30-01-2017 (Important News Clippings)

Afeias
30 Jan 2017
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Date: 30-01-17

So That FPI Grrr Won’t Scuttle Gaar

The finance ministry has done well to both stick to its timetable for implementing the general anti-avoidance rules (Gaar) and assuage foreign investors’ fears over their implementation. A law is already in place, along with clarifications, to curb sharp practices. Foreign portfolio investors coming through Mauritius and Singapore will be spared, so long as the sole purpose of an FPI arrangement is not be to obtain tax benefits. India does have a specific anti-avoidance rule, called the limitation of benefit (LoB), in the revised tax treaties with the two countries, to curb treaty shopping. The tax department has said that Gaar will not be invoked if a case of avoidance is “sufficiently” addressed by the LoB clause. Gaar would entail discretion and hence safeguards must be in place to prevent arbitrariness.

A two-stage process — Gaar proposals will first be vetted by a principal commissioner and then by an approving panel headed by a high court judge — makes sense. The onus of proving whether a deal is done to avoid tax rests with the tax department. So, it must collect proper evidence before lifting the corporate veil to scrutinise any deal. Else, it will lead to unwarranted disputes. Investors need not just clear laws but certainty in the tax system. The goal should be to curb tax avoidance without damaging the country’s appeal as a place for doing business.

Globally, countries are moving towards greater taxtransparency, and curbing base erosion and profit shifting. Rightly, the OECD has come out with rules to “tax enterprises where economic activities take place and where value is created” mainly to prevent MNCs from using the differences in rules between countries to lower their tax outgo. Many tax treaties incorporate a principal purpose test, to see if a treaty jurisdiction is being used only to get a tax benefit. In 2012, the Shome Committee had called Gaar an “extremely advanced instrument” and recommended intensive training of tax officers. It would be reassuring if the tax department were to disclose its level of preparedness for Gaar.


Date: 30-01-17

TPP is dead, long live RCEP, er WTO

On his first day in office, President Donald Trump withdrew America from a mega-free trade agreement called the Trans Pacific Partnership (TPP). India must work double hard to strengthen the World Trade Organization and its multilateral framework, which is also likely to come under attack from new protectionism in the US. India should also pursue other trade deals, like the Asean plus six Regional Comprehensive Economic Partnership (RCEP). However, such trade deals are no substitute for a strong, rule-based multilateral framework, which the WTO represents. The WTO has been languishing and needs the active support of a country like India.

TPP, started by Barak Obama, comprised 12 Pacific Rim countries, including the three North American states, Australia and New Zealand, Japan, four members of Asean and two Latin American countries. Its goal was to write the rules of economic engagement covering trade, investment protection, governance, dispute settlement, environment, labour standards and intellectual property in Asia that other nations, particularly China, would be forced to follow later. TPP sought to extend its own standards of intellectual property rights (IPRs), more stringent than what India has committed to under trade-related intellectual property standards (TRIPS), across the trading bloc. This would have been a sticking point for India’s joining the group. Australia favours persisting with TPP minus the US but including China. Japan will have none of it. This means that the deal stands still-born. India needs to actively pursue other trade agreements in the making, such as RCEP, the one with the EU and that with Australia. Trade deals succeed when the domestic economy is strong and when a rule-based multilateral framework remains a default option.


Date: 30-01-17

आइएसआइ का फैलता जाल

राष्ट्रीय जांच एजेंसी यानी एनआइए को कानपुर के नजदीक इंदौर-पटना एक्सप्रेस और आंध्र प्रदेश में हीराखंड एक्सप्रेस दुर्घटना की जांच सौंप दी गई। यह फैसला इसलिए किया गया, क्योंकि इन ट्रे्न दुर्घटनाओं के पीछे पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आइएसआइ का हाथ होने का अंदेशा है। हालांकि ऐसे हादसों के लिए सबसे बड़ी वजह रेल पटरियों की देखभाल में लापरवाही होती है, लेकिन यह भी सच है कि हाल के दशकों में समूचे भारत में आइएसआइ की सक्रियता बढ़ी है। बीते कुछ सालों में बड़ी संख्या में भारतीय खासकर गैर मुस्लिम आइएसआइ के एजेंट के रूप में काम करने के आरोप में गिरफ्तार किए गए हैं।

इसमें पूर्व सैन्य अधिकारी, संदिग्ध आतंकी, सैन्य कर्मचारी, अपराधी और कई अन्य लोग शामिल रहे हैं। देश के जिन शहरों से आइएसआइ के एजेंट गिरफ्तार किए गए उनमें प्रमुख हैं-अहमदाबाद, जैसलमेर, जोधपुर, जयपुर, मुंबई, दिल्ली, मोहाली, अमृतसर, चंडीगढ़, पटियाला, जालंधर, शिमला, अलीगढ़, मेरठ, कानपुर, लखनऊ, गोरखपुर, पटना, कोलकाता, दार्जिलिंग, अगरतला, हैदराबाद, भोपाल, बेंगलुरु, चेन्नई आदि। भारत में आइएसआइ के दो तरह के एजेंट सक्रिय हैं। एक वे हैं जो सेना से जुड़ी गुप्त सूचनाओं को इकट्ठा करते हैं और दूसरे वे हैं जो आतंकी मॉड्यूल की भर्ती करते हैं और योजना बनाते हैं। इसके अलावा कुछ वे भी हैं जो देश में तोड़फोड़ की गतिविधियों को अंजाम देने और नकली नोटों को खपाने में लगे रहते हैं।

अपनी पुस्तक पाकिस्तान्स आइएसआइ : नेटवर्क ऑफ टेरर इन इंडिया में एसके घोष ने गिरफ्तार किए गए आइएसआइ एजेंटों के बयानों के आधार पर देश में आइएसआइ की गतिविधियों की विस्तार से चर्चा की है। वह लिखते हैं कि आइएसआइ कश्मीरी मुसलमानों का इस्तेमाल करती है और पूरे देश में आतंकवाद फैलाती है। वह अपना मजबूत नेटवर्क तैयार करने के लिए देश के हर हिस्से में आतंकियों एवं जासूसों को खड़ा करती है और प्रमुख शहरों में श्रृंखलाबद्ध हमले करवाती है। भारत में जहां मुसलमानों की तादाद ज्यादा है वहां वह उग्रवाद को बढ़ावा देती है और भारत के खिलाफ पाकिस्तान को छद्म युद्ध के नए मौके उपलब्ध कराती है। 1993 के मुंबई में हुए श्रृंखलाबद्ध बम धमाकों के बारे में घोष कहते हैं कि उसकी वजह हिंदू-मुस्लिम समस्या नहीं, बल्कि भारत-पाकिस्तान समस्या थी।

आइएसआइ को पाकिस्तान की बाहरी खुफिया एजेंसी माना जाता है, जो कि वह है भी, लेकिन वह घरेलू खुफिया एजेंसी के रूप में भी काम करती है। वह जिहादी संगठनों को खड़ा करने का काम करती है। राजनीतिक पार्टियों का निर्माण करने, पाक नेताओं की जासूसी करने और नागरिक सरकार पर दबाव बनाने का भी काम करती है। 2014 में नवाज शरीफ की सरकार के खिलाफ इमरान खान और बरेलवी विद्वान मौलाना ताहिर कादरी की अगुआई में जनआंदोलन खड़ा करने के पीछे आइएसआइ के पूर्व प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल शुजा पाशा की ही भूमिका थी। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देखें तो आइएसआइ भारत, अफगानिस्तान और अमेरिकी से जुड़ी पाकिस्तान की विदेश नीति पर पूर्ण नियंत्रण रखती है। अफगानिस्तान में 1980 के बाद से और इसके बहुत पहले से उसने कश्मीर में भारत के खिलाफ अपने जिहादी संगठनों का भरपूर इस्तेमाल किया है। हाल में आइएसआइ के एक पूर्व प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल जहीरुल इस्लाम ने कहा था कि पाक सेना और आइएसआइ को सिर्फ साम्यवादी सोवियत रूस के खिलाफ ही अपने छद्म युद्ध में सफलता मिली है। आइएसआइ के नेटवर्क के रूप में जो प्रमुख जिहादी संगठन काम करते हैं उनमें अफगानिस्तान तालिबान भी है। इसका मुख्यालय क्वेटा में है। इसके अलावा लश्कर-ए-तैयबा है जिसे जमात उद दावा के नाम से भी जाना जाता है। इसका मुख्यालय लाहौर के निकट मुरीदके में है। बहावलपुर स्थित जैश-ए-मोहम्मद को भी आइएसआइ का संरक्षण मिला हुआ है। इसका मुखिया मौलाना मसूद अजहर है। इसे भारत द्वारा 1999 में कंधार हवाई जहाज अपहरण कांड में यात्रियों की सुरक्षित वापसी के बदले छोड़ा गया था। एक अन्य संगठन अहले सुन्नत वल जमात है। इसे लश्कर-ए-झांगवी के नाम से भी जाना जाता है। यह शिया मुसलमानों की हत्या करने के लिए कुख्यात है। यह शियाओं को मुस्लिम नहीं मानता। इनके अतिरिक्त भी आइएसआइ आतंकियों के नए समूह बनाकर उन्हें प्रशिक्षित करती है। वह उन्हें भारतीय सुरक्षा बलों के खिलाफ लड़ने के लिए जम्मू-कश्मीर भेजती रहती है।

ऑस्टेलियाई मूल के ब्रिटिश सैन्य अधिकारी वाल्टर जोसेफ कावथोर्न को आइएसआइ का संस्थापक माना जाता है। जनवरी से जून 1948 तक वह आइएसआइ प्रमुख के पद पर रहे और उसके बाद 1951 तक वह पाकिस्तानी सेना के उपप्रमुख रहे। अपनी किताब फेथ, यूनिटी, डिसिप्लिन-द आइएसआइ ऑफ पाकिस्तान में जर्मन लेखक हेन जी किसलिंग लिखते हैं कि पाकिस्तानी इतिहासकार आइएसआइ की रूपरेखा के रूप में ब्रिटिश खुफिया एजेंसी एमआइ-6 का उल्लेख करते हैं। शायद इसलिए, क्योंकि उसे पहली बार टेनिंग और उपकरण एमआइ-6 और सीआइए से हासिल हुए थे। चूंकि पाकिस्तान भारत से ही अलग होकर बना था और वह भारत के प्रति शत्रुभाव रखता था इसलिए आइएसआइ के लिए भारत को निशाना बनाने का तार्किक समझ आया। इसके लिए आइएसआइ और सीआइए ने 1950 और 1960 के दशक में एक-दूसरे को खूब सहयोग किया।

किसलिंग ने यह भी लिखा है कि 1971 में बांग्लादेश युद्ध के दौरान जब इंदिरा गांधी सरकार ने भारत और तत्कालीन सोवियत संघ के बीच शांति और सहयोग को बढ़ावा देने के लिए मास्को के साथ सात अगस्त 1971 को एक समझौते पर हस्ताक्षर किया तब सीआइए और आइएसआइ ने उनके खिलाफ साजिश रचने के लिए हाथ मिलाया। 1960 के दशक में भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों में स्थानीय उग्रवादी संगठनों को आइएसआइ ने समर्थन दिया। इसी तरह 1970 के दशक के मध्य में भी उसने पंजाब में सिख उग्रवादियों की मदद की। बर्मा के अराकान क्षेत्र में आइएसआइ पूर्वी पाकिस्तान के दिनों से ही सक्रिय रही है। अराकान ही वह क्षेत्र है जहां से इन दिनों रोहिंग्या मुस्लिम शरणार्थी जम्मू-कश्मीर सहित देश के दूसरे राज्यों में आ रहे हैं।

किसलिंग की पुस्तक के अनुसार मिजो उग्रवादी नेता लालडेंगा और उनके समर्थक अराकान गए थे जहां से 1970 के दशक के आरंभिक वर्षो में आइएसआइ उन्हें कुछ दिनों के लिए कराची ले गई थी। चूंकि पाकिस्तान भारत को अपना स्थायी शत्रु मानता है लिहाजा आइएसआइ भी भारत के खिलाफ स्थायी संघर्ष में व्यस्त है। हाल के दशकों में जम्मू-कश्मीर सहित अन्य राज्यों में जितने भी आतंकी हमले हुए हैं उन सभी में आइएसआइ की भूमिका रही है। इनमें इंडियन मुजाहिदीन द्वारा किए गए आतंकी हमले भी शामिल हैं। यह मानना अतार्किक होगा कि भारत में आइएसआइ की सारी गतिविधियों पर भारतीय खुफिया एजेंसियों की हमेशा नजर रहती होगी।

हालांकि भारतीय खुफिया एजेंसियां अच्छा काम कर रही हैं, लेकिन उनके अधिकांश काम काज पर लोगों का ध्यान नहीं जाता, क्योंकि वे आइएसआइ के भारत विरोधी षड्यंत्रों को रोकने में व्यस्त रहती हैं। हो सकता है कि भारत की नई पीढ़ी देश में आइएसआइ के फैले जाल से अनजान हो, लेकिन सच यही है कि जितना हम जानते हैं उससे कहीं ज्यादा उसने अपना नेटवर्क पूरे देश में खड़ा कर रखा है। भारतीय युवाओं को यह बात अपने मस्तिष्क में बैठा लेनी चाहिए कि एक सतर्क नागरिक भारत के लिए सबसे बेहतर बचाव है।

[ लेखक, तुफैल अहमद नई दिल्ली स्थित ओपन सोर्स इंस्टीट्यूट के एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर हैं ]


Date: 30-01-17


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