26-04-2023 (Important News Clippings)
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बोस के एक सदी से भी पुराने शोध की पुष्टि हुई
संपादकीय
इजराइल के वैज्ञानिकों की टीम पेड़-पौधों की खुशी और दर्द में निकली आवाजों को सुनने में सफल हुई है। यह शोध भारतीय नोबेल पुरस्कार विजेता जगदीशचंद्र बेस के 105 वर्ष पुराने और दुनिया को चौकाने वाले शोध की तस्दीक है, जिसमें वनस्पतियों में वेदना होने की बात कही गई थी। कष्ट में प्लांट्स से निकली आवाजें हवा में संदेश के रूप में है शीर्षक इस नए शोध को कित शोध-पत्रिका सेल ने छाप है। नए शोध में टमाटर और तम्बाकू के पौधों के पास अल्ट्रासोनिक यंत्र रखकर पाया गया कि पौधे पानी के अभाव में और अस्ति होने पर एक घंटे में कई दर्जन बार 20 से 100 किलो की क्वेंसी पर आवाज करते हैं, जिन्हें मनुष्य तो नहीं पर जानवर और पास के अन्य पौधे 10 से 16 फीट तक की दूरी से सुन लेते हैं। जानवर उसी अनुसार तय करता है कि इस प्लांट पर अंडे है या यह अब कमजोर हो गया है। इन पौधों की रिकॉर्डिंग साउंड-प्रूफ चैम्बर में भी की गई और कोलाहल भरे ग्रीनहाउस चैम्बर में भी शांत व खुशी के क्षणों में ये पौधे हर घंटे एक या दो आवाज करते हैं और (फूलों के तोड़ने से आहत भी नहीं होते, लेकिन आस्त अशांत प्यासे होने पर बार-बार संदेश देते हैं। बेस और बाद के शोध में प्लांट्स में कम्पन का पता तो चला था, लेकिन ध्वनि वाला यह शोध बिलकुल नया है और अगर इन साउंड के पैटर्न का पूरा अध्ययन हो सकेगा तो मानव और पौधों के बीच संवाद भी सम्भव है। बहरहाल इस क्रांतिकारी शोध से आने वाले दिनों में किसानों को पौधों को कब पानी देना है या कौन कीड़ा पते खा रहा है आदि बताया जा सकेगा। जगदीशचंद्र बोस ने सन् 1918 में ही बता दिया था सभी प्लांट्स अपने वातावरण के प्रति संवेदनशील होते हैं।
राज्यों का विकास
संपादकीय
केरल की यात्रा पर गए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के इस कथन से शायद ही कोई असहमत हो सके कि जब देश के सभी राज्य तेजी से विकास करेंगे, तभी देश उन्नति करेगा। यह अच्छी बात है कि पिछले कुछ समय से विभिन्न राज्य सरकारें विकास के मामले में एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर रही हैं और अपने यहां अधिक से अधिक निवेश लाने और उद्योग-धंधों को स्थापित करने पर बल दे रही हैं। यह सिलसिला कायम रहना चाहिए। इससे अच्छा और कुछ नहीं कि विभिन्न राज्य विकास के मामले में एक-दूसरे से होड़ करें, लेकिन इस होड़ को बढ़ावा देने के साथ केंद्र सरकार को यह भी देखना चाहिए कि कोई भी राज्य विकास के मोर्चे पर सुस्ती का शिकार न होने पाए, क्योंकि देश को आर्थिक और सामाजिक रूप से सबल बनाने का लक्ष्य तभी पूरा हो सकता है, जब विकास के मामले में पीछे छूट गए राज्य भी तेजी के साथ तरक्की करें। इसी कारण केंद्र सरकार उन राज्यों पर विशेष ध्यान दे रही है, जो अन्य राज्यों की तुलना में अपेक्षित गति से आगे नहीं बढ़ सके हैं।
इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि प्रधानमंत्री अनेक अवसरों पर यह कह चुके हैं कि देश का पूर्वी हिस्सा आर्थिक रूप से उतना सशक्त नहीं, जितना अन्य हिस्से हैं। केंद्र सरकार ने अपने स्तर पर इसके लिए जतन भी किए हैं कि बंगाल, बिहार, ओडिशा, झारखंड आदि के साथ पूर्वोत्तर क्षेत्र के राज्य विकास के मामले में अन्य राज्यों के समकक्ष खड़े हों। इसके कुछ सकारात्मक परिणाम भी सामने आए हैं, लेकिन इसी के साथ यह चिंताजनक है कि कई राज्य आमदनी की तुलना में खर्च अधिक कर रहे हैं। इसके चलते उनका घाटा बढ़ता जा रहा है। यह शुभ संकेत नहीं। न तो आर्थिक नियमों की अनदेखी की जानी चाहिए और न ही वित्तीय अनुशासन की। दुर्भाग्य से ऐसा हो रहा है और वह भी तब, जब नीति आयोग के साथ रिजर्व बैंक रह-रहकर यह रेखांकित करता रहता है कि गैर जरूरी खर्चे कई राज्यों की आर्थिक सेहत बिगाड़ रहे हैं। इसके बाद भी ऐसे राज्य चेतने से इनकार कर रहे हैं। इससे भी अधिक चिंता की बात यह है कि वे लोकलुभावन नीतियों को अपना रहे हैं। इसी कारण पिछले कुछ समय से रेवड़ी संस्कृति की चर्चा हो रही है। विडंबना यह है कि कई राज्य सरकारें रेवड़ी संस्कृति की पैरवी करने में लगी हुई हैं। रिजर्व बैंक का कहना है कि किसी भी राज्य का कर्ज उसकी जीडीपी के 30 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए, लेकिन कई राज्य ऐसे हैं, जो इस लक्ष्मण रेखा की परवाह नहीं कर रहे हैं। कुछ राज्य तो ऐसे हैं, जो अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा ब्याज चुकाने में खर्च कर रहे हैं। यह और कुछ नहीं आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपैया वाली कहावत को चरितार्थ करना है।
Date:26-04-23
चीन से चौकन्ना रहने का समय
हर्ष वी.पंत, ( लेखक आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में अध्ययन एवं विदेश नीति प्रभाग के उपाध्यक्ष हैं )
चीन सीमा से सटे गांवों में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए भारत ने प्रयास तेज कर दिए हैं। इसके अंतर्गत ‘वाइब्रेंट विलेजेस प्रोग्राम’ जैसी महत्वाकांक्षी घोषणा की गई है। इसमें चीन से लगी 3,400 किमी की सीमा पर लगभग 3,000 गांव चिह्नित किए गए हैं, जहां आधारभूत सुविधाओं को बेहतर बनाया जाएगा। इन सीमावर्ती गांवों में सड़क निर्माण के लिए ही 2,500 करोड़ रुपये का आवंटन हुआ है। अरुणाचल प्रदेश में पनबिजली परियोजनाओं के मोर्चे पर भी गति बढ़ाई जा रही है। भारत-तिब्बत सीमा पुलिसकर्मियों के लिए सुविधाओं को बेहतर बनाया जा रहा है। दूरसंचार कंपनियों से कहा गया है कि वे अरुणाचल के उस तवांग जिले में मोबाइल कनेक्टिविटी को सुधारें, जहां गत वर्ष दिसंबर में भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच झड़प हुई थी। सीमा पर बुनियादी ढांचे से जुड़ी यह व्यापक योजना चीन द्वारा अरुणाचल के कुछ हिस्सों का नाम बदलने के बीच शुरू हुई है। चीन इन गांवों को तिब्बत का हिस्सा बताता आया है। सरकार द्वारा इन क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे को बेहतर बनाने का उद्देश्य यहां जीवन की गुणवत्ता बेहतर बनाना है, ताकि स्थानीय निवासी वहां रहने के लिए प्रेरित हों और आजीविका की राह में दूसरे शहरों की ओर पलायन न करें। इस प्रकार यह पूरी कवायद सीमावर्ती सुरक्षा को चुस्त-दुरुस्त बनाने पर केंद्रित है।
सीमावर्ती क्षेत्रों में अवसंरचना बनाकर और सैन्य-नागरिक जुगलबंदी से स्थलीय एवं सामुद्रिक सीमा का अतिक्रमण करना चीनी तिकड़म का एक प्रमुख हिस्सा रहा है। इस साल चीन ने तिब्बत और शिनजियांग को जोड़ने वाली नई रेलवे लाइन बिछाने का एलान किया है। यह रेल लाइन वास्तविक नियंत्रण रेखा यानी एलएसी के बहुत करीब और उस अक्साइ चिन से होकर गुजरेगी, जिस पर भारत का दावा है कि चीन ने उसे जबरन कब्जाया हुआ है। इसी प्रकार 2021 में घोषित परिवहन योजना के अनुसार चीन अपनी मुख्य भूमि को ताइवान से जोड़ने के लिए एक एक्सप्रेस-वे और सुपरफास्ट रेल मार्ग तैयार कर रहा है। ये कुछ ऐसी मिसालें हैं, जो यथास्थिति को बदलने की चीनी मंशा प्रकट करती हैं। जबसे चीन ने अपनी सेना का आधुनिकीकरण आरंभ किया है तब से दक्षिण चीन सागर में उसके अतिक्रमण एवं कब्जे की घटनाएं बढ़ी हैं। इसके बाद वह सैन्य ठिकाने और अन्य अवसंरचना खड़ी करता है। मछली पकड़ने वाले अपने जहाजों की सुरक्षा की आड़ में चीन ने स्कारबोरो शोल का प्रभावी नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया है, जिस पर फिलीपींस का दावा है। सोवियत संघ के पतन से चीन ने एक सबक यह सीखा कि उसे अपने आंतरिक इलाकों की सुरक्षा सुनिश्चित करनी होगी। तिब्बत पर कब्जे के 70 साल बाद भी वह न तो दलाई लामा का आध्यात्मिक प्रभाव और न ही भारत एवं तिब्बत के बीच सांस्कृतिक संबंधों को खत्म कर पाया है। यह चीन के लिए बड़ी चिंता का विषय है। इसी कारण चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग द्वारा तिब्बत सीमा की सुरक्षा की आवश्यकता को रेखांकित करने के बाद खबरें आईं कि तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र में गांव बसाकर वहां चीन के प्रति वफादार लोग बसाए जा रहे हैं। चीनी सरकारी मीडिया द्वारा इसे शिनजियांग स्वायत्त क्षेत्र बताना भी यही दर्शाता है कि स्थानीय आबादी को ‘चीनी रंग’ में रंगने को लेकर शासन की व्यग्रता कितनी बढ़ती जा रही है।
उल्लेखनीय है कि चीन ने पिछले वर्ष भूमि सीमा कानून बनाया है। यह कानून चीनी सेना और चीन के सशस्त्र पुलिस बल को सीमा की सुरक्षा बनाए रखने की जिम्मेदारी सौंपता है। इस कानून के अनुसार नागरिक सीमावर्ती अवसंरचना की सुरक्षा के दायित्व से बंधे हैं। इसमें सीमा पर बुनियादी ढांचे को उन्नत करना और लोगों की नए सिरे से बसावट पर भी जोर है। इसमें राजनीतिक शिक्षा की जरूरत भी जताई गई है, ताकि लोगों में चीनी राष्ट्र के प्रति जुड़ाव का सामुदायिक भाव मजबूत हो। हाल में ऐसे संकेत भी मिले कि अरुणाचल से सटे क्षेत्रों में चीनी सेना सैन्य शिक्षा को बढ़ावा दे रही है। इस उपक्रम में ऐसी रणनीति बनाई जा रही है, जो चीन के साम्राज्यवादी राजवंशों और आधुनिक साम्यवादी तानाशाहों के बीच कड़ियां जोड़ती है। साम्राज्यवादी चीन में ऐसा किसान-सैनिक गठजोड़ बना था, जिसमें वफादार सैनिकों को धन के बदले जमीन दी जा जाती और जब भी राज्य को उनकी सेवाओं की जरूरत पड़ती तो उन्हें वापस मोर्चे पर बुला लिया जाता था।
करीब तीन साल पहले सीमा पर चीन के साथ छिड़ा गतिरोध वार्ताओं के तमाम दौर गुजरने के बाद भी हल होने का नाम नहीं ले रहा। हालांकि, कुछ क्षेत्रों में तनातनी आंशिक रूप से घटी है, लेकिन कुछ सीमावर्ती गांवों के नाम बदलकर चीन ने अरुणाचल में नया मोर्चा खोल दिया है। सीमावर्ती गांवों से जुड़ी नई योजना के माध्यम से यही लगता है कि भारत सरकार सीमा पर चीनी षड्यंत्रों से निपटने को लेकर चौकन्नी है। इस योजना का खाका पेश करते समय गृहमंत्री अमित शाह ने दोटूक कहा कि देश की एक इंच भूमि पर कब्जा नहीं होने दिया जाएगा। यह अतीत में भारत के उस रुख के सर्वथा विपरीत है कि ‘चीन ने जो जमीन कब्जाई है, वहां तो घास का एक तिनका भी नहीं उगता।’ यह चीनी चुनौती से निपटने की राह में भारत के नए आत्मविश्वास को दर्शाता है। स्पष्ट है कि देश की क्षेत्रीय अखंडता के मामले में सरकार कोई कोताही नहीं बरत रही और न कोई समझौता करने को तैयार है। यही कारण है कि चीन और पाकिस्तान द्वारा दबाव और आलोचना के बावजूद जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को खत्म करने के रुख पर भारत सरकार अडिग रही। पिछले महीने ही अरुणाचल में जी-20 से जुड़ी एक बैठक आयोजित हुई तो मई में एक बैठक श्रीनगर में प्रस्तावित है। वैसे, चीन जैसे प्रपंच दुनिया के लिए नए नहीं हैं। 1990 के खाड़ी युद्ध से पहले इराक ने एक आधिकारिक नक्शा प्रकाशित कर उसमें कुवैत को अपना हिस्सा दिखाया था, जिसे दुनिया ने अनदेखा कर दिया। इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि अपनी स्वतंत्रता के लिए निरंतर चौकसी आवश्यक है। इसलिए हमें नक्शों से जुड़ी चीनी सनक को गंभीरता से लेते हुए उसका समय से करारा जवाब देना होगा।
Date:26-04-23
प्लास्टिक पर प्रतिबंध में नाकामी
संपादकीय
एक बार इस्तेमाल होने वाले (सिंगल यूज) प्लास्टिक उत्पादों पर प्रतिबंध लगाए जाने के तकरीबन 10 महीने बाद भी देश के अधिकांश हिस्सों में उनका इस्तेमाल आम है। हालांकि इनका थोक इस्तेमाल करने वाले कुछ कारोबारियों ने जैविक रूप से अपघटन योग्य विकल्प अपना लिए हैं लेकिन अधिकांश अन्य उत्पादक, विक्रेता और उपभोक्ता अभी भी पहले की तरह बदस्तूर ऐसे प्लास्टिक का प्रयोग कर रहे हैं। ज्यादा चिंता की बात यह है कि त्यागे गए प्लास्टिक उत्पादों के संग्रह और सुरक्षित निपटारे के क्षेत्र में भी कोई खास सुधार देखने को नहीं मिला है। ऐसे में सार्वजनिक प्रदूषण की समस्या और बढ़ी है। सिंगल यूज प्लास्टिक न केवल सड़कों पर बिखरे रहते हैं बल्कि कचरा फेंकने की जगहों पर भी इन्हें बड़ी तादाद में देखा जा सकता है। इसके अलावा अब यह प्लास्टिक नदियों और समुद्र के रूप में हमारे जल स्रोतों में भी मिलने लगा है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने हाल ही में कहा था कि अभी भी अर्थव्यवस्था के निचले दायरे में निपटान योग्य प्लास्टिक की सामग्री, खासतौर पर पतले कैरी बैग का इस्तेमाल बदस्तूर जारी है। केरल में 23 मार्च से 4 अप्रैल तक प्लास्टिकरोधी अभियान चलाया गया और इस दौरान 25 टन निषिद्ध प्लास्टिक जब्त किया गया। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में भी हालात बहुत बेहतर नहीं हैं। वहां 100 दिन के प्लास्टिक रोधी अभियान का समापन 22 अप्रैल को हुआ और इस अवधि में 14,000 किलो निषिद्ध प्लास्टिक की सामग्री जब्त की गई। देश के सभी महानगरों में दिल्ली सबसे अधिक प्लास्टिक कचरा उत्पादित करने वाला राज्य है।
प्लास्टिक प्रदूषण की समस्या के मूल में प्लास्टिक कचरा प्रबंधन नियमों के कमजोर प्रवर्तन को जिम्मेदार माना जा सकता है। केंद्र सरकार ने ऐसे प्लास्टिक उत्पादों के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाया जो सीमित उपयोग के थे लेकिन जो बहुत अधिक कचरा करते थे। परंतु इसके प्रवर्तन का काम राज्यों और उनके प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को सौंपा गया था जिन्होंने अपनी जिम्मेदारी निभाने में ढिलाई बरती। पूरा दोष केंद्र सरकार पर भी नहीं डाला जा सकता है। उसने विभिन्न समूहों के दबाव को नकारते हुए प्रतिबंध लगाकर जहां उल्लेखनीय प्रतिबद्धता का प्रदर्शन किया, खासकर प्लास्टिक स्ट्रॉ के थोक उपभोक्ताओं की इस मांग को नामंजूर कर दिया जो कह रहे थे कि उन्हें उचित विकल्प अपनाने के लिए और अधिक समय दिया जाए लेकिन वह बाद में जरूरी कदम उठाने में नाकाम रही। इसके अलावा वह प्लास्टिक कचरा प्रबंधन का प्रभावी ढांचा तैयार करने की प्रक्रिया में राज्यों को साथ लेकर चलने में भी नाकाम रही है। हालांकि स्थानीय सरकार ने 2019 में ही प्लास्टिक कचरा प्रबंधन के नियम बना दिए थे लेकिन अभी इन्हें औपचारिक रूप से अधिसूचित किया जाना बाकी है। कई अन्य राज्यों में प्लास्टिक कचरा प्रबंधन के मानक केवल कागज पर हैं। यही वजह है कि अधिकांश निषिद्ध और जैविक रूप से अपघटित न होने वाला कचरा घरेलू कचरे में मिल जाता है और वर्षों तक वातावरण में बना रहता है। उसके जलने से जहरीला धुआं निकलता है। इसका बड़ा हिस्सा नदियों और समुद्र में मिल जाता है जो जलीय जैव विविधता को नुकसान पहुंचाता है।
प्लास्टिक उत्पादों पर प्रतिबंध लगाने में नाकामी की एक अन्य प्रमुख वजह है, उनके सस्ते विकल्पों का पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हो पाना। इस दिशा में शोध करने में ज्यादा निवेश नहीं किया गया है। सरकार ने भी इस काम के लिए कोई वित्तीय या अन्य प्रोत्साहन नहीं मुहैया कराया। जरूरत इस बात की है कि इस समस्या को समग्रता में निपटाने के लिए बहुमुखी रणनीति अपनाई जाए। ऐसे में उत्पादन से लेकर ऐसे प्लास्टिक की बरामदगी, पुनर्चक्रण और निस्तारण तक को ध्यान में रखना होगा। इस दिशा में छिटपुट उपाय काम नहीं आएंगे।
Date:26-04-23
ऑपरेशन कावेरी
संपादकीय
अफ्रीका के तीसरे सबसे बड़े देश सुडान में पिछले दस दिनों से जारी हिंसा और उथल-पुथल में सैकड़ो लोग मारे गए और हजारों घायल हो गए हैं। अन्य देशों की तरह भारत मे भी सुझन में फंसे अपने नागरिकों को स्वदेश वापस लाने के लिए ‘ऑपरेशन कावेरी शुरू किया है। ईद के अवसर पर युद्ध विराम लागू होने के बाद भारत ने अपने रेस्क्यू अभियान तेज कर दिया है। ऑपरेशन कावेरी के तहत आईएनएस सुमेधा 278 लोगों को लोकन पोर्ट सुडान से जेद्दा के लिए रवाना हो गया है जेद्दा में और सऊदी अरब में भारतीय वायुसेना के दो विमान इन भारतीयों को रेस्क्यू करने के लिए तैनात हैं। सूडान और आसपास के क्षेत्रों में करीब चार हजार भारतीय नागरिक हैं। पिछले कुछ वर्षों के दौरान पश्चिम एशिया और अफ्रीकी देशों के साथ भारत के राजनयिक संबंध काफी मजबूत हुए हैं। राजनयिक कुशलता की घर भी पैनी हुई है जिसके चलते आंतरिक या बा संकटों के कारण मुसीबत में फंसे देशों से अपने नागरिकों को सुरक्षित स्वदेश लाने में भारत को सफलता मिली है। अभी पिछले वर्ष यूक्रेन में फंसे भारतीय छात्रों को नई दिल्ली रेस्क्यू किया गया था सूडान पूर्वी अफ्रीका का सबसे बड़ा देश है। बताया जा रहा है कि वर्तमान में सोना के खानों पर कब्जा करने के लिए अर्द्धसैनिक बल और सेना के बीच लड़ाई चल रही है। अप्रैल 2019 में एक लोकप्रिय आंदोलन के बाद क्रूर तानाशाह ओमर अल बशीर को सत्ता से हटना पड़ा था। अंतरिम लोकतांत्रिक सरकार का अंतरराष्ट्रीय बिरादरी ने स्वागत किया था, लेकिन सेना का नेतृत्व करने वाले जनरल अब्देल फतेह बुरहान और अर्द्धसैनिक बल रैपिड सपोर्ट फोर्स का नेतृत्व करने वाले मोहम्मद हमदान दगालों के बीच सत्ता संघर्ष से देश में लोकतंत्र की स्थापना की मांग करने वाले लोगों की उम्मीदों को गहरा झटका लगा है। यही वजह है कि 2019 के बाद से सूान राजनीतिक अस्थिरता, संघर्ष और हिंसा के दौर से गुजर रहा है। वर्तमान समय में देश की राजधानी खार्तुम संघर्ष का केंद्र बना हुआ है। पूरा शहर वीरान है लाखों लोग घरों में अपने को बंद कर लिये है। हालांकि सऊदी अरब और अमेरिका द्वारा मध्यस्थता करने के सकारात्मक परिणाम आए हैं। दोनों युद्धरत पक्षों ने 72 घंटे के संघर्ष विराम पर सहमति दी है। संघर्ष और तनाव के बीच संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंतोनियो गुटेरेश की ओर से तनाव में कमी और लड़ाई रोकने की कोशिशें की जा रही हैं।