गठन करना था, लेकिन अभी तक ऐसा नहीं हो सका है। इसके चलते बेनामी संपत्ति जब्ती के मामले तेजी से नहीं निपट पा रहे हैं। अभी इन मामलों का निपटारा मनी लांड्रिंग निरोधक कानून संबंधी जो प्राधिकरण कर रहा है वह पहले से ही काम के बोझ से दबा है।


Date:29-01-19

इंदौर का संदेश

संपादकीय

मध्यप्रदेश के इंदौर शहर ने हाल में कूड़े के एक पहाड़ को खत्म करने में जो बड़ी कामयाबी हासिल की है, वह देश के सभी शहरों और खासतौर से राजधानी दिल्ली के लिए एक बड़ा संदेश है। देश के ज्यादातर शहर कचरे की बढ़ती समस्या से ग्रस्त हैं। इसका नतीजा शहरों में कचरे के पहाड़ खड़े होने के रूप में सामने आ रहा है। मगर इस समस्या से निपटने में इंदौर ने जो दिशा दिखाई है, उससे प्रेरणा लेने की जरूरत है। इंदौर में पिछले चालीस साल से कूड़े का पहाड़ एक जटिल समस्या बना हुआ था। लेकिन पिछले साल नगर निगम ने इसे हटाने की ठानी और इस दिशा में काम शुरू कर दिया। चार महीने के भीतर कूड़े का पहाड़ साफ हो गया और लोगों को जहरीली-बदबूदार हवा से मुक्ति मिली। आश्चर्य यह है कि इस काम के लिए ऐसा कुछ भी नहीं किया गया जिसमें करोड़ों-अरबों के खर्च की जरूरत पड़ती या हजारों लोगों को इस काम में जुटाना पड़ता। इसके लिए सत्रह अर्थ मूविंग मशीनें किराए पर ली गईं और दो पालियों में डेढ़-डेढ़ सौ मजदूरों को काम पर लगाया गया। कचरे का रासायनिक विधि से उपचार किया गया और फिर उसमें से प्लास्टिक, गत्ते, चमड़े और धातुओं के टुकड़ों को अलग करके कबाड़ में बेच दिया गया। कचरे से जो जमीन खाली होती गई, उस पर पेड़-पौधे लगाने शुरू किए गए।

कुल मिला कर व्यवस्थित रूप से जो काम शुरू किया गया, उसी का नतीजा है कि कूड़े का पहाड़ आज एक छोटे हरियाले वन का रूप ले चुका है। दरअसल, कचरा निपटान की दिशा में इंदौर पहले भी एक मिसाल कायम कर चुका है। पिछले साल नगर निगम ने फल-सब्जियों के कचरे से बायो-सीएनजी गैस तैयार कर इससे सिटी बसें व ऑटो चलाने में कामयाबी हासिल की थी। गैस उत्पादन के लिए निगम ने फल-सब्जी मंडी में संयंत्र लगाया था। गैस उत्पादन के बाद जो अपशिष्ट बचा उसका उपयोग कंपोस्ट खाद बनाने में किया गया। इंदौर नगर निगम की इस कामयाबी से यही साबित हुआ है कि अगर हमारे स्थानीय निकाय, प्रशासन और सरकार ठान लें तो शहरों को कचरा मुक्त बनाने में कोई समस्या नहीं है। लेकिन देश के ज्यादातर शहरों में नगर निगम खस्ताहाल हैं। निगमों के पास जरूरी कामों के लिए बजट तक नहीं होता। कर्मचारियों को महीनों वेतन नहीं मिलता। ठेके पर काम कराने की संस्कृति ने निगमों को भ्रष्टाचार का बड़ा अड्डा बना डाला है।

दिल्ली में कूड़े के तीन बड़े पहाड़ हैं और ये तीन दशक से ज्यादा पुराने हैं। लेकिन अफसोसजनक बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट की बार-बार फटकार के बावजूद इन्हें हटाने की दिशा में ऐसा कुछ नहीं किया गया है, जिससे लगे कि आने वाले वक्त में दिल्ली की जनता इनसे मुक्ति पा सकेगी। इन्हें हटाने को लेकर सुप्रीम कोर्ट कई बार उपराज्यपाल सहित तमाम आला अफसरों तक को तलब कर चुका है, फटकार लगा चुका है, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला। ऐसे में कचरे के पहाड़ों का कद बढ़ता जा रहा है। अगर इंदौर नगर निगम चार-पांच महीने में कूड़े का पहाड़ हटा सकता है तो दिल्ली की सरकार और इसके निगम ये काम क्यों नहीं कर सकते? जाहिर है, इंदौर के इस महाभियान में कोई राजनीति नहीं हुई, जबकि दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल कचरा निपटान जैसे मुद्दे पर राजनीति करने में लगे रहे और जनहित के काम को नजरअंदाज कर दिया। बेहतर हो कि राजनीति को अलग रख कर इंदौर की कामयाबी से सबक लिया जाए।


Date:29-01-19

Think differently about healthcare

India’s public health system can no longer function within the shadows of its health services system

Ravikumar Chockalingam, (Ravikumar Chockalingam is a public health scholar and psychiatrist at the Veterans Affairs Medical Center, Saint Louis, Missouri)

In India, public health and health services have been synonymous. This integration has dwarfed the growth of a comprehensive public health system, which is critical to overcome some of the systemic challenges in healthcare. A stark increase in population growth, along with rising life expectancy, provides the burden of chronic diseases. Tackling this requires an interdisciplinary approach. An individual-centric approach within healthcare centres does little to promote well-being in the community. Seat belt laws, regulations around food and drug safety, and policies for tobacco and substance use as well as climate change and clean energy are all intrinsic to health, but they are not necessarily the responsibilities of healthcare services. As most nations realise the vitality of a robust public health system, India lacks a comprehensive model that isn’t subservient to healthcare services.

A different curriculum

India’s public health workforce come from an estimated 51 colleges that offer a graduate programme in public health. This number is lower at the undergraduate level. In stark contrast, 238 universities offer a Master of Public Health (MPH) degree in the U.S.

In addition to the quantitative problem, India also has a diversity problem. A diverse student population is necessary to create an interdisciplinary workforce. The 2017 Gorakhpur tragedy in Uttar Pradesh, the 2018 Majerhat bridge collapse in Kolkata, air pollution in Delhi and the Punjab narcotics crisis are all public health tragedies. In all these cases, the quality of healthcare services is critical to prevent morbidity and mortality. However, a well organised public health system with supporting infrastructure strives to prevent catastrophic events like this.

Public health tracks range from research, global health, health communication, urban planning, health policy, environmental science, behavioural sciences, healthcare management, financing, and behavioural economics. In the U.S., it is routine for public health graduates to come from engineering, social work, medicine, finance, law, architecture, and anthropology. This diversity is further enhanced by a curriculum that enables graduates to become key stakeholders in the health system. Hence, strong academic programmes are critical to harness the potential that students from various disciplines will prospectively bring to MPH training.

Investments in health and social services tend to take precedence over public health expenditure. While benefits from population-level investments are usually long term but sustained, they tend to accrue much later than the tenure of most politicians. This is often cited to be a reason for reluctance in investing in public health as opposed to other health and social services. This is not only specific to India; most national health systems struggle with this conundrum. A recent systematic review on Return on Investment (ROI) in public health looked at health promotion, legislation, social determinants, and health protection. They opine that a $1 investment in the taxation of sugary beverages can yield returns of $55 in the long term. Another study showed a $9 ROI for every dollar spent on early childhood health, while tobacco prevention programmes yield a 1,900% ROI for every dollar spent. The impact of saving valuable revenue through prevention is indispensable for growing economies like India.

Problem of health literacy

Legislation is often shaped by public perception. While it is ideal for legislation to be informed by research, it is rarely the case. It is health literacy through health communication that shapes this perception. Health communication, an integral arm of public health, aims to disseminate critical information to improve the health literacy of the population. The World Health Organisation calls for efforts to improve health literacy, which is an independent determinant of better health outcome. Data from the U.S. show that close to half of Americans lack the necessary knowledge to act on health information and one-third of Europeans have problems with health literacy. India certainly has a serious problem with health literacy and it is the responsibility of public health professionals to close this gap.

Equally important is a system of evaluating national programmes. While some fail due to the internal validity of the intervention itself, many fail from improper implementation. Programme planning, implementation and evaluation matrices will distinguish formative and outcome evaluation, so valuable time and money can be saved. The public health system looks at the social ecology and determinants focusing on optimising wellness. Healthcare services, on the other hand, primarily focus on preventing morbidity and mortality. A comprehensive healthcare system will seamlessly bridge the two.

A council for public health

A central body along the lines of a council for public health may be envisaged to synergistically work with agencies such as the public works department, the narcotics bureau, water management, food safety, sanitation, urban and rural planning, housing and infrastructure to promote population-level health. In many ways, these agencies serve to bring in many facets of existing State and federal agencies and force them to see through the lens of public health. The proposed council for public health should also work closely with academic institutions to develop curriculum and provide license and accreditation to schools to promote interdisciplinary curriculum in public health.

As international health systems are combating rising healthcare costs, there is an impending need to systematically make healthcare inclusive to all. While the proposed, comprehensive insurance programme Ayushman Bharat caters to a subset of the population, systemic reforms in public health will shift the entire population to better health. Regulatory challenges force governments to deploy cost-effective solutions while ethical challenges to create equitable services concerns all of India. With the infusion of technology driving costs on the secondary and tertiary end, it is going to be paramount for India to reinvigorate its public health system to maximise prevention. India’s public health system can no longer function within the shadow of its health services.


Date:29-01-19

Investment over subsidies

A reconfiguration of public policy is needed to replace agricultural subsidies with investment

Pulapre Balakrishnan, (Pulapre Balakrishnan is Professor, Ashoka University and Senior Fellow, IIM Kozhikode)

We are witnessing something akin to lobbying for a universal basic income whereby every Indian citizen gets money paid into their bank account. A recent proposal published in the print media is presented also as a solution to the current agrarian impasse. It argues for the removal of all agricultural subsidies, which range from fertilizer subsidies to those on interest, water and power, and distributing the saving among most of the rural population. To its authors, this scheme presents itself as addressing ‘rural’ and not just ‘farm’ distress. To evaluate what is being proposed as a way out of the present agrarian crisis it would be useful to understand what defines it and to recognise the originally intended role for the agricultural subsidy.

At its core the agrarian crisis is a case of agricultural activity not yielding enough returns for a section of the farming population. This group is facing a declining farm size due to partitioning across generations. As this population grows the process of fragmentation of the family farm will continue, with succeeding generations staring at a shrinking pie. There are two solutions to this problem. One is the obvious one of enabling some members of each household to shift out of farming. The other is to reconfigure public expenditure on agriculture to raise the yield of land. Actually, the latter would serve both objectives.

A reconfiguration of public policy is needed to replace agricultural subsidies by capital formation or ‘investment’. For three and a half decades now subsidies have progressively replaced public investment for agriculture. Having once been less than half that of investment it is now five times as large. Evidence points strongly to a case for moving some distance back. The impact of public investment on both the yield of land and rural poverty, encompassing a cohort wider than farmers, is far greater than that of fertilizer, electricity, irrigation and interest rate subsidy. This crucial finding is due to the Sino-Indian team of economists Shenggen Fan, Ashok Gulati and Sukhadeo Thorat. In their study, the investments found most valuable were “educational” and on rural roads.

The agricultural subsidies that are now found wasteful were designed with a purpose. The plan was to place agricultural production on a sound footing. It envisioned raising the yield of land, which works to generate rising output without inflation and with reasonable profit. The price of food has historically been high for Indians at the bottom of the income distribution. This has held back industrialisation and the desirable shifting of population away from farming to other activities. Even a total elimination of subsidies to enable this transformation via public investment may not be such a bad thing. However, eliminating them merely to implement a universal basic income would be unwise.