29-04-2022 (Important News Clippings)

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29 Apr 2022
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Date:29-04-22

देश में चलाए जा रहे दंगा-उद्योग के जिम्मेदार कौन ?

मिन्हाज मर्चेंट, ( लेखक, प्रकाशक और सम्पादक )

अगर हम भारत में होने वाले दंगों को पेशेवर-उद्यम की तरह देखें तो पाएंगे कि वह तीन स्तरों पर विभाजित है। इसके शीर्ष पर उकसाने वाले हैं। इनमें वे सेकुलर पार्टियां शामिल हैं, जिन्हें मुस्लिम वोटबैंक से अपने अधिकतर वोट मिलते हैं। दूसरे स्तर पर इन्हें सम्भव बनाने वाले हैं, जिनमें वामपंथी पत्रकार और नक्सली-इस्लामिस्ट रूझानों वाले एक्टिविस्ट्स हैं। वे उकसाने वालों के साम्प्रदायिक संदेशों को आगे लेकर जाते हैं। तीसरे स्तर पर हिस्ट्रीशीटर्स हैं, जिनमें रैडिकलाइज्ड नौजवान और आपराधिक गतिविधियों में संलग्न रहने वाले शामिल हैं। इनकी एक ही योग्यता है और वह है हिंसा करना। ये तीनों लेयर्स एक-दूसरे के साथ मिलकर बड़े सुगम तरीके से काम करती हैं। एक से दूसरे फिर तीसरे तक मैसेज जाते हैं। इनकी प्लानिंग बड़ी कमाल की होती है। टाइमिंग का ध्यान रखा जाता है और साम्प्रदायिक उपद्रव के दिन को बड़े ऐहतियात से चुना जाता है। अमूमन यह तब होता है, जब विदेश से कोई हाई-प्रोफाइल मेहमान भारत आने वाला होता है, जिसके साथ अंतरराष्ट्रीय मीडिया भी होता है।

फरवरी 2020 में जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प अपने परिवार और विदेशी पत्रकारों के भारी हुजूम के साथ दिल्ली पहुंचे तो देश की राजधानी दंगों से जल उठी थी। ट्रम्प के जाते ही दंगे खत्म हो गए। काम पूरा हो गया था। भारत की धर्मनिरपेक्ष छवि पर दुनिया के सामने सफलतापूर्वक दाग लगा दिया गया था। हाल ही में जहांगीरपुरी, खरगोन और हुबली में हुए साम्प्रदायिक दंगों के पीछे भी यही पैटर्न दिखाई देता है। पहले तो उकसाने वाले उचित समय चुनते हैं। फिर वे किन्हीं साम्प्रदायिक मामलों को तूल देते हैं। इस बार ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन की यात्रा सोने पर सुहागा साबित हुई। उकसाने वालों को पता था कि जॉनसन के साथ घोर मोदी-विरोधी ब्रिटिश मीडिया आने वाला है। जैसे ही टाइमिंग सेट हुई, दूसरी कड़ी एक्शन में आई। सोशल मीडिया पर भाजपा-विरोधी एक्टिविस्टों और पत्रकारों द्वारा मैसेज भेजे जाने लगे। टूलकिट का इस्तेमाल किया गया। 2021 में गणतंत्र-दिवस के दंगों की योजना बनाने में इन टूलकिट की भूमिका को एक्सपोज किया जा चुका था। इस बार दिए जाने वाले संदेश ज्यादा गूढ़ थे, लेकिन मनसूबे पहले जैसे ही थे। फिर हिस्ट्रीशीटर्स हरकत में आ गए। 16 अप्रैल के दिन हमले शुरू हुए। पहली बार अनेक दंगाइयों पर नेशनल सिक्योरिटी एक्ट के तहत मामले दर्ज किए गए।

आगामी 3 मई को ईदुल-फितर और अक्षय तृतीया के पर्व एक साथ आ रहे हैं। लेकिन इसके बावजूद आप मान लीजिए कि वह दिन शांतिपूर्ण तरीके से निकल जाएगा। क्योंकि मूल लक्ष्य पहले ही अर्जित किया जा चुका है और वह है एकता और शक्ति का प्रदर्शन। मनोवैज्ञानिक रूप से बात करें तो अजान के लिए लाउडस्पीकर, सड़कों पर नमाज पढ़ना, हिजाब पहनना आदि मुस्लिम पहचान को मजबूत बनाने के लिए हैं। भारतीय मुस्लिमों के पुरखों ने 1947 में पाकिस्तान जाने से इनकार कर दिया था। वे भारत में निष्ठावान और देशभक्त नागरिक की तरह रहना चाहते थे। पाकिस्तान के बजाय भारत को चुनने के ऐवज में कांग्रेस ने उन्हें पुरस्कृत भी किया। जहां पाकिस्तान इस्लामिक तानाशाही बनता गया, वहीं भारत धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के रूप में उभरा। मुस्लिमों को पर्सनल लॉ का पालन करने की अनुमति दी गई थी, जबकि स्वयं हिंदू पर्सनल लॉ 1955 में जाकर बनाया गया था। जल्द ही मुस्लिम एक महत्वपूर्ण वोटबैंक बन गए और कांग्रेस द्वारा उन्हें मोस्ट फेवर्ड कम्युनिटी का दर्जा दे दिया गया। 1977 में कांग्रेस-राज के अंत के बाद देश का सामाजिक ताना-बाना बदल गया था। 1980 के दशक में शाहबानो प्रकरण और अयोध्या में शिलान्यास के बाद जो साम्प्रदायिक राजनीति उभरी, वह विगत 35 वर्षों में बढ़ती चली गई है। 1980 और 1990 के दशक में भाजपा का उदय इसी का परिणाम था।

आम हिंदू वर्षों से अंकुश में था, किंतु उसने अब धार्मिक पहचान के पुनरुत्थान को अनुभव किया है। मुस्लिमों को लगने लगा कि उनके साथ भेदभाव किया जा रहा है। मोदी के उदय ने रही-सही कसर पूरी कर दी। भारत का दंगा-उद्योग सक्रिय हो गया। अनुभव तो यही बताते हैं कि भारत में साम्प्रदायिक दंगे एक पक्ष द्वारा छेड़े जाते हैं। 1969 में गुजरात में हिंदू साधुओं और मंदिर पर हमला किया गया था, 2002 में गोधरा में 59 कारसेवकों को जिंदा जला दिया गया। इस दंगा-उद्योग का इतिहास बहुत लम्बा और हिंसक है, इसे अब बंद करने का समय आ गया है।


Date:29-04-22

भारत की आवाज सुनने को उत्सुक दुनिया

हर्ष वी पंत, ( लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं )

इस समय पूरी दुनिया उथल-पुथल भरे दौर से गुजर रही है। कई ताकतें अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए बेसब्र हुई जा रही हैं। हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। यहां उसकी आक्रामकता ने कई देशों को परेशान किया हुआ है। इस क्षेत्र के लिए भले ही अस्थिरता एवं तनाव कोई नई बात न हो, लेकिन यूरोप जैसे अपेक्षाकृत स्थायित्व भरे क्षेत्र में भी इस समय युद्ध की आग भड़की हुई है। यहां यूक्रेन पर रूसी हमले ने दुनिया को एक तरह से दोफाड़ कर दिया है। इस बदलते वैश्विक घटनाक्रम में अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं अपनी भूमिका के साथ न्याय नहीं कर पाई हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जो विधि आधारित वैश्विक ढांचा बना था, उसे रूसी हमले से उपजी स्थिति ने खंड-खंड कर दिया। कोविड महामारी के समय अंतराष्ट्रीय संस्थाओं की जिस नाकामी के दर्शन हुए थे, उनकी अक्षमता को इस युद्ध ने पूरी तरह उजागर करके रख दिया। यही कारण है कि दुनिया दो खेमों में बंटती दिखी। जब ये संस्थाएं किसी सहमति या संवाद की स्थिति बनाने में असफल रहीं, तब भारत दुनिया की कूटनीति का नया केंद्र बनता हुआ दिखा। इसका अनुमान आप इसी तथ्य से लगा सकते हैं कि यूक्रेन को लेकर जब अमेरिका और रूस एक दूसरे को आंखें दिखा रहे थे, उसी दौरान एक हफ्ते के भीतर अमेरिकी उप-राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और रूसी विदेश मंत्री नई दिल्ली का दौरा कर चुके थे।

बीते करीब एक डेढ़-महीने में दुनिया के तमाम नेता और राजनयिक भारत का दौरा कर चुके हैं। जाहिर है कि यह उभरते हुए वैश्विक ढांचे में भारत की बढ़ती भूमिका का ही प्रमाण है। इसी पृष्ठभूमि में रायसीना डायलाग के सातवें संस्करण का सफल आयोजन हुआ। इसमें दुनिया के करीब सौ से अधिक देशों के प्रतिनिधियों ने विश्व के समक्ष ज्वलंत मुद्दों पर मंथन किया। बीते कुछ वर्षों के दौरान रायसीना डायलाग वैश्विक भू-राजनीति एवं भू-आर्थिकी पर विमर्श के एक प्रमुख मंच के रूप में उभरा है। विश्व इस समय जिन परिस्थितियों से जूझ रहा है, उसमें ऐसे मंच की उपयोगिता कहीं ज्यादा बढ़ गई है। एक ऐसे समय में जब दुनिया में वाद-विवाद बढ़ रहे हों, वहां संवाद और भी आवश्यक हो गया है। इस दृष्टिकोण से रायसीना डायलाग ने अपनी भूमिका के साथ पूरा न्याय किया। यहां रूस और यूक्रेन के मुद्दे पर इतनी सारगर्भित एवं अर्थपूर्ण चर्चा हुई, जैसी दुनिया में अभी तक किसी देश या मंच पर देखने को नहीं मिली। इस मुद्दे से जुड़े तमाम अंशभागी यहां उपस्थिति रहे, जिन्होंने रायसीना डायलाग के मंच से अपना-अपना पक्ष दुनिया के सामने रखा।

पिछले कुछ समय से यह देखने में आ रहा है कि दुनिया की कई शक्तियां भारत को अपने-अपने पाले में खींच रही हैं। ऐसी स्थिति में भारत इन शक्तियों के साथ अपने समीकरण साधने में सफल रहा है। अच्छी बात यह रही है कि भारत न तो पूरी तरह से किसी एक पाले में गया और न ही उसने तटस्थता जैसा कोई भाव अपनाया। वास्तव में भारत ने यही दर्शाया कि उसका दृष्टिकोण तटस्थ न होकर अपने हितों की पूर्ति करने में सक्षम देश का है। इस दौरान विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने मुखर होकर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत का पक्ष रखा। रायसीना डायलाग के मंच पर उन्होंने उसी निरंतरता को कायम रखा। विषय विशेषज्ञता एवं साफगोई के लिए विख्यात जयशंकर ने इस मंच से भी दुनिया को स्पष्ट संकेत दिए कि भारत का नजरिया क्या है। यूरोपीय प्रतिनिधियों द्वारा यूक्रेन के मामले में भारत के लिए रचे गए प्रश्नों के व्यूह को विदेश मंत्री ने अपने अचूक तर्कों से ध्वस्त कर दिया। उन्होंने कहा कि भारत ने बार-बार दोहराया है कि यूक्रेन पर हमला उचित नहीं और किसी भी विवाद का संवाद से ही समाधान तलाशा जाना चाहिए। उन्होंने विधि आधारित वैश्विक व्यवस्था की दुहाई देने वाले पश्चिमी देशों के इस मामले में दोहरे मापदंड भी गिनाए। उन्होंने कहा कि जो लोग अब रूस पर वैश्विक ढांचे का मखौल उड़ाने का आरोप लगा रहे हैं, वे तब मौन थे, जब अमेरिका ने एकाएक अफगानिस्तान से निकलने का फैसला किया और वहां तालिबान का कब्जा हो गया। उन्होंने यहां तक कहा कि जब चीन भारत की सीमा पर अपना दुस्साहस दिखा रहा था तो पश्चिम ने बिन मांगी सलाह के तौर पर भारत को सुझाया कि चीन से तनाव टालने के लिए वह उससे अपना व्यापार बढ़ाए। जयशंकर ने कहा कि रूस को लेकर भारत ने पश्चिमी देशों को ऐसी कोई सलाह नहीं दी। उन्होंने बहुत संतुलित ढंग से समझाया कि अंतरराष्ट्रीय मामलों में संतुलित रवैया बहुत आवश्यक है। इसमें सभी की अपनी-अपनी प्राथमिकताएं होती हैं। समस्या मुद्दों को अपने-अपने नजरिये से देखने के कारण उत्पन्न होती है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि सशक्त होते भारत का नई आकार लेती विश्व व्यवस्था में कद भी उसी अनुपात में बढ़ रहा है। बीते दिनों भारत आए ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जानसन ने भी कहा था कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र दुनिया में आर्थिक वृद्धि की नई धुरी के रूप में उभरने वाला है, जिसमें भारत की भूमिका महत्वपूर्ण होगी। चीन में विकास के चरम अवस्था पर पहुंचने और कोविड से लड़खड़ाने के बाद भारत ही दुनिया की सबसे तेजी से वृद्धि करने वाली अर्थव्यवस्था के रूप में सामने आ रहा है। इसने भारत की जिम्मेदारी को भी बढ़ा दिया है, जिसका वह निर्वहन करने से भी नहीं हिचक रहा। चाहे कोविड महामारी से बचाव के लिए वैक्सीन की पहुंच के मामले में गरीब देशों के समर्थन में आवाज बुलंद करना हो या फिर यूक्रेन में युद्ध छिड़ने से गेहूं की वैश्विक किल्लत में अपनी ओर से आपूर्ति करने की पहल, भारत के इन कदमों को पूरी दुनिया से सराहना मिली है। कई देशों को भारत ने कोविड रोधी टीका उपलब्ध कराया। मुश्किल में फंसे अफगानिस्तान को अनाज और दवाएं मुहैया कराईं। यहां तक कि चीनी कर्ज के चंगुल में फंसे आर्थिक संकट के शिकार श्रीलंका की मदद से भी पीछे नहीं रहा। ये सभी उदाहरण भारत को एक जिम्मेदार शक्ति के रूप में स्थापित करते हैं। भविष्य में भारत के इस उभार की कहानी को आगे बढ़ाने में विमर्श को अपने अनुरूप गढ़ने की आवश्यकता भी उतनी ही महत्वपूर्ण होगी। इसमें रायसीना डायलाग जैसे मंच का महत्व और अधिक बढ़ेगा। जब दुनिया के अधिकांश देश एवं अंतरराष्ट्रीय संस्थान अंतर्मुखी होते जा रहे हैं, तब दुनिया भारत की आवाज सुनना चाहती है और उसे सुनाने की एक अहम कड़ी के रूप में रायसीना डायलाग का दायरा आने वाले समय में और व्यापक होता दिखेगा।


Date:29-04-22

समाप्त हो राजद्रोह कानून

संपादकीय

सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को नोटिस दिया है कि वह तीन दिन के भीतर भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 124ए के तहत आने वाले राजद्रोह कानून की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं का उत्तर दे। इससे यह आशा जगी है कि अंतत: यह कानून समाप्त कर दिया जाएगा। इस कानून का केंद्र और राज्यों की सरकारों ने जमकर दुरुपयोग किया है और यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गत वर्ष जून में जी-7 देशों के आयोजन में दिए गए भाषण के विपरीत है जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘भारत लोकतंत्र, विचारों की स्वतंत्रता और आजादी को लेकर प्रतिबद्ध देश है’। इसके बाद मोदी ने मुक्त समाज संबंधी एक वक्तव्य पर हस्ताक्षर किए थे जिसमें कहा गया है कि उस पर हस्ताक्षर करने वाले ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों तरह से अभिव्यक्ति की आजादी के पक्ष में रहेंगे। यह सार्वजनिक रुख उस बात के विपरीत है जिसके तहत सरकार की आलोचना करने वालों को गिरफ्तार कर लिया जाता है। इसमें पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, कलाकार और छात्र सभी शामिल हैं। इतना ही नहीं सरकार ने अनगिनत अवसरों पर इंटरनेट भी बंद कराया है। धारा 124ए को समाप्त करके सर्वोच्च न्यायालय सरकार की मदद ही करेगी क्योंकि इससे उसकी अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं तथा घरेलू व्यवहार के बीच की विसंगति दूर होगी।

इस कानून को समाप्त करने के लिए विधिक हलकों में भी मांग तेजी से बढ़ी है। उदाहरण के लिए गत वर्ष फरवरी में दिल्ली की एक अदालत ने कहा था कि राजद्रोह के कानून का इस्तेमाल उपद्रवियों को शांत करने के बहाने से आशंकाओं को दूर करने के लिए नहीं किया जा सकता। बाद में प्रधान न्यायाधीश एन वी रमण ने सरकार के विधिक प्रतिनिधि से पूछा था कि एक औपनिवेशिक कानून जिसका इस्तेमाल लोगों को दंडित करने के लिए किया जाता था, उसे आजादी के 75 वर्ष बाद भी क्यों इस्तेमाल किया जा रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया है कि इस मामले की अंतिम सुनवायी 5 मई को होगी। इससे यही संकेत मिलता है कि न्यायमूर्ति रमण इस विवादित मुद्दे को समाप्त करना चाहते हैं। देश की सबसे बड़ी अदालत का रुख अभिव्यक्ति की आजादी के हिमायतियों के लिए आशा जगाने वाला है। परंतु एक तथ्य यह भी है कि सरकार ने याचिकाएं दायर होने के नौ महीने बाद भी अपना जवाब दाखिल नहीं किया है। ऐसे में संभव है कि सरकार के विचार अदालत से मेल न खा रहे हों। गत वर्ष दिसंबर में कानून मंत्री किरण रिजिजू ने भी इस बात की पुष्टि की थी कि गृह मंत्रालय की ओर से धारा 124ए को समाप्त करने का कोई प्रस्ताव नहीं है।

इस कानून को समाप्त करने की तात्कालिक आवश्यकता इसलिए उपजी है कि राजनेताओं और सुरक्षा एजेंसियों ने धारा 124ए को लेकर केदारनाथ बनाम बिहार राज्य के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के 60 वर्ष पुराने ऐतिहासिक निर्णय की मनमानी व्याख्या की है। उस फैसले में न्यायालय ने धारा 124ए की वैधता को कायम रखते हुए कहा था कि उसका इस्तेमाल केवल तभी किया जाना चाहिए जब मकसद सरकार या देश के प्रति हिंसा भड़काना हो। परंतु इस फैसले के और अधिक स्पष्ट न होने के कारण सरकार इसकी व्यापक व्याख्या करके उसे इस्तेमाल करती है। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में ऐसा करना आसन है क्योंकि यहां जनता की नाराजगी किसी भी समय सामने आ सकती है और वक्तव्यों के बगावती असर को मनचाहे ढंग से आंका जा सकता है। आम भारतीयों की आजादी को दो अन्य खतरे हैं विधिविरुद्ध क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम (यूएपीए) तथा राष्ट्रीय सुरक्षा कानून। इनका भी सरकार के विरोधियों को चुप कराने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। इन दोनों की तत्काल समीक्षा की आवश्यकता है। ऐसे में धारा 124ए को समाप्त करने से अच्छी नजीर पेश होगी और भारत मुक्त समाज की प्रतिबद्धताओं के अनुरूप बनेगा।


Date:29-04-22

रायसीना डायलॉग

संपादकीय

पश्चिमी देशों को आईना दिखाते हुए विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने जो कहा वह भारत के बढ़ते कद और हौसले का परिचायक है। जयशंकर ने साफ कहा, ‘हमें पता है, हम कौन हैं हम दूसरे देशों को खुश करने के लिए उनकी छाया नहीं बन सकते।’ रायसीना डायलॉग नामक कार्यक्रम में तीनों दिन पश्चिमी देश जहां भारत पर अपने पाले में खड़ा होने का दबाव बनाते रहे वहीं भारत ने दृढ़ता से अपनी बात रखी। तीन दिवसीय कार्यक्रम का आयोजन विदेश मंत्रालय और ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन ने किया था। अंतिम दिन के एक सत्र में जयशंकर ने कहा कि भारत को अंतरराष्ट्रीय समुदाय को खुश करने का प्रयास करने की बजाय दुनिया से लेन देन करने के लिए अपनी पहचान पर विश्वास को आधार बनाना चाहिए। उन्होंने कहा,‘हम कौन हैं, इस बारे में हमें आत्मविश्वास-पूर्ण होना चाहिए। हमें दुनिया से अपनी असली पहचान के दम पर ही लेन देन करना चाहिए। दूसरे हमें परिभाषित करें यह बीते जमाने की बात हो चुकी है। हमें किसी भी तरह दूसरों की स्वीकृति की जरूरत नहीं है। रूस-यूक्रेन संकट पर उन्होंने कहा कि इस समय लड़ाई को रोकने और बातचीत शुरू करने पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है। यूक्रेन युद्ध की शुरु आत से ही पश्चिमी देश भारत के किसी भी पक्ष का साथ न देने को लेकर असहज रहे हैं। अर्से से जाहिर भारत-रूस संबंधों को लेकर भारत की आलोचना की जाती रही, यहां तक कि अमेरिका ने भी दबाव बनाने का खुला प्रयास किया। जबकि भारत हमेशा युद्ध और हिंसा को खत्म करने और वार्ता की अपील करता रहा। रूस की आलोचना में भारत ने पश्चिम का साथ नहीं दिया लेकिन जब यूक्रेन के बूचा शहर में मासूम नागरिकों के नरसंहार की खबरें सामने आई तो भारत ने इसकी कड़ी निंदा की। रायसीना डायलॉग के यूरोपीय आयोग की प्रमुख उर्सुला फोन डेय लायन ने रूस पर लगाए गए यूरोपीय प्रतिबंधों के पक्ष में भारत का भी समर्थन मांगा। लेकिन भारत अपनी स्थिति पर कायम रहा। भारत ने पश्चिमी देशों को ही आड़े हाथों लिया। चीन की आक्रामकता को नजरअंदाज करने और अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी जैसी एशिया की सबसे बड़ी चुनौतिया की परवाह न करने पर जयशंकर ने उन्हें ही खरी खोटी सुना दी।


Date:29-04-22

सहकारी संघवाद की परीक्षा

संपादकीय

एक असाधारण कदम उठाते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कोविड संक्रमण के ताजा उभार पर मुख्यमंत्रियों के साथ अपनी ऑनलाइन बैठक में एक असामान्य विषयांतर किया। उन्होंने पेट्रोलियम उत्पादों की ऊंची कीमतों की ओर इशारा करते हुए विशेष रूप से विपक्षी राज्य सरकारों से आग्रह किया कि पेट्रोल-डीजल पर वैट घटाएं और अपनी जनता को राहत दें। विपक्ष-शासित राज्यों को ही संबोधित इस मांग का तात्कालिक संदर्भ यह है कि पिछले नवंबर में केंद्र ने तेल के उत्पाद शुल्क में 5 रु0 प्रति लीटर की कमी की थी। उस समय केंद्र की ओर राज्यों से वैट कम करने की मांग भी की गयी थी और कई भाजपा शासित राज्यों ने उसमें कमी भी की थी, जिससे तेल का दाम आम तौर पर सैकड़ा पार करते-करते रह गया था। लेकिन विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद फिर से तेजी से बढ़ने शुरू हो गए। और अब तेल के दाम को सैकड़ा पार किए गए भी कई हफ्ते हो चुके हैं। इस बीच महंगाई की दर तीस साल के रिकार्ड स्तर पर पहुंच गयी है और इसके लिए सबसे बढ़कर, तेल के दाम में बढ़ोतरी को ही जिम्मेदार माना जा रहा है। इन हालात में कोविडोत्तर आर्थिक बहाली के लिए भी खतरा बढ़ गया है। प्रधानमंत्री का तेल के बढ़े हुए दाम पर चिंता जताना स्वाभाविक भी था और जरूरी भी। लेकिन हालांकि प्रधानमंत्री ने सहकारी संघवाद की दुहाई भी दी थी, लेकिन जैसा कि उनको अनुमान भी था, उनकी अपील ने विवाद ही ज्यादा पैदा किया है। दुर्भाग्य से इसके लिए सिर्फ राज्यों और खास तौर पर विपक्ष शासित राज्यों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। इसकी वजह राज्यों के हाथों में संसाधनों का बहुत घट जाना ही नहीं है। इसकी सबसे बड़ी वजह है, तेल की कीमतों के असह्य रूप से ऊपर चढ़ जाने में, बाहरी कारणों को छोड़ दें तो, केंद्र द्वारा वसूले जाने वाले करों का हिस्सा बहुत ज्यादा होना। 2014 के बाद से पेट्रोल पर केंद्रीय कर की दर में 3.5 गुना और डीजल पर 9 गुना बढ़ोतरी हुई है। वास्तव में केंद्र सरकार के राजस्व में पेट्रोलियम करों का हिस्सा 5.4 फीसद से बढ़कर 12.2 फीसद रह गया है। इसलिए केंद्र सरकार पहले खुद तेल क्षेत्र को संसाधन जुटाने के लिए दुधारू गाय की तरह इस्तेमाल करना बंद करे, उसके बाद ही राज्यों से वैट घटाने की उसकी मांग में कोई नैतिक बल सकता है, उसके बिना नहीं। केंद्र की नीतियों से तय दाम के साथ राज्यों का वैट तो खुद ही घट जाएगा।


Date:29-04-22

विकास की राह में रोड़ा न बनें नियम

मकरंद आर परांजपे, ( प्रोफेसर, जेएनयू )

जो लोग यह मानते हैं कि भारत का विकास आज से पहले ऐसे संभव नहीं था, वे अक्सर देश के विशाल नियामक और अनुपालन (नियम-पालन) तंत्र को लेकर निराश भी दिखते हैं। कभी-कभी वे नाराज और क्रोधित भी हो जाते हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि यह व्यवस्था भारत के तेज विकास की कहानी में अड़चन और रुकावट पैदा करती है। माना यही जाता है कि कई बेईमानों, ठगों और प्रत्यक्ष धोखेबाजों केचलते खूब रुकावटेंपैदा होती हैंऔर हमारा विशाल तंत्र भारत में कारोबार को किसी दु:स्वप्न सरीखा बना देता है।

ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन (ओआरएफ) द्वारा हाल ही में जारी की गई ‘जेल्ड फॉर डूइंग बिजनेस’ रिपोर्ट में चौंकाने वाली 69,233 तरह की अद्वितीय मंजूरियां और औपचारिकताएं सूचीबद्ध की गई हैं। ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के वाइस प्रेसिडेंट गौतम चिकरमने और अवंतिस रेगटेक के सह-संस्थापक व सीईओ ऋषि अग्रवाल द्वारा तैयार यह रिपोर्ट बताती है कि 26,134 मंजूरियों या औपचारिकताओं की पालना अगर न हो, तो बतौर दंड कारावास तक की सजा हो सकती है। सबसे अधिक नियम-पालन पर जोर देने वाले राज्यों में से जिन पांच सूबों में सर्वाधिक कारावास संबंधी प्रावधान हैं, वे हैं- गुजरात (1,469), पंजाब (1,273), महाराष्ट्र (1,210), कर्नाटक (1,175) और तमिलनाडु(1,043)। मगर निराशाजनक है कि सख्त अनुपालन व्यवस्था के बावजूद, जिसमें तमाम नियम मौजूद हैं व कठोर धाराएं भी लगाई जाती हैं, लेकिन असली अपराधी कानून के लंबे हाथों से बार-बार बचते दिखाई पड़ते हैं।

भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारत के विकास की इन बाधाओं से पूरी तरह परिचित हैं। 21 अप्रैल को आयोजित 15वें सिविल सेवा दिवस के कार्यक्रम का इस्तेमाल उन्होंने न सिर्फ लोक प्रशासन में उत्कृष्ट काम करने वाले नौकरशाहों को पुरस्कृत करने के लिए किया, बल्कि यह संदेश भी घर-घर पहुंचा दिया कि हमारी नौकरशाही अपने जटिल प्रशासनिक व्यवस्था के कारण भारत के विकास में एक बड़ी चुनौती पेश कर रही है। भारतीय जनता पार्टी द्वारा साल 2013 में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में नाम की घोषणा होने के बाद अपने शुरुआती अनुभवों को याद करते हुए नरेंद्र मोदी ने कहा, जब मेरी पार्टी ने पहली बार 2013 में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में मेरे नाम की घोषणा की थी, तब मुझे दिल्ली में कारोबारी समुदाय ने बुलाया था। मैंने उनके बीच एक भाषण दिया। तब 2014 के आम चुनाव होने में चार से छह महीने की देरी थी। जब उन्होंने मुझसे पूछा कि प्रधानमंत्री बनने के बाद मैं क्या करूंगा, तब मैंने कहा, मैं हर दिन एक कानून खत्म करूंगा, कोई नया कानून मैं नहीं बनाऊंगा। यह सुनकर वे चौंक गए थे। और, अपने पहले पांच वर्षों में मैंने 1,500 कानून खत्म भी किए।

बिना किसी लाग-लपेट के प्रधानमंत्री ने कहा, यह आप जानते ही हैं कि इस तरह के सैकड़ों कानून अपने देश में रहे हैं, जिनको मैं भारत के नागरिकों के लिए बोझ समझता हूं। आप मुझे बताइए, आखिर हमें ऐसे कानूनों को क्यों ढोना चाहिए? आज भी मेरी यही राय है कि इस तरह के कई कानून, जो बेकाम हो चुके हैं, उनके खिलाफ हम कुछ पहल क्यों नहीं करते? उनको खत्म क्यों नहीं कर देते? देश को इस गैर-जरूरी जाल से बाहर निकालना ही होगा।

कैबिनेट सचिव राजीव गौबा की मंच पर मौजूदगी के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी ने भारतीय नागरिकों से नियम-पालन की अंतहीन मांग करने वाली इस व्यवस्था पर बोलना जारी रखा। उन्होंने कहा, इसी तरह, हम नागरिकों से सभी प्रकार के नियम अनुपालन की मांग करते रहते हैं। मैंने कैबिनेट सचिव से कहा कि जब तक हम बाकी दुनिया के लिए (अपने सॉफ्टवेयर और प्रौद्योगिकी आउटसोर्सिंग के माध्यम से) काम करने की कोशिश कर रहे हैं, आपको इसकी जिम्मेदारी लेनी चाहिए कि देश इन नियमों के पालन से मुक्त होगा; नागरिकों को हमें आजाद करना ही चाहिए। आजादी के इस 75वें वर्ष में आप नागरिकों को इस जाल में क्यों फंसा रहे हैं? और, एक कार्यालय में छह लोग काम करने बैठे होंगे, हर टेबल वाले को काम की पूरी जानकारी होगी, फिर भी वे अलग से पूछेंगे, टेबल की साइड से वे कुछ नहीं करेंगे।

यहां मैं फिर से ‘जेल्ड फॉर डूइंग बिजनेस’ रिपोर्ट पर लौटता हूं। इसकी सामग्री को पिछले सात वर्षों में टीम लीज और रेग टेक ने शिद्दत से जमा किया है। इसके मोनोग्राफ में श्रम, वित्त व कराधान, पर्यावरण, स्वास्थ्य व सचिव के कार्य को लेकर सुरक्षा, वाणिज्यिक, उद्योग-केंद्रित और सामान्य क्षेत्र जैसे सात व्यापक श्रेणियों में रिपोर्ट के नतीजे बांटे गए हैं। नियामक न सिर्फ अतिरिक्त लाभ कमाने वाले, बल्कि गैर-लाभकारी संस्थानों की राह में भी बाधाएं उत्पन्न करता है। यही वजह है कि भारत में न केवल कोई कारोबार करना या नया संस्थान शुरू करना कठिन है, बल्कि उसे बंद करना तो कहीं ज्यादा दुरूह काम हो जाता है। जैसा कि टीम लीज के अध्यक्ष मनीष सभरवाल भी कहते हैं, भारत में नियोक्ता संबंधी अनुपालनों का अत्यधिक अपराधीकरण भ्रष्टाचार को जन्म देता है, औपचारिक रोजगार को कुंद करता है और न्याय में जहर घोलता है।

यह रिपोर्ट तमाम तरह की सिफारिशों से भरी हुई है, जिनमें व्यावसायिक नियमों और विनियमों को युक्तिसंगत बनाना, आपराधिक दंड को नियंत्रित करना और व्यापक नीतिगत सुधार शामिल हैं। देश के अनुपालन तंत्र या आम लोगों को सेवा देने वाली व्यवस्थाओं के पुनर्गठन से न केवल भारत में सामान्य कारोबारी माहौल बेहतर बन सकेगा, बल्कि इससे विभिन्न तरीके से पैसे कमाने वाले, नवाचार में विश्वास रखने वाले, उद्यमी और बड़े-बड़े उद्योगपतियों की गरिमा भी सुरक्षित रहेगी।

सिविल सेवकों के लिए प्रधानमंत्री का यह आह्वान केंद्र सरकार के साथ-साथ, देश के विभिन्न राज्यों, उनके विभिन्न मंत्रालयों व विभागों और पूरे देश के लिए एक व्यापक सुधार प्रक्रिया को शुरू करने का बेहतर मौका दे रहा है। यह निश्चय ही भारत को समृद्धि और खुशहाली की नई ऊंचाइयों पर ले जाएगा।


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