23-11-2017 (Important News Clippings)
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Date:23-11-17
Divorce justly
The proposed law should make triple talaq a civil offence, not criminalise it
TOI Editorials
In a momentous judgment in August the Supreme Court had set aside talaq-e-biddat or triple talaq as unconstitutional. To give effect to that judgment the Union government has now constituted a ministerial committee to frame a law. This is because instances of triple talaq continue to be reported and many more are perhaps going unreported. With lack of deterrent punishment assessed as a key contributing factor, there has been a demand for legislative protection against triple talaq. Time is short with Parliament likely to reassemble on December 15 but if government does manage to table this legislation it is bound to be a high point of the winter session.
However disagreements in marriage are normally civil matters and injustice to one party, not constituting violence, is best treated as a civil offence. State can step in to resolve differences and ensure equitable terms of disengagement. Criminalising divorce, even an illegal one, would be overreach. Even the Protection of Women from Domestic Violence Act is a civil law meant to protect women, not penalise criminally. Civil divorce laws leave enough room for rapprochement, but the Centre’s proposed criminalisation of triple talaq may close out this option.This doesn’t mean the state should refrain from aid to women suffering triple talaq. The proposed legislation could impose a fine, offer women recourse under civil law to get a legal divorce and maintenance, or invoke progressive judicial interpretations of the Muslim Women (Protection of Rights on Divorce) Act. Clearly the issues that arise are more complex than criminalising some Muslim men. Gains from the SC judgment, which was accepted by all major Muslim groups, mustn’t go waste.
Government must consult all stakeholders, including the All India Muslim Personal Law Board and the Bharatiya Muslim Mahila Andolan. Some Muslim women groups would prefer codification of Muslim personal law rather than piecemeal legislation. Other forms of talaq are also gender unjust. Meanwhile government’s promise to enact a uniform civil code to efface differences between religious denominations on such matters vital to gender equality like age of consent, polygamy, grounds for divorce, maintenance and inheritance, is yet to materialise. The truly aspirational target would be to draft the UCC legislation offering a vision of equality and due procedure for all of Indian society.
Date:23-11-17
कौशल विकास से जुड़ी भारत की तलाश
देश की राजनीति और समाज को मौजूदा स्थिति में एक साथ आगे चलने की आवश्यकता है।
अजित बालकृष्णन
आज से कुछ वर्ष पहले आदर्श नायकत्व के दौर में मैंने अपने पड़ोस के एक स्कूल में कक्षा 8 के बच्चों को बीजगणित पढ़ाने की हामी भरी थी। यह स्कूल कोलाबा (मुंबई) में मेरे घर से चंद कदमों की दूरी पर है। मेरी कक्षा में जो बच्चे थे उनमें बड़ी तादाद करीबी ससून डॉक पर काम करने वाले मछुआरों के बच्चों-बच्चियों की थी। हालांकि मेरी यात्राओं ने मेरे उस आदर्शवादी प्रयास पर अंकुश लगा दिया लेकिन फिर भी मेरे दिलोदिमाग में उन बच्चों की प्रतिभा और सीखने की उनकी ललक की याद अब तक ताजा है। अगर उनमें से कोई मुझ जैसे मध्यवर्गीय परिवार में पैदा हुआ होता तो वे यकीनन आईआईटी और आईआईएम में बढिय़ा प्रदर्शन कर रहे होते। दुख की बात है कि मेरे उन छात्रों में से कई को अपने परिवार के लिए पैसे कमाने की खातिर पढ़ाई छोडऩी पड़ी और वे डिलिवरी ब्वॉय और घरेलू सहायिकाओं के रूप में काम करने लगे।
इसमें कोई नई बात नहीं है। हम सभी यह बात जानते हैं। हम सभी ऐसी परिस्थितियों से दो चार हो चुके होते हैं। इसके बाद हमें अक्सर ऐसी सलाह सुनने को मिलती है कि इस समस्या का असली हल यही है कि एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था पेश की जाए जहां व्यावसायिक प्रशिक्षण भी दिया जाता हो। अगर इन बच्चों को ऐसा कौशल दिया जाए जो इनको बेहतर जीवन जीने में सहायक हो तो फिर उनको तीन साल की कॉलेज डिग्री की जरूरत ही क्या है जबकि उसकी मदद से वे अपनी आजीविका तक नहीं कमा सकते। एक दशक या उससे अधिक समय से देश के अधिकांश राज्य और केंद्र सरकार कौशल विकास कार्यक्रम चला रहे हैं। इनके लिए बाकायदा विभाग बनाए गए हैं और मंत्रियों को जिम्मेदारी सौंपी गई है लेकिन नतीजे में कुछ खास नजर नहीं आता। विभिन्न समितियों की मदद से कौशल आधारित रोजगार तैयार करने की कोशिश की गई। ऐसे रोजगार जो भविष्य में युवाओं के काम आ सकें। इसके लिए अलग पाठ्यक्रम तैयार किया गया। सीमेंस और एलऐंडटी जैसी कई कंपनियों ने तगड़े प्रयास किए लेकिन भारत में जिस पैमाने पर कौशल विकास की आवश्यकता है उसे देखते हुए ये प्रशिक्षण नाकाफी साबित हुए। कई लाख भारतीय बच्चे माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में पढ़ रहे हैं जबकि इनमें से कुछ हजार ही कौशल विकास कार्यक्रमों का लाभ ले पा रहे हैं।
मैंने इस क्षेत्र में गहन प्रयास कर रहे विचारवान लोगों के साथ मुलाकात कर इस बारे में ज्यादा मालूमात जुटानी चाही। उनमें से एक ने मुझसे ऐसी बात कही जो अब भी मेरे दिमाग में गूंज रही है। उन्होंने कहा, ‘जर्मनी जैसे देशों में अपने हाथ से काम करने और उसके सही होने पर तारीफ मिलने का सिलसिला बचपन से शुरू हो जाता है। उदाहरण के लिए किसी टूटी हुई खिड़की को ठीक करना।’ वहां बच्चे ऐसे माहौल में बड़े होते हैं जहां ऐसे कौशल की सराहना की जाती है और सफेदपोश मध्यवर्ग के मातापिता भी ऐसे कामों की तारीफ करते हैं। एक ऐसे समाज में जहां व्यावसायिक शिक्षण और कौशल आधारित रोजगारों की अहमियत है, वहां शुरुआत से ही मिलने वाली यह तारीफ मायने रखती है। भारत में कुछ अज्ञात वजहों से सामाजिक आकांक्षाओं का ताल्लुक सरकारी नौकरी से है। ऐसे काम जहां आप अपनी डेस्क पर बैठते हैं और पेन व कागज की मदद से कंप्यूटर के सहारे अपना काम करते हैं।
किसी देश के सामाजिक पहलू को कभी भी उसकी शिक्षा व्यवस्था से अलग करके नहीं देखा जा सकता है। मुझे इसका पहला अनुभव उस समय हुआ जब मैं पूर्वी भारत में पॉलिटेक्रीक्स की कार्यप्रणाली का अध्ययन करने में तल्लीन था। देश के पॉलिटेक्रीक्स की अक्सर इस बात के लिए आलोचना की जाती है कि वे बढिय़ा कौशल संपन्न स्नातक नहीं दे पा रहे हैं। मुझे इसकी वजह का अंदाजा है। मुझे लगता है कि बच्चों पर माता-पिता का सामाजिक दबाव बहुत ज्यादा होता है। इसलिए जो बच्चे इंजीनियरिंग कॉलेजों में दाखिला नहीं ले पाते हैं वे बाद में पॉलिटेक्रीक कॉलेज के कोटा के सहारे इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला लेने का प्रयास करते हैं। इसकी वजह से पॉलिटेक्रीक संस्थानों ने अपने पाठ्यक्रम में बदलाव कर दिया ताकि जो पॉलिटेक्रीक छात्र बाद में इंजीनियरिंग कॉलेजों में दाखिला ले लेते हैं वे कहीं इंजीनियरिंग कॉलेज के पाठ्यक्रम से पिछड़ न जाएं। जाहिर सी बात है इस पूरी प्रक्रिया में वे बच्चे कहीं पीछे छूट जाते हैं जो पॉलिटेक्रीक में पढ़ाई करते हुए कौशल विकास करना चाहते हैं।
नॉर्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान की प्रोफेसर कैथलीन थेलेन ने अपनी पुस्तक हाऊ इंस्टीट्यूशंस इवॉल्व- द पॉलिटिकल इकनॉमी ऑफ स्किल्स इन जर्मनी, ब्रिटेन ऐंड यूनाइटेड स्टेट्स ऐंड जापान, में इस बात का उल्लेख किया है कि जर्मनी जैसे समाज में व्यावसायिक शिक्षण का माहौल पहले से मौजूद है और ब्रिटेन में भारत की तरह पहले से व्यावसायिक शिक्षण का कोई माहौल नहीं रहा है लेकिन अब वह जगह बना रहा है। ब्रिटेन में प्रशिक्षण की कमी को अगर अर्थशास्त्रियों की भाषा में समझें तो एक ऐसे देश में जहां कुशल लोगों की कमी है, वहां अगर किसी फर्म में उच्च गुणवत्ता वाला कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रम हो तो अन्य लोग अपने कर्मचारियों को उनका मुफ्त लाभ उठाने के लिए प्रेरित करते हैं। इस पूरी प्रक्रिया के चलते ब्रिटेन एक ऐसे दुष्चक्र का शिकार हो गया जहां अर्थव्यवस्था में कौशल की कमी के चलते विभिन्न फर्म इस बात के लिए प्रोत्साहित हुईं कि वे कम कौशल से बनने वाले उत्पाद खरीदें। वह कहती हैं कि इससे कौशल में निवेश कम हुआ।
वह समाजविज्ञानी गैरी बेकर का हवाला देते हुए कहती हैं कि कौशल दो प्रकार का होता है। विशिष्ट कौशल, जो किसी फर्म के लिए जरूरी होता है और सामान्य कौशल जो विभिन्न कंपनियों और कर्मचारियों के बीच विस्तारित रह सकता है। जब कंपनियां कौशल प्रशिक्षण का काम करती हैं तो उनके पास ऐसी कोई वजह नहीं होती कि वे आम कौशल को प्रोत्साहन दें। वहीं दूसरी ओर विशिष्ट कौशल की बात करें तो वह पूरी तरह अहस्तांतरणीय होता है। यानी उसका एक खास जगह इस्तेमाल संभव होता है। वे उसी कंपनी के लिए मूल्यवान होते हैं। इससे आप यह समझ सकते हैं कि आखिर क्यों कंपनियों के लिए होने वाला कौशल विकास समूची अर्थव्यवस्था में कौशल की कमी की समस्या को दूर नहीं कर पाता। थेलन कहती हैं कि उदार बाजार वाली अर्थव्यवस्थाओं में युवाओं में ऐसे कौशल विकास के लिए खासा प्रोत्साहन होता है जिनका बाजार हो। विशिष्ट कौशल पर यह बात लागू नहीं होती।नई प्रौद्योगिकी के विकास का समाज और सामाजिक ढांचे से संबंध होता है। एक बड़ा घरेलू बाजार और कौशल विकास व्यवस्था की कमी ने ऐतिहासिक रूप से भी और आज भी अमेरिकी कारोबारी जगत को अपने उत्पादों को मानक बनाने और कौशल को प्रतिस्थापित करने वाली तकनीक तलाशने पर मजबूर किया है।
Date:22-11-17
खेल प्रतिभाओं की कमी नहीं, उन्हें उचित माहौल चाहिए
विश्वनाथन आनंद, पूर्व विश्व चैंपियन, शतरंज
साल 1987 में भारत शतरंज का अपना पहला ग्रैंडमास्टर खिताब जीतने की जी-तोड़ कोशिशें कर रहा था। मैंने भी तीन बार प्रयास किए थे, मगर हर बार बहुत करीब पहुंचकर नाकाम रहा। उस वक्त एक वरिष्ठ ब्रिटिश सज्जन ने मुझसे कहा था, ‘एक दिन तुम ग्रैंडमास्टर का खिताब जीतोगे, तब तुम्हें इसका एहसास भी न होगा।’ खेल में चमत्कार होते हैं। वह ऐसा पल होता है, जब चीजें सही जगह पर बैठती हैं, जो एक चैंपियन के प्रदर्शनों को मुकम्मल बना देती हैं। अनेक वर्षों बाद, जब मैंने 2000 में अपना पहला वल्र्ड चैंपियनशिप जीता, तब मुझे उनकी वह सलाह याद आर्ई और कितनी सही थी वह? क्रिकेट के अलावा अन्य सभी खेलों के दिग्गजों में भारत को उसका जायज हिस्सा मिला। हमारी तादाद बहुत अधिक नहीं थी, बल्कि हमारी उपलब्धियां ज्यादातर इकलौती ही थीं। पर हमेशा किसी आंदोलन की शुरुआत एक छोटी कोशिश से होती है। चाहे वह गीत सेठी हों, प्रकाश पादुकोण हों या लिएंडर पेस, अपनी-अपनी विधाओं में हमारे खेल को उचित प्रतिष्ठा दिलाने के लिए उन्होंने भरपूर मेहनत की और अपना सर्वश्रेष्ठ दिया था। शतरंज में हमारे पास अब 50 ग्रैंडमास्टर्स हैं। अगले साल नीदरलैंड के विज्क आन जी शहर में आयोजित होने जा रहे टूर्नामेंट में चार भारतीय खिलाड़ी शामिल होंगे। यह भारतीय शतरंज की अंतरराष्ट्रीय स्वीकृति है।
अधिबान भास्करन ने तो पिछले साल इतना दिलचस्प शतरंज खेला कि शतरंज की प्रतिष्ठित पत्रिका न्यूज इन चेस ने उन्हें अपना मुखपत्र बनाया। महिलाओं में हमारे पास हरिका द्रोणवल्ली हैैं, जो मेरी राय में वल्र्ड चैंपियनशिन जीतने के बेहद करीब हैं। शतरंज की तैयारियों में बड़ा बदलाव टेक्नोलॉजी के कारण आया है। कंप्यूटरों ने शतरंज तक न सिर्फ पहुंच आसान बनाया, बल्कि इसे एक बड़े दर्शक समूह तक भी पहुंचाया है। इंटरनेट के इस्तेमाल ने शतरंज के खेलों को देखने, उनके संग्रह और विश्लेषण के जरिए सबके लिए समान मैदान तैयार किया है। मैं दुनिया भर के ‘सेकेंड्स’ (सहयोगी) खिलाड़ियों के साथ काम करता हूं, हम आइडिया का आदान-प्रदान करते हैं। इससे भारतीय खिलाड़ियों को काफी मदद मिली है, उन्हें विदेशी खिलाड़ियों के साथ काम करने का मौका मिल रहा है। जो आइडिया एक खास दायरे में सीमित रह जाते थे, अब खुलकर वे साझा किए जाने लगे हैं। आज के ज्यादातर पेशेवर खिलाड़ी 10 साल पहले के मुकाबले कहीं बेहतर कौशल के साथ खेलते हैं।
अगर टेक्नोलॉजी ने शतरंज की मदद की है, तो इन्फ्रास्ट्रक्चर व विदेशी कोचों तक आसान पहुंच ने देश के अनेक खेलों का काफी भला किया है। हम ओलंपिक गोल्ड क्वेस्ट में प्रतिभाओं के प्रशिक्षण पर अच्छा काम कर रहे हैं। प्रतिभाओं को पहचानने व उन्हें प्रशिक्षित करने के लिए कॉरपोरेट जगत और खेल अनुभव के बेहतरीन तालमेल का लाभ उठाया जा रहा है। निस्संदेह, सर्वश्रेष्ठ बुनियादी ढांचे के लिए भारत को अभी लंबी दूरी तय करनी है, पर अब हम अपने युवा एथलीटों के साथ काम करने और उन्हें दिशा देने में पूरी तरह सक्षम हैं। इसलिए जरूरी है कि जब हम खेल संस्कृति की बात करते हैं, तो हमें ऐसा माहौल भी तैयार करना होगा, जिसमें प्रतिभाओं को फलन-फूलने का अबाध मौका मिले, न कि उन्हें अंतहीन दस्तावेजी उलझनों और सिफारिशों का शिकार बनना पड़े।
अनेक खेल विधाओं में हम कामयाबियां हासिल कर रहे हैं। बैडमिंटन हमारे देश के लिए एक बड़ा नया क्षेत्र है। इसी तरह, निशानेबाजी में काफी संभावनाएं दिख रही हैं। बॉक्सिंग और भारोत्तोलन में हमारे पास काफी प्रतिभाएं हैं। अब जब हम 2020 के टोक्यो ओलंपिक की बात कर रहे हैं, तो हमें उम्मीद है कि हम पदक तालिका में दोहरे अंकों वाली कतार में शामिल होंगे। हम एक खेल-प्रतिभा संपन्न देश हैं। आप किसी भी नौजवान खिलाड़ी से पूछिए कि तुम्हारा सपना क्या है? वह आपको विश्व चैंपियन बनने की ही बात कहेगा। और इसका क्या मतलब है? अपने तिरंगे को ओढ़ना और अपने राष्ट्रगान को बजते हुए गर्व से सुनना। क्योंकि इसी पल आप महसूस करेंगे कि आपने जो आंसू और पसीना बहाए, उसका एक-एक कतरा सार्थक हुआ। मेरा तो हमेशा यही सपना रहा और मुझे बेहद खुशी है कि मैंने वह क्षण जिया है।
Date:22-11-17
बदलते मौसम का भारतीय भूगोल
अखिलेश गुप्ता, सलाहकार, विज्ञान व तकनीकी मंत्रालय
जलवायु परिवर्तन अब एक आम चर्चा का विषय बन गया है। इस मसले पर बने संयुक्त राष्ट्र के अन्तर-सरकारी पैनल पांचवीं मूल्यांकन रिपोर्ट में पूरे विस्तार से यह बताया गया है कि किस तरह यह मानवीय क्रियाकलापों का ही नतीजा है। भारत में भी पिछले 100 वर्षों में पृथ्वी की सतह का तापमान लगभग 0.80 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है। किसी क्षेत्र में यह तापमान ज्यादा बढ़ा है, तो किसी में कम। अखिल भारतीय स्तर पर मानसून वर्षा में किसी तरह की कमी-बेशी भले दी दर्ज न हुई हो, पर कुछ क्षेत्रों में इसमें कमी (जैसे पश्चिमी मध्य प्रदेश, पूर्वोत्तर राज्यों, गुजरात व केरल के कुछ भाग) और कुछ क्षेत्रों में वृद्धि (जैसे पश्चिम तट, उत्तरी आंध्र प्रदेश व उत्तर-पश्चिम भारत) देखी गई है। देश के मध्य व पूर्वी भागों में तेज वर्षा की घटनाएं बढ़ी हैं। मगर मानसून, सूखे व बाढ़ में कोई भी महत्वपूर्ण वृद्धि या कमी के लक्षण नहीं मिले हैं। देश के मध्य और पूर्वी भागों में तेज वर्षा के बार-बार होने की घटनाएं बढ़ी है। बंगाल की खाड़ी पर बनने वाले चक्रवाती तूफानों की कुल आवृत्ति विगत 100 वर्षों के दौरान लगभग एक समान रही है। इस सदी के दौरान भारतीय तटों पर औसत समुद्र स्तर लगभग 1़30 मिलीमीटर प्रति वर्ष बढ़ रहा है।
भारतीय उष्ण देशीय मौसम विज्ञान संस्थान का अनुमान है कि सदी के अंत तक सालाना औसत तापमान वृद्धि दो अलग-अलग परिदृश्यों के तहत तीन से पांच डिग्री सेल्सियस और 2.5 से चार डिग्री सेल्सियस के बीच होने की आशंका है। भारत में तापमान वृद्धि देश के समस्त क्षेत्र में एक समान रहने का अनुमान है, जबकि उत्तर पश्चिम क्षेत्र में थोड़ी अधिक गरमी का अनुमान है। भारतीय मानसून भूमि, महासागर और वातावरण के बीच जटिल अंतर-क्रिया का परिणाम है। ऐसे भी अनुमान हैं कि पश्चिमी तट, पश्चिमी मध्य भारत और पूर्वोत्तर क्षेत्र में गहन वर्षा की घटनाएं बढ़ सकती हैं।जलवायु परिवर्तन ताजे पानी, कृषि योग्य भूमि और तटीय व समुद्री संसाधन जैसे भारत के प्राकृतिक संसाधनों के वितरण और गुणवत्ता को परिवर्तित कर सकता है। कृषि, जल और वानिकी जैसे अपने प्राकृतिक संसाधन आधार और जलवायु संवेदनशील क्षेत्रों से निकट रूप से जुड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश भारत को जलवायु में अनुमानित परिवर्तनों के कारण गंभीर संकटों का सामना करना पड़ सकता है। संयुक्त राष्ट्र पैनल की रिपोर्ट में भारत पर पड़ने वाले असर का भी जिक्र है। इसका सबसे बड़ा असर हमारे जल संसाधनों पर पड़ सकता है। ब्रह्मपुत्र, गंगा और सिंधु नदी प्रणालियां हिमस्खलन में कमी के कारण विशेष रूप से प्रभावित हो सकती हैं। नर्मदा और ताप्ती को छोड़कर सभी नदी घाटियों के लिए कुल बहाव में कमी आ सकती है। बहाव में दो-तिहाई से अधिक की कमी साबरमती और लूनी नदी घाटियों के लिए भी अनुमानित है। समुद्र तल में वृद्धि के कारण तटीय क्षेत्रों के निकट ताजा जल स्रोत लवण यानी खारेपन से प्रभावित हो सकते हैं।
भारत में खाद्यान्न उत्पादन जलवायु परिवर्तन से प्रभावित होता है। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान और अन्य संस्थाओं ने वायुमंडल में कार्बन का स्तर बढ़ने से गेहूं और धान की उपज में कमी का भी अनुमान लगाया है। इसकी वजह से फल, सब्जियों, चाय, कॉफी, सुगंधित व औषधीय पौधों की गुणवत्ता प्रभावित हो सकती है। रोगाणुओं व कीटों की संख्या तापमान और आद्र्रता पर निर्भर होती है। जाहिर है, जलवायु परिवर्तन का असर इनके प्रकोप पर भी स्पष्ट दिखाई देगा। इसकी वजह से दुग्ध और मछली उत्पादन में भी कमी आ सकती है।जलवायु में परिवर्तन महत्वपूर्ण रोगवाहक प्रजातियों (मसलन, मलेरिया के मच्छर) के वितरण को बदल सकता है, जिसके कारण इन रोगों का विस्तार नए क्षेत्रों में हो सकता है। यदि तापमान में 3.80 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि और इसकी वजह से आद्र्रता में 7 प्रतिशत की वृद्धि होती है, तो भारत में नौ राज्यों में वे सभी 12 महीनों के लिए मारक बने रहेंगे। जम्मू-कश्मीर और राजस्थान में उनके प्रकोप वाले समय में 3-5 महीनों तक वृद्धि हो सकती है। हालांकि ओडिशा और कुछ दक्षिणी राज्यों में तापमान में और वृद्धि होने से इसमें 2-3 महीने तक कम होने की संभावना है।
भारी जनसंख्या वाले क्षेत्र जैसे तटीय क्षेत्र शुष्क और अद्र्धशुष्क क्षेत्रों में बुआई वाले क्षेत्रों में जलवायु संबंधी जटिलताओं और वृहत जल प्रपातों से प्रभावित होते हैं, जिनमें से लगभग दो-तिहाई हिस्से पर सूखे का खतरा है। राजस्थान, आंध्र प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र तथा कर्नाटक, ओडिशा, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, बिहार, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में अपेक्षाकृत छोटे क्षेत्रों में अक्सर बाढ़ आती है। लगभग 40 मिलियन हेक्टेयर भूमि के साथ-साथ उत्तर और पूर्वोत्तर कटिबंध में अधिकांश नदी की घाटियों में बाढ़ का खतरा है, जिससे प्रत्येक वर्ष औसतन लगभग तीन करोड़ लोग प्रभावित होते हैं। नैटकॉम ने तटीय जिलों की संवेदनशीलता पर समुद्र स्तर में वृद्धि से वास्तविक खतरे, जनसंख्या प्रभाव पर आधारित सामाजिक खतरे और आर्थिक प्रभावों का मूल्यांकन किया है। इसके अतिरिक्त, उष्णकटिबंधीय चक्रवात की गहनता में 15 प्रतिशत की वृद्धि देश में भारी जनसंख्या वाले तटीय क्षेत्रों पर एक खतरा पैदा करती है। जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने के लिए सरकार ने एक सलाहकार परिषद का गठन किया है। परिषद ने सरकार, उद्योग और सिविल सोसाइटी सहित मुख्य पक्षधारियों से सलाह मशविरे के बाद कई दिशा-निर्देश दिए हैं। सरकार ने तकरीबन दस साल पहले जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना शुरू की थी। इसके अलावा, बहुआयामी, दीर्घकालीन और एकीकृत नीतियों के हिसाब से आठ राष्ट्रीय मिशन शुरू किए गए हैं। हालांकि इनमें से अनेक कार्यक्रम पहले से ही चल रहे कार्यों के हिस्से हैं। उन्हें बस नई स्थितियों और लक्ष्यों के हिसाब से ढालना है। उम्मीद यही है कि ये सब कार्यक्रम हमें जलवायु परिवर्तन के कारण हो रहे नुकसान से बचाने में मददगार साबित होंगे।