27-03-2018 (Important News Clippings)
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Parties, Cooperate On Data Protection
ET Editorials
While the brouhaha over Facebook’s indiscretions and the psychological warfare Cambridge Analytica reportedly deployed to influence voting behaviour plays out, it is important for India’s political parties to gear themselves up to understand the issues involved in data protection and legislate to protect Indians and enable the country’s information technology (IT) and IT-enabled industries to operate in the era of Europe’s General Data Protection Regulation that will come into force on May 25.
Political parties being what they are, their primary instinct would be to attack their rivals as data vandals. That should not suffocate their secondary instinct to advance Indian interests.
Justice Srikrishna heads a committee that has come out with a framework for data protection legislation in India and is currently consulting public opinion on the subject. All political parties must deploy their own experts to study the subject and collaborate so that a suitable law in general conformity with the EU’s law on the subject can be passed quickly. It is both important and urgent.
Urgent, not only because of Aadhaar, but also because of the potential loss of business for Indian IT and ITenabled business, should they fall foul of EU’s data protection directive — Europe accounts for about 30% of their business. Important, because data breaches can lead to serious damage, to personal and financial integrity. Data collection by assorted companies is proceeding apace, without any rigorous legal restrictions on use of the data collected.
Artificial intelligence (AI) will determine strategic competence in the not-too-distant future. Data is the raw material for creating AI. So, data has to be allowed to be harvested, yet prevented from misuse. This makes it imperative for the data protection law and the regulation flowing from it to be based on principle, rather than specific directives: whoever controls data about a subject should be obliged to ensure that use of such data does not harm the data subject. Parties should collaborate to bring a strong, adequate law.
विशेष दर्जे की राजनीति
संपादकीय
आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के अध्यक्ष अमित शाह के बीच हालिया विवाद यह बताता है कि कैसे तेलंगाना के अलग राज्य के रूप में गठन का आर्थिक प्रभाव अभी भी राज्य की राजनीति को प्रभावित कर रहा है। आंध्र प्रदेश के राजनेताओं को यह आशंका रही है कि हैदराबाद के तेलंगाना में शामिल होने के बाद प्रदेश के राजस्व पर बहुत नकारात्मक असर होगा। यही वजह है कि उन्होंने राज्य को विशेष दर्जा दिए जाने की मांग की। इस दर्जे के तहत राज्य को मिलने वाली केंद्रीय सहायता में वृद्घि की जाती है। आमतौर पर यह सहायता पहाड़ी, दूरवर्ती और आर्थिक रूप से कमजोर राज्यों के लिए होती है। जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे तो उन्होंने मौखिक रूप से विशेष राज्य का दर्जा देने की बात कह कर राज्य के विभाजन को आसान बनाया। परंतु भाजपानीत राजग सरकार के कार्यकाल में यह दर्जा नहीं दिया गया। नायडू के लिए यह बड़ी राजनीतिक शर्मिंदगी का विषय बन गया था क्योंकि उनकी पार्टी राजग की सदस्य थी। इसलिए विपक्ष, खासतौर पर वाईएसआर कांग्रेस को रोकने के लिए नायडू ने अपने दल तेलुगू देशम को राजग से अलग कर लिया।
शाह ने गत सप्ताह नायडू को नौ पृष्ठों का पत्र लिखकर बताया कि केंद्र आंध्र प्रदेश की जितनी सहायता कर सकता था उसने उतनी की। उन्होंने इस आधार पर तेलुगू देशम के राजग से अलग होने की आलोचना भी की। शाह ने केंद्र की सहायता वाली कई विकास परियोजनाओं का जिक्र करते हुए आरोप लगाया कि तेलुगू देशम की सरकार दिए गए फंड का सही इस्तेमाल नहीं कर पाई। केंद्र सरकार की दलील है कि किसी नए राज्य को यह दर्जा नहीं दिया जा सकता है। उसने एक स्पेशल परपज व्हीकल (एसपीवी) गठित करने की बात कही थी। इसके तहत कुछ अतिरिक्त फंड दिया जा सकता है। शाह ने अपने पत्र में पूछा कि आखिर क्यों नायडू ने उस सुझाव को अपनाने से इनकार कर दिया। उन्होंने यह भी कहा कि ऐसे फंड को दूसरी जगह स्थानांतरित करना मुश्किल था। एक तरह से उनका कहना था कि राज्य को विशेष दर्जा देने की मांग इसलिए की जा रही थी ताकि भ्रष्टाचार किया जा सके।
उन्होंने आंध्र प्रदेश सरकार के राजस्व घाटे के आकलन के तरीके पर भी सवाल उठाया। नाराज नायडू ने यह पत्र राज्य विधानसभा में पढ़ा और कई सवालों के जवाब भी दिए। उदाहरण के लिए उन्होंने कहा कि भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ने राजस्व घाटे का आकलन किया था, यह भी कहा गया कि नए पूंजी फंड में से 32 फीसदी व्यय किया गया, न कि 8 फीसदी। उन्होंने कहा कि एसपीवी के जरिये आने वाले फंड पर निर्वाचित नेताओं का नियंत्रण नहीं होता और इस तरह यह राज्य के हितों और संप्रभुता पर हमला है।
यह तय है कि भाजपा और आंध्र प्रदेश के अधिकांश दलों के बीच गहरी खाई है। इसके बावजूद अगर आंध्र प्रदेश की विशेष दर्जे की मांग पूरी की गई तो इससे एक नई होड़ शुरू हो जाएगी। बिहार लंबे समय से ऐसी मांग कर रहा है। पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु जैसे अन्य कर्जग्रस्त राज्य भी ऐसी ही मदद मांगेंगे। 14वें वित्त आयोग ने 2015 में ही कुल केंद्रीय कर राजस्व में राज्यों की हिस्सेदारी 32 फीसदी से बढ़ाकर 42 फीसदी कर दी थी। वित्त मंत्री अरुण जेटली के मुताबिक इसके बाद विशेष दर्जे की दलील ही नहीं बचती। दूसरी ओर, नायडू का यह कहना सही है कि एक प्रधानमंत्री द्वारा संसद में किए गए वादे को पूरा किया जाना चाहिए। सरकार अपने सहकारी संघवाद पर गर्व करती है, अब उसकी परीक्षा की घड़ी है।
लोकायुक्त की सुध
संपादकीय
भ्रष्टाचार से निपटने और प्रशासन को पारदर्शी बनाने के तकाजे पर हमारी सरकारें कितनी संजीदा हैं इसकी एक बानगी लोकायुक्त की नियुक्ति के मामले में सरकारों के रवैए से मिल जाती है। एक याचिका पर सुनवाई करते हुए पिछले हफ्ते सर्वोच्च न्यायालय ने एक केंद्रशासित प्रदेश और ग्यारह राज्यों के मुख्य सचिवों को नोटिस जारी कर दो हफ्ते में यह बताने को कहा कि उनके यहां लोकायुक्त की नियुक्ति अब तक क्यों नहीं हुई है। इसके साथ ही, अदालत ने इन राज्यों से यह भी पूछा है कि उनके यहां लोकायुक्त की नियुक्ति कब तक हो जाएगी। ये राज्य हैं जम्मू-कश्मीर, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड, तमिलनाडु, तेलंगाना, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल और केंद्रशासित पुदुच्चेरी। इस जवाब तलब से, स्वाभाविक ही उम्मीद बनती है कि लोकायुक्त की नियुक्ति इन राज्यों में भी जल्दी ही हो जाएगी। विचित्र है कि लोकपाल और लोकायुक्त से संबंधित कानून संसद से सर्वसम्मति से पारित होने के चार साल बाद भी अमल की बाट जोह रहा है। केंद्र ने जहां अभी तक लोकपाल की नियुक्ति नहीं की है, वहीं कुछ राज्यों ने लोकायुक्त को वजूद में आने नहीं दिया है। जबकि उपर्युक्त कानून में कहा गया है कि उसके लागू होने के साल भर के भीतर राज्यों को लोकायुक्त की नियुक्ति करनी होगी। लेकिन जहां कुछ राज्यों ने नियुक्ति नहीं की है, वहीं कुछ राज्यों ने 2013 में संसद से पास हुए कानून के अनुरूप लोकायुक्त अधिनियम पारित नहीं किया है।
केंद्र सरकार लोकपाल के मामले में यह दलील देती रही कि चूंकि लोकसभा में कोई मान्यता-प्राप्त नेता-प्रतिपक्ष नहीं है, इसलिए चयन प्रक्रिया की शर्त पूरी नहीं हो पा रही है। लेकिन अगर वह चाहती तो लोकसभा में सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता की राय लेकर प्रक्रिया कब की पूरी कर सकती थी। हाल में जब सर्वोच्च अदालत की फटकार लगी तब उसे इसके लिए राजी होना पड़ा। बहरहाल, जिन राज्यों में लोकायुक्त नहीं हैं वहां उनकी नियुक्ति जल्द से जल्द होनी चाहिए। लेकिन क्या उनमें और बाकी राज्यों में कोई खास फर्क नजर आता है? इसका जवाब उत्साहजनक नहीं है। इसकी वजह यही है कि जहां लोकायुक्त हैं भी, उनकी शक्तियां और संसाधन बहुत सीमित हैं। उनके पास कोई स्वतंत्र जांच एजेंसी नहीं है। जांच के लिए उन्हें संबंधित राज्य सरकार का मुंह जोहना पड़ता है। अगर सबूत ही नहीं जुटेंगे तो शिकायत को कार्रवाई के अंजाम तक ले जाना कैसे संभव होगा? लिहाजा, आश्चर्य नहीं कि लोकायुक्तों की भूमिका अमूमन सिफारिशी होकर रह गई है।
मंत्रियों और नौकरशाहों के भ्रष्टाचार के मामलों में जांच और आगे की कार्रवाई के लिए एक स्वतंत्र संस्था के तौर पर लोकपाल और लोकायुक्त की अवधारणा 1966 में प्रशासनिक सुधार आयोग की अंतरिम रिपोर्ट से सामने आई थी। इसके बाद, लोकायुक्त कानून लाने वाला महाराष्ट्र पहला राज्य बना। फिर धीरे-धीरे कई और राज्यों ने भी इस तरह के कानून बनाए। लेकिन सबने अपनी सहूलियत का खयाल रखा- नियुक्ति की प्रक्रिया से लेकर संसाधन तक, लोकायुक्त की संस्था को अपने ऊपर निर्भर बनाए रखा। अलबत्ता कर्नाटक में सख्त लोकायुक्त कानून बना, और इससे क्या लाभ हुआ इसका सबसे बड़ा प्रमाण खनन घोटाले में हुई जांच और कार्रवाई में दिखा। बहरहाल, क्या विडंबना है कि अण्णा हजारे को एक बार फिर अनशन पर बैठने की जरूरत महसूस हुई है, इस बार कानून बनवाने के लिए, कानून को लागू कराने के लिए!
Home Truths
India must stay clear of the US-China trade war, focus on reviving the domestic economy
Editorials
US President Donald Trump’s announcement last week to impose tariffs on Chinese imports worth up to $60 billion after an earlier move to raise import duty on steel and aluminium products coming into the US has had a predictable impact. China has retaliated imposing tariffs on US imports worth $3 billion, including aluminium, steel pipes, US pork besides fruit and wine fuelling fears of a trade war in the offing and spooking the stock markets. Trump has justified his action claiming that China has indulged in intellectual property violations while Beijing has threatened to pursue legal action against Washington, which has a $375-billion trade deficit with China at the WTO. Others too have attacked the US for raising import duty on aluminium and steel and have threatened to hit back. What’s worrying is that the threat of tariff wars comes at a time when the global economy is on the mend and from an Indian perspective, when there are signs of a potential rebound in the year ahead and with exports in February topping $25 billion.
There is a recognition that a trade war could derail the recovery. Director General of WTO, Roberto Azevedo, said in Delhi last week that “…disrupting trade flows will jeopardise the global economy at a time when economic recovery, though fragile has been increasingly evident around the world”. Acevedo has called for restraint and urgent dialogue to resolve this looming threat of a trade war while Prime Minister Narendra Modi wants challenges to the trade system to be countered. Industry body FICCI wants India to take the lead in defusing the potential threat of a global trade war. That’s easier said than done. India will have to be mindful of the fact that the US is still its largest export market while China is a big source of imports for our industry. Besides, India runs a trade surplus of over $20 billion with the US, which though not too significant still has a potential to invite a retaliation by the Trump administration. India will have to tread carefully considering not just its economic stakes with two of the most powerful countries and economies but also from the standpoint of the contribution of exports to growth and stability of the currency.
More importantly, the latest round of this tariff war further underlines the need for the Modi government to focus more on reviving the economy and ensuring the completion of projects. A resurgent economy is the best insurance to counter the threat to the global economic recovery.
The need for ‘special’ attention
It is assumed that special courts are a panacea for judicial efficiency, with hardly any evidence to suggest that
Arijeet Ghosh and Raunaq Chandrashekar are Research Fellows with the Judicial Reforms Initiative at the Vidhi Centre for Legal Policy. With inputs from Neha Singhal, Senior Resident Fellow, Vidhi Centre for Legal Policy
Last December, the Supreme Court greenlit the Centre’s proposal to set up 12 fast-track courts to adjudicate and speedily dispose of 1,581 cases against Members of Parliament and Legislative Assemblies. Apart from uncertainties about the adequacy of such a measure, a more glaring issue is that the order conflates two distinct judicial features by using them interchangeably: special courts and fast-track courts.
Special courts, which have existed in the subordinate judiciary since before Independence, are set up under a statute meant to address specific disputes falling within that statute. Over 25 special courts were set up between 1950 and 2015 through various Central and State legislations. However, despite being an old means of addressing the specificities of certain statutes and judicial backlog, there seems to be little if any evaluation of how this system works. Nearly four decades ago, a Bench of the Supreme Court gave its judgment in a decision, titled In Re: The Special Courts Bill, 1978 (Special Courts Case), pertaining to special courts and meant to deal with excesses during the Emergency. Here, the court opined on the constitutionality of and the legislative competence with which Parliament could establish special courts. Based on the discussion on special courts in the judgment, a prima facie definition of a special court can be: A Court which was established under a statute, to deal with special types of cases under a shortened and simplified procedure.
Fast track courts were the result of recommendations made by the 11th Finance Commission which advised the creation of 1,734 such courts to deal with the judicial backlog. They were actualised though an executive scheme (as opposed to a statute of the legislature) and were meant to be set up by State governments in consultation with the respective high courts. Though meant to be wound up in 2005, the scheme was extended till 2011. Since then, six such courts have been set up in Delhi to take up rape cases.
Inconsistent drafting
While there is sufficient discussion around fast track courts and tribunals, the same cannot be said about special courts. This vacuum in research and analysis with respect to special courts has led to inconsistencies in legislation and operation. While opinions may differ anecdotally, there is no doubt that this is best demonstrated by Parliament. A look at 28 pieces of Central legislation such as the Special Criminal Courts (Jurisdiction) Act, 1950 to the Prevention of Money Laundering (Amendment) Act, 2012 leaves one with a dizzying set of varied provisions to enact such courts. The Special Courts case clearly uses the phrase “established under statute”, which, in most cases, should imply the creation or establishment of a new court. However, all of two statutes use the term “establish”, while four use “constitute”, two use “create”, eight use “designate”, two use “notify”, and one uses “appoint”. Even the Protection of Children from Sexual Offences Act, 2012 uses the words “establish” and “designate” in different places. The unifying thread in these statutes is that these terms have not been defined or procedurally explained. For States and high courts, this leads to ambiguities in operation in setting up such courts. For example, do they require new buildings? Should more judicial officers be hired? If a judge is designated under a special statute, should those matters be added to or replace her roster? This could create confusion with respect to appointments, budgetary allocation, infrastructure, and listing practices.
What purpose do these courts serve? On a secondary level, 13 pieces of legislation state that the government “may” set up special courts, while 15 say the government “shall”. However, going by the definition, the answer as to whether a law requires a special court or not is a binary: yes or no. In such a situation, leaving options such as “may”, add to the ambiguities. It is also unclear what the legislature intends to accomplish by creating special courts. For instance, there seem to be more special courts under the Prevention of Corruption Act, 1988 as compared to the Scheduled Castes and the Scheduled Tribes (Prevention of Atrocities) Act, 1989 despite data showing the former having a tenth of the number of registered cases as the latter (2015). This points to unclear legislative intent while drafting such provisions. If a special court is meant to address the volume of cases under a statute, then why use “may” as the enabling provision instead of “shall”? When combined with the question of how exactly such courts must be set up, a range of possibilities confront the judiciary and the government, with little to no clarity on how these decisions are made.
The status quo
Apart from the Supreme Court addressing their constitutional status, policy questions pertaining to the need and efficiency of special courts have seldom been analysed. As of October 2017, as many as 71 out of Delhi’s 441 judges in civil and sessions court (or 17% of Delhi’s subordinate judiciary) were designated as special courts under 12 statutes. More recently, the Trafficking of Persons (Prevention, Protection and Rehabilitation) Bill, 2016 drafts contain a provision for special courts. Therefore, special courts continue to be ubiquitous, despite being under-analysed.
There are over 2.8 crore cases in the subordinate judiciary, which is the most out of the three tiers of the judiciary — subordinate, high courts and the Supreme Court. Parameters such as the frequency and number of effective hearings and calculating the number of pending cases need to be developed to study the workings of special courts. Without such inquiries, their number continues to grow. Both organs of state continue to believe that special courts are a panacea for judicial efficiency, despite there being virtually no evidence to support this assumption. Finally, it is important to ask questions and determine whether or not this special courts system is in fact helpful in addressing the judicial backlog.