26-02-2024 (Important News Clippings)
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Date:26-02-24
Make Remittances Cheaper, WTO
India offering UPI as a viable means globally.
ET Editorials
India has the loudest voice in seeking to lower the global average cost of money transfer, being the largest contributor to the international migrant workforce, as well as recipient of the biggest remittance inflow. This will be a key area of interest for New Delhi at the WTO ministerial meet that starts today in Abu Dhabi. India’s concern over the slow decline in cross-border payment levels, which average over twice the 3% target, is guided by its own proactivity in creating cheap facilitating digital infrastructure. It is offering its publicly-funded instant real-time payments system UPI as a viable means to bring down remittance costs.
Digital money transfers are pulling down cost of remittances. The global average cost of sending $200 in Q3 2023 was 6.18%, a marginal decline from the preceding quarter, with digital remittances costing almost 2percentage points less than cash transfers. This is still 1.18 percentage points higher than the G20 target of 5%. Lower average cost of remittances in G8 economies than in G20 is partly attributable to the larger share of digital transfers. Mobile wallets remain the cheapest method of funding and disbursing a transfer, although funding costs are gaining on alternative means such as bank transfers, cash, and credit or debit cards.
Every percentage point decline in the global average remittance cost saves the global economy a little over $3 billion a year. Digital adoption offers a way out, and the agenda can be better implemented through multilateral agency than by offers of free infra. India has to be proactive at MC13 on lowering remittance costs across pathways and along all corridors. Alongside, it will need persuasive bilateral negotiations to increase flows in local currencies to pull down the forex margin in remittance transfer. Interlinked systems for digital payments in local currency is the cheapest solution available for transferring remittances.
Date:26-02-24
A new success
Space is an area that necessitates expansive collaboration.
Editorial
Moon landings are picking up pace for the second time in history, but now with more countries and novel definitions of success in the mix. Chandrayaan-3’s soft-landing confirmed that the Indian Space Research Organisation’s (ISRO) understanding of the technologies and processes involved and the choices it made — as an impressive space research and flight provider emerging from colonial shadows — are correct. Similarly, the failure of the Luna 25 mission would have taught Russia’s Roscosmos something about what it got wrong, particularly as a space agency whose reputation is on the wane after spectacular highs. On February 22, U.S.-based Intuitive Machines (IM) became the first private company to soft-land a robotic craft on the moon. The success of many space service providers in the U.S. is rooted in crucial support from NASA in their formative years. This is true in IM’s case as well, but with important distinctions. IM launched its Odysseus lander to the moon as part of NASA’s Commercial Lunar Payload Services (CLPS) programme, through which the agency is funding instruments onboard commercial missions to the moon hoping their findings will ease NASA’s eventual return to the natural satellite. IM’s Odysseus itself had a rocky last leg of the journey: as its descent got under way, the lander’s navigation instruments glitched, forcing IM engineers to quickly cobble together a fix and transmit it to the craft, instructing it to switch to an experimental NASA instrument onboard. After this hotfix, Odysseus appeared to have soft landed, but no confirmation was readily forthcoming due to a weak data link between the craft and antennae on the earth. The next day, IM said Odysseus may have tipped over but without consequence to most of its payloads, including six from NASA, and solar panels.
IM’s success testifies to the potential of the CLPS programme and could help extend it in future. NASA’s say in CLPS missions is limited to flagging interesting landing sites and providing some payloads. By 2020, it had contracted 14 companies to bid on missions, with its purse size of $2.6 billion. For the devolution of such critical responsibilities to be possible in any country, it needs, as the U.S. possesses, a healthy and diversified private space service landscape. This is the value of IM’s success within the context of the U.S. space programme. India recently approved up to 100% automatic foreign direct investment in parts of its national space programme, potentially paving the way for healthy competition among Indian start-ups to ease ISRO’s burden in future. Space is an area that necessitates expansive collaboration, among nations and within them.
Date:26-02-24
बेहतर अनुपालन की जरूरत
संपादकीय
सर्वोच्च न्यायालय ने सुधार का एक महत्त्वपूर्ण कदम उठाते हुए सरकार को निर्देश दिया है कि वह वनों की व्यापक ‘शब्दकोश परिभाषा’ के लिए सन 1996 में सर्वोच्च न्यायालय के ही दो सदस्यीय पीठ की परिभाषा का पालन करे। ताजा निर्णय तीन सदस्यीय पीठ ने वन संरक्षण अधिनियम (एफसीए) में संशोधन के खिलाफ दाखिल की गई कई याचिकाओं पर सुनाया है। उक्त संशोधन 2023 में संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित किए गए थे। इन संशोधनों के मुताबिक एफसीए केवल अधिसूचित वन क्षेत्र और उस भूमि पर लागू होगा जिसे सरकारी रिकॉर्ड में ‘वन’ के रूप में परिभाषित किया गया हो। इन संशोधनों की घोषित वजह यह बताई गई थी कि सन 1996 के निर्णय ने एफसीए के प्रावधानों को उन दर्ज किए गए वनों पर लागू किया गया था जिन्हें गैर वन उपयोग के लिए रखा गया था। यह बुनियादी क्षेत्र के मंत्रालयों, खासकर सड़क और राजमार्ग मंत्रालय की लंबे समय से लंबित मांग थी। परंतु संशोधन का विरोध करने वाले याचियों का कहना था कि इसके परिणामस्वरूप लाखों हेक्टेयर वन भूमि का वन के रूप में वर्गीकरण समाप्त हो जाएगा।
ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि इन संशोधनों की बदौलत चिड़ियाघर और सफारी वनों के भीतर बनाए जाने का रास्ता निकल आया। इसके परिणामस्वरूप हरियाणा ने अरावली के वनों के बीच एक वन्य पशु सफारी पार्क बनाने की योजना तैयार कर ली। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश में यह भी कहा गया कि ऐसी सभी योजनाओं को अदालत की मंजूरी की आवश्यकता होगी। वनों की सन 1996 की परिभाषा की ओर वापस लौटते हुए अदालत ने सरकार से यह भी कहा कि वह देश के हर प्रकार के वन क्षेत्र का रिकॉर्ड तैयार करे। इसका अर्थ यह हुआ कि राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को सन 1996 के अदालती फैसले के तहत गठित विशेषज्ञ समितियों द्वारा पहचाने गए वनों का रिकॉर्ड जमा करना होगा। सरकार के पास ये आंकड़े जमा करने के लिए 15 अप्रैल तक का समय है।
यह निर्णय उन कई निर्णयों में से एक है जिसके तहत न्यायपालिका पर्यावरण कानूनों को कमजोर किए जाने को लेकर कुछ संतुलन कायम करना चाह रही है। इन कानूनों को विकास के नाम पर कमजोर किया गया है। एक निर्णय जो सर्वोच्च न्यायालय में अपील के लिए लंबित है, वह है उन कंपनियों को पुरानी तारीख से मंजूरी प्रदान करना जिन्होंने पर्यावरण संरक्षण अधिनियम के तहत पर्यावरण मंजूरी प्राप्त करने के लिए शर्तों का पालन नहीं किया। पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले उद्योगों की ऐसी 100 से अधिक परियोजनाओं को जिनमें सीमेंट, कोयला, लोहा और इस्पात, बॉक्साइट तथा चूना पत्थर आदि शामिल हैं, 2017 के इस प्रावधान के तहत मंजूरी दी गई। इस वर्ष सर्वोच्च न्यायालय ने इन पर प्रतिबंध लगा दिया। इस बीच 2022 में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने प्रस्ताव रखा कि उन राजमार्ग, हवाई अड्डों, फिशिंग पोर्ट, ताप बिजली परियोजनाओं आदि के लिए पर्यावरण मंजूरी की आवश्यकता समाप्त कर दी जानी चाहिए जो नियंत्रण रेखा अथवा अंतरराष्ट्रीय सीमा के 100 किलोमीटर के दायरे में हों। बाद में कुछ विपक्षी दलों की असहमति के बाद एक संयुक्त संसदीय समिति ने स्पष्ट किया कि इसमें एकतरफा मंजूरी शामिल नहीं होगी और यह निजी क्षेत्र के लिए नहीं खुला होगा। देश के सीमावर्ती इलाकों की पारिस्थितिकी की संवेदनशीलता को देखते हुए तथा पहाड़ी या तटीय इलाकों के मौसम को देखते हुए इस स्पष्टीकरण से पर्यावरणविदों की चिंताओं को कम करने की संभावना नहीं है। उत्तराखंड के कई नगरों में जमीन धसकना अत्यधिक निर्माण के खतरे की पहचान बना हुआ है।
सरकार ने बार-बार सुरक्षा और विकास संबंधी जरूरतों का हवाला देकर पर्यावरण संबंधी चिंताओं की अनदेखी की है। उदाहरण के लिए उसने कहा कि 2023 में एफसीए में संशोधन इसलिए करना पड़ा कि यह कानून जनजातीय समुदायों के लिए स्कूलों की इमारतों, शौचालयों और अन्य सुविधाओं के निर्माण की राह में रोड़ा बन रहा था। बहरहाल संशोधन निरर्थक था क्योंकि वन अधिकार अधिनियम ने सरकार को एफसीए को समाप्त करने और ऐसी परियोजनाओं के लिए वन भूमि देने में सक्षम बनाया था। देश में प्राकृतिक वनों में तेजी से कमी को देखते हुए विकास के नाम पर पर्यावरण संबंधी नियंत्रण को शिथिल किए जाने की तत्काल समीक्षा करने की आवश्यकता है।
Date:26-02-24
भंडारण ढांचे पर ध्यान
संपादकीय
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस बात पर अफसोस जताया है कि भंडारण के बुनियादी ढांचे की देश में कमी के कारण किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ता रहा है। पिछली सरकारों ने इस समस्या पर ध्यान नहीं दिया लेकिन आज प्राथमिक कृषि ऋण समितियों (पैक्स) के माध्यम से इस समस्या का समाधान किया जा रहा है। प्रधानमंत्री मोदी शनिवार को 11 राज्यों के पैक्स में अनाज भंडारण के लिए 11 गोदामों के उद्घाटन अवसर पर एक सभा को संबोधित कर रहे थे। ये गोदाम सहकारी क्षेत्र में सरकार की दुनिया की सबसे बड़ी अनाज भंडारण योजना का हिस्सा हैं। यह योजना देश में उत्पादित शत-प्रतिशत अनाज के भंडारण की क्षमता तैयार करेगी। योजना के तहत 1.25 लाख करोड़ रुपये के निवेश से अनाज भंडारण ढांचा तैयार किया जाएगा। कहा जा रहा है कि इस पहल से नाबार्ड एनसीडीसी की मदद से पैक्स गोदामों को खाद्यान्न आपूर्ति श्रृंखला के साथ निर्बाध रूप से जोड़ा जा सकेगा। सरकार का प्रयास है कि इस योजना को कार्यान्वित करके 700 लाख टन भंडारण क्षमता बनाई जाए। इस विशाल भंडारण क्षमता निर्माण से किसान अपनी उपज को गोदामों में रखवाने, इसके बदले संस्थागत ऋण लेने और अपनी उपज के अच्छे दाम हासिल करने में सक्षम होंगे। अभी अनाज की सरकारी खरीद करने वाले एफसीआई जैसे केंद्र और राज्यों के संस्थान के पास ही गोदाम की ढांचागत सुविधाएं हैं, लेकिन एक तो ये पुरानी पड़ गई हैं, और उस पर अपर्याप्त हैं, इसलिए अनाज की सरकारी खरीद में सीमितता का सामना करना पड़ता है। अब जो भंडारण सुविधा तैयार हो रही है, वह इस मायने में भिन्न है कि किसान अपने तईं सहकारी स्तर की भंडारण गोदाम में अपनी उपज का भंडारण कर सकेंगे। अभी निजी उद्यमियों के गोदामों में उपज खासकर सब्जी आदि रखते जरूर हैं, पर उन्हें काफी ज्यादा शुल्क देना पड़ता है, और लागत बढ़ जाती है, जो लाभ घटाती है। कंप्यूटरीकृत होने के कारण भंडारण का कार्य अब आसान हो जाएगा। किसान उत्पादक संगठनों (एफपीओ) के माध्यम से किसानों को उद्यमी बनाने का जो मंसूबा सरकार ने बांधा है, उसमें भी भंडारण ढांचा तैयार होने से मदद मिलेगी। दरअसल, भंडारण की सुविधाएं समुचित न होने से खाद्यान्नों ही नहीं, बल्कि सब्जी-फल आदि कृषि उत्पादों के अतिरेकी उत्पादन की दिशा में किसानों को बेतहाशा नुकसान होता है। वे असहाय हो जाते हैं, और सरकार चाहकर भी नाकाफी भंडारण के चलते उन्हें राहत नहीं दे पाती।