26-05-2018 (Important News Clippings)
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Date:26-05-18
How to stand by its slide
C Rangarajan , (The writer is former Governor, Reserve Bank of India)
The scenario relating to the rupee is undergoing a fast change. Even as late as January, there have been complaints about the appreciation of the rupee and its adverse impact on exports. In January, the Real Effective Exchange Rate (REER) of the rupee stood at 121.57, a clear appreciation. Things have since changed with a steady decline. The US dollar, worth Rs 63.64 in January, rose to Rs 65.64 in April and, as of now, it has touched Rs 68.02. The REER declined to 115.89 by April. Numbers for May will be available only later. By April, REER declined by 4.7% from January. Is this depreciation a cause for concern? Or, is it a process of natural adjustment?
Globally, two significant factors are influencing world trade. First, President Donald Trump’s initiative to safeguard US interests by raising tariffs. This has been partially retaliated by China even as things have not yet developed into a full-fledged trade war. Fear, however, exists and it has an impact. The second is the rise in crude oil prices. This again has roots in US foreign policy. Crude oil prices have touched $79.38 a barrel against $69.08 in January. The impact of this is very much seen on India’s balance of payments. The trade deficit stood at $13.7 billion in April. There is apprehension that if this trend in crude prices continues, India’s current account deficit (CAD) will touch 2.5% of GDP in 2018-19.
Fall In Rupee Value Justified
In the days when capital flows were ‘accommodative’, to use an expression coined by Nobel-winning economist James Meade, the exchange rate was determined by the CAD. It was then that the ‘purchasing power parity’ theory held good. This is no longer the case. Capital flows are much more ‘autonomous’ than they are ‘accommodative’. Thus the nominal exchange rate may remain the same, or even appreciate, even when the current account is in deficit. In short, the exchange rate that equilibrates the currency market is not necessarily the rate that will equilibrate the current account.
There have been many instances in recent years when the rupee has tended to appreciate despite a substantial CAD. In 2010-11, for instance, India’s CAD was 2.8% of GDP. In that year, the Nominal Effective Exchange Rate (NEER) went up to 93.54 from 90.94 in the previous year. REER rose to 112.7 from 103.9 in the previous year. In fact, in 2011-12, when CAD was as high as 4.2% of GDP, REER went down only to 110.3. If we have to bring about a greater balance in our trade account, it is important to neutralise the impact of capital flows and bring down the rupee’s appreciation in real terms. What we are witnessing in relation to the exchange rate of the rupee now is the impact of capital outflows as well as the rise in trade deficit.
The rupee is in a correction process. Thus the decline in its value is justified. The decline, however, has to be moderated and made smoother without interfering with the fundamental trends. That is where the availability of reserves matters. We have today close to $420 billion in reserves. The participants in the market also need to cover themselves. However, a depreciating currency will have an adverse impact on capital inflows. Foreign investors will need a still higher return.
BoP Under Control
India’s balance of payments has been under control in most of the years since liberalisation. In the last few years, it has been facilitated by the fall in crude oil prices. The capital flows were also adequate, except in the first half of 2013. In fact, it is the excess of capital flows over CAD that allowed us to accumulate reserves. But the exchange rate has been a reflection more of capital flows than CAD.
As the trade deficit begins to rise because of sharper rise in crude oil prices, the exchange rate will depreciate unless compensated by larger capital flows. The latter is unlikely to happen. Therefore, one must accept the fact that the rupee’s exchange rate will fall as crude oil prices remain high. A CAD of the order of 2.5% of GDP is high, particularly if it is sustained. It is, therefore, imperative to bring it down. Which is why the task of raising our exports gains urgency. In this effort, exchange rate adjustment will help.
But the true answer to reducing India’s trade deficit lies in improving the overall competitiveness of our exports, both of goods and services. Improved infrastructure, both in terms of transport and power, is critically important. Indeed, in constraining the appreciation of the rupee in real terms, an important consideration is maintenance of domestic price stability.
Date:26-05-18
शौचालय और स्वच्छता का भी है अर्थशास्त्र
देश में बढ़ती साफ-सफाई, खुले में शौच मुक्ति और शौचालय निर्माण के कारण न केवल उत्पादकता बढ़ रही है बल्कि परिवारों की आर्थिक स्थिति भी सुधर रही है।
परमेश्वरन अय्यर , (लेखक पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय भारत सरकार में सचिव हैं। लेख में प्रस्तुत विचार निजी हैं।)
झारखंड का लातेहार जिला अब खुले में शौच मुक्त हो चुका है। वहां के स्कूली शिक्षकों को कुछ रोचक चीजें देखने को मिल रही हैं। उनका कहना है कि स्वच्छ भारत अभियान के चलते बच्चों में डायरिया, उल्टी और मलेरिया की शिकायतें कम हुई हैं। स्कूल छोडऩे वाले बच्चों की तादाद भी कम हुई है और उपस्थिति बेहतर हुई है। उनका मानना है कि बच्चे नियमित स्कूल आने के कारण पढ़ाई में भी बेहतर हो रहे हैं। छत्तीसगढ़ के नारायणपुर जिले के चिकित्सकों का कहना है कि वहां पेट की बीमारियों की शिकायत लेकर आने वाली महिलाओं की तादाद में कमी आई है। महिलाओं को अब अपने इलाज पर बहुत कम व्यय करना पड़ रहा है और उनके पास उत्पादक कार्य करने के लिए समय भी अधिक है। इसके चलते वे अतिरिक्त कमाई कर पा रही हैं। इतना ही नहीं वे अपने बच्चों की स्कूली गतिविधियों में भी बेहतर योगदान कर पा रही हैं।
बिहार के किशनगंज जिले में स्थित हलमाला ग्राम पंचायत के शिब्बुलाल दास और राजो देवी का कहना है कि वे अपने वार्ड के पुराने खुले में शौच वाले स्थान के करीब रहा करते थे। तब उनका औसत मासिक पारिवरिक चिकित्सा बिल करीब 3,500 रुपये आया करता था। इसमें दवाई और चिकित्सक का शुल्क आदि सभी शामिल हैं। बीते करीब चार महीने से पंचायत खुले में शौच मुक्त है और उनका दावा है कि वे चार महीने में केवल दो बार चिकित्सक के पास गए हैं। जबकि पहले उन्हें एक महीने में चार से पांच बार चिकित्सक के पास जाना पड़ता था। क्या ये सारी बातें और ये सारे लाभ प्रमाणों पर आधारित हैं?
इन सवालों के जवाब तलाशने के लिए और खुले में शौच मुक्त गांवों के परिवारों को मिलने वाले आर्थिक लाभ का आकलन करने के लिए यूनिसेफ ने हाल ही में करीब 12 राज्यों के 18,000 लोगों पर एक अध्ययन किया। अध्ययन में पाया गया कि ये लाभ न केवल उल्लेखनीय हैं बल्कि वे स्पष्टï नजर भी आ रहे हैं। अध्ययन में अनुमान जताया गया कि एक खुले में शौच मुक्त परिवार हर साल चिकित्सा के खर्च में करीब 50,000 रुपये की बचत करता है। इसके अलावा उसका समय भी बचता है और लोगों की जान भी। इसके अलावा उन्होंने अनुमान लगाया कि प्रति परिवार संपत्ति मूल्य में करीब 19,000 रुपये का इजाफा हुआ। अध्ययन में यह भी कहा गया कि सफाई के कारण हर परिवार को होने वाला आर्थिक लाभ 10 वर्ष की अवधि में होने वाले समेकित निवेश से 4.3 गुना अधिक रहेगा।
इन निष्कर्षों को वैश्विक आलोक में भी देख सकते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मुताबिक सफाई पर होने वाले व्यय पर वैश्विक आर्थिक प्रतिफल प्रति डॉलर निवेश पर करीब 5.5 डॉलर है। जबकि अन्य अनुमानों के मुताबिक यह और अधिक हो सकता है। यूएन वाटर के अनुमान के मुताबिक साफ-सफाई में बेहतरी से हर घर को साल में काम करने, अध्ययन करने, बच्चों की देखभाल करने आदि के 1,000 अतिरिक्त घंटे मिलते हैं। यानी हर परिवार को हर साल आठ घंटे के काम के 125 दिन अतिरिक्त मिलते हैं। भारतीय संदर्भ में देखा जाए तो खुले में शौच मुक्त भारत को हर साल काम के 10 अरब अतिरिक्त दिन मिल सकते हैं।
इन अध्ययनों की ही पुष्टिï करते हुए विश्व बैंक अनुमान जताता है कि अपर्याप्त सफाई के कारण हर साल करीब 260 अरब डॉलर का नुकसान होता है। इससे विभिन्न देशों को जीडीपी के 0.5 फीसदी से लेकर 7.2 फीसदी तक का नुकसान होता है। वर्ष 2006 में भारत को स्वास्थ्य, पानी, अन्य सेवाओं में कमी आदि के चलते 53.8 अरब रुपये का नुकसान हुआ था। यह देश के कुल जीडीपी का 6.4 फीसदी था।
देश का आर्थिक भविष्य काफी हद तक हमारी युवा आबादी और जननांकीय लाभांश पर निर्भर करता है। देश के पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों में करीब 38 फीसदी शारीरिक और संज्ञानात्मक रूप से कमतर हैं। ऐसे में साफ-सफाई की कमी एक अहम मुद्दा है। इस बात का जोखिम है कि भविष्य में शायद हमारी काम करने वाली आबादी का बड़ा हिस्सा अपनी पूरी उत्पादकता का इस्तेमाल न कर पाए। इससे अर्थव्यवस्था को गंभीर जोखिम उत्पन्न होगा। स्वच्छ भारत अभियान के चलते बदलाव आ रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों की साफसफाई का स्तर बदला है और यह अक्टूबर 2014 के 39 फीसदी से सुधकर आज 84 फीसदी पर पहुंच चुका है। 360,000 से अधिक गांवों को खुले में शौच से मुक्त घोषित किया जा चुका है।
देश में सफाई उद्योग करीब 32 अरब डॉलर का है। सन 2021 तक यह बढ़कर 62 अरब डॉलर हो जाएगा। इस दौरान इस क्षेत्र में रोजगार के कई प्रत्यक्ष अवसर भी सामने आ रहे हैं। झारखंड के सिमडेगा जिले में महिलाएं मिस्त्री का काम कर रही हैं और उन्हें राज मिस्त्री के तर्ज पर रानी मिस्त्री का नाम दिया गया है। झारखंड में अब करीब 50,000 ऐसी महिलाएं काम कर रही हैं जो रोज 300-400 रुपये कमा रही हैं। वहीं हर शौचालय के निर्माण से उन्हें 1,800 से 2,400 रुपये की अतिरिक्त आय होती है। बीते साढ़े तीन साल में देश भर में करीब 7 करोड़ शौचालय बने हैं। अनुमान लगाया जा सकता है कि इससे करीब 1.68 अरब काम के घंटों की बचत हुई है।
हाल ही में महाराष्ट्र के खेड़ जिले के कृषि वैज्ञानिकों ने पाया कि शौच से बनी खाद ने प्याज की बेहतर उपज देने में मदद की। यह उपज जैविक खाद और रासायनिक खाद दोनों से बेहतर रही। सरकार स्वच्छ भारत मिशन के तहत दो पिट वाले शौचालयों को प्रोत्साहित किया जो स्वत: खाद तैयार करने में मदद करते हैं। इससे एक नए उद्योग की संभावना मजबूत हुई है। महाराष्ट्र के अधिकारियों का अनुमान है कि हर साल इस तरह करीब 1,400 टन खाद तैयार की जा सकती है। दुनिया भर में यह बात स्वीकार्य है कि अच्छी साफ-सफाई का सामुदायिक स्वास्थ्य पर सकारात्मक प्रभाव होता है। अब साफ है कि इसका अर्थव्यवस्था पर भी सकारात्मक असर हो रहा है। स्वच्छ भारत मिशन के जरिये सफाई अब राष्ट्रीय विकास के एजेंडे में प्रमुख हो गई है। इसके स्वास्थ्य संबंधी लाभ तो हैं ही, स्थिर आर्थिक बचत भी हो रही है। आज शौचालय न केवल चिकित्सक बल्कि बैंक, उर्वरक, रोजगार प्रदाता और विकास एवं निवेश के प्रतीक बनते जा रहे हैं।
Date:26-05-18
जरूरी है विनिर्माण
टी. एन. नाइनन
विनिर्माण क्षेत्र में रोजगार मायने नहीं रखता! अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने गत माह अपने नवीनतम विश्व आर्थिक पूर्वानुमान में कमोबेश यही बात कही। उसने कहा, ‘अगर रोजगार विनिर्माण से सेवा क्षेत्र की ओर स्थानांतरित होता है तो इससे अर्थव्यवस्था की उत्पादकता वृद्घि और विकासशील देशों के उच्च आय वर्ग की ओर बढऩे की संभावनाओं पर कोई असर नहीं पडऩा चाहिए।’ यह रिपोर्ट भारत समेत तमाम देशों में सुर्खियों में आई। परंतु भारत में इस वक्तव्य के पहले हिस्से का सच पहले ही देखा जा चुका है। हम मजबूत विनिर्माण आधार के बिना भी उत्पादकता में सुधार दर्ज करते आए हैं। निश्चित तौर पर विनिर्माण में कुल रोजगार का केवल 8 फीसदी या उससे कम ही है। प्रश्न यह है कि इसमें खबर क्या है?
दरअसल आईएमएफ चूक रहा है। पहली बात, अगर भारत में श्रमिक कृषि से विनिर्माण का रुख करते श्रम उत्पादकता में कितना सुधार होगा? दूसरा, विनिर्माण केवल रोजगार की दृष्टिï से महत्त्वपूर्ण नहीं है। दुनिया का हर ताकतवर देश विनिर्माण क्षेत्र की शक्ति भी है। चीन दुनिया का सबसे बड़ा विनिर्माता है। यूरोप में वह दर्जा जर्मनी को हासिल है। जापान और दक्षिण कोरिया विनिर्माण के जरिये ही विश्व फलक पर उभरे। प्राकृतिक संसाधनों के प्राचुर्य के बावजूद ब्रिक्स के दो सदस्य देश विनिर्माण में नाकामी के चलते पीछे हैं। रूस में विनिर्माण का योगदान 14 फीसदी और ब्राजील में 12 फीसदी है। भारत में यह 17 फीसदी है। ऐतिहासिक रूप से देखें तो किसी ऐसे देश ने ग्रेड में जगह नहीं बनाई जो विनिर्माण में 20 फीसदी से कम भागीदारी रखता हो। पूर्वी एशिया के सभी देश इस मानक पर खरे हैं।
संभव है कि चौथी औद्योगिक क्रांति के चलते इतिहास का पुनर्लेखन होने वाला हो (3डी प्रिंटिंग और कृत्रिम बुद्घिमता और विनिर्माण और सेवा का मिश्रण)। ऐपल जैसी कंपनी भी है जो एशिया में अपने विनिर्माण आपूर्तिकर्ताओं को अपने उत्पादों की खुदरा कीमतों में से एक छोटा हिस्सा देता है। इस तरह वह 30 फीसदी का जबरदस्त मुनाफा कमाता है। परंतु मध्य आय वर्ग वाले देशों के लिए ऐपल जैसी कंपनियों के तर्ज पर राष्ट्रीय नीति तैयार करना खतरनाक हो सकता है।
ऐसा इसलिए क्योंकि एक विनिर्माण आधार के पास प्राय: सेवाओं की तुलना में अधिक पश्चवर्ती और अग्रिम संपर्क होते हैं। यही वजह है कि औद्योगिक केंद्र अपने क्षेत्र में चौतरफा विकास करता है। यह कर आधार बढ़ाता है। विनिर्माण की मजबूती निर्यात के लिए भी मजबूत आधार तैयार करती है। थाईलैंड के जीडीपी का 27 फीसदी विनिर्माण से आता है लेकिन उसके निर्यात में इसकी भागीदारी तीन चौथाई से ज्यादा है। भारत के उलट उसकी स्थिति व्यापार अधिशेष की भी है। सन 1991 से थाईलैंड की मुद्रा बहत का मूल्यांकन रुपये की तुलना में दोगुना हो चुका है। इससे पता चलता है कि वहां उत्पादकता कितनी तेजी से बढ़ी है।
बगैर असैन्य विनिर्माण आधार के भारत रक्षा क्षेत्र में दुनिया का सबसे बड़ा आयातक बना रहेगा। नई तकनीक और उत्पादों का विकास स्थानीय उत्पादन इकाइयों पर निर्भर करता है जो नवाचार करती हैं और मूल्य शृंखला में सुधार करती हैं। जैसा कि क्रप्स ने एक बार जर्मनी में इस्पात से हथियार का रुख किया था। भारत फोर्ज इस समय उसी स्थिति से गुजर रही है। इसी प्रकार जापान, कोरिया और चीन ने कई चरणों में इस्पात निर्माण से युद्घपोत निर्माण की दूरी तय की। भारत में अभी ऐसा होना है। नौसेना के निर्माणाधीन युद्घपोतों को सही किस्म के इस्पात के लिए वर्षों तक इंतजार करना पड़ा। सैन्य तकनीक देश की सुरक्षा के लिए अहम है लेकिन वह ऐसे औद्योगिक माहौल में नहीं पनपती।
यही वजह है कि मेक इन इंडिया अभियान और उसके पहले संप्रग सरकार की नई विनिर्माण नीति के आने के बावजूद देश के जीडीपी में विनिर्माण की भागीदारी में बदलाव का न होना दुखद है। अगर मोदी सरकार आर्थिक वृद्घि दर को पिछले दशक के 7 फीसदी के स्तर से बढ़ाकर 8 फीसदी या उससे अधिक ले जाना चाहती है और बढ़ते व्यापार वस्तु घाटे से निजात पाकर रोजगार और राजस्व बढ़ाना चाहती है तो उसे आईएमएफ को भूलना होगा और विनिर्माण क्षेत्र को सफल बनाना होगा। सरकार के कार्यकाल के चार साल पूरे हो रहे हैं और अब उसे यह देखना होगा कि अब तक क्या कुछ नहीं हो सका है।
Date:25-05-18
सेहत का सूचकांक
संपादकीय
बरसों से बहुत-से लोगों की यह राय रही है कि विकास दर के आंकड़े न तो अनिवार्य रूप से आम लोगों की आर्थिक प्रगति को दर्शाते हैं और न ही उनके जीवन में संतुष्टि को। इसलिए जीडीपी के बजाय जन-स्वास्थ्य, आम लोगों की आर्थिक सुरक्षा, सामाजिक शांति, स्वास्थ्य, सौहार्द तथा प्रसन्नता जैसे मानकों को विकास की कसौटी बनाया जाना चाहिए। उपर्युक्त आलोचना और वैकल्पिक मानकों को अपनाने के सुझाव का औचित्य जाहिर है। हम देखते हैं कि भारत में डेढ़-दो दशक से जीडीपी की ऊंची वृद्धि दर के बावजूद करीब चालीस फीसद बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। पिछले ढाई दशक में तीन लाख से ज्यादा किसान खुदकुशी कर चुके हैं और यह सिलसिला अब भी जारी है। करोड़ों युवा बेरोजगार हैं, और एक रिक्त पद के लिए हजारों लोग आवेदन करते हैं। इसलिए यह हैरत की बात नहीं कि जब संयुक्त राष्ट्र मानव विकास रिपोर्ट या विश्व भुखमरी सूचकांक या प्रसन्नता सूचकांक जैसी रिपोर्टें आती हैं, तो भारत की स्थिति जीडीपी के सुनहरे दावों से एकदम विपरीत नजर आती है। यही हकीकत स्वास्थ्य से सरोकार रखने वाली विश्वप्रसिद्ध पत्रिका ‘लांसेट’ के एक अध्ययन से भी सामने आई है।
इस अध्ययन के मुताबिक स्वास्थ्य सुविधाओं तक लोगों की पहुंच और इन सुविधाओं की गुणवत्ता, दोनों कसौटियों पर, 195 देशों की सूची में भारत 145वें स्थान पर है। सूची यह भी बताती है कि भारत इस मामले में न केवल चीन बल्कि बांग्लादेश, श्रीलंका और भूटान जैसे अन्य पड़ोसियों से भी पीछे है। हालांकि ग्लोबल ‘बर्डन आॅफ डिजीज’ नामक यह अध्ययन यह भी कहता है कि पहले के मुकाबले भारत की स्थिति में सुधार दर्ज हुआ है। वर्ष 1990 में इसे जहां 24.7 अंक मिले थे, वहीं वर्ष 2016 में इसे 41.2 अंक मिले। लेकिन इस कथित सुधार का दूसरा पहलू यह है कि अधिकतम और न्यूनतम अंकों के बीच का अंतर काफी बढ़ गया है, जो स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में देश में लगातार बढ़ रही गैर-बराबरी को ही दर्शाता है। भारत के राज्यों में केरल और गोवा को सबसे ज्यादा अंक मिले, यानी उनकी स्थिति बाकी राज्यों से अच्छी है, जबकि उत्तर प्रदेश और असम सबसे निचले पायदान पर हैं। जब जापानी बुखार से कई बच्चों की मौत हो जाती है और सरकारी काहिली सामने आती है, तो उपर्युक्त अध्ययन में उभरे तथ्यों से कैसे इनकार किया जा सकता है! जीवन-रक्षा और जन-स्वास्थ्य किसी भी सरकार के लिए सबसे बड़ा तकाजा होना चाहिए। लेकिन हालत यह है कि अपनी अर्थव्यवस्था के आकार पर इतराने वाले भारत की गिनती दुनिया के उन देशों में होती है जहां स्वास्थ्य के मद में जीडीपी के अनुपात में सरकारी व्यय सबसे कम होता है।
यहां प्राथमिक व सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र और जिला अस्पताल बदहाली के पर्याय हो गए हैं। निजी अस्पताल मुनाफाखोरी में किसी भी हद तक चले जाते हैं और वहां इलाज के नाम पर ठगी और लूट ज्यादा होती है। दवाएं लागत से बीसियों गुना कीमत पर मिलती हैं और नकली दवा बेचे जाने की शिकायतें भी आम हैं। यह तो बीमार पड़ जाने पर आने वाली मुश्किलें हुर्इं, भारत में सेहत को संकट में ले जाने वाले कई कारक हर जगह हमेशा मौजूद हैं। भारत दुनिया का सबसे प्रदूषित देश है, जहां हवा, पानी, मिट्टी, वनस्पति, फसल सब बीमारियों के वाहक बन गए हैं। कोई भी खाद्य पदार्थ मिलावट से बचा नहीं है। एक तरफ जन-स्वास्थ्य की समस्या बजट का पर्याप्त आबंटन न होने और संसाधनों के अभाव की है, और दूसरी तरफ स्वास्थ्य विरोधी-स्थितियां भी बढ़ती जा रही हैं। और भी दुखद यह है कि इन दोनों मोर्चों पर जूझने की कोई तैयारी नहीं दिखती।