28-02-2024 (Important News Clippings)

Afeias
28 Feb 2024
A+ A-

To Download Click Here.


Date:28-02-24

क्यों नहीं घटती इन नौ राज्यों की सापेक्ष गरीबी !

संपादकीय

विकास या बेहतर जीवन-यापन एक सतत प्रक्रिया है। पिछले 70 वर्षों से इसमें लगातार बदलाव हो रहा है। लेकिन देखना यह होता है कि कल्याणकारी राज्य में क्या वह समाज जो पिछड़ा था, इस दौड़ में अन्य के मुकाबले आगे आया है या आज भी पैर घसीट रहा है? वैश्विक स्तर पर यह तुलना हम दुनिया के अन्य देशों से करते हैं। और राष्ट्र के स्तर पर राज्यों के बीच यह देखा जाता है कि क्यों कोई राज्य हमेशा बेहतर रहा है या क्यों दूसरा राज्य पिछड़ी लाइन में ही बना रहता है? हम क्या खाते-पीते हैं, कैसे खर्च करते हैं, हमारी आर्थिक हालत या जीवन-यापन का स्तर बताता है। करीब 13 साल बाद आए ‘घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण’ को गहराई से देखें तो देश के नौ राज्य पिछले 20 वर्षों से लगातार तुलनात्मक आर्थिक पिछड़ेपन के शिकार रहे हैं। ये राज्य हैं पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, ओडिशा, मेघालय, मध्य प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़, बिहार और असम। इनके गांव हों या शहर, उपभोग का स्तर राष्ट्रीय औसत से आज भी कम है। यह अलग बात है कि राजनीतिक रहनुमाओं ने हर चुनाव में सब्जबाग दिखाए। दुख की बात यह है कि इन नौ राज्यों में में देश की 57 प्रतिशत या 80 करोड़ से ज्यादा आबादी रहती है। राहत की बात यह है कि रंगराजन समिति ने सन् 2014 में गरीबी सीमा रेखा, शहर और गांव के लिए क्रमशः 47 और 32 रुपए (मासिक प्रति-व्यक्ति उपभोग) रखी थी। इस पैमाने पर ताजा सर्वेक्षण के मुताबिक केवल पांच फीसदी लोग ही सीमा रेखा के नीचे हैं। यह अलग बात है कि ऐसा ही एक सर्वेक्षण वर्ष 2017-18 में भी हुआ था लेकिन उस रिपोर्ट को सरकार ने प्रकाशित नहीं होने दिया। बहरहाल नई रिपोर्ट से एक बात साफ है कि मुफ्त अनाज से गरीबों को बड़ी राहत मिली है।


Date:28-02-24

कम मांग, कम मैन्युफैक्चरिंग और कम रोजगार का दुष्चक्र

डॉ. अरुणा शर्मा, ( प्रैक्टिशनर डेवलपमेंट इकोनॉमिस्ट और इस्पात मंत्रालय की पूर्व सचिव )

आजादी के बाद युवाओं को सार्वजनिक क्षेत्र के उन अग्रणी क्षेत्रों में रोजगार मिला, जो निर्माण, तकनीकी, शिक्षा, चिकित्सा, बागवानी आदि-इत्यादि के संदर्भ में सभी प्रकार के कौशलों का उपयोग करने के लिए काम देते थे। इससे समृद्धि आई और मांग में बढ़ोतरी हुई। इसका दूसरा चरण तब आया, जब जनसंख्या में 34.1 करोड़ लोगों का इजाफा हुआ और 1981 तक यह आजादी के समय से दोगुनी हो गई। 1991 की जनगणना ने भारत की आबादी को 84.3 करोड़ बताया। इसी के साथ अधिक से अधिक नौकरियों की मांग बढ़ी। अर्थव्यवस्था के खुलने से फिर से रोजगार के अवसर पैदा हुए, जिससे नई मांगें पैदा हुईं और इस प्रकार समाज के सभी वर्गों के लिए कमाई के बेहतर अवसर प्राप्त हुए। आज हमारे पास 2021 की जनगणना के आंकड़े नहीं हैं, लेकिन आबादी 1.41 अरब होने का अनुमान है। इसमें भी 60% आबादी युवा है। ऐसे में नीतिगत हस्तक्षेप करके लाभकारी रोजगार प्रदान करना एक चुनौती है।

दिसंबर 2021 के आंकड़ों से संकेत मिलता है कि 5.3 करोड़ बेरोजगारों में से लगभग 1.7 करोड़ ने निराश होकर रोजगार की तलाश बंद कर दी है। मार्च 2023 में सीएमआईई द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार भारत में कामगार-आबादी अनुपात बढ़कर 52.9% (2021-22 के डेटा पर आधारित) हो गया है। भारत में वर्तमान बेरोजगारी दर 8.11% है, जिसमें बिहार, झारखंड, हरियाणा और जम्मू और कश्मीर राज्यों का अधिकतम योगदान है। यह चिंता का विषय है। भारत अभी भी रोजगार प्रदान करने के लिए प्राथमिक क्षेत्रों जैसे कृषि और उसके सहयोगियों (वर्कफोर्स का 43.96%), खनन (जबकि इस क्षेत्र को अभी केवल 10% ही एक्सप्लोर किया जा सका है) और उद्योग और सेवाओं (दोनों 26%) पर निर्भर है।

ये आंकड़े स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं कि भविष्य में कृषि में गिरावट का ट्रेंड रहेगा और माइग्रेशन को समायोजित करने के लिए सेवा क्षेत्र इकलौता विकल्प नहीं हो सकता है। आधुनिक ज्ञान का उपयोग करके कृषि और सम्बद्ध गतिविधियों की उत्पादकता बढ़ाने, किसानों को उचित रिटर्न सुनिश्चित करने, कृषि से एमएसएमई और अन्य मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्रों में प्रवास को पूरा करने पर पूरा ध्यान देने की आवश्यकता है। सेवा क्षेत्र सर्वाधिक असंगठित है और इसकी अपनी सीमाएं हैं।

यदि हम इससे सम्बंधित नीतियों का विश्लेषण करते हैं तो कृषि क्षेत्र हमें कृषि विश्वविद्यालयों से कटा हुआ दिखाई देता है और अधिकांश फसलों को उनकी उपज पर सुनिश्चित रिटर्न नहीं मिल पाता है। इससे किसानों में निरंतर अनिश्चितता बनी रहती है और मुनाफा व्यापारियों को मिलता है। हानिकारक उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग को कम करके उत्पादकता बढ़ाने और फसलों के उचित पैटर्न के लिए किसानों को शिक्षित करने के लिए उचित स्टाफ और धनराशि प्रदान करते हुए केवीके (कृषि विज्ञान केंद्रों) के महत्व को फिर से स्थापित करने की आवश्यकता है।

एमएसएमई के पास कार्यशील पूंजी की कमी है। बाजार को उनकी जरूरत है लेकिन महंगे क्रेडिट के कारण कई लोग दौड़ में पिछड़ रहे हैं। एसएमई सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। क्लस्टर और सेक्टर आधारित जरूरतों की पूर्ति के लिए नीति को लचीला बनाने की आवश्यकता है। कई राज्य सरकारें मदद के लिए व्यवस्थाएं लेकर आई हैं, लेकिन केंद्र की व्यापक नीति ही सम्भावित नुकसान को कम करने की गति तेज कर पाएगी। एफएमसीजी (फास्ट-मूविंग कमर्शियल गुड्स) के लिए बाजार में मांग ही वास्तविक संकेतक है, जिससे अतिरिक्त धन, रोजगार की स्थिति और कमाई की स्थिति पता चलती है। बड़ी युवा आबादी वाले भारत में संकेतकों के आंकड़ों पर तत्काल ध्यान देना महत्वपूर्ण है, क्योंकि वे कम मांग, कम मैन्युफैक्चरिंग और कम रोजगार के दुष्चक्र को दर्शाते हैं।


Date:28-02-24

व्यावहारिक विदेश नीति पर बल देता भारत

विवेक देवराय/आदित्य सिन्हा, ( देवराय प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के प्रमुख और सिन्हा परिषद में ओएसडी-अनुसंधान हैं )

अंतरराष्ट्रीय संबंधों में अक्सर आदर्शवाद एवं यथार्थवाद के बीच एक राह के चयन की दुविधा होती है। आदर्शवाद वस्तुत: नैतिक मूल्यों एवं नीतिपरक सिद्धांतों वाली राह है। आदर्शवाद में विश्वास करने वाले देश इसी राह पर चलकर वैश्विक शांति एवं समृद्धि के लिए मिल जुलकर काम करते हैं। दूसरी ओर, यथार्थवाद सिद्धांत से अधिक व्यावहारिक पक्ष पर जोर देता है। इसमें राष्ट्रीय हित, शक्ति संतुलन और अस्तित्व बचाने जैसे पहलू देशों के कार्य-व्यवहार को निर्धारित करते हैं। ऐतिहासिक रूप से देखें तो भारत आदर्शवाद की धारा का ध्वजवाहक रहा है। शीत युद्ध के दौरान भारत ने गुटनिरपेक्षता जैसे आंदोलन का नेतृत्व करते हुए शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के सिद्धांत को प्राथमिकता दी। यह दृष्टिकोण भारत की दार्शनिक परंपराओं और प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व की देन था, जिन्होंने परस्पर सम्मान और सहयोग पर आधारित विश्व की संकल्पना की थी। हालांकि पिछले एक दशक के दौरान भारत के विदेश नीति परिदृश्य में व्यापक परिवर्तन आया है। देश अब अधिक व्यावहारिक विदेश नीति की ओर अग्रसर है।

व्यावहारिक विदेश नीति का यह अर्थ नहीं कि भारत अपनी आदर्शवादी जड़ों से पूरी तरह कट गया है। वास्तव में भारत ने चातुर्यपूर्ण रणनीति अपनाई है, जिसमें आदर्शवाद का व्यावहारिक नीतियों के साथ बखूबी मिश्रण किया है। यह दृष्टिकोण अंतरराष्ट्रीय राजनीति की कड़वी हकीकत को स्वीकार करता है, जिसमें सत्ता संघर्ष और रणनीतिक हित अक्सर आदर्शवादी सिद्धांतों पर हावी रहते हैं। इसके बावजूद सहयोग, संवाद और परस्पर लाभ की गुंजाइश सदैव विद्यमान रहती है। भारत ने अपनी कुशाग्र कूटनीति से इन संभावनाओं को बखूबी भुनाया है। उदाहरण के तौर पर अमेरिका और रूस को ही लें, जो वैश्विक राजनीति में विपरीत ध्रुवों पर हैं, लेकिन भारत ने उनके साथ अपने संबंधों में संतुलन का भाव रखकर अपने हितों की पूर्ति की है। अमेरिका के साथ भारत ने तकनीकी हस्तांतरण, रक्षा सहयोग और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में शांति एवं स्थायित्व बनाए रखने की प्रतिबद्धता पर कदम बढ़ाए हैं। इसके अंतर्गत साझा सैन्य अभ्यास, अंतरिक्ष अन्वेषण अभियान, स्वच्छ ऊर्जा संबंधी पहल और दोनों लोकतंत्रों के बीच रिश्तों को प्रगाढ़ बनाया जा रहा है। साथ ही साथ भारत ने अपने सदाबहार मित्र रूस को भी साधे रखा है। समय की हर कसौटी पर खरा उतरने वाला मित्र रूस भारत का प्रमुख सामरिक आपूर्तिकर्ता बना हुआ है। भू-राजनीतिक परिवर्तन और दबावों के बावजूद रूस के साथ भारत के रिश्ते मजबूत बने हुए हैं। रक्षा एवं ऊर्जा जैसे क्षेत्रों में करार के साथ ही कई क्षेत्रीय एवं वैश्विक मुद्दों पर भी दोनों देशों का एकसमान रुख है। रूस से भारी मात्रा में ऊर्जा संसाधनों का आयात भारत की आर्थिक व्यवहार्यता एवं ऊर्जा सुरक्षा की नीति के ही अनुरूप है। भारत ने अनुकूल कीमतों के आधार पर ही रूस से बड़े पैमाने पर तेल खरीदा। आर्थिक हितों की पूर्ति के साथ ही इससे कूटनीतिक हित भी पूरे हुए, क्योंकि इस कदम से पारंपरिक आपूर्तिकर्ताओं पर हमारी निर्भरता घटी। इस पर पश्चिमी देशों की टेढ़ी नजर रही, लेकिन उनकी परवाह न करते हुए भारत ने अपने हितों को प्राथमिकता दी।

भारत की कूटनीतिक सक्रियता-दक्षता उस भूमिका में भी दृष्टिगत होती है, जिसमें उसने ग्लोबल साउथ की आवाज उठाने का फैसला किया। विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत ने विकासशील देशों के समक्ष उत्पन्न होने वाली चुनौतियों को रेखांकित करते हुए समानता एवं न्याय की पैरवी की है। इस नैतिक नेतृत्व की जड़ें वैश्विक समीकरणों की व्यावहारिक समझ में निहित हैं। इससे विश्व स्तर पर भारत का कद एवं सम्मान बढ़ने के साथ ही उसके प्रभाव का विस्तार हुआ है। आर्थिक कूटनीति में भी भारत का व्यावहारिक रवैया उतने ही प्रभावी ढंग से प्रतिबिंबित होता है। आर्थिक वृद्धि की आकांक्षाओं को सिरे चढ़ाने में व्यापार एवं निवेश के महत्व को समझते हुए भारत तेजी से व्यापार समझौतों और आर्थिक साझेदारियों में लगा है। संयुक्त अरब अमीरात और आस्ट्रेलिया के साथ व्यापार समझौते भारत की रणनीतिक दूरदर्शिता को ही दर्शाते हैं। इन समझौतों का उद्देश्य तेजी से बदलती दुनिया में अपने हित सुरक्षित करने के साथ ही आर्थिक संबंधों के दायरे को बढ़ाकर उनका विविधीकरण करना है। पश्चिम एशिया विशेषकर संयुक्त अरब अमीरात के साथ गहन होती साझेदारी भारत की व्यावहारिक विदेश नीति का प्रमाण है। विभिन्न क्षेत्रों में आकार ले रही इन साझेदारियों से न केवल भारत को आर्थिक लाभ पहुंच रहा है, बल्कि इनसे आकार ले रहा स्थिर, सुरक्षित एवं समृद्ध ढांचा भारत के व्यापक रणनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति कर रहा है।

अंतरराष्ट्रीय संस्थानों में सुधार को लेकर भारत की हिमायत में भी उसका व्यावहारिक दृष्टिकोण झलकता है। इन संस्थानों में उचित प्रतिनिधित्व और सबके साथ एकसमान व्यवहार को लेकर दबाव बना रहा भारत न केवल ग्लोबल साउथ की आवाज बन रहा है, बल्कि इससे वैश्विक आर्थिक ढांचे में हितों की व्यापक सुरक्षा भी संभव लगती है, जिसे विकसित देश अपनी सुविधा के हिसाब से चलाते प्रतीत होते हैं। भारत की व्यावहारिक विदेश नीति में उसकी तेजी से वृद्धि करती आर्थिकी की अहम भूमिका है। आर्थिकी के आधारभूत स्तंभ भी मजबूत हैं। इस आधार पर भारत विश्व के लिए आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। संभावित लाभ की अपेक्षा में कई देश भारत की ओर निहार रहे हैं। दिग्गज अंतरराष्ट्रीय संस्थानों द्वारा भारत के आर्थिक भविष्य को लेकर आशाजनक अनुमान भी भारत की वैश्विक साझेदारियों को विस्तार दे रहे हैं। कुल मिलाकर भारत की व्यावहारिक विदेश नीति में आदर्शवाद और यथार्थवाद का सही संतुलन है। यह नीति भारत के राष्ट्रीय हितों और शक्ति संतुलन के समीकरणों को समझते हुए उन आदर्शों से भी विमुख नहीं होती, जो लंबे अर्से से भारत की विशिष्ट पहचान रहे हैं। भारी अनिश्चितता से जूझ रही दुनिया में यह व्यावहारिक दृष्टिकोण न केवल भारत की सुरक्षा और समृद्धि को सुनिश्चित करता है, बल्कि एक संतुलित एवं समानता आधारित अंतरराष्ट्रीय ढांचे के निर्माण में योगदान करने वाला भी है।


Date:28-02-24

गरीबी का निचला स्तर

संपादकीय

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा है कि भारत में गरीबी अब अपने न्यूनतम स्तर पर है क्योंकि घरों में खपत एक दशक पहले की तुलना में ढाई गुना बढ़ गई है। एक टीवी चैनल पर सोमवार को ‘भारत : अगली बड़ी छलांग के लिए तैयार’ विषयक वैश्विक शिखर सम्मेलन को संबोधित करते हुए पीएम मोदी ने आंकड़ों के हवाले से कहा कि विभिन्न सेवाओं और सुविधाओं पर खर्च करने की लोगों की क्षमता बढ़ी है। अब सबके पास भोजन के अलावा अन्य चीजों का उपभोग करने के लिए अधिक पैसा है। पहली बार है कि देश में भोजन पर खर्च किए जाने वाले धन का प्रतिशत घरेलू खर्च के 50 प्रतिशत से भी कम है। उन्होंने कहा, ‘यह गांवों, गरीबों और किसानों पर हमारे ध्यान केंद्रित करने के कारण हुआ है। बेशक, मोदी सरकार ने ढांचागत और बुनियादी परियोजनाओं के पैमाने और गति में बदलाव किया है। इससे रोजगार के नये अवसरों का सृजन हुआ, लोगों के हाथ में पैसा पहुंचा। विकसित भारत के लिए संकल्पबद्ध होना आश्वस्तिकारक साबित हो रहा है। खपत बढ़ने से अर्थव्यवस्था गतिमान हुई है। फलस्वरूप आर्थिक गतिविधियां बढ़ रही हैं, जिससे मांग की समस्या का सामना नहीं है। कोरोना महामारी के दौरान लोगों ने खर्च करने से हाथ नहीं खींचा था जिससे मांग बनी रही और आर्थिक गतिविधियां शिथिल नहीं पड़ने पाईं। देखा गया है कि ग्रामीण भारत में खपत और उपभोग का सिलसिला सहज बना रहे तो अर्थव्यवस्था के लिए संबल का कार्य करता है। अर्थव्यवस्था के मजबूत होने की धारणा से विदेशी निवेश भी बढ़ता है, और इस समय विदेशी निवेशक भारत की तरफ रुख किए हुए हैं। करदाताओं की बढ़ती संख्या और जीएसटी संग्रह में इजाफे के साथ ही डिटिजल क्रांति से अवाम में सरकार के प्रति विश्वास बढ़ा है। इसलिए भी कि उन्हें लग रहा है कि तुष्टिकरण की बजाय सरकार सभी नागरिकों की संतुष्टि पर ध्यान केंद्रित कर रही है। बेशक, गरीबी व्यक्ति निरपेक्ष होती है। कोई गरीब महसूस कर रहा हो तो जरूरी नहीं कि दूसरा भी उसी मनःस्थिति से गुजर रहा हो। लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि धारणा महत्त्वपूर्ण कारक होती है, जो सरकार में लोगों के विश्वास का आधार का काम करती है, सरकार की मजबूती का सबब बनती है जिससे आर्थिक कारक असरंदोज होते हैं। बहरहाल, सरकार ने धारणा मजबूत करने के मामले में खुद को कमजोर नहीं पड़ने दिया है, और यही उसके लिए सकारत्मक बात है।


Date:28-02-24

मोबाइल फोन पर पाबंदी जरूरी

समीरा

हाल ही में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक ने अपने यहां के स्कूलों में मोबाइल फोन के इस्तेमाल पर बैन लगाने की घोषणा की है। इस बात की सूचना अपने सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर 50 सेकंड के रोचक वीडियो के माध्यम से दी। जागरूकता के लिए बनाए गए वीडियो में दिखाया गया है कि कैसे सुनक अपने फोन की घंटी लगातार बजने से परेशान और बाधित हो रहे हैं। वैसे तो सुनक का यह फैसला कोई नई परिपाटी नहीं बना रहा है क्योंकि पहली बार नहीं है कि किसी देश में मोबाइल फोन के स्कूलों में इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाया गया है। फ्रांस, फिनलैंड, चीन, इटली और पुर्तगाल इस प्रकार की रोक लगा चुके हैं।

सुनक के फैसले पर चर्चा से पहले समझना जरूरी हो जाता है कि पिछले दो दशकों में कैसे मोबाइल फोन का शिक्षा और बाल विकास के साथ रोचक रिश्ता बन गया है। मोबाइल, जो कभी बातचीत का साधन भर हुआ करता था, आज जीवन के लगभग सभी पहलुओं कार्य, शिक्षा, मनोरंजन, खरीददारी इत्यादि से जुड़ गया है। कोविड-19 के बाद तो दुनिया मोबाइल में ही समाई हुई सी दिखने लगी है। इसमें कोई दो राय नहीं हैं पिछले कुछ वर्षो में इंटरनेट और मोबाइल फोन की उपलब्धता ने शिक्षा के विकास और इसको सर्वसुलभ बनाने में बड़ी भूमिका निभाई है। कोरोना काल में शिक्षण संस्थानों ने ऑनलाइन शिक्षा अपना कर छात्रों को तकरीबन दो साल के शैक्षिक नुकसान से बचाया। मोबाइल की उपलब्धता के कारण ही यह संभव हो सका। आज शिक्षा को भविष्यपरक, रोचक तथा कहीं भी, कभी भी सुलभ कराने के लिए ज्यादा जोर मोबाइल पर ही दिया जा रहा है। लेकिन इन तमाम सकारात्मक तथ्यों के बावजूद यह भी सच है कि मोबाइल फोन के प्रयोग को नियंत्रित नहीं किया जाए तो यह कई शारीरिक, मानसिक और सामाजिक परेशानियों का कारण बन जाता है। कई शोधों से पता चला है कि घंटों मोबाइल पर रील्स देखना, सोशल मीडिया ऐप जैसे फेसबुक, इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप, यूट्यूब पर लगे रहना, गेम्स खेलना आदि नशे की लत की तरह है जो उपयोगकर्ता को वास्तविक दुनिया से अलग करके उसका ध्यान भटकाता है। सोचने-समझने की क्षमता को भी कमजोर करता है। मोबाइल का अनावश्यक इस्तेमाल व्यक्ति के स्वास्थ्य को भी प्रभावित करता है। दरअसल, मोबाइल से कई तरह की रेडिएशन निकलती है जो कई प्रकार की बीमारियां पैदा करती है जैसे नींद की कमी होना, माइग्रेन, अनियंत्रित रक्तचाप, आंखों में एलर्जी या ईयरफोन के उपयोग के कारण कानों की समस्या इत्यादि।

स्कूली छात्रों के दृष्टि से देखें तो उनके मामले में कम उम्र के होने के कारण न सिर्फ इन समस्याओं की गंभीरता बढ़ जाती है, बल्कि अन्य परेशानियां भी सामने आती हैं। शिक्षा को लेकर काम करने वाली संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी यूनेस्को की 2023 में जारी वैिक शिक्षा मॉनिटरिंग रिपोर्ट के अनुसार, मोबाइल का क्लासरूम में बढ़ता उपयोग कई प्रकार से छात्रों का ध्यान भटकाता है, और उनकी पढ़ाई में बाधा डालता है। शोधों के हवाले से रिपोर्ट कहती है कि अगर एक बार कोई छात्र पढ़ाई से अलग किसी काम में लग जाता है तो उसे वापस पढ़ाई पर एकाग्र होने में करीब 20 मिनट का समय लगता है।

एकाग्रता के अतिरिक्त जो बड़ी समस्या मोबाइल फोन ने खड़ी की है, वो है साइबर बुलिंग। साइबर बुलिंग एक प्रकार का ऑनलाइन शोषण है। वैसे तो दुनिया भर में इसको परिभाषित करने और इसको लेकर कानून बनाने का काम अभी चल ही रहा है लेकिन मोटे तौर पर समझें तो इसका अर्थ है किसी को ऑनलाइन तकनीक के माध्यम से डराना या धमकाना। मोबाइल के बढ़ते प्रयोग ने धमकाने और ब्लैकमेल करने के कई नये आयाम पैदा कर दिए हैं। ब्लैकमेल करने में भी मोबाइल के कारण सुविधा हो गई है। मानसिक रूप से अपरिपक्व होने के कारण साइबर बुलिंग से स्कूली छात्र सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं। एक अध्ययन के अनुसार, अमेरिका में पांच में से एक बच्चे को मोबाइल पर अपनी ऑनलाइन गतिविधियों के कारण अनजान व्यक्तियों के साथ संपर्क में आने से ऑनलाइन यौन शोषण का सामना करना पड़ा है। साइबर बुलिंग के कारण कई बार लोग आत्महत्या तक के लिए मजबूर हो जाते हैं। हालांकि बढ़ते डिजिटलीकरण के कारण मोबाइल के उपयोग का पूरी तरह बहिष्कार कोई बुद्धिमानी नहीं है क्योंकि मोबाइल होने के फायदे भी हैं, जिनको नजरअंदाज नहीं किया जा सकता लेकिन मोबाइल का उपयोग कहां और कैसे किया जाए, इस पर नीति-निर्माताओं को सोच-विचार करने की आवश्यकता है। खास तौर पर स्कूली छात्रों के बीच बढ़ती मोबाइल पर निर्भरता को नियत्रिंत करने की जरूरत है और उनको मोबाइल और टेक्नोलॉजी के सकारात्मक प्रभावों के साथ-साथ इससे जुड़े जोखिमों के प्रति जागरूक करने की भी आवश्यकता है। छात्रों को मोबाइल का आदि होने की बजाय इसके बिना रहना भी सीखना होगा तभी मनुष्य और टेक्नोलॉजी के बीच संतुलन बना रह सकता है।