24-11-2018 (Important News Clippings)

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24 Nov 2018
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Date:24-11-18

Contain China with the Quad

Yusuf  T Unjhawala [ The writer is editor, Defence Forum India ]

There’s good news for India from the Indian Ocean nation of the Maldives. And it comes primarily in the form of its new president, Ibrahim Solih, being sworn in last Saturday after defeating the incumbent, Abdulla Yameen, against all odds. Solih, upon taking up presidentship, almost immediately sought a review of China-backed projects in the archipelago nation. After Sri Lanka and Malaysia, Maldives is another country in the region whose people have expressed its opposition to their country’s leadership signing up for projects with China under the latter’s Belt and Road Initiative (BRI) and has led to a debt trap. Change in the Maldivian regime, however, isn’t going to bring any relief to countries that have taken substantial Chinese loans already and cannot service the debt.

Sri Lanka already lost the Hambantota port when it signed a lease agreement with China on a 99-year lease for $1.12 billion. Projects like the ‘Friendship Bridge’ in Male have already been completed, and others are underway. Already, over 70% of Maldives’ foreign debt is owed to China, of which the loan interest alone is more than 20% of the country’s budget. Malaysia cancelled all its projects with China before they could reach a stage where pullout was impossible. Prime Minister Mahathir Mohamad described the decision to avoid “a new version of colonialism”. His statement quite appropriately sums up what China has been doing in countries that have signed up for BRI. This presents a problem for other powers such as India whose security is undermined by China’s ‘debt trap’ strategy.

There are genuine requirements in many countries to improve their infrastructure and boost economic growth. But lack of resources and requisite knowhow hold them back. Many rely on foreign funding and companies to do this. China uses its economic muscle to pursue its ambitious BRI, reportedly a $1 trillion project. Its capacity to execute large projects at a fast pace makes ‘joining’ attractive for some countries. India, the US, Japan and Australia who form the Quadrilateral — Quad —have pledged to help infrastructure and connectivity projects, and to keep the oceans free and open. In July, the US, Japan and Australia announced a trilateral partnership to build infrastructure, address development challenges, increase connectivity and promote economic growth.

India has extended line of credit to several countries, and has also executed infrastructure and capacity-building projects. India and Japan signed the Asia-Africa Growth Corridor (AAGC) with four main components: development and cooperation projects, quality infrastructure and institutional connectivity, capacity and skill enhancement, and people-to-people partnerships to promote growth and development. India has also initiated talks with the US to partner it in joint investment in infrastructure development, energy, transport, tourism and technology.

While members of the Quad either on their own, or in bilateral or trilateral forms, have announced funds to assist countries in the region, they need to come together as a group to synergise the effort. It is India’s opposition — due to its undue respect for Chinese sensitivities — which has so far prevented this. India should shed this fear. The Quad will have to deepen its engagement with the smaller countries to understand their needs and aspirations that have been exploited by China so far. India faces issues in its neighbourhood, just like Australia has, of late, realised that it had neglected and failed to understand the needs of its neighbouring Pacific island nations — till the possibility of a Chinese military base there made it see reason.

The Quad must work together on infrastructure and connectivity projects, and capacity building for better synergies to avoid duplication of work and waste of resources. It should involve the private sector that invests and develops a sustainable business model. This will ensure investments or loans are viable, and not become white elephants for the recipient country. The Quad should also encourage tourism from the member countries to the places where joint projects are executed. It needs to encourage and strengthen democracy in the region, too. Remember, it’s democracy that has led to the backlash against Chinese projects.

India, the US, Japan and Australia should together work on helping smaller countries with their existing debt. It can be by grants, loans or through international lending institutes. They can promote trade that helps these countries’ economy and fund their own needs in the long term. It is imperative for the Quad to formalise a joint strategy of investments and project execution. Without an effective alternative, smaller countries of the region will continue to line up before China, despite the recent ‘reverses’.


Date:24-11-18

करतारपुर गलियारे का फैसला तो अच्छा, पर सतर्कता जरूरी

संपादकीय

निश्चित तौर पर गुरुनानक की 550वीं जयंती के मौके पर करतारपुर योजना पर भारत सरकार के मंत्रिमंडल का फैसला स्वागत योग्य है। उसी के साथ पाकिस्तान सरकार की तरफ से आगामी 28 नवंबर को शुरू की जा रही योजनाएं भी सिख समुदाय और भारतीयों को अच्छी लगने वाली हैं। इसके बावजूद पाकिस्तानी अधिकारियों ने भारतीय राजनयिकों को सिख धर्म स्थल पर जाने से रोकने की जो कार्रवाई की वह निंदनीय है। जबकि पहले विदेश मंत्रालय ने इसकी अनुमति दी थी और वे अफसर अपना दायित्व पूरा करने गए थे। पाकिस्तान की इस हरकत ने उस आरंभिक उत्साह पर पानी फेरने का प्रयास किया है जो गुरुवार को भारतीय कैबिनेट के फैसले के बाद निर्मित हुआ था। पाकिस्तान ने दूसरी हरकत ननकाना साहिब में भारत विरोधी और खालिस्तान समर्थक नारों और पोस्टरों के माध्यम से की है। विडंबना है कि करतारपुर गलियारे के माध्यम से एक-दूसरे के करीब आने में लगे भारत और पाक के बीच इसी मुद्‌दे पर खटास पैदा होने लगी है। दरअसल उग्रवाद को बढ़ावा देना और उसका राजनयिक इस्तेमाल करना पाकिस्तान की फितरत में है और उसका खामियाजा वह स्वयं भी भुगत रहा है। यही कारण है कि कराची में चीनी वाणिज्य दूतावास पर बलूचिस्तान के उग्रवादियों ने हमला किया और दो पुलिस वालों को मार डाला।

पाकिस्तान एक ओर चीन के साथ बन बेल्ट वन रोड परियोजना और आर्थिक गलियारे की योजना पर काम कर रहा है तो दूसरी ओर संसाधनों से संपन्न अपने ही सबसे बड़े प्रांत बलूचिस्तान को दमन और शोषण का शिकार बनाए हुए है। यही कारण है कि वहां बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी अपनी आज़ादी की मांग कर रही है। उग्रवाद और अलगाववाद को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने वाला पाकिस्तान जब तक इन हरकतों से बाज नहीं आएगा तब तक उसे न तो चीन के गलियारे का लाभ होगा और न ही भारत के साथ मैत्री कायम हो पाएगी। हालांकि उसने ननकाना साहिब में साल भर तक चलने वाले नानक देव की जयंती के मौके पर सद्‌भाव दिखाने का प्रयास किया है और मोदी सरकार को भी लंबे समय से प्रतीक्षित करतारपुर गलियारे का स्वप्न साकार होता दिख रहा है। इसके बावजूद यह सतर्कता जरूरी है कि इसका इस्तेमाल सद्‌भाव की बजाय भारत की एकता को चुनौती देने के लिए न हो।


Date:24-11-18

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से संभव होगा स्वच्छ और कारगर शासन

दिवाकर झुरानी, फ्लेचर स्कूल, टफ्ट यूनिवर्सिटी, अमेरिका

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) मशीन को मानव के स्तर पर या उससे भी बेहतर बुद्धिमत्ता से काम करने योग्य बनाता है। वर्तमान में आमतौर पर मशीनें निर्देश के मुताबिक काम करती हैं पर इसमें उनका अपना कोई दिमाग नहीं होता। मसलन, एटीएम मशीन इस तरह से प्रोग्राम की जाती है कि सही पिन नंबर के साथ आने वाले को चाही गई रकम देती है बशर्ते उतनी रकम आने वाले के बैंक खाते में हो। लेकिन, निवेश कहां करें यह तय करते समय लोग अपने आकलन (कभी यह स्वयं के तो कभी यह दूसरों के ज्ञान पर आधारित होता है) का आधार लेते हैं। फिक्स्ड डिपॉजिट करें या म्युचुअल फंड में निवेश करें अथवा प्रॉपर्टी खरीदें? चूंकि इस प्रश्न का कोई परफेक्ट जवाब नहीं है और यह व्यक्ति की जरूरतों व व्यवहार पर निर्भर है, तो इसके लिए मशीन पर भरोसा नहीं किया जा सकता। लेकिन, एआई टेक्नोलॉजी से मशीन मानव की तरह सीखना और फैसला लेना सीखती है। मानव किताबों, वीडियो, अन्य साथियों आदि जैसे बाहरी साधनों के जरिये अथवा आंतरिक साधनों से यानी अनुभव से ज्ञान प्राप्त करता है। दूसरा तरीका ही मुख्यत: मानव को मशीन से अलग करता है। एआई की मदद से मशीन भी मानव की तरह तेजी से सीखती और अपने अनुभवों को अपनाती है। कार ड्राइविंग अनुभव पर आधारित होने के कारण ज्यादातर मशीनें नाकाम रहीं लेकिन, एआई वाली मशीनें उम्मीद जगा रही हैं। शासन अथवा लोक सेवाओं में एआई का बड़ा असर हो सकता है। भारत में शासन दो कारणों से पंगु बना हुआ है- भ्रष्टाचार और अक्षमता। अधिक मशीनों से कार्यक्षमता बढ़ाई जा सकती है। रेलवे टिकट को ही लें। पहले लोगों को आरक्षण कार्यालय पर टिकट खरीदने के लिए कतार में लगना पड़ता था। आज वे मोबाइल से इसे मिनटों में अंजाम दे सकते हैं।

लेकिन, उन सेवाओं का क्या, जहां ह्यूमन इंटरफेस की अब भी जरूरत है? ट्रेन में टिकट चेकर को ही लीजिए। यह देखना की सारे यात्रियों के पास टिकिट है, बिना टिकिट यात्रियों से जुर्माना वसुलना और खाली सीटों का आवंटन करना टीसी की जिम्मेदारी है। कई बार टीसी जुर्माने की रसीद या नया टिकिट देने की बजाय रिश्वत मांगता है। यह आम है, क्योंकि दोनों पक्षों को लाभ होता है। कोई मशीन बुद्धिमानीपूर्वक टीसी के सारे काम नहीं कर सकती और न आकलन के आधार पर फैसले ले सकती है, इसलिए टीसी की जगह मशीन नहीं ले सकी। भारतीय व्यवस्था में सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर का अपॉइंटमेंट लेने से लेकर ड्राइविंग लाइसेंस बनवाने तक ऐसे बहुत सारे उदाहरण है, जहां भ्रष्टाचार इसीलिए मौजूद है, क्योंकि उसमें मानवीय विवेक व आकलन से फैसले होते हैं। भारत ने कड़े भ्रष्टाचार विरोधी कानून के जरिये अच्छा शासन उपलब्ध कराने की कोशिश की लेकिन, इसमें ज्यादा सफलता नहीं मिली। खराब प्रशासन के केंद्र में मानवीय व्यवहार ही है। भ्रष्ट लोगों से अचानक ईमानदार होने की अपेक्षा रखना संभव नहीं है। केवल ह्यूमन इंटरफेस हटाकर ही हम शासन में आमूल सुधार लाने की अपेक्षा रख सकते हैं और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यह हासिल करने का नायाब समाधान देता है।


Date:23-11-18

भंग अतार्किक है

संपादकीय

जम्मू-कश्मीर में विधानसभा भंग करने के राज्यपाल के निर्णय को लोकतंत्र और संविधान की आत्मा के अनुकूल नहीं कहा जा सकता है। विधानसभा का कार्यकाल समाप्त होने में अभी दो साल का समय शेष था। वहां दिसम्बर 2014 में चुनाव हुआ था और अन्य राज्यों से इतर जम्मू-कश्मीर विधानसभा का कार्यकाल छह वर्ष का होता है। ऐसे राजनीतिक परिदृश्य में अगर कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस के समर्थन से पीडीपी के नेतृत्व में नई सरकार के गठन की कोई संभावना बन रही थी कि तो राज्यपाल को एक अवसर देना चाहिए था। पीडीपी नेता और पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती और भाजपा के समर्थन से पीपुल्स कान्फ्रेंस के नेता सज्जाद लोन द्वारा सरकार बनाने का दावा पेश करने के बीच सूबे के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने जिस तरह से आनन-फानन में विधानसभा भंग करने का शासनादेश जारी किया, उससे राज्यपाल की तटस्थ भूमिका सवालों के घेरे में आ गई।

एक बार फिर राज्यपाल ने ‘‘केंद्र सरकार के एजेंट’ बतौर अपने विवेकाधिकार का इस्तेमाल किया। पिछले जून में पीडीपी-भाजपा सरकार का पतन हुआ था। तब से विधानसभा निलंबित है। सत्यपाल मलिक जैसे मंजे हुए राजनीतिक को सूबे का राज्यपाल बनाकर भाजपा नये सहयोगी के साथ मिलकर अपनी सरकार बनाना चाहती थी। उसे सज्जाद लोन के रूप में एक नया सहयोगी भी मिला, जो पीडीपी और दूसरे दलों के असंतुष्ट विधायकों को अपने साथ लाने में की रणनीति पर आगे बढ़ रहे थे। इस नये राजनीतिक समीकरण को समझते ही तलवार और ढाल की तरह एक दूसरे से मिलने वाली पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस एक साथ आने पर सहमत हो गई। इनका एक साथ मंच पर आना किसी को भी आश्र्चय में डाल सकता है; क्योंकि जम्मू-कश्मीर के विशेष राज्य के दज्रे को बचाये रखना और भाजपा को सत्ता से दूर रखने के सिवाय इनके बीच आम सहमति के सभी मुद्दे नदारद हैं। लेकिन पीडीपी, नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस के एक मंच पर आने से यह तय हो गया था कि सरकार बनाने के लिए आवश्यक बहुमत इनके पास है। ऐसी सूरत में भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के पास दो ही विकल्प थे-विधानसभा भंग करके नया चुनाव कराना या सूबे में गैर-भाजपा सरकार बनते देखना। भाजपा को दूसरा विकल्प मुफीद लगा। यह तय है कि राज्यपाल के फैसलों को सर्वोच्च अदालत में चुनौती दी जाएगी। सूबे का भविष्य अब उसके फैसलों पर ही निर्भर करेगा।


Date:23-11-18

अचानक फैसला

संपादकीय

जम्मू-कश्मीर विधानसभा को अचानक भंग करने के राज्यपाल के फैसले को लेकर स्वाभाविक ही राजनीति शुरू हो गई है। विपक्षी दल एक बार फिर केंद्र सरकार पर जनादेश चुराने का आरोप लगाने लगे हैं। दरअसल, बुधवार को जम्मू-कश्मीर में बहुत तेजी से घटनाक्रम बदला और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी, नेशनल कान्फ्रेंस और कांग्रेस पार्टी ने साथ मिल कर सरकार बनाने का फैसला किया। इस आशय का पत्र भी राज्यपाल को भेज दिया गया। सोशल मीडिया पर इसका प्रचार होने लगा। तभी रात में राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने अचानक विधानसभा भंग कर दी। तर्क दिया गया कि राज्य में सुरक्षा और लोकतंत्र बहाली के लिए यह कदम जरूरी था। अब चुनाव के बाद ही नई सरकार का गठन हो सकेगा। इस पर सवाल उठने शुरू हो गए कि जब भाजपा और पीडीपी का गठबंधन टूटा तभी विधानसभा भंग करने का एलान क्यों नहीं किया गया। इतने दिन तक क्या इसलिए उसे निलंबित रखा गया कि भाजपा को अपनी सरकार बनाने के समीकरण बिठाने का समय मिल जाए? और जब इस मामले में उसे कामयाबी नहीं मिली, तो उसे अचानक भंग करने का फैसला सुना दिया गया !

हालांकि राज्यपाल को यह अधिकार है कि वे स्थितियों के मद्देनजर अपने विवेक से विधानसभा को भंग कर सकते हैं। इसलिए अगर विपक्षी दल उनके फैसले को अदालत में चुनौती देना चाहते हैं, तो उसमें उन्हें कितनी कामयाबी मिलेगी, कहना मुश्किल है। पर यह सवाल तो अपनी जगह बना ही रहेगा कि जब विपक्षी दलों ने मिल कर नई सरकार गठित करने की पहल की और पीडीपी की तरफ से बहुमत संबंधी पत्र राज्यपाल को भेजा गया, तभी वे क्यों सक्रिय हुए और उन्हें लगा कि राज्य में सुरक्षा को खतरा पैदा हो गया है। फिर आनन-फानन उन्होंने विधानसभा भंग करने का फैसला सुना दिया। अगर उन्हें सरकार गठन का प्रस्ताव मिला, तो उस पर उन्होंने कोई विचार करना, संबंधित नेताओं से बातचीत करना जरूरी क्यों नहीं समझा। जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा संबंधी चुनौतियों से इनकार नहीं किया जा सकता। मगर इतने समय तक जब विधानसभा निलंबित थी, तब यह चुनौती बड़ी क्यों नहीं लगी। नई सरकार के गठन का प्रस्ताव मिलते ही यह चुनौती इतनी विकट क्यों हो गई? राज्यपाल के इस फैसले पर जम्मू-कश्मीर भाजपा का यह कहना कि नई सरकार के गठन की पहल चरमपंथियों के इशारे पर हुई थी, गले नहीं उतरता। यह चुने हुए प्रतिनिधियों के समर्थन से चुने हुए प्रतिनिधियों की सरकार बनाने का प्रस्ताव था, उसमें किसी की साजिश देखते हुए उसे खारिज कर देना लोकतांत्रिक प्रक्रिया नहीं कही जा सकती।

अव्वल तो जहां तक हो सके, मध्यवधि चुनाव से बचने का प्रयास किया जाना चाहिए। इस तरह न सिर्फ प्रशासन की नाहक कवायद बढ़ती है, राज्य के कामकाज प्रभावित होते हैं, खजाने पर बोझ बढ़ता है, बल्कि आम नागरिकों में लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर से भरोसा भी कमजोर होता है। इससे पहले वहां भाजपा और पीडीपी गठबंधन की सरकार थी, वह अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई। बीच में ही संबंध विच्छेद हो गया, तो यह उन दोनों पार्टियों के बीच मतभेद की वजह से हुआ। फिर करीब छह महीने तक विधानसभा को निलंबित रखा गया। जब वहां नए राज्यपाल नियुक्त हुए, तो उम्मीद बनी थी कि लोकतंत्र की बहाली का रास्ता खुलेगा, पर उनकी तरफ से ऐसी कोई पहल नहीं दिखी। जब राजनीतिक दलों ने अपनी तरफ से पहल की, तो उन्होंने नए सिरे से चुनाव का फैसला सुना दिया !


Date:23-11-18

करतारपुर कॉरिडोर

संपादकीय

गुरु नानक जयंती से ठीक एक दिन पहले करतारपुर कॉरिडोर को हरी झंडी दिखाकर केंद्रीय मंत्रिमंडल ने सिख संगत को एक अच्छा तोहफा दे दिया है। सिखों के पहले गुरु के जीवन में करतारपुर काफी महत्वपूर्ण रहा है। उन्होंने अपने जीवन के अंतिम 18 साल यहीं गुजारे थे। इस लिहाज से यह सिखों का महत्वपूर्ण तीर्थ है। दिक्कत यह है कि करतारपुर भारतीय सीमा से चार किलोमीटर दूर पाकिस्तान के नरोवाल जिले में पड़ता है। लंबे समय से यह मांग की जा रही थी कि सिख तीर्थ यात्रियों के लिए एक कॉरिडोर बनाया जाए, जिससे वे बिना किसी वीजा या विशेष अनुमति के दर्शन के लिए वहां जा सकें। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की लाहौर बस यात्रा के समय से ही इसकी योजना बन रही थी। अभी तक सिख संगत को ये दर्शन गुरुदासपुर के डेरा बाबा नानक से दूरबीन के जरिए करने पड़ते थे। बीच में जो चार किलोमीटर का जंगल है, उसमें हाथी घास उग आती थी, जिसे विशेष अवसरों पर पाकिस्तानी सेना कटवा देती थी, ताकि दर्शन में कोई दिक्कत न आए। कॉरिडोर बनने का अर्थ होगा कि अब सीमा की कंटीली तारें सिख श्रद्धालुओं के आडे़ नहीं आएंगी और वे दूरबीन से दर्शन करने की बजाय सीधे वहां के गुरुद्वारे जाकर मत्था टेक सकेंगे। गुरुवार को केंद्रीय मंत्रिमंडल के इस परियोजना को हरी झंडी दिखाने के ठीक एक दिन पहले पाकिस्तान सरकार ने भी इस परियोजना को न केवल हरी झंडी दिखा दी थी, बल्कि यह घोषणा भी कर दी थी कि जल्द ही प्रधानमंत्री इमरान खान इस परियोजना का शिलान्यास करने करतारपुर जाएंगे। इसमें पाकिस्तान की पहल जरूरी भी थी, क्योंकि सारा काम उसी के क्षेत्र में होना था और भारत को तो सिर्फ तीर्थयात्रियों के लिए रास्ता खोलना था।

यह भी मुमकिन है कि इसके लिए दोनों देशों की सरकारों में कोई सहमति भी बन गई हो, लेकिन घरेलू राजनीति के चलते दोनों उसे जगजाहिर न करना चाहते हों। अगस्त महीने में जब इमरान खान प्रधानमंत्री पद की शपथ ले रहे थे और भारत से पंजाब सरकार में मंत्री व पूर्व क्रिकेट खिलाड़ी नवजोत सिंह सिद्धू इसके लिए वहां गए, तो इस कॉरिडोर के मामले पर बिना वजह एक बतंगड़ खड़ा हो गया था और अचानक लगने लगा था कि यह मामला अब खटाई में पड़ जाएगा। मगर अच्छी बात यह है कि सभी ने इस विवाद को पीछे छोड़ दिया है।

हालांकि यह कॉरिडोर दोनों देशों के रिश्तों को नया आयाम देगा यह उम्मीद फिलहाल नहीं है। अभी हम इतनी ही उम्मीद बांध सकते हैं कि भारत-पाकिस्तान रिश्तों के उतार-चढ़ाव का इस कॉरिडोर पर कोई असर न पडे़। दोनों देशों के बीच कई बार सद्भावना के सेतु बने, मगर तनाव की हल्की सी दस्तक आते ही वे टूट गए। इसका अपवाद दिल्ली और लाहौर के बीच चलने वाली बस सेवा सदा-ए-सरहद और दोनों देशों के बीच चलने वाली ट्रेन समझौता एक्सप्रेस ही हैं, जो कई साल से अबाध चल रही हैं और जिनको कारगिल युद्ध के समय भी बंद नहीं होने दिया गया था। करतारपुर कॉरिडोर के लिए भी ऐसी ही सोच की जरूरत है। दोनों देशों के बीच जब तक वैमनस्य है और शक-शुब्हें हैं, तब तक खतरे भी हैं। यह डर हमेशा रहेगा कि पाकिस्तान कहीं इसका बेजा फायदा उठाने की कोशिश न करे। हमें सतर्क रहना होगा, लेकिन यह डर कहीं इस अच्छे प्रयास के आड़े न आए, यह कोशिश होनी चाहिए।


Date:23-11-18

Unlawful dissolution

The J&K Governor’s action controverts what has been laid down by the Supreme Court

EDITORIAL

In dissolving the Jammu and Kashmir Assembly without giving any claimant an opportunity to form the government, Governor Satya Pal Malik has violated constitutional law and convention. Mr. Malik’s stated reasons for his action — “extensive horse trading” and the possibility that a government formed by parties with “opposing political ideologies” would not be stable — are extraneous. The Governor ought to have known that the Supreme Court has deprecated such a line of reasoning. In Rameshwar Prasad (2006), the then Bihar Governor Buta Singh’s recommendation for dissolving the Assembly the previous year was held to be illegal and mala fide. In both instances, the dissolution came just as parties opposed to the ruling dispensation at the Centre were close to staking a claim to form the government. In Bihar, the Assembly was then in suspended animation as no party or combination had the requisite majority; in J&K, the State has been under Governor’s rule since June, when the BJP withdrew from the coalition and Chief Minister Mehbooba Mufti, of the Peoples Democratic Party, resigned. It is true that the PDP and the National Conference had not initiated any move to form a popular government for months and favoured fresh elections. But that cannot be the reason for the Governor to dissolve the 87-member House just when they were about to come together to form a likely 56-member bloc with the help of the Congress.

With the BJP backing Peoples Conference leader Sajjad Lone, the PDP may have sensed a danger to the unity of its 29-member legislature party and agreed to an unusual alliance with its political adversaries. Describing such an alliance as opportunistic is fine as far as it is political opinion; however, it cannot be the basis for constitutional action. As indicated in Rameshwar Prasad, a Governor cannot shut out post-poll alliances altogether as one of the ways in which a popular government may be formed. The court had also said unsubstantiated claims of horse-trading or corruption in efforts at government formation cannot be cited as reasons to dissolve the Assembly. Further, it said it was the Governor’s duty to explore the possibility of forming a popular government, and that he could not dissolve the House solely to prevent a combination from staking its claim. Mr. Malik’s remarks that the PDP and the NC did not show proof of majority or parade MLAs show shocking disregard for the primacy accorded to a floor test. J&K’s relationship with the Centre is rooted in constitutional safeguards as well as in the participation of its major parties in electoral politics and parliamentary democracy. Anyone interested in political stability in the sensitive State should ensure that democratic processes are strengthened. The potential for political instability in the future should not be cited as a reason to scuttle emerging alliances.