29-08-2023 (Important News Clippings)
To Download Click Here.
Teacher + Student = Knowledge Economy
ET Editorials
Much is rightly made of upskilling and reskilling in the context of the rapidly changing—and, indeed, disrupted—terrain of the professional workforce. Much change is also desperately required closer to the ‘source’ that leads up the knowledge and skill chain. The National Curriculum Framework for School Education (NCFSE), released last week, understands this. As one of four curriculum frameworks, it proposes a broad structure of school education that is fit for purpose for a rapidly growing and emerging India. Innovation and openness are central pillars of this blueprint—giving equal status to all subjects and learning domains, integrating vocational education. The shift away from a siloed, information-heavy approach to learning is much welcome. How this will be enabled will be its true test.
NCFSE is purportedly designed with the teacher at its centre. This certainly makes sense, since a large proportion of India’s school-going population relies heavily on teachers, both qualitatively and quantitatively, to gain from attending classrooms. NCFSE builds on earlier iterations, moving towards a semester-based system, blurring of ‘hard’ choices between streams (science, commerce, arts) and dismantling embedded hierarchies of disciplines regardless of academic or vocational education. The recommendation of a biannual Board exam will help de-stress learning.
There are real challenges that the NCF proposes to tackle—translating the intent of creating a system of openness, inclusivity, confidence and innovation into a real knowledge economy. Arguably, the most crucial challenge will be creating a body of educators that can transform NCF into reality. Here again, the framework for imparting teacher education will be vital.
गेहूं में आत्मनिर्भर देश चावल उत्पादन से क्यों बचते हैं?
संपादकीय
दुनिया में गेहूं का निर्यात बाजार करीब 225 मिलियन टन है, जबकि चावल का 58 मिलियन टन । लेकिन एक किलो चावल पैदा करने में चार हजार लीटर पानी का दोहन करना होता है। भारत ने इस अनाज का निर्यात इस साल रोक दिया है, जिससे दुनिया में चावल की कीमत में सात साल में सबसे बड़ा उछाल आ गया है। सच तो यह है कि भारत दुनिया में इस अनाज के कुल निर्यात का 40% या करीब 22 मिलियन टन भेजता है। भारत में धान का इस वर्ष का उत्पादन लगभग 131 मिलियन टन है। हालांकि भविष्य में अनाज के संकट के अंदेशे से सरकार ने चावल की कुछ किस्मों और गेहूं के निर्यात पर पिछले दो वर्षों से रोक लगा दी है लेकिन सोचना यह है कि आखिर क्यों विश्व बाजार में भारत के चावल की मांग है। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया याची जब गेहूं के निर्यात में अग्रणी हो सकते हैं तो चावल में क्यों नहीं? दरअसल अपने यहां चावल का उत्पादन करने के लिए जल- संसाधनों का दोहन न कराकर वे भारत का चावल खरीदने के लिए उत्सुक हैं। यानी भारत वास्तव में चावल नहीं बल्कि देश का पानी निर्यात कर रहा है। यही स्थिति कमोबेश गन्ने को लेकर है। ब्राजील जैसा प्रमुख चीनी उत्पादक गन्ने की जगह अन्य स्रोतों से चीनी बना रहा है। गन्ने के उत्पादन में भी पानी की खपत असाधारण रूप से ज्यादा है। बिहार जैसे राज्य में, जहां भूजल स्तर काफी ऊपर है, वहां गन्ने की खेती तो फिर भी ठीक है लेकिन दक्षिण और पश्चिम भारत के राज्य जब गन्ना उत्पादन में प्रमुख भूमिका रखते हैं तो चिंता होती है कि इन सूखाग्रस्त राज्यों में अगले कुछ वर्षों में पीने के पानी का अकाल भयंकर रूप ले लेगा। स्टीवन सोलोमन ने 21वीं सदी में पानी को लेकर विश्वयुद्ध की आशंका व्यक्त की थी। हमें अपनी कृषि सहित अन्य कार्यों में पानी के दोहन को हर हाल में रोकना होगा।
Date:29-08-23
एआई से कलाकारों की बौद्धिक सम्पदा को खतरा नहीं
फरहाद मंजू, ( अमेरिकी पत्रकार और द न्यूयॉर्क टाइम्स के ओपिनियन कॉलमिस्ट )
मुझे आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से हजारों समस्याएं हो सकती हैं, पर इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी सम्बंधी कोई दिक्कत नहीं है। मीडिया और मनोरंजन उद्योग ने हाल ही में इस पर बहुत सवाल उठाए हैं कि कैसे एआई जनरेटेड कंटेंट पर बौद्धिक सम्पदा कानूनों के तहत विचार किया जाना चाहिए। यह हाल के दिनों में एक चर्चित मामला बना हुआ है। हॉलीवुड के लेखकों और अभिनेताओं ने इस मुद्दे पर हड़ताल कर रखी है। वहीं द टाइम्स जैसी बड़ी न्यूज कम्पनियां अपनी बौद्धिक सम्पदा की सुरक्षा के कदम उठाने की कोशिश कर रही हैं।
एआई और उसके निर्माताओं पर आज जितनी तरह की कार्रवाइयां करने की बातें हो रही हैं, उसके परिप्रेक्ष्य में मैं एक ही बात कहूंगा- अभी थोड़ा ठहरें। मैं इस बारे में बहुत समय से सोच रहा हूं कि क्या संगीतकारों, चित्रकारों, फोटोग्राफरों, लेखकों, फिल्मकारों और रचनात्मक कार्यों में लगे रहने वाले अन्य लोग- जिनमें मैं अपने आपको भी शामिल करता हूं, बशर्ते मेरा दिन अच्छा गुजर रहा हो- को इस बात का डर होना चाहिए कि मशीनें उनकी आजीविका के लिए खतरा साबित हो सकती हैं? मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि शायद ऐसी बात नहीं है। मैं जितना ज्यादा चैटजीपीटी, मिडजर्नी और अन्य एआई टूल्स का इस्तेमाल करता हूं, उतना ही मुझे लगता है कि बौद्धिक सम्पदा सम्बंधी सवालों को हम जरूरत से ज्यादा महत्व दे रहे हैं। इसका कारण यह है कि कम्प्यूटर अपने आप से ऐसा कोई कलात्मक सृजन नहीं कर सकते हैं, जो कि मौलिक, विरला और युगांतकारी हो। इसके उलट कलाकारों और रचनात्मक लोगों के लिए तो एआई एक वरदान साबित होगी। हाल ही में एक एआई-आधारित कॉमेडी का आकलन करते हुए द टाइम्स के जेसन जिनोमैन ने कहा कि एआई कॉमेडीज़ मनुष्यों द्वारा रचित कॉमेडी को बेहतर बना सकती हैं। कम्प्यूटरों से मिलने वाली प्रतिस्पर्धा के मद्देनजर कलाकार अनुकरण के बजाय अपनी मौलिक प्रतिभा पर ज्यादा निर्भर करेंगे और इस बारे में पहले से ज्यादा विचार करेंगे कि वो कौन-सी चीज है, जो उनके द्वारा रची कला को मानवीय विशिष्टताओं से भर देती है।
वे सही हैं। और यह बात केवल कॉमेडी ही नहीं, अनेक अन्य रचनात्मक क्षेत्रों पर भी लागू होती है। मेरे ऐसा सोचने के पीछे क्या आधार है? एक आधार तो ऐतिहासिक ही है- जिन तकनीकियों ने मनुष्य की कलात्मक अभिव्यक्ति को सरल बनाने में योगदान दिया है, उनमें से ऐसी कोई भी नहीं थी, जिसमें मनुष्यों की रचनात्मकता को कुंद कर दिया हो। इलेक्ट्रॉनिक सिंथेसाइज़र्स के आगमन के बावजूद संगीतकारों का मुकाम बना रहा। ऑटो-ट्यून के बावजूद पिच पर गायन चलता रहा। फोटोग्राफी ने चित्रकला का अंत नहीं कर दिया। और डिजिटल फोटोग्राफी भी पेशेवर छायाचित्रकारों का काम छीन नहीं सकी। दूसरी तरफ एआई के द्वारा निर्मित कंटेंट देखें। अगर उस पर मनुष्यों के द्वारा बहुत ज्यादा काम नहीं किया गया है तो एआई के द्वारा रचा गया अधिकतर संगीत, छवियां, कहानियां आदि वास्तविक कला के बजाय मिमिक्री ही मालूम होते हैं। ठीक है, यह बात बहुत प्रभावित करने वाली है कि चैटजीपीटी टेलर स्विफ्ट की शैली में पॉप सॉन्ग लिख सकती है, लेकिन उसकी रचना एक बेजान नकल ही मालूम होती है। चैटजीपीटी के गीत सुनने स्टेडियम नहीं भरने वाले हैं।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि एआई के कारण बहुत सारे कानूनी पचड़े नहीं पैदा होंगे। स्टैनफर्ड लॉ स्कूल में पढ़ाने वाले मार्क लेमले ने मुझसे चर्चा में कहा कि आने वाले पांच से दस सालों में एआई के द्वारा मीडिया में निभाई जा रही भूमिका पर अनेक वैधानिक लड़ाइयां लड़ी जाएंगी। मामले न केवल बढ़ेंगे, वे अधिक पेचीदा भी होते चले जाएंगे। लेमले उन वकीलों में से हैं, जो कलाकारों के द्वारा दर्ज किए एक कॉपीराइट उल्लंघन मामले में स्टैबिलिटी एआई नामक एआई फर्म का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। विवाद के मूल में है एआई सिस्टमों के प्रशिक्षण की रीति, क्योंकि उसमें बड़े पैमाने पर डिजिटल कंटेंट का विश्लेषण किया जाता है, जिनमें बहुत सारा कंटेंट ऐसा भी है, जो कॉपीराइट के दायरे में आता है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या कलाकारों को उनके योगदान के लिए पारिश्रमिक दिया जाना चाहिए, और अगर हां तो कितना? मेरे विचार से इसका जवाब नहीं है। क्योंकि जब एक मशीन को ऑनलाइन कंटेंट का विश्लेषण करके भाषा और संस्कृति को समझने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है, तो वह किसी ऐसे मनुष्य की तरह ही काम कर रही होती है, जो पहले से रचित कलाकृतियों का अध्ययन करके प्रेरणा प्राप्त करता है। अगर मेरा कोई लेख पढ़कर किसी मनुष्य को सूचना या प्रेरणा मिलती है तो इससे मुझे क्यों समस्या होने लगी? मैं इसीलिए तो लिखता हूं!
वित्तीय समावेशन की मिसाल
संपादकीय
प्रधानमंत्री जनधन योजना के नौ वर्ष पूरे होने के अवसर पर वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने यह बिल्कुल सही कहा कि इस योजना ने देश में वित्तीय समावेशन की क्रांति ला दी है। इसे क्रांति इसलिए कहा जाएगा, क्योंकि इस योजना के तहत खुले खातों की संख्या 50 करोड़ के आंकडे को पार कर गई है। यह संख्या कई देशों की कुल आबादी से भी अधिक है। जनधन योजना के तहत अधिकांश खाते उन गरीबों के हैं, जो बैंकिंग व्यवस्था से दूर थे। चूंकि इस योजना के तहत बिना किसी राशि के खाते खुलवाने की सुविधा प्रदान की गई, इसलिए करोड़ों निर्धन लोगों को बैंकिंग व्यवस्था से जुड़ने में आसानी हुई। जब यह योजना शुरू की गई थी तो ऐसे सवाल उठे थे कि आखिर जनधन खातों में पैसा कहां से आएगा? आंकड़े बता रहे हैं कि जनधन खातों में कुल जमा राशि दो लाख करोड़ रुपये से भी अधिक है। इसका अर्थ है कि गरीब बचत कर रहा है और बैंकों की महत्ता भी समझ रहा है। जनधन खाते गरीबों को केवल अपनी बचत का पैसा बैंक में जमा करने की ही सुविधा नहीं प्रदान कर रहे हैं, बल्कि वे इन खातों के जरिये विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं का पैसा प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण यानी डीबीटी के जरिये सहजता से प्राप्त भी कर रहे हैं। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि पहले हर तरह की सरकारी सहायता का एक बड़ा हिस्सा बिचौलियों यानी भ्रष्ट तत्वों की जेब में चला जाता था।
जनधन योजना की एक उल्लेखनीय बात यह भी है कि लगभग 56 प्रतिशत खाते महिलाओं के हैं। यह तथ्य भी ध्यान देने लायक है कि करीब 67 प्रतिशत जनधन खाते गांवों और छोटे कस्बों में खोले गए हैं। इसका मतलब है कि यह योजना अंतिम छोर पर खड़े वंचित लोगों तक पहुंची है। जनधन खाताधारक बैंक से उधार लेने के साथ अन्य सुविधाएं भी हासिल कर सकते हैं। समझना कठिन है कि मोदी सरकार के पहले किसी ने यह क्यों नहीं सोचा कि गरीबों को भी बैंकिंग व्यवस्था से जोड़ने की जरूरत है? करोड़ों लोगों के बैंकिंग व्यवस्था से दूर रहने का केवल यही एक दुष्परिणाम नहीं था कि वे देश की समृद्धि से जुड़ नहीं पा रहे थे। एक दुष्परिणाम यह भी था कि करोड़ों लोग आर्थिक मुख्यधारा से बाहर थे। कोई भी देश समर्थ तभी बनता है, जब उसका प्रत्येक नागरिक आर्थिक गतिविधियों से जुड़ता है। जनधन योजना निर्धन वर्ग को न केवल बचत के लिए प्रेरित कर रही है, बल्कि आत्मनिर्भरता की राह पर भी ले जा रही है। इस योजना ने यह सुनिश्चित किया है कि देश की आर्थिक प्रगति में सभी का योगदान हो। अच्छा हो कि केंद्र की तरह सभी राज्य सरकारें यह समझें कि जनकल्याण की कोई भी योजना हो, उसका उद्देश्य निर्धन वर्ग को आर्थिक रूप से अपने पैरों पर खड़ा करना होना चाहिए।
Date:29-08-23
वर्ल्ड चैंपियन नीरज
संपादकीय
नीरज चोपड़ा ने बुडापेस्ट विश्व एथलेटिक्स चैंपियनशिप में जेवेलिन का स्वर्ण पदक जीतकर देश को खुशी से सराबोर कर दिया है। नीरज को आमतौर पर पहली थ्रो में ही बेस्ट देने वाला माना जाता है। पर यहां पहली में फाउल होने के बाद वह दूसरी थ्रो में 88.13 मीटर की थ्रो से देशवासियों के चेहरों पर थोड़ा सुकून का भाव देने में कामयाब हो गए थे। हालांकि पाकिस्तान के नदीम जब आखिरी थ्रो करने आए तो सभी के मन में थोड़ी घबराहट थी पर वह जल्द खत्म हो गई और नीरज विश्व विजेता बनकर जेवेलिन के सभी प्रमुख खिताब जीतने वाले थ्रोअर बन गए। वह इससे पहले टोक्यो ओलंपिक, डायमंड लीग, एशियाई खेल और कॉमनवेल्थ गेम्स के स्वर्ण पदक जीत चुके हैं। नीरज चोपड़ा की सफलताओं का ही परिणाम है कि एथलेटिक्स में युवाओं ने फोकस बनाया है और इसके परिणाम जेवेलिन में नीरज के अलावा किशोर जेना और डीपी मनु का फाइनल में स्थान बनाना रहा। नीरज के अलावा भारतीय पुरुष रिले टीम के शानदार प्रदर्शन करने से एथलेटिक्स में भविष्य उज्जवल दिखने लगा है। यह सही है कि इस विश्व चैंपियनशिप में भारत नीरज के इकलौते स्वर्ण के साथ ही लौटा है। पर इस चैंपियनशिप में भारतीय प्रदर्शन अगले माह चीन के हांगझोउ में होने वाले एशियाई खेलों में पदकों का अंबार लगाने के तौर पर देखा जा रहा है। नीरज इस साल की शुरुआत में जब कोहनी की चोट से लौटे थे, तब लगा था कि क्या वह टोक्यो ओलंपिक में स्वर्ण जीतने वाली लय को पा सकेंगे। नीरज ने डायमंड लीग खिताब से ही जता दिया था कि वह पूरी लय में हैं और अब विश्व खिताब जीतने से वह अगले साल पेरिस में होने वाले ओलंपिक खेलों में स्वर्ण जीतने के प्रमुख दावेदार बन गए हैं। वह यदि पेरिस ओलंपिक में भी स्वर्ण जीत जाते हैं तो लगातार दो ओलंपिक खेलों में स्वर्ण पदक जीतने वाले पहले भारतीय खिलाड़ी बन जाएंगे। नीरज जैसे प्रदर्शन युवाओं को खेल में आकर्षित करते हैं। हम विश्वनाथन आनंद की सफलता से भारतीय शतरंज में आए बदलाव को पिछले दिनों देख चुके हैं। एथलेटिक्स में भी शतरंज जैसे सुधार की उम्मीद की जा सकती है। वैसे तो भारतीय एथलीट पिछले कुछ सालों से अपने प्रदर्शन का प्रभाव छोड़ रहे हैं। पर उनके प्रदर्शन में आए सुधार की सही परख पहले एशियाई खेलों और फिर ओलंपिक खेलों में ही हो सकती है।