28-03-2024 (Important News Clippings)

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28 Mar 2024
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    Date:28-03-24

Not Working Out

New report shows jobs crisis is the No. 1 economic challenge. You wouldn’t know it from election rhetoric

TOI Editorials

India’s economic growth in the first three quarters of 2023-24 exceeded 8%, well above most optimistic projections. A LoknitiCSDS survey of youth in Delhi, however, indicates that headlines miss something. Eighty percent of the respondents said getting a job in the last two years was either difficult or very difficult. Growth’s not translating into adequate opportunity for youth.

Narrowing window | Jobsare the No. 1 economic and social issue. Let’s start with the big picture. The share of our working age population is about 63%. It’s expected to be stable for a while. This is the demographic window in which an economy can transform dramatically. East Asian tiger economies did that. The window was used to create a demographic dividend. Miss this opportunity, a country may stagnate.

Post-Covid scenario | The economy bounced back sharply and unemployment fell. But that’s just a part of the story. Two negative trends were visible in the jobs market. People moved back to agriculture, which really means limited earnings. Also, many of the new jobs were in the unstable category of self-employed, especially for women. These challenges have been highlighted again in a jobs report brought out this week by ILO and Institute for Human Development based on GOI data.

No market for young | India’s youth employment profile suggests a crisis. Share of youth who are not in employment, education or training has averaged 29.2% between 2010 and 2019. It’s the highest in South Asia. There’s a high proportion of unemployed educated youth even as industry complains of a shortage of labour for skilled jobs. Leave aside a few elite institutions, education in India is not a proxy for employability. To illustrate, about 3,700 PhDs applied recently for the post of a peon in UP police where Class V was the eligibility criterion.

Women not wanted | That’s the job market’s message. No surprise then that if 53.2% of the female workforce was self-employed in 2019, the proportion increased to 62% in 2022. Many are not even paid.

Stagnant earnings | Over the past decade the average monthly inflation-adjusted earnings of regular salaried and self-employed persons either declined or remained stable. This is corroborated by weak consumption data in the 8%+ GDP numbers.

The jobs crisis should be the priority of all political parties in this election season. But so far we haven’t heard of an effective strategy. Time’s running out.


 Date:28-03-24

फिलिस्तीन की स्थिति पर अमेरिका का ड्रामा

संपादकीय

फिलिस्तीन में इजराइली सैन्य कार्रवाई पर निंदा प्रस्ताव को यूएन सुरक्षा परिषद में तीन बार वीटो करने के बाद अमेरिका को निहत्थी जनता से ‘सहानुभूति’ महसूस हुई और उसने मतदान में भाग न लेकर प्रस्ताव को 14-0 से पारित होने दिया । ध्यान रहे कि यह प्रस्ताव अबाध्यकारी है। उधर इसी ड्रामा का दूसरा पार्ट खेलते हुए इजराइल ने अमेरिका से नाराजगी जताते हुए कहा कि उसके सबसे बड़े दोस्त ने धोखा दिया। बहरहाल इजराइल को अमेरिकी हथियारों की सप्लाई जारी है और आशंका है कि फिलिस्तीनी नागरिकों पर अगला इजराइली हमला काफी घातक हो सकता है। इस प्रस्ताव के तहत रसद और दवाएं भेजने का भी प्रावधान है, लेकिन हर पल किसी बम के गिरने की दहशत में क्या ये राहत नागरिकों को मिल सकेगी? सवाल इसका नहीं है कि पहला हमला किसने किया। जिसने किया वह एक आतंकवादी संगठन है न कि निहत्थे नागरिक। लिहाजा बदला लेने के लिए सही अपराधी चुनना नैतिकता के पैमाने पर जरूरी है। ऐसा नहीं है कि इजराइल यह बात नहीं जानता लेकिन अमेरिकी ब्लॉक के ‘आधे खुले और आधे छिपे समर्थन से उसकी हिम्मत बढ़ती जा रही है। अबकी बार यूएनएससी में अपना रवैया बाइडेन ने इजराइल पर अंकुश के लिए नहीं बल्कि अपने देश में चुनाव के मद्देनजर समर्थन पाने के लिए बदला है।


 Date:28-03-24

भारत को अब अपने खुद के रेटिंग सिस्टम की जरूरत है

पलकी शर्मा, ( मैनेजिंग एडिटर )

जब कोई सिस्टम ठीक से काम न करे तो आप क्या करते हैं? आप उसे दुरुस्त करने का प्रयास कर सकते हैं या अपना स्वयं का एक सिस्टम बना सकते हैं। लगता है कि भारत ने दूसरा विकल्प चुना है। वह एक अरसे से लोकतंत्र पर पश्चिमी सूचकांकों और सर्वेक्षणों की आलोचना करता आ रहा है। लेकिन खबरों की मानें तो अब वह अपने स्वयं के सूचकांक और सर्वेक्षण प्रकाशित करने जा रहा है। अगले कुछ हफ्तों में एक घरेलू डेमोक्रेसी-इंडेक्स प्रकाशित किया जा सकता है। अभी यह स्पष्ट नहीं है कि इसकी पद्धति क्या होगी, इसमें किन संकेतकों का उपयोग किया जाएगा या इसके तहत किन देशों को रैंकिंग दी जाएगी। लेकिन यह बहुत देर से उठाया गया कदम है। आप पश्चिमी मानदंडों से दुनिया के बारे में फैसले नहीं ले सकते। यदि आप ऐसा करते हैं तो जाहिर है कि इसमें पश्चिम को ही अच्छा दिखाया जाएगा, बाकियों को नहीं। और यह इसलिए एक गम्भीर समस्या है क्योंकि ये रेटिंग्स मायने रखती हैं। लोग इन रिपोर्टों के आधार पर बड़े निर्णय लेते हैं, निवेशक, कंपनियां और पर्यटक भी उन पर गौर करते हैं। इसलिए ये रैंकिंग देशों के लिए रिपोर्ट कार्ड की तरह बन जाती हैं। अच्छा रिपोर्ट कार्ड आपको फायदा पहुंचाएगा, बुरा निवेशकों को आपसे दूर रखेगा। और पश्चिम की ये रेटिंग्स दोषपूर्ण हैं।

आइए, ऐसे ही तीन हालिया सूचकांकों पर नजर डालते हैं। पहला है स्वीडन के वी-डेम इंस्टीट्यूट द्वारा प्रकाशित लिबरल डेमोक्रेसी इंडेक्स। इसमें भारत का स्थान 104 है। अंदाजा लगाइए कि उससे ठीक ऊपर कौन है? नाइजर! यह एक सैन्य-सत्ता द्वारा शासित देश है। उनके राष्ट्रपति जुलाई 2023 से नजरबंद हैं। फिर भी, नाइजर भारत से ऊपर है। कुवैत की रैंकिंग भी हमसे बेहतर है। पिछले महीने कुवैत ने अपनी संसद भंग कर दी थी क्योंकि कुछ सांसदों ने ‘अमीर’ का अपमान कर दिया था। मुझे लगता है कि जब आपके पास तेल होता है, तो आपके लोकतंत्र की एक अलग ही परिभाषा होती है। अब हैप्पीनेस इंडेक्स की बात करें। इस सूची में भारत 126वें स्थान पर है। पाकिस्तान 108वें स्थान पर है। यह ऐसा देश है, जहां मुद्रास्फीति वहां की औसत आयु से अधिक है, जहां आतंकवादी हर दिन हमले करते हैं, जहां चुनावों में धांधली होती है और जहां का बजट आईएमएफ तय करता है। शायद यही चीज पाकिस्तानियों को खुश रखती होगी- टूटा हुआ और असुरक्षित होना! भारत से ऊपर म्यांमार भी है- एक ऐसा देश जहां सात दशकों से गृहयुद्ध चल रहा है। यूक्रेन 105वें स्थान पर है, फिलिस्तीन 103वें स्थान पर है और ईरान 100वें स्थान पर है। यूक्रेन पर आक्रमण हो रहा है, फिलिस्तीन के पास राज्य का दर्जा नहीं है और ईरान पर एक सर्वोच्च नेता का शासन है। फिर भी वहां के लोग भारतीयों से ज्यादा खुश हैं?

चलते-चलते प्रेस फ्रीडम इंडेक्स पर भी नजर डाल लें। इसे आरएसएफ या रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स द्वारा प्रकाशित किया जाता है। 180 देशों की इस सूची में भारत 161वें स्थान पर है। तालिबान का अफगानिस्तान 152वें क्रम पर है! यूएई, ब्रुनेई, सोमालिया और युगांडा की तरह पाकिस्तान भी भारत से ऊपर है। यह गलत है- इसे जानने के लिए आपको विशेषज्ञ होने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन ये रैंकिंग कई कारणों से गलत होती हैं। मिसाल के तौर पर, छोटे सैम्पल साइज के कारण। हैप्पीनेस इंडेक्स के लिए वे हर साल एक हजार लोगों का सैम्पल लेते हैं। भारत जैसे बड़े और विविधतापूर्ण देश में केवल एक हजार लोगों से क्या पता चलेगा? प्रेस की स्वतंत्रता के साथ भी ऐसा ही है। इसके सर्वेक्षण में प्रत्येक देश से मात्र 10 ही प्रतिक्रियाएं ली गई हैं।

तो जब पद्धति ही कारगर साबित नहीं हो रही हो तो ये सर्वेक्षण प्रकाशित क्यों किए जा रहे हैं? क्योंकि ये पश्चिमी एजेंडे के अनुकूल हैं। उपर्युक्त तीनों सूचियों में शीर्ष 10 देशों में से चार कॉमन हैं। तीन अन्य देश कम से कम दो सूचियों में शामिल हैं। तो मूल रूप से चंद पश्चिमी देश ही इन सभी रिपोर्टों में अग्रणी बने हुए हैं। वे इसे छापना क्यों बंद करेंगे? यही कारण है कि अपना खुद का सूचकांक तैयार रखना कोई बुरा विचार नहीं है। यह एक पक्ष को दूसरे पक्ष से ऊपर उठाने के बारे में नहीं है। यह एक अलग प्रणाली, अलग दृष्टिकोण पेश करने के बारे में है। शायद तस्वीर में बदलाव के लिए हम अमेरिका में गन-वाइलेंस से होने वाली मौतों या यूरोप में हिजाब पर प्रतिबंध या सख्त माइग्रेशन कानूनों या गर्भपात पर प्रतिबंध आदि जैसे फैक्टर्स को भी शामिल कर सकते हैं। तभी जाकर यह एक निष्पक्ष सर्वेक्षण होगा।


 Date:28-03-24

भारत पर थोपे जा रहे है पश्चिमी पैमाने

विवेक देवराय और आदित्य सिन्हा, ( देवराय प्रधानमंत्री की सलाहकार परिषद के प्रमुख और सिन्हा परिषद में ओएसडी-अनुसंधान हैं )

वर्ल्ड हैप्पीनेस इंडेक्स नाम का वैश्विक सूचकांक इन दिनों चर्चा में है। इसे तैयार करने वाले संगठन ने अपनी परंपरा के अनुसार भारत को पिछड़ा दिखाया है। हैप्पीनेस इंडेक्स की 143 देशों की सूची में भारत को 126वें स्थान पर रखा है। सूची के हिसाब से भारत की स्थिति निराशजनक नजर आ सकती है, लेकिन यह भी याद रहे कि प्रसन्नता एक सापेक्षिक भाव है। आखिरकार, तानाशाही शासन वाला चीन भी प्रसन्नता के मामले में 64वें स्थान पर मौजूद है। रैंकिंग की कायदे से पड़ताल करने से इसकी पोल खुद ही खुल जाती है। जैसे कि युद्ध की विभीषिका का सामना कर रहे रूस और यूक्रेन प्रसन्नता के पैमाने पर भारत से ऊपर आंके गए हैं। यहां तक कि इराक और फलस्तीन जैसे देश भी तमाम दुश्वारियों के बावजूद भारत से ऊपर हैं। और तो और तमाम आम जरूरतों की पूर्ति में भारी किल्लत का सामना कर रहे पाकिस्तान को भी भारत से अधिक खुशहाल बताया गया है। ऐसे में यह सूची बड़ी विचित्र प्रतीत होती है।

प्रसन्नता को मापना असंभव सा काम है। प्रसन्नता के निर्धारक व्यक्तिगत एवं सांस्कृतिक स्तर पर अलग-अलग हो सकते हैं। कुछ दार्शनिकों की दृष्टि में प्रसन्नता आनंद की प्राप्ति में निहित है तो कुछ जीवन को सार्थकता प्रदान करने में प्रसन्नता खोजते हैं। जब हम विभिन्न देशों में खुशी को मापने का प्रयास करते हैं तो यह कवायद और जटिल हो जाती है। सांस्कृतिक विविधताएं भी इसमें भूमिका निभाती हैं। दुनिया के किसी हिस्से में किसी व्यक्ति को यदि किसी चीज से खुशी मिलती है तो संभव है कि विश्व के किसी दूसरे कोने में किसी व्यक्ति को उससे प्रसन्नता न मिले। पश्चिम में जहां व्यक्तिगत उपलब्धियों को खासा सराहा जाता है, वहीं पूरब के देशों में पारिवारिक एवं सामुदायिक जुड़ाव को खासी महत्ता दी जाती है। भिन्न-भिन्न आर्थिक एवं राजनीतिक परिदृश्यों में यह सांस्कृतिक पहलू समूचे विश्व में प्रसन्नता के किसी एक मानक की स्थापना को और मुश्किल बना देता है। भारत में व्यापक सामाजिक-आर्थिक, सांस्कृतिक एवं क्षेत्रीय और अन्य विविधताओं को देखते हुए इस प्रकार का सर्वे अपने उद्देश्य के साथ न्याय नहीं कर पाता। यह तो वही बात हुई कि समंदर की थाह महज कुछ बूंदों से लेने की कोशिश की जाए। भारत में खुशियां और उनके पीछे के पहलुओं में इतनी बारीकियां जुड़ी हैं, जिन्हें महज कुछ नमूनों से नहीं मापा जा सकता। इसके अतिरिक्त, बेहतरी की विस्तारित एवं आत्मपरक प्रकृति, वैयक्तिक मिजाज, सामाजिक प्रतिमान और सांस्कृतिक संबंध प्रसन्नता को शुद्ध रूप से मापने का मामला और पेचीदा बना देते हैं। ऐसे सर्वे तैयार करते समय अक्सर सांस्कृतिक संवेदनशीलता के पैमाने को अनदेखा कर दिया जाता है।

भारत जैसे सांस्कृतिक रूप से समृद्ध देश में प्रसन्नता और जीवन से संतुष्टि संबंधी प्रश्न सांस्कृतिक परंपराओं और मूल्यों से भी प्रभावित हो सकते हैं। इन बारीकियों के बिना जुटाया गया कोई भी डाटा भारतीयों को लेकर सही तस्वीर नहीं पेश कर सकता। हैप्पीनेस इंडेक्स और ऐसे अन्य सूचकांक कुछ और मुद्दे भी उठाते हैं, लेकिन यह न विस्मृत किया जाए कि वैश्विक एजेंसियां और थिंक टैंक अक्सर भारत-विरोधी नैरेटिव चलाते हैं। आलोचक भारत की नकारात्मक तस्वीर चित्रित करते हैं, जिसमें भारत के प्रति पूर्वाग्रह प्रत्यक्ष दिखता है। ऐसी धारणा विभिन्न कारकों की जटिल अभिक्रिया के उपरांत आकार लेती है, जिसके भारत की वैश्विक छवि और नीति-निर्माण के लिहाज से गहरे निहितार्थ होते हैं। इस प्रकार की विसंगतियों के पीछे एक कारण डाटा उपलब्धता और विश्वसनीयता का भी है। कई मामलों में भारत के सांख्यिकी विभागों से समय पर डाटा उपलब्ध नहीं हो पाता तो इस कारण अंतरराष्ट्रीय संगठनों को अन्य स्रोतों का रुख करना पड़ता है।
इससे विसंगति की स्थिति उत्पन्न होने के साथ ही आशंका बलवती हो जाती है कि प्राप्त आंकड़ों की अपने विमर्श के अनुरूप व्याख्या की जा सके। उन्हें तोड़ा-मरोड़ा जा सके। इसका सीधा, सरल और सटीक समाधान यही है कि डाटा नियमित अंतराल पर जारी किए जाएं और इसकी समूची प्रक्रिया में पारदर्शिता बढ़ाई जाए।

एक उल्लेखनीय पहलू वैश्विक सूचकांकों पर अति निर्भरता का भी है, जिसमें अक्सर विकसित देशों के नजरिये की ही अधिक छाप होती है। इससे एक जटिल दृष्टिकोण की स्थिति उत्पन्न होती है, जिसमें भारत जैसे देशों की उपलब्धियों के प्रति न तो वैसी समझ होती है और न ही उनकी सराहना। चूंकि विकासशील देशों के स्तर पर ऐसे किसी वैकल्पिक सूचकांक का अभाव है तो इस मोर्चे पर असंतुलन की खाई इसी प्रकार बनी हुई है। ऐसे में, विकसित देशों के नैरेटिव की काट के लिए जरूरी है कि भारत और अन्य विकासशील देश अपने सूचकांक और रेटिंग प्रणाली विकसित करें। उसमें स्थानीय वास्तविकताएं और प्राथमिकताएं झलकनी चाहिए, जो प्रभावी वैश्विक विमर्श का मुकाबला कर सकें।

जहां तक खुशी की बात है तो इसके संदर्भ में हिंदी कवि हरिवंशराय बच्चन ने यथार्थ ही कहा है, ‘मन का हो तो अच्छा, मन का न हो तो और भी अच्छा।’ स्पष्ट है कि प्रसन्नता एक बहुत ही सापेक्षिक मुद्दा है। प्रसन्नता को लेकर पश्चिम और भारत के दृष्टिकोण भी अलग हैं, जिसमें भौतिकता और सांस्कृतिक पक्ष जैसे पहलुओं का अंतर है। चूंकि वैश्विक सूचकांक मुख्य रूप से व्यक्तिगत बेहतरी और आर्थिक पहलुओं का संज्ञान लेते हैं, इसलिए वे भारतीय प्रसन्नता को निर्धारित करने वाले सामुदायिक, आध्यात्मिक और दार्शनिक मूल्यों पर गौर नहीं कर पाते, जिनमें खासी गहराई होती है। ऐसे में यह आवश्यक हो गया है कि भारत प्रसन्नता को मापने के लिए समग्रता से परिपूर्ण अपना एक ढांचा विकसित करे, जिसमें विविधतापूर्ण दार्शनिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों का समावेश हो। ऐसा करके भारत वैश्विक विमर्श में व्यापक रूप से समृद्ध विमर्श प्रस्तुत करने में सक्षम हो सकेगा, जिसमें उसके समाज के अनूठे तानेबाने के साथ ही उसकी ज्ञानवान एवं दार्शनिक विरासत की छाप नजर आए।


 Date:28-03-24

भंडारण की व्यावहारिक व्यवस्था

केसी त्यागी एवं बिशन नेहवाल

भारत जीवंत कृषि परंपराओं का देश है, मगर यह एक विरोधाभास से जूझ रहा है। दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा खाद्यान्न उत्पादक होने के बावजूद, इसे भंडारण संकट का सामना करना पड़ रहा है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) के अनुसार, 2023 में देश का कुल खाद्यान्न उत्पादन 31.1 करोड़ टन तक पहुंच गया था। मगर इसकी वर्तमान भंडारण क्षमता 14.5 करोड़ टन, यानी जरूरत के आधे से भी कम है। एक अनुमान के अनुसार भारत को फसल कटाई के बाद खाद्यान्न में दस से पंद्रह फीसद के बीच वार्षिक नुकसान उठाना पड़ता है, जो ज्यादातर अपर्याप्त भंडारण सुविधाओं और अकुशल वितरण प्रणाली के कारण होता है। यानी हर साल लाखों टन कीमती भोजन बर्बाद हो जाता है। यह एक ऐसी स्थिति है जो तत्काल और अभिनव समाधान की मांग करती है।

प्रधानमंत्री ने कुछ दिनों पहले देश में खाद्यान्न भंडारण क्षमता बढ़ाने के लिए ‘सहकारी क्षेत्र में विश्व की सबसे बड़ी अनाज भंडारण योजना’ को मंजूरी दी, जिसे देश के विभिन्न राज्यों, केंद्र शासित प्रदेशों में प्रायोगिक परियोजना के रूप में शुरू किया जा रहा है। भारत की बड़े पैमाने पर अनाज भंडारण योजना, कुल मिलाकर लाभकारी होते हुए भी, सभी किसानों, विशेषकर सीमांत और लघु किसानों की जरूरतों को सीधे तौर पर संबोधित नहीं कर सकती है। कृषि जनगणना (2010-11) के अनुसार, भारत में 81.9 फीसद सीमांत किसान हैं, जिनके पास दो हेक्टेयर (लगभग 5 एकड़) से कम भूमि है। यह सीमित भूमि स्वामित्व कम उपज मात्रा की ओर इशारा करता है। इतनी छोटी मात्रा के लिए बड़ी भंडारण सुविधाएं किफायती नहीं हो सकती हैं।

सीमांत किसान अक्सर तंगहाली में रहते हैं और उनके पास लंबे समय तक अपना अनाज भंडारण करने के लिए वित्तीय संसाधनों की कमी होती है। स्वयं भंडारगृह बनाना या किराए पर लेना एक आर्थिक बोझ हो सकता है। इनमें से कई सीमांत किसान बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए अपनी फसल से होने वाली तात्कालिक आय पर निर्भर हैं। बेहतर कीमत के लिए उपज को रोके रखना उनके लिए कोई विकल्प नहीं हो सकता। कई सीमांत किसानों और अच्छी तरह से विकसित कृषि बाजारों के बीच भौगोलिक दूरी भंडारण सुविधाओं तक पहुंच की चुनौती को बढ़ा देती है। इनमें से अधिकांश सीमांत किसान अक्सर अच्छी तरह से विकसित मंडियों या खरीद केंद्रों से दूर स्थित होते हैं। वहां तक माल पहुंचने की परिवहन लागत बेहतर कीमतों के लिए अनाज भंडारण के संभावित लाभों से अधिक हो सकती है, खासकर जब कृषि उपज की खराब होने वाली प्रकृति पर विचार किया जाता है। इस प्रकार, अनाज भंडारण के लिए ‘वन फिट फार आल’ दृष्टिकोण अनजाने में उन लोगों को बाहर कर सकता है, जिन्हें इसकी सबसे अधिक आवश्यकता है।

वास्तव में सीमांत किसानों को सशक्त बनाने और भारत की अनाज भंडारण योजना में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए अधिक सूक्ष्म और विकेंद्रीकृत दृष्टिकोण की आवश्यकता है। केवल बड़ी भंडारण सुविधाओं पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय, सरकार को उत्पादन बिंदु के करीब छोटे, ग्रामीण स्तर की भंडारण सुविधाओं के नेटवर्क की स्थापना की संभावनाओं का पता लगाना चाहिए। ये विकेंद्रीकृत भंडारण इकाइयां न केवल परिवहन लागत को कम, बल्कि सीमांत किसानों को भंडारण विकल्पों तक आसान पहुंच प्रदान करेंगी। इसके अलावा, सहकारी समितियां और किसान उत्पादक संगठन (एफपीओ) भंडारण सुविधाओं के सामूहिक उपयोग को सुविधाजनक बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। संसाधनों को एकत्रित करके और लागत साझा करके, व्यक्तिगत किसान बड़े पैमाने की अर्थव्यवस्थाओं से लाभ उठा और भंडारण में वित्तीय बाधाओं को दूर कर सकते हैं।

ऐसी पहलों के सफल क्रियान्वयन के लिए सरकार से मौद्रिक सहायता आवश्यक है। सीमांत किसानों के लिए विशेष रूप से लक्षित सबसिडी या ब्याज मुक्त ऋण के रूप में सरकारी सहायता, उनकी भागीदारी को और प्रोत्साहित कर सकती है। यह वित्तीय समर्थन भंडारण-आधारित दृष्टिकोण अपनाने के शुरुआती बोझ को कम करेगा, दीर्घकालिक लाभों को बढ़ावा देगा। भंडारण का बुनियादी ढांचा मजबूत होना समीकरण का केवल आधा हिस्सा है। सीमांत किसानों के लिए बाजार पहुंच को मजबूत करना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। भंडारण के बुनियादी ढांचे को बढ़ाने के अलावा, सीमांत किसानों के लिए बाजार पहुंच में सुधार के प्रयास भी किए जाने चाहिए। बेहतर सड़कों, परिवहन प्रणालियों और मोबाइल खरीद इकाइयों जैसे ग्रामीण बुनियादी ढांचे के विकास में निवेश करने से उत्पादकों और भंडारण सुविधाओं के बीच अंतर को पाटने में मदद मिल सकती है, जिससे किसान अपनी उपज के लिए बेहतर कीमतों का लाभ उठा सकेंगे।

उत्पादन, भंडारण और बाजार पहुंच के बीच संबंधों को मजबूत करके, भारत एक अधिक समावेशी और लचीला कृषि पारिस्थितिकी तंत्र बना सकता है, जो सभी किसानों को सशक्त बनाता है, चाहे उनकी भूमि का आकार कुछ भी हो। असली ताकत भंडारण, बाजार पहुंच और किसान सशक्तीकरण पहल के बीच तालमेल बनाने में निहित है। ग्राम-स्तरीय भंडारण इकाइयों का एक नेटवर्क बनाने, सहकारी समितियों और एफपीओ का उपयोग करने और बुनियादी ढांचे के विकास और मोबाइल खरीद इकाइयों के माध्यम से बाजार पहुंच में सुधार करने पर ध्यान केंद्रित करके, एक अधिक समावेशी और लचीला कृषि पारिस्थितिकी तंत्र विकसित किया जा सकता है। विकेंद्रीकृत भंडारण नेटवर्क को लागू करने के लिए सावधानीपूर्वक योजना और क्रियान्वयन की आवश्यकता होती है। रसद, रखरखाव और भ्रष्टाचार जैसे संभावित मुद्दों को पहले से ही संबोधित करने की आवश्यकता है। फिर भी, मजबूत सरकारी प्रतिबद्धता, सामुदायिक भागीदारी और मजबूत निगरानी तंत्र के साथ, इन चुनौतियों पर काबू पाया जा सकता है।

बेहतर भंडारण सुविधाएं फसल कटाई के बाद होने वाले नुकसान को कम कर सकती हैं, जिससे बढ़ती आबादी वाले देश के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित हो सकती है। सीमांत किसानों की बढ़ी हुई आय पूरे ग्रामीण समुदाय का उत्थान कर सकती है, जिससे आजीविका में सुधार और समग्र आर्थिक प्रगति होगी। इसके अलावा, एक विकेंद्रीकृत भंडारण नेटवर्क संकट के समय में ‘बफर स्टाक’ प्रदान कर सकता है, खाद्य कीमतों को स्थिर और मूल्य वृद्धि को रोक सकता है, जो समाज के कमजोर वर्गों को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता है। भारत की अनाज भंडारण योजना देश के कृषि परिदृश्य को बदलने की अपार क्षमता रखती है। हालांकि यह योजना देश की खाद्य सुरक्षा चुनौतियों का समाधान करने के लिए एक सराहनीय प्रयास का प्रतिनिधित्व करती है, लेकिन इसमें सीमांत किसानों का समावेश सुनिश्चित करने के लिए लक्षित हस्तक्षेप भी होना चाहिए।

विकेंद्रीकृत दृष्टिकोण अपनाकर, सहकारी समितियों और एफपीओ के माध्यम से सामूहिक कार्रवाई का लाभ उठाकर और बाजार पहुंच में सुधार करके, भारत सबसे कमजोर लोगों का उत्थान करते हुए अपने कृषि क्षेत्र की पूरी क्षमता का उपयोग कर सकता है। तभी हम वास्तव में भारत के लिए अधिक न्यायसंगत और टिकाऊ कृषि भविष्य की परिकल्पना को साकार कर सकते हैं।


 Date:28-03-24

जरूरी है युद्ध विराम

संपादकीय

रमजान के महीने में भी गाजा में नरसंहार जारी है। इस अमानवीय घटनाक्रम से चिंतित होकर अंततः संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने 25 मार्च को एक प्रस्ताव पारित करके गाजा में युद्ध विराम रोकने की मांग की है। प्रस्ताव में सभी बंधकों की बिना शर्त रिहाई और गाजा के युद्ध क्षेत्र में तत्काल राहत सामग्री भेजने का भी उल्लेख है। सात अक्टूबर, 2023 को हमास ने इस्राइल पर हमला किया था, उसके बाद से ही इस्राइल बदले की कार्रवाई करते हुए गाजा में हजारों निर्दोष लोगों को मौत के घाट उतार चुका है। इस छह महीनों के दौरान विश्व मंचों से युद्ध विराम की मांग की गई लेकिन यह पहला अवसर है। जब सुरक्षा परिषद युद्ध विराम का प्रस्ताव पारित करने में सफल हो पाई। यह भी इसलिए संभव हो पाया कि अमेरिका मतदान से अनुपस्थित रहा। इससे पहले वह तीन बार युद्ध विराम के प्रस्ताव पर वीटो लगा चुका था। इस्राइल अमेरिका के इस बदलते रुख से स्तब्ध है। उसने अमेरिका पर यह आरोप लगाया है कि उसने अपने सदाबहार मित्र का साथ छोड़ दिया है। प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने वार्ता के लिए अपने प्रतिनिधिमंडल को अमेरिका जाने पर रोक लगा दी है। इससे यह संकेत मिलता है कि अमेरिका और इस्राइल के संबंधों में मतभेद की दीवार खड़ी हो गई है। हालांकि अमेरिका ने अपनी सफाई में कहा है। कि हमास को लेकर हमारी नीति में कोई बदलाव नहीं हुआ है, और सुरक्षा परिषद का यह प्रस्ताव गैर-बाध्यकारी है। अमेरिका चाहे जो कहे, अब इसका कोई असर इस्राइल पर नहीं पड़ने वाला है। वास्तव में अमेरिका फिलिस्तीन और इस्राइल के बीच जारी युद्ध को लेकर कोई स्पष्ट नीति नहीं बना पा रहा है। एक ओर वह हमास को तबाह करने के लिए इस्राइल को सैनिक मदद मुहैया करा रहा है, और दूसरी ओर गाजा में हजारों नागरिकों के मारे जाने पर घड़ियाली आसूं भी बहा रहा है। इस समूचे घटनाक्रम का सबसे दुखद पहलू यह है कि हमास और इस्राइल दोनों युद्ध विराम को लेकर अड़ियल रुख अपनाए हुए हैं। सुरक्षा परिषद द्वारा पारित युद्ध विराम का यह प्रस्ताव दोनों पक्षों ने खारिज कर दिया है। इस्राइल इस प्रस्ताव को विभेदकारी बता रहा है, और हमास को यह भरोसा नहीं है कि इस्राइल ईमानदारी से युद्ध विराम को लागू करेगा। इसमें संदेह नहीं है कि गाजा में जारी नरसंहार के कारण इस्राइल दुनिया से अगल-थलग पड़ता जा रहा है। इसलिए युद्धरत दोनों पक्षों को अपना अड़ियल रवैया छोड़कर युद्ध विराम के लिए राजी हो जाना चाहिए।