29-02-2024 (Important News Clippings)
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Date:29-02-24
Strength vs reason
The Bill to grant reservations for Marathas may not pass judicial muster
Editorial
The legitimacy of any demand for a change in public policy lies in the rationale behind it and not in the strength in support for it. There is a reason why even after States have bowed down to popular demands for reservation to social groups which were not considered backward earlier, their actions have been reversed or nullified by the higher judiciary. This has been true of previous pieces of legislation passed by the Maharashtra government to grant reservation to the Maratha community. Yet, the community’s political dominance is evident in the fact that the State Assembly unanimously passed a Bill on February 20, granting Marathas 10% reservation in education and government jobs. This is the third time in a decade that such legislation for the community has been passed; earlier, there was the Socially and Educationally Backward Classes Act, 2018 under the Bharatiya Janata Party-Shiv Sena-led coalition. The two pieces of legislation are similar, but the current Bill is based on a report by the Maharashtra State Backward Class Commission, which expands the total quota for reservations to 72% with the inclusion of 10% for Marathas after the application of a “creamy layer” criterion. This also includes 10% reservation for “Economically Weaker Sections” focusing on the poor among the Maratha community.
It is understandable why the political class in Maharashtra has chosen the easier, even if legally dubious, path of expanding the reservation pie. The other alternative of treating Marathas as a backward class community and providing reservations from within the 19% quota for OBCs was always going to be a problem with OBC groups expressing opposition. But the legislation is bound to face problems if and when it is challenged in the Supreme Court. The top court had struck down the 2018 Act in May 2021 by citing the Indra Sawhney judgment (1992) that limited reservations to 50% and also held that only the Union government is empowered to identify socially and educationally backward classes to include them in the central list to avail reservations. Yet, the Court’s November 2022 judgment upholding the 10% quota for EWS, over and beyond the 50% limit, has opened a Pandora’s box. The vagaries of addressing demands of politically dominant groups such as the Marathas, which have stratifications due to significant intra-community variations in terms of income and educational outcomes, suggest a case for a comprehensive socio-economic census alongside the delayed decennial Census. Such a census will establish the true nature of backwardness and discrimination across States and could even clarify a new means of providing affirmative action based on the data while staying true to principles of social justice.
Date:29-02-24
एमएसपी से लाभ कम, हानि अधिक
शिवकांत शर्मा, ( लेखक बीबीसी हिंदी के पूर्व संपादक हैं )
पंजाब के किसान संगठनों की कुछ मांगें सरकार के गले की हड्डी बनती जा रही हैं। ये मांगें फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी को बढ़ाने की मांग अब उन्हें लागत से डेढ़ गुना करने, सभी 23 फसलों पर लागू करने और अनाज व्यापारियों के लिए भी बाध्यकारी बनाने की गारंटी देने में बदल गई है। इसका कानून बनाने और विश्व व्यापार संगठन के दायरे से बाहर होने की मांग भी जोड़ दी गई है। किसानों को पर्यावरण कानूनों के दायरे से बाहर रखने की मांग भी शामिल की गई है, जो घातक होती जा रही जलवायु को देखते हुए बेहद चिंताजनक है। जलवायु परिवर्तन की रोकथाम के लिए अमेरिका, चीन और यूरोप समेत विश्व भर के देशों ने किसानों को उपज का एमएसपी देना बंद करते हुए पर्यावरण और जैव विविधता के संरक्षण की शर्तों पर सीधी आर्थिक सहायता देना शुरू किया है। जबकि भारत के किसान पर्यावरण की बात किए बिना केवल एमएसपी बढ़वाने पर तुले हैं। सवाल यह नहीं है कि देश के पास सभी फसलों पर किसान की लागत से डेढ़ गुना एमएसपी की गारंटी देने का सामर्थ्य है या नहीं? इससे महंगाई बढ़ेगी या नहीं और बढ़ेगी तो कितनी और उसका बुरा असर किस वर्ग पर होगा? सवाल यह है कि एमएसपी की गारंटी के लाभ और नुकसान क्या हैं?
अमेरिका, यूरोप और चीन के अनुभवों से सिद्ध हो चुका है कि एमएसपी के लाभ कम और नुकसान ज्यादा हैं। उपज पर समर्थन मूल्य की सहायता सबसे पहले अमेरिका ने शुरू की थी। हालांकि जल और जमीन के अत्यधिक दोहन और प्रदूषण से बढ़े अनाज, डेरी और मांस के उत्पादन से बाजार भाव तेजी से गिरने लगे और अमेरिका को दो दशकों के भीतर ही समर्थन मूल्य की नीति छोड़कर सीधी नकद सहायता की नीति अपनानी पड़ी। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोप ने साझा मंडी के रूप में समर्थन मूल्य की नीति शुरू की, जिसे अति उत्पादन और पर्यावरण के संकट से निपटने के लिए नकद सहायता नीति में बदला गया। इसी तरह चीन में माओ की विनाशकारी नीतियों से बर्बाद हुई खेती को पुनर्जीवित करने के लिए समर्थन मूल्य नीति शुरू की गई, जिसे बढ़ते दुष्प्रभावों के कारण नकद आर्थिक सहायता में बदलना पड़ा। अब अमेरिका, यूरोप और चीन में किसानों को उपज के बाजार भाव में आने वाली गिरावट के बराबर नकद आर्थिक सहायता दी जाती है। पहले कृषि उपज के कुछ वर्षों के भाव का औसत निकाल लिया जाता है। फिर फसल के समय बाजार भाव उस औसत भाव से कम हो जाने पर दोनों का अंतर जमीन के आकार से गुणा करके सहायता राशि के रूप में दे दिया जाता है। जिस किसान के पास जितनी जमीन हो, उसे उतने ही गुना सहायता मिलती है। यूरोप और चीन में किसानों को मिलने वाली इस सहायता के साथ जैव-विविधता, जलवायु की गुणवत्ता और भूमि की उर्वरा शक्ति की रक्षा जैसी कई शर्तें भी जोड़ी गई हैं, ताकि किसान एक ही तरह की फसलें उगाने की जगह बदल-बदल कर फसलें लगाएं और रासायनिक खादों, कीटनाशकों और पानी का किफायत के साथ प्रयोग करें।
अपने देश में पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान के कुछ हिस्सों में किसानों ने एमएसपी के साथ-साथ मुफ्त या सस्ती बिजली, सस्ती खाद और कीटनाशक मिलने के कारण धान और गन्ने जैसी पानी की भारी खपत वाली फसलें लगाकर भूजल का स्तर पाताल में पहुंचा दिया है। इससे उर्वरा शक्ति का भी ह्रास हुआ है। हरित क्रांति के अग्रदूत पंजाब की लगभग 39 प्रतिशत जमीन उपजाऊ शक्ति गंवाकर खारी हो चुकी है। राज्य के अधिकतर ब्लाकों में भूजल स्तर 150-200 मीटर नीचे चला गया है, जिससे भविष्य में जमीन के बंजर हो जाने का खतरा बढ़ गया है। हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान के नहरी सिंचाई वाले इलाकों में भी स्थिति गंभीर होती जा रही है। औसत पैदावार की रफ्तार भी थम गई है। भारत में गेहूं की औसत उपज 3.5 टन प्रति हेक्टेयर तक ही पहुंच पाई है जबकि जर्मनी में आठ टन, रूस और यूक्रेन में पांच टन और अर्जेंटीना और अमेरिका में चार टन प्रति हेक्टेयर से ऊपर है। भारत में लागत भी इन सबसे अधिक है। इसीलिए यहां के किसान एमएसपी बढ़ाने की मांग करते रहते हैं। यह तो तब है जब किसानों को बिजली, खाद, पानी, बीज और ऋण रियायती दरों पर मिलते हैं। खेत मजदूरी अमेरिका और यूरोप के बीसवें हिस्से के बराबर है। खेती की कमाई पर टैक्स भी नहीं है। यदि इन सबकी कीमत भी लागत में जोड़ ली जाए तो भारत की कृषि उपज काफी महंगी साबित होती है। खाद, बीज, बिजली, पानी, लोन के रियायती दाम पर मिलने, मजदूरी सस्ती होने और उपज के लिए समर्थन मूल्य मिल जाने की वजह से किसान अपनी लागत में किफायत बरतने और उपज बढ़ाने की पूरी कोशिश नहीं करते, जिससे जमीन और जलवायु पर भी बुरा असर पड़ रहा है।
यदि एमएसपी को लागत से डेढ़ गुना तय कर दिया गया तो लागत में किफायत बरतने की कोई वजह ही नहीं बचेगी। बिजली, पानी और खाद की फिजूलखर्ची बढ़ती जाएगी, क्योंकि किसान को अपनी उपज की लागत से डेढ़ गुना कीमत सुनिश्चित रूप से मिलती रहेगी। इसकी कीमत पर्यावरण को चुकानी पड़ेगी। इससे महंगाई बढ़ेगी, अर्थव्यवस्था धीमी पड़ेगी और इसकी सबसे बुरी मार किसानों के उस बड़े वर्ग को झेलनी पड़ेगी जिसके पास छोटी जोत है। भारत के अनुमानित 14.5 करोड़ किसानों में से 10 करोड़ किसान इसी वर्ग में आते हैं, जिनके पास बेचने लायक उपज न के बराबर होती है।
यदि देश के अधिकांश किसानों की मदद करनी है तो एमएसपी और रियायती बिजली, पानी और खाद जैसी सब्सिडियों की जगह सीधी आर्थिक सब्सिडी पर विचार करना होगा। देश-विदेश में अनेक शोधपत्रों से सिद्ध हुआ है कि सीधी आर्थिक सब्सिडी अधिक समावेशी और कारगर है। इस सब्सिडी के साथ जल संचय, पर्यावरण संरक्षण और फसल विविधता की शर्तों को भी जोड़ा जाए, ताकि जरूरत का हर अनाज पैदा हो सके और खाद्य तेल के आयात पर भारी व्यय न करना पड़े। बचे हुए वित्तीय संसाधनों को सरकार उन्नत बीज विकास, मृदा संरक्षण और देहात में रोजगार की योजनाओं पर खर्च कर सकती है।
Date:29-02-24
सपनों को पंख
संपादकीय
अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता हासिल करना भारत का पुराना सपना है। हालांकि इसके लिए संघर्ष लंबे समय से चलता आ रहा है, मगर जबसे भारतीय वैज्ञानिकों ने स्वदेशी तकनीक से अंतरिक्ष यान और उपग्रह प्रक्षेपण यानों के लिए क्रायोजेनिक इंजन का विकास किया है, तबसे इस दिशा में उल्लेखनीय सफलताएं मिली हैं। चंद्रयान और आदित्य एल-वन की कामयाबी के बाद निस्संदेह अंतरिक्ष वैज्ञानिकों के हौसले बुलंद हैं। अब गगनयान मिशन को लेकर उत्साह नजर आने लगा है। प्रधानमंत्री ने इस मिशन पर जाने के लिए चार वैज्ञानिकों के नामों की घोषणा भी कर दी है। वैज्ञानिक इस मिशन को लेकर खासे सावधान हैं। गगनयान की बनावट कुछ इस तरह तैयार की गई है कि उसमें यात्रा करते हुए यात्रियों को पृथ्वी जैसे वातावरण का अनुभव हो और उन्हें सुरक्षित उतारा जा सके। फिलहाल एहतियात के तौर पर तीन मिशन भेजे जाएंगे, जिनमें से दो मानव रहित होंगे और एक में तीन यात्रियों को तीन दिन के लिए भेजा जाएगा। उन्हें समुद्र या पृथ्वी की सतह पर सुरक्षित उतार लिया जाएगा। इसके लिए तैयार किए गए गगनयान का परीक्षण सफल रहा है। यानी सब तरफ से इस मिशन की तैयारियां पूरी हैं, केवल इसके उड़ान का समय तय होना है।
दरअसल, गगनयान मिशन को इसलिए महत्त्वपूर्ण माना जा रहा है कि यह भारत का पहला मिशन होगा, जिसमें मानवयुक्त यान अंतरिक्ष में भेजा जाएगा। इस यान को पूरी तरह स्वदेशी तकनीक से तैयार किया गया है। इस तरह भारत अमेरिका, रूस, चीन जैसे देशों की श्रेणी में शुमार हो जाएगा, जो अभी तक मानवयुक्त अंतरिक्ष यान भेज चुके हैं। दूसरी उल्लेखनीय बात यह है कि भारत अगले दस वर्षों में अपना अंतरिक्ष स्टेशन स्थापित करना चाहता है। उसमें गगनयान का योगदान महत्त्वपूर्ण होगा। अंतरिक्ष स्टेशन का मकसद दरअसल, वहां रह कर अंतरिक्ष के रहस्यों को सुलझाना है। अभी तक भेजे गए अंतरिक्ष यानों से प्राप्त जानकारियां बहुत सीमित हैं, जबकि अंतरिक्ष का विस्तार अनंत है। दुनिया भर के अंतरिक्ष वैज्ञानिकों के जिज्ञासा का विषय है कि अंतरिक्ष में क्या कोई ऐसा भी ग्रह है, जिस पर मनुष्य जैसे प्राणी रहते हैं या जहां मनुष्य के रहने की संभावना हो सकती है। अंतरिक्ष स्टेशन स्थापित हो जाने से अंतरिक्ष के कई अछूते पक्षों को भी जानने-समझने का मौका मिल सकता है। उसमें गगनयान वैज्ञानिकों के स्टेशन तक आवागमन का माध्यम बन सकता है।
फिर, दुनिया की बदलती स्थितियों में अंतरिक्ष अनुसंधान केवल अंतरिक्ष के रहस्यों को खोलने तक सीमित नहीं है। यह एक विस्तृत कारोबार का रूप ले चुका है। पृथ्वी पर खनिजों की उपलब्धता सीमित है, जबकि मनुष्य की जरूरतें असीमित। ऐसे में दूसरे ग्रहों पर उपलब्ध खनिजों का दोहन भी भविष्य का एक सपना है। इसके लिए दुनिया की कई निजी कंपनियां भी अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में अपने पांव पसार रही हैं। चंद्रमा और मंगल ग्रह पर ऐसे कुछ उपयोगी खनिजों के बारे में पता भी चला है। फिर, दूसरे ग्रहों पर मानव बस्तियां बसाना भी दुनिया की अनेक सरकारों का सपना है। भारत भी इसे लेकर उत्साहित है। ऐसे में गगनयान की कामयाबी भारत के अंतरिक्ष अनुसंधान की दिशा में ऐतिहासिक और भविष्य की चुनौतियों के लिहाज से बहुत उपयोगी साबित होगी। गगनयान के अब तक के परीक्षणों से यह उत्साह स्वाभाविक है कि इसमें सफलता मिलेगी।