29-05-2019 (Important News Clippings)

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29 May 2019
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Date:29-05-19

Bimstec Focus

Modi’s swearing-in will reflect growing priorities to the east

TOI Editorials

In a change of scene, both strategic and political, leaders from Bimstec (Bay of Bengal Initiative for Multi-Sectoral Technical and Economic Cooperation) countries, Kyrgyz Republic and Mauritius have been invited for Narendra Modi’s swearing-in tomorrow. This is in contrast to 2014 when Saarc leaders had been the chief guests at Modi’s first oath-taking as PM. Apart from India, Bimstec comprises Bangladesh, Myanmar, Sri Lanka, Thailand, Nepal and Bhutan. This leaves out Pakistan and suggests an eastward turn in New Delhi’s priorities. After all, though then Pakistani PM Nawaz Sharif had attended Modi’s swearing-in in 2014, this failed to produce satisfactory results on the bilateral front.

On the contrary, tensions with Pakistan over the last five years have effectively resulted in Islamabad closing off New Delhi’s access to west Asia. Thus, India is better off building bridges to the east where there are greater chances of reaping benefits from trade and connectivity. Bimstec can serve as a bridge between India and Southeast Asia as represented by Asean. The latter has experienced high economic growth over the last three decades and is perceived as the next global growth hub. Plus, India shares ancient ties with this region as exemplified by the spread of both Hinduism and Buddhism. If India’s Act East policy is to actualise, Bimstec needs to be given greater priority in New Delhi’s foreign policy.

As far as Saarc is concerned, there’s no reason why India should bear the guilt of the South Asian body being put on the back burner. Pakistan hasn’t kept its word vis-a-vis Saarc. For example, the South Asian Free Trade Area (Safta) agreement was inked between Saarc members in 2004. However, Pakistan never gave India Most-Favoured Nation (MFN) status, effectively stymieing regional trade, even though New Delhi had extended the courtesy to Islamabad in 1996 – it recently withdrew the status after the Pulwama terror attack. Therefore, if Islamabad is serious about South Asian integration, it should first take steps to implement the aims of Safta.

Till then, India should further its Act East goals. This is also commensurate with India’s growing geopolitical profile. Thus, the focus on sub-regional connectivity through initiatives like BBIN (Bangladesh-Bhutan-India-Nepal) and the India-Myanmar-Thailand Trilateral Highway is welcome. However, to actualise these projects New Delhi needs to overcome its reputation of promising much but delivering little. One way to do this would be greater involvement of the private sector in Act East projects. Modi’s swearing-in focus on Bimstec should serve as a springboard in this direction.


Date:29-05-19

Getting Right Miracle Workers In Schools

ET Editorials

This week Narendra Modi will take office for a second term with the express promise of sabka saath, sabka vikas, sabka vishwas. The quality of human capital is a central determinant of a country’s capacity to generate wealth. If Prime Minister Modi is serious about improving the lives of all, it is imperative that his administration focus on the country’s education system, particularly school education.

At the heart of an effective and good school education system is the teacher. Studies have demonstrated that elementary school teachers have a critical impact on the future earning capacities of students, and therefore, on the national economy. It is crucial to ensure that teachers across the country’s elementary schools have the capability to add value to and transform the lives of the children they teach. This will require a robust teacher selection mechanism to recruit those with commitment and aptitude, not those who come to teaching as a job of last resort. It is far too important a task, given that large numbers of students are first generation learners, and a larger number come from families with limited resources. In such cases, schools and teachers play a pivotal role in transforming lives by opening up new avenues and possibilities for their students. The government needs to move away from a centralised system of hiring teachers, giving schools greater say in hiring but also creating accountabilities for teachers at the level of the school and local communities and local governments.

One option is to encourage schools to identify students with an aptitude and interest in teaching, and then nurture and fund them through higher education and training, and bring them back as teachers. The path to national prosperity and strategic capability runs through the school teacher.


Date:29-05-19

नई सरकार में पूरक मंत्रालयों और विभागों का होगा विलय ?

ए के भट्टाचार्य

इस सप्ताह के अंत में नरेंद्र मोदी की अगुआई में नई सरकार शपथ ले लेगी। इसे लेकर मंत्रिपरिषद में शामिल होने वाले नामों को लेकर अटकलों का बाजार गर्म है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के कई नेताओं की किस्मत इससे तय हो सकती है। लेकिन यह सवाल भी खड़ा होता है कि नई सरकार का संभावित आकार क्या हो सकता है ?

भाजपा ने मतदान की प्रक्रिया शुरू होने के थोड़ा पहले अपना चुनाव घोषणापत्र जारी किया था। उस घोषणापत्र में यह वादा भी शामिल था, ‘नीतियों के बेहतर क्रियान्वयन और समन्वय को सुनिश्चित करने के लिए हम एक ही तरह के कार्यों में संलग्न विभागों को क्षेत्रीय मंत्रालयों में मिला देंगे। इससे नीति-निर्माताओं को सर्वांगीण एवं समग्र नीतियां बनाने के साथ ही उनके बेहतर क्रियान्वयन में भी सहूलियत होगी।’ वह वादा काफी हद तक स्पष्ट है। अगर इस वादे को पूरा किया जाना है तो सरकार के कार्यकाल की शुरुआत में ही कदम उठाए जा सकते हैं। अगर मंत्री शपथ लेते हैं और उसी समय पूरक विभागों को बड़े संभागीय मंत्रालयों में मिलाने का फैसला नहीं लिया जाता है तो इस वादे के बाद में पूरा हो पाने की संभावना कम ही रहेगी। जब कोई अपने मंत्रालय का कार्यभार संभाल लेता है तो उस मंत्रालय का आकार एवं दायित्व छोटा करना मुश्किल हो जाता है। उस समय प्रशासनिक सुधार एवं मंत्रालयों के पुनर्गठन की जरूरत पर क्षेत्राधिकार संबंधी दुर्गम मसले भारी पडऩे लगते हैं।

पूरक कार्यों को अंजाम देने वाले विभागों का उस क्षेत्र से संबंधित मंत्रालयों में विलय करना कोई नया विचार नहीं है लेकिन अपने राजनीतिक पहलू के चलते इसे लागू कर पाना खासा मुश्किल है। राजीव गांधी ने परिवहन से संबंधित सभी मंत्रालयों को एक साथ मिला दिया था। इस तरह जहाजरानी, रेलवे, नागरिक उड्डयन और सड़क परिवहन एक व्यापक परिवहन मंत्रालय के मातहत विभाग बन गए। लेकिन राजीव सरकार का वह प्रयोग अधिक देर तक नहीं चला। इसकी एक वजह तो तत्कालीन प्रधानमंत्री की तरफ से प्रतिबद्धता की कमी और दूसरी वजह बड़े मंत्रालय में राजनीतिक सत्ता से जुड़ी समस्याएं थीं।

सवाल यह है कि हाल के चुनाव में बड़ी जीत के बाद सत्ता में लौट रहे प्रधानमंत्री मोदी क्या लोगों से किए गए भाजपा के इस वादे को पूरा कर सकते हैं? क्या रेलवे, नागरिक उड्डयन, सड़क, राजमार्ग और जहाजरानी मंत्रालयों को एक विशाल परिवहन मंत्रालय में समाहित किया जा सकता है? केवल परिवहन मंत्रालय के ही बारे में ऐसी चर्चा क्यों हो? ऊर्जा क्षेत्र में भी पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस, बिजली एवं नवीकरणीय ऊर्जा को मिलाकर एक समेकित मंत्रालय क्यों नहीं बनाया जाना चाहिए?

इसी तरह उद्योग जगत से संबंधित कामकाज देखने के लिए करीब आधे दर्जन मंत्रालय क्यों होने चाहिए? उद्योग मंत्रालय के अलावा भारी उद्योग एवं लोक उपक्रम के लिए अलग मंत्रालय, सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम इकाइयों के लिए अलग मंत्रालय, खाद्य प्रसंस्करण उद्योग के लिए अलग मंत्रालय, रसायन एवं उर्वरक के लिए अलग मंत्रालय, कपड़ा के लिए अलग मंत्रालय और इस्पात के लिए अलग मंत्रालय है। उद्योग संबंधित गतिविधियों के लिए एक समेकित मंत्रालय बनाकर इन सभी को उनका विभाग बना देने से उद्योग जगत में नई जान फूंकने के लिए सरकारी प्रयासों में एकरूपता आएगी।

इसी तरह, खनन क्षेत्र के लिए दो मंत्रालय क्यों होने चाहिए? कोयला के लिए अलग और खनन के लिए अलग मंत्रालय। इन्हें एक मंत्रालय में समाहित कर उन्हें दो अलग विभागों के रूप में रखा जा सकता है। भाजपा के घोषणापत्र में पानी के लिए भी एक समेकित मंत्रालय बनाने का वादा किया गया है।

इसके मुताबिक ‘जल प्रबंधन गतिविधियों को संपूर्णतावादी तरीके से देखने पर ही बेहतर समन्वय एवं प्रयास सुनिश्चित किए जा सकते हैं।’ पानी के लिए प्रस्तावित नए मंत्रालय में पेयजल एवं स्वच्छता और जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा पुनरुद्धार मंत्रालयों के कार्यों को समाहित किया जा सकता है। मोदी के लिए चुनौती यह है कि संबद्ध गतिविधियों वाले विभागों एवं मंत्रालयों को मिला देने से केंद्रीय मंत्रिमंडल और उसमें शामिल मंत्रियों की संख्या में कटौती हो जाएगी। ऐसा नहीं है कि ऐसी कोशिश पहले नहीं की गई हैं। वर्ष 2014 में सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय और जहाजरानी मंत्रालय को एक ही मंत्री नितिन गडकरी के मातहत ला दिया गया था। लेकिन वह आधे मन से की गई कोशिश थी क्योंकि परिवहन से संबंधित अन्य मंत्रालयों- नागरिक उड्डयन और रेलवे को अलग ही रखा गया। अगर सरकार को अधिक असरदार एवं दुबला बनना है तो उसे पहले कदम के तौर पर कम संख्या में कैबिनेट मंत्री एवं स्वतंत्र प्रभार वाले राज्य मंत्रियों की नियुक्ति करनी चाहिए। कुल मंत्रियों की संख्या घटने से पूरक कार्यों वाले मंत्रालयों एवं विभागों का विलय जरूरी हो जाएगा।

फिलहाल केंद्र सरकार में 25 कैबिनेट मंत्री और 11 राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) के अलावा 34 राज्य मंत्री भी हैं। प्रधानमंत्री मोदी को जोड़ते हुए मंत्रिपरिषद की कुल संख्या 71 तक हो जाती है। पूरक मंत्रालयों एवं विभागों के विलय के बारे में भाजपा घोषणापत्र में किए गए वादे को पूरा करने में मोदी सरकार की प्रतिबद्धता का पता 30 मई को साफ तौर पर चल जाएगा। अगर उस दिन घोषित मंत्रालयों का ढांचा लगभग अपरिवर्तित ही रहता है तो इस बात की संभावना कम ही रह जाएगी कि बाद में ऐसे व्यापक बदलाव लागू हो पाएंगे।


Date:29-05-19

आंकड़ों की विश्वसनीयता

संपादकीय

बताया जाता है कि सरकार ने पिछले साल राष्ट्रीय आधिकारिक सांख्यिकी नीति में रखे गए प्रस्ताव के मुताबिक राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) तथा केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) के विलय का निर्णय ले लिया है। दोनों ही विभाग केंद्रीय सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के अधीन आते हैं। एक नया राष्ट्रीय सांख्यिकी संगठन गठित किया जाएगा और राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग के सचिव के रूप में मुख्य सांख्यिकीविद की भूमिका समाप्त की जाएगी। नए सांख्यिकी संगठन (एनएसओ) की अध्यक्षता सांख्यिकी मंत्रालय के सचिव के पास होगी।

इस मौके पर सांख्यिकी से जुड़े विभागों का पुनर्गठन खास महत्त्व रखता है। अतीत में इस पर करीबी नजर नहीं थी और इसे केवल अफसरशाही के फेरबदल या प्रशासनिक परिवर्तन के रूप में देखा गया। परंतु हालिया घटनाएं बताती हैं कि इस प्रक्रिया पर बारीक नजर रखनी होगी क्योंकि आधिकारिक तौर पर आंकड़े जुटाने और उन्हें मंजूरी दिलाने का यही एक तरीका है। वहीं दूसरी ओर यह केंद्र सरकार की सांख्यिकी मशीनरी में बेहतर तालमेल लाने वाला भी बन सकता है। आधिकारिक सांख्यिकी आंकड़े अब कहीं अधिक तेज गति से आ सकते हैं और पूरी व्यवस्था कितने किफायती ढंग से काम कर रही है इसका आकलन किया जा सकता है। सरकारी अधिकारियों की दलील है कि मौजूदा व्यवस्था ऐसी है जिसकी बदौलत दोहराव और प्रचुरता हो रही है। उनका कहना है कि अफसरशाही को सुसंगत बनाकर, उनका विलय करके और उन्हें एक नेतृत्व के अधीन लाकर काम को बेहतर ढंग से अंजाम दिया जा सकता है। एक सामान्य सिद्धांत के रूप में देखें तो केंद्र सरकार की समूची अफसरशाही में ऐसे बदलाव की आवश्यकता है। इसमें दो राय नहीं है कि प्रशासनिक सुधार हमेशा क्षमता को बेहतर बनाने की दिशा में होना चाहिए।

परंतु भारत सरकार की सांख्यिकी मशीनरी का मामला अपने आप में विशिष्ट है। मौजूदा हालात में इसकी संवेदनशीलता और अधिक बढ़ जाती है। डेटा तैयार करने की प्रक्रिया की स्वायत्तता को लेकर तमाम सवाल पूछे जाते रहे हैं। इनकी शुरुआत सकल घरेलू उत्पाद और आर्थिक वृद्धि के आंकड़ों से हुई लेकिन ये वहीं तक सीमित नहीं हैं। सकल घरेलू उत्पाद के आंकड़ों की नई शृंखला से जुड़े सवालों का जवाब देने के क्रम में गत वर्ष एक बैक सीरीज की घोषणा की गई थी लेकिन इससे उन आंकड़ों की गुणवत्ता को लेकर संदेह और अधिक गहरा हो गया। इन आंकड़ों में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के कार्यकाल के आंकड़ों को घटा दिया गया और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के आंकड़ों को बढ़ा दिया गया।

ये चर्चाएं उस समय सार्वजनिक होकर जोर पकडऩे लगीं जब वरिष्ठ सांख्यिकीविदों ने इस बात को लेकर त्यागपत्र दे दिया कि सरकार एनएसएसओ के रोजगार संबंधी आंकड़े जारी करने में विफल रही है। ये आंकड़े बता रहे थे कि बेरोजगारी 45 वर्ष के उच्चतम स्तर पर पहुंच चुकी है। इन बातों के बीच कुछ लोगों की चिंता थी कि सरकार आधिकारिक आंकड़ों में हस्तक्षेप तो नहीं कर रही है। भारत में इससे पहले इसे लेकर ऐसी कोई समस्या पैदा नहीं हुई थी। कुछ सप्ताह पहले एनएसएसओ की एक अन्य रिपोर्ट ने दिखाया कि एमसीए 21 के डेटाबेस में काफी कंपनियां तलाशी नहीं जा रही हैं। वे बंद हो गई हैं अथवा अन्य क्षेत्रों में कारोबार कर रही हैं। ऐसे में यह स्पष्ट है कि सांख्यिकी को सुसंगत बनाने के बजाय विश्वसनीयता बहाल करने, पारदर्शिता लाने और स्वायत्तता सुनिश्चित करने पर जोर होना चाहिए। खेद की बात है कि मंत्रालय के सचिव के अधीन एक नया और एकीकृत संगठन इस उद्देश्य की पूर्ति नहीं करेगा। पर्यवेक्षक इसे डेटा की विश्वसनीयता में सुधार का संकेत नहीं मानेंगे। उनकी विश्वसनीयता को लेकर सवाल बढ़ते जाएंगे।


Date:28-05-19

Note to the minority

Muslims are not headed for a bleak future. They should welcome PM’s resolve of winning over their trust.

Faizan Mustafa , [ The writer is vice chancellor, NALSAR University of Law, Hyderabad. ]

Most liberal and secular scholars and newspaper editorials have predicted a bleak future and isolation for India’s 15 crore Muslims after the massive electoral victory of Prime Minister Narendra Modi. Out of 303 members of the Lok Sabha from the BJP there is not a single Muslim, though the Opposition will have 27 Muslim members. Some of the fears of liberals may be real but many are not only unfounded but may be counter-productive, which might lead Muslims to go into a shell. In the last three centuries, Indian Muslims have faced several existential crises but each time, they survived and received huge support from enlightened sections of Hindus.

The first event was the end of the Mughal empire in 1857. The so-called Muslim rule (in reality it was Mughal-Rajput rule) of seven centuries had ended and since Bahadur Shah Zafar was the symbolic leader of the revolt, Muslims had to face the wrath of the British. Hundreds of Muslims were publicly executed in Delhi. After the failure of the revolt, Sir Syed Ahmed Khan founded MAO College which was later converted into the great Aligarh Muslim University. Every Muslim family in the Indian Subcontinent has at least one or two members who had received modern western education at this citadel of learning. In 1885, the Indian National Congress was founded and in 1887, it elected a Muslim — Badruddin Tyabji — as its third president.

In 1918, the British and French armies occupied Istanbul, ending the Ottoman Empire. The Muslim community across the world was in shock. Indian Muslims came forward in the fight for the restoration of the Caliphate. The Khilafat movement of 1919-1924 was supported by Mahatma Gandhi and the Congress. The Khilafat was not restored but Islam continued to flourish.

Independence in1947 brought yet another turning point. The country was partitioned in the name of religion because of V D Savarkar and M A Jinnah’s regressive two-nation theory. The Muslim ulema were at the forefront of opposing Partition. Most Muslims did not endorse the divisive idea and were not even voters under the Government of India Act,1935.

The majority of Muslims, of their free will, decided to stay in India. The communal violence during and after Partition led to the killing of half a million people. The Hindus of the country, after the initial wave of riots, stood up for minorities under the leadership of Jawaharlal Nehru. While after Jinnah’s death, Pakistan became a theocracy, India opted to be a liberal and secular democracy. Indian secularism assured Muslims that the state will not have any religion of its own and they will have full religious and cultural freedom. In subsequent decades, the Supreme Court held that both secularism and minority rights are part of the basic structure of the Constitution, which cannot be changed even by a constitutional amendment. Even assuming that India may become a Hindu Rashtra, the heavens are not going to fall for the Muslims. In fact, such a possibility should worry Hindus more and they should ensure that India does not follow Pakistan’s disastrous path.

In 1992, Hindu fanatics demolished the Babri mosque and Muslims of India yet again went into depression. The secular and liberal Hindus once more not only condemned the demolition but also extended a helping hand to the demoralised community. The Muslim community survived this onslaught and played an important role in the subsequent decades in the country’s politics.

In 2002, we witnessed communal violence in Gujarat and there are reasons to believe that the state machinery did not discharge its constitutional duties in a timely manner. The then PM had to remind the state government of its Raj Dharma. True, the violence was nothing short of a genocide of some 2,000 Muslims, but then more than a dozen police officers and a few leaders have been punished. Recently, Bilkis Bano was awarded Rs 50 lakh compensation by the Supreme Court. There is no denying the unfortunate segregation of Muslims and Hindus in Gujarat, yet life has not come to a halt for Gujarati Muslims.

In 2014, the Narendra Modi government took office. Soon after, there were cases of mob lynching on allegations of possession of beef. Muslims suffered the most and some 35 people were brutally killed. This is a challenge not for Muslims but for the government — any state that cannot even ensure the security of life of its citizens theoretically loses the right to allegiance from the people. Subsequently, the PM himself had to condemn the so-called gau rakshaks as criminals. Love jihad too dominated the public discourse for some time, leading to even the Supreme Court ordering an NIA probe. The NIA did not find any evidence of motivated and systematic love jihad.

The Modi government did make triple divorce a big issue and after the Supreme Court judgment, made it a criminal offence. While this author is opposed to the use of criminal law in civil matters, this cannot be termed as an entirely anti-Muslim step as within the community, liberals are in any case opposed to instant triple divorce. Some orthodox ulema, following the example of the second caliph, do not mind the invocation of criminal sanctions for triple divorce if the validity of divorce is acknowledged. In reality, if the Modi government compels Muslims to follow the more rational Quranic procedure of divorce, they cannot really complain.

Coming to three major issues that the BJP has been consistently raising — the uniform civil code (UCC), construction of a Ram temple and abrogation of Article 370 — none of these is a question of life and death for Indian Muslims. The UCC exists in several western countries yet Islam continues to thrive there. As far as India is concerned, the UCC can certainly be used to polarise voters but it is extremely difficult to enact such a code. Hindus themselves may not agree to it. The Law Commission (2018) recently said a UCC is neither desirable nor feasible. As far as the Ram temple is concerned, the Modi government has always maintained that it will go by the Supreme Court’s decision. In all likelihood, the ongoing mediation will now come up with a solution. Muslims are more than willing for a negotiated settlement. As far as the abrogation of Article 370 is concerned, it is not an issue of Muslims but of federalism and the autonomy of Jammu and Kashmir. If J&K’s legislative assembly gives its concurrence for abrogation, no one can raise an objection. In any case, Article 370 is now more like a shell that has been emptied of its contents.

If a government shows authoritarian tendencies, suppresses dissent, promotes corporate interests at the cost of the poor and keeps mum on the violations of fundamental freedoms of its citizens, it should worry the whole country. If regressive policies are pursued by any government, it will equally affect all citizens not just its minorities.

It was heartening to see the PM assuring minorities after his election as NDA’s leader. He will do some good to his own international image if he takes concrete steps to dispel the fears of minorities. Muslims should welcome his resolve of winning over what he rightly termed the “trust” of the minorities. Let the Modi government implement the BJP’s slogan of “justice for all, appeasement of none”. Muslims want nothing but justice.