23-04-2024 (Important News Clippings)

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23 Apr 2024
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Date:23-04-24

Male Gets Aggro

Muizzu’s majority may be a challenge for New Delhi. But selling out to China won’t help Maldives

TOI Editorial

Maldivian President Mohamed Muizzu’s People’s National Congress securing a two-thirds majority in the archipelago nation’s parliament may further complicate New DelhiMale ties. Muizzu has made no secret about his anti-India and pro-China stance since he assumed office last year. With the legislature solidly in his pocket, there’s little to stop him from tilting fully towards Beijing. However, this won’t be the first time Maldives has tried to play off India and China.

Chequered past | India has been first-responder for Maldives by dint of geography. From Operation Cactus in 1988 to the 2014 Maldives water crisis, New Delhi has promptly aided Male when requested. However, former Maldivian president Maumoon Abdul Gayoom started the game of leveraging China over India in the 1990s in response to Maldives’ growing democratic movement. This provided an entry-point for Beijing.

Growing Chinese presence | Having gained access to infra projects in Maldives, in subsequent years China would slowly expand its footprint. Even during perceived pro-India president Mohamed Nasheed’s tenure, a Sino-Maldivian agreement on Chinese supply of military hardware and training had surfaced. The pro-China momentum was further consolidated under the presidencies of Mohammed Waheed and Abdullah Yameen.

Divided polity | Maldivian politics today is split down the middle between those who favour better ties with India and those who seek greater Chinese assistance. True, much of this may be political posturing as Muizzu’s ‘India Out’ campaign suggests. But Male is walking a dangerous line.

Strategic landmines | It’s one thing for Muizzu to order Indian troops engaged in rescue and rehabilitation missions out, quite another to allow a Chinese spy ship to dock in Maldives as happened in Feb. China wants to strategically encircle India. Male shouldn’t play along. Becoming a Chinese vassal will eventually undermine Maldivian sovereignty. Or ensnare it in debt trap. Look at Cambodia and Sri Lanka for examples. Is Muizzu selling out to Beijing?


Date:23-04-24

नहीं सुधर रहे है सरकारी स्कूल

जगमोहन सिंह राजपूत, ( लेखक शिक्षा, सामाजिक सद्भाव और पंथक समरसता के क्षेत्र में कार्यरत हैं )

सौ वर्ष पहले महात्मा गांधी ने कहा था कि भारतीयों की खुशी के लिए आशा की एकमात्र किरण है शिक्षा के प्रकाश का सभी तक पहुंचना। उनकी प्राथमिकता में ‘पंक्ति के अंतिम छोर पर खड़ा व्यक्ति’ ही था, जो आज भी देश में है। इसकी खबरें हर दिन पढ़ने को मिलती हैं। हाल में दिल्ली उच्च न्यायालय ने दिल्ली के सरकारी स्कूलों की स्थिति के संबंध में सब कुछ वही कहा है, जो शिक्षा से जुड़े लोग लगभग हर अवसर पर अपनी चिंता के रूप में व्यक्त करते रहे हैं।

टूटी मेज-कुर्सियां, अनुपस्थित अध्यापक, अनेक विषय पढ़ाने को मजबूर शिक्षक जैसी कमियों पर अनेक दशकों से चर्चा होती रही है। दिल्ली सरकार ने स्कूल सुधारों के संबंध में बड़ी घोषणाएं की थीं। उनकी प्रशंसा भी होती रही, लेकिन न्यायालय की टिप्पणी से स्पष्ट हो जाता है कि संभवतः प्रयास पर कम, लेकिन प्रचार-प्रसार पर अधिक जोर था। न्यायालय ने शिक्षा सचिव से कहा कि एक क्लासरूम में 146 बच्चे नामांकित थे, क्या इतने बच्चों के साथ न्याय संभव है? जब दिल्ली में यह स्थिति है तो देश के दूसरों हिस्सों के स्कूलों का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है।

भारत में सरकारी स्कूल व्यवस्था में ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे, जहां एक अध्यापक सालों-साल एकमात्र शिक्षक रहा होगा। यह निर्णय तो सरकारें ही लेंगी कि शिक्षा के अवसर भारत में अधिक उपलब्ध हैं या फिनलैंड में, जहां के माडल का अनुसरण करने का दिल्ली सरकार का दावा है। पिछले कुछ वर्षों से दिल्ली में फिनलैंड की शिक्षा व्यवस्था की खूब चर्चा हुई। वहां दिल्ली के कुछ अध्यापकों का प्रशिक्षण भी हुआ। उससे बड़ी उम्मीदें जुड़ीं।

दिल्ली उच्च न्यायालय के आकलन के पश्चात भी आशा बनाए रखने के अलावा कोई विकल्प नहीं। हालांकि उम्मीदें अक्सर टूटती हैं, लेकिन हम विचलित नहीं होते हैं। देश के अनेक शहरों में सरकारी स्कूलों में बच्चों के आने-जाने के लिए कोई सरकारी बस सेवा तक नहीं है। आखिर गरीब कामगारों के जो बच्चे केवल इस कारण स्कूल नहीं जा पा रहे हैं, उनके आवागमन की चिंता कौन करेगा? वादा तो निश्शुल्क वाहन व्यवस्था का था।

कस्तूरबा गांधी आवासीय विद्यालयों और कंपोजिट स्कूलों की स्थापना से भी बड़ी आशाएं थीं, लेकिन इन स्कूलों और अन्य सरकारी स्कूलों के निरीक्षण में पाया गया कि कई जगह नामांकन अपेक्षा से अत्यंत कम हैं। एक कंपोजिट स्कूल में कक्षा एक में केवल छह छात्र नामांकित थे, उपस्थित कोई नहीं मिला। इस स्थिति में मध्याह्न भोजन इत्यादि की क्या व्यवस्था रहती होगी? वरिष्ठ अधिकारी ऐसे अवसरों पर अपनी अप्रसन्नता व्यक्त करते हैं, चेतावनी देते हैं और सारा दोष प्राचार्य या अंतरिम प्रभारी पर थोप देते हैं। इस दयनीय स्थिति को परिवहन व्यवस्था से जोड़कर ओझल कर दिया जाता है।

दशकों से देश में एक-वर्षीय बीएड पाठ्यक्रम उत्तीर्ण कर स्कूल अध्यापक बन जाना एक बड़े वर्ग के युवाओं के लिए लक्ष्य प्राप्त कर संतोषपूर्ण जीवन बिताने का रास्ता खोल देता था। वे प्राथमिक कक्षाओं से लेकर माध्यमिक तक पढ़ाते थे, जबकि उनका प्रशिक्षण केवल माध्यमिक कक्षाओं में पढ़ाने के लिए होता था। प्राइमरी अध्यापकों के प्रशिक्षण के लिए भी अलग व्यवस्थाएं थीं। इनमें सुधार और परिवर्तन भी होते रहे। 1986/92 की शिक्षा नीति में हर जिले में केंद्र द्वारा बड़ी सहायता देकर डिस्ट्रिक्ट इंस्टीट्यूट आफ एजुकेशन एंड ट्रेनिंग की स्थापना इस दिशा में बड़ी पहल थी।

अब यह निर्णय लिया जा चुका है कि आगे से एक-वर्षीय पाठ्यक्रम समाप्त कर दिए जाएंगे। उच्चतम न्यायालय ने असमंजस की उस स्थिति का निराकरण कर दिया है, जिसमें पहले से प्राथमिक पाठशालाओं में नियुक्त हजारों बीएड उपाधिधारी सेवा से हटाए जाने वाले थे। व्यावसायिक उपाधियों के संबंध में निर्णय भविष्य को ही नहीं, बल्कि अनेक अन्य सामाजिक और आर्थिक पक्षों को ध्यान में रखकर लिए जाने से उनकी स्वीकार्यता और उपयोगिता दोनों ही साथ-साथ संभाले जा सकते हैं।

भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जेएस वर्मा ने 2012 में अपनी रिपोर्ट में यह तथ्य रखा था कि देश के 10,000 बीएड कालेजों में प्रशिक्षण की गुणवत्ता पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा। वे वास्तव में डिग्री बेच रहे हैं। इसे 2020 की नई शिक्षा नीति में भी दोहराया गया। उसमें समाधान भी सुझाए गए। वे कितनी गहनता से लागू किए जा सकेंगे, इस पर यही कहा जा सकता है कि नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शिक्षकों के लिए जो चार-वर्षीय प्रशिक्षण प्रारंभ करने की शुरुआत हुई है, वह शिक्षा की गुणवत्ता में अप्रत्याशित वृद्धि कर सकती है। एनसीईआरटी ने अपने चार क्षेत्रीय शिक्षा संस्थानों में यह कार्यक्रम प्रायोगिक तौर पर 1964-65 में प्रारंभ किया था। इसमें उत्तीर्ण छात्र-अध्यापक हर जगह सराहे गए। आशा करनी चाहिए कि सभी राज्य सरकारें बिना लाग-लपेट इसे लागू करेंगी और संस्थानों को सभी संसाधन उपलब्ध कराएंगी।

नई शिक्षा नीति के क्रियान्वयन से अनेक आशाजनक संभावनाएं उभरी हैं। इनमें अध्यापक प्रशिक्षण में सुधार अत्यंत महत्वपूर्ण तथा भविष्योन्मुखी है। शिक्षा जगत में ऐसा भी बहुत कुछ है, जिससे छुटकारा पाना आवश्यक है। इसमें सबसे पहले आती है व्यवस्थागत शिथिलता। इसके कारण अधिकांश सुधार केवल कागजों तक रह जाते हैं। यदि शिक्षक प्रशिक्षण पूरी तरह व्यापारियों से मुक्त कराया जा सके, अध्यापकों की नियुक्ति नियमित और समय पर होने लगे तो देश की सकारात्मक ऊर्जा और बौद्धिक संपदा में भारी वृद्धि होगी। ऐसा कर सकने की पूरी क्षमता देश के पास है, बस उसका प्रदर्शन किया जाना चाहिए।


Date:23-04-24

नया ध्रुव

संपादकीय

मालदीव में पिछले वर्ष मोहम्मद मुइज्जू ने राष्ट्रपति चुनाव जीता, तभी साफ हो गया था कि वहां की सत्ता अब नए रास्ते पर बढ़ चली है। अब वहां हुए संसदीय चुनाव में भी मुइज्जू की पार्टी पीपुल्स नेशनल कांग्रेस ने दो तिहाई से ज्यादा सीटों पर बड़ी जीत दर्ज कर ली है। इससे स्पष्ट है कि मालदीव का रुख पहले के मुकाबले बिल्कुल अलग होगा और प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उस पर चीन का असर दिखेगा। दरअसल, संसदीय चुनाव को मुइज्जू की सबसे बड़ी राजनीतिक परीक्षा के तौर पर देखा जा रहा था। हालांकि मुइज्जू और उनकी पार्टी की राजनीति को देखते हुए पिछले कुछ महीनों के दौरान मालदीव पर चीन के हावी होने को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सकारात्मक नहीं माना जा रहा था और वहां के संसदीय चुनाव पर उसका असर पड़ने की उम्मीद की जा रही थी। मगर ऐसा नहीं हुआ। अब मालदीव में मुइज्जू की पार्टी की भारी जीत को चीन के समर्थन और भारत के विरोध पर आधारित उनकी नीतियों पर मुहर के तौर पर देखा जाएगा।

गौरतलब है कि राष्ट्रपति का पदभार संभालने के बाद मुइज्जू ने भारत के प्रति अपने पूर्वाग्रहों को छिपाया नहीं और ‘भारत को बाहर करो की नीति पर चलते हुए भारतीय सैनिकों को वापस भेजना शुरू कर दिया था। दूसरी ओर, पर्यटन से जुड़ी अर्थव्यवस्था, खाद्य सुरक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के लिए भारत पर अपनी निर्भरता को कम करने के साथ-साथ मालदीव ने तुर्किए और अन्य कई देशों के साथ समझौते किए। खासकर चीन के प्रति मुइज्जू का झुकाव सभी जानते हैं। उनके राष्ट्रपति बनने के बाद मालदीव की कई बड़ी परियोजनाओं का काम चीन की कंपनियों को मिल चुका है। मालदीव और चीन के बीच सैन्य समझौता भी हुआ था। सच यह है कि चीन प्रकारांतर से मालदीव पर अपना नियंत्रण कायम करना चाहता है और इसी वजह से उसे कुछ विशेष महत्त्व देता है। अब वहां की संसद में अपनी पार्टी का बहुमत होने से देश में चीन के निवेश या अन्य सहयोग संबंधी फैसलों को लागू करने में मुइज्जू को कोई बाधा नहीं होगी। मगर मालदीव पर चीन का बढ़ता प्रभाव भारत के लिए चिंता की बात है।


Date:23-04-24

सेहत में सहारा

संपादकीय

गंभीर और ऐसी बीमारियों, जिनके इलाज में भारी रकम खर्च करनी पड़ती है, स्वास्थ्य बीमा लोगों के लिए बहुत बड़ा सहारा वित होता है स्वास्थ्य बीमा शुरू करने का मकसद भी यही था कि लोगों को स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च की चिंता से मुक्त रखा जा सके। मगर इसमें एक बढ़ी अड़चन वी कि पैंसठ वर्ष से अधिक उम्र के लोग स्वास्थ्य बीमा नहीं खरीद सकते थे। आमतौर पर ज्यादातर लोगों को इसी उम्र के बाद स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां देती है। मगर स्वास्थ्य बीमा न खरीद पाने के चलते वे निराश हो जाते थे। फिन, कैंसर, हृदय रोग एड्स जैसी कुछ गंभीर बीमारियों से ग्रस्त लोगों को इसकी सुविधा उपलब्ध नहीं थी। इसके अलावा स्वास्थ्य बीमा खरीदने के बाद अलीस महीने तक उसका लाभ नहीं उठाया जा सकता था अब भारतीय बीमा विनियामक एवं विकास प्राधिकरण ने इन अड़चनें को दूर करते हुए नियम जारी किया है कि पैंसठ वर्ष से अधिक आयु के लोग भी स्वास्थ्य बीमा खरीद सकेंगे। यानी अब किसी भी उम्र में स्वास्थ्य बीमा खरीदा जा सकता है। बीमा कंपनियां अब कैंसर एड्स और हृदय रोग जैसी बीमारियों की वजह से किसी को बीमा देने से इनकार नहीं कर सकती खरीदने के उस महीने बाद उसका लाभ उठाया जा सकेगा।

बीमा क्षेत्र को विस्तार देने और प्रतिस्पर्धी बनाने के मकसद से इस क्षेत्र में निजी बैंकों और विदेशी कंपनियों के लिए सौ फीसद निवेश का रास्ता खोला गया था फिर बीमा कंपनी बदलने की भी छूट दे दी गई थी। निस्संदेह इससे बीमा कंपनियों में प्रतिस्पर्धा बढ़ी और लोगों को इसका लाभ मिलना भी शुरू हो गय नगर स्वास्थ्य बीमा के मामले में कई तरह की अड़चनें बनी हुई थीं। उन और कुछ गंभीर बीमारियां इस रात में बड़ी याथा थी अब उनके हट जाने से निस्संदेह बहुत सारे लोगों के लिए आसानी हो जाएगी अप जिस तरह जलवायु परिवर्तन और बदलती स्थितियों के चलते अनेक प्रकार की नई-नई राह रही है और बहुत सारे लोगों के लिए इलाज कराना मुश्किल होता जा रहा है उसमें बीमा कंपनियों का वृद्धावस्था की ओर बढ़ती आबादी को इस सुविधा से वोचत रखना उचित नहीं था। दुनिया के अनेक देशों में वृद्धों की सेहत पर विशेष ध्यान दिया जाता है, मगर जिस तरह हमारे देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं पर योश और उनमें सुविधाओं का अभाव बढ़ता गया है, उसमें बुजुर्ग आबादी की सेहत का ध्यान रखना चुनौती बनता गया है। ऐसे में स्वास्थ्य बीमा की को लार्चाला बनाने से कुछ बेहतर नतीजे मिल सकते है। मगर अब भी स्वास्थ्य योजनाओं को पुख्ता पारदर्शी और प्रभावशाली बनाने की जरूरत रेखांकित की जाती रहती है। केंद्र सरकार ने आयुष्मान योजना के तहत करोड़ों लोगों को स्वास्थ्य बीमा की सुविधा उपलब्ध करा रखी है। कुछ लोग कंपनियों आदि की सामूहिक बीमा के अंतर्गत आते हैं कुछ लोगों ने निजी स्तर पर स्वास्थ्य बीमा ले रखा है। मगर चूंकि स्वास्थ्य बीमा की सुविधा का लाभ निजी अस्पतालों में ही लिया जाता है. यहां इनके दायें आदि को लेकर कई तरह की अनियमितताओं की शिकायतें मिलती रहती है। कोरोना काल के बाद स्वास्थ्य बीमा की वार्षिक किस्तें पचास फीसद से अधिक बढ़ चुकी है। इसलिए स्वास्थ्यमा नियमों को लचीला बनाने के साथ-साथ इन्हें व्यावहारिक और पारदर्शी बनाने की दिशा में भी भरोसेमंद कदम उठाने की जरूरत है।


Date:23-04-24

सुधारिए हाल, वरना हर शहर में सुलगेंगे कचरे के पहाड़

अनिल प्रकाश जोशी

दिल्ली में कचरे के एक पहाड़ में फिर आग लग गई, जिसे दूर-दूर तक लोगों ने देखा और लाखों लोगों को बड़ी परेशानियों का सामना करना पड़ा। बेशक, दुनिया की सबसे बड़ी चुनौतियों में अब अपशिष्ट या कूड़ा-कचरा भी शामिल हो चुका है। पृथ्वी हो या आकाश, हमने ऐसे हालात पैदा कर दिए हैं कि इस ब्रह्मांड का कोई कोना ऐसा नहीं बचा, जहां मनुष्यों द्वारा उत्पादित कूड़ा न फैला हो। अंतरिक्ष में ही देख लीजिए, करीब 93 हजार टन ठोस कूड़ा-कचरा वहां झूल रहा है। इसे लेकर संयुक्त राष्ट्र आह्वान भी कर चुका है कि जिन अंतरिक्ष एजेंसियों ने अंतरिक्ष में कूड़ा पैदा किया है, वे उसे वापस धरती पर लाएं।

खैर, आईपीसीसी की रिपोर्ट के अनुसार, अगर यही रफ्तार रही, तो साल 2050 तक 3.4 गीगाटन शहरी कूड़ा-कचरा होगा। आने वाले समय में यह कूड़ा इसलिए भी बढ़ता चला जाएगा, क्योंकि हमारे शहर 17 प्रतिशत की दर से विकसित हो रहे हैं। आने वाले दिनों में विकास की रफ्तार को और तेज होना है, तो आज की तुलना में कई गुना ज्यादा कचरे के लिए हमें तैयार रहना चाहिए। शहरों में कचरा इसलिए भी ज्यादा पैदा हो रहा है, क्योंकि वहां विकल्प के अभाव में प्रति व्यक्ति प्लास्टिक का उपयोग या उपभोग बढ़ेगा। एक आंकड़े के अनुसार, कूड़ा पैदा करने के मामले में अमेरिका का स्थान सबसे ऊपर है। अमेरिका प्रति व्यक्ति 2.3 किलोग्राम से ज्यादा कूड़ा प्रतिदिन पैदा करता है। इसी तरह चीन और ऑस्ट्रेलिया में भी प्रति व्यक्ति कचरा उत्पादन ज्यादा है। भारत की अगर बात करें, तो प्रति व्यक्ति 0.62 किलोग्राम कचरा प्रतिदिन पैदा करता है। हम भारतीय जब ज्यादा तेज विकास करते हुए ज्यादा कचरा पैदा करने लगेंगे, तब क्या होगा? दिल्ली के गाजीपुर जैसे कूड़े के न जाने कितने पहाड़ शहर-दर-शहर खड़े नजर आएंगे? दुनिया भर के आंकड़ों व शोध से पता चला है, अभी तक दुनिया में करीब 70 प्रतिशत कचरा लैंड फिल या पहाड़ों के रूप में बदल दिया जाता है। इस कचरे में से फिर इस्तेमाल योग्य मात्रा महज 11 प्रतिशत है, जबकि बड़ा प्रतिशत जला दिया जाता है।

इसके बावजूद दुनिया में बहुत से शहर या देश ऐसे हैं, जिन्होंने अच्छे उदाहरण पेश किए हैं। इनमें जर्मनी सबसे अव्वल है, जहां सबसे ज्यादा रीसाइक्लिंग होती है। वहां 66.1 प्रतिशत कचरे का निस्तारण रीसाइक्लिंग के जरिये हो जाता है। इसी तरह, सिंगापुर भी शून्य कचरे के लिए जाना जाता है।

अपने देश में भी कुछ शहर कचरा प्रबंधन में पहचान बनाए हुए हैं। अहमदाबाद 15 करोड़ मैट्रिक टन कचरा पैदा करता है, पर वहां कूड़ा संग्रह का तरीका ऐसा है कि 98 प्रतिशत कचरे को एकत्र कर लिया जाता है। सूरत, नवी मुंबई और मैसूरु की भी अपनी पहचान है। स्वच्छता और कचरा संग्रह में इंदौर का भी अपना स्थान है। ऐसे शहरों से दिल्ली ने कितना सीखा है?

हमारे शहरों में एक बड़ी कमी दिखाई देती है कि सही शोध का अभाव है। वैसे दुनिया में ‘सात आर’ का नारा है, जिसमें काम चल रहा है। री-थिंक, री-फ्यूज, री-ड्यूस, री-यूज, री-पेयर, री-गिफ्ट, री-साइकिल। कचरा पैदा करने से पहले सोचिए, इनकार कीजिए, घटाइए, दोबारा इस्तेमाल कीजिए, मरम्मत कीजिए, फिर उपहार दीजिए और पुनर्रचना कीजिए। कचरे का फिर इस्तेमाल करने के मामले में भारत की स्थिति सुधरी है, पर हमें बडे़ प्रयासों की जरूरत है, ताकि शहर-दर-शहर न कचरे के पहाड़ बनें और न हर गरमी उनमें भयंकर आग लगने की नौबत आए।

बेशक काम हो रहा है, प्लास्टिक से सड़कें बनाई जा रही हैं, कचरे से कंपोस्ट बनाया जा रहा है, ऊर्जा में भी उपयोग हो रहा है। फिर भी मात्र 10 से 15 प्रतिशत काम ही इस दिशा में हुआ है। अपने देश में ऐसे संस्थानों को बढ़ावा देना होगा, जो कचरा प्रबंधन पर वैज्ञानिक ढंग से काम करें। कचरे के स्थानीय उपयोग पर ही ज्यादा फोकस करना होगा। प्राकृतिक ढंग से ज्यादातर कचरे का उपचार स्वयं प्रकृति ही कर लेगी, इस दिशा में ज्यादा शोध की जरूरत है। पुणे जैसे कुछ शहरों ने कचरे से बिजली बनाने की कोशिश की है, इस पर ज्यादा काम करना होगा। बहुत कुछ संभव है, लेकिन सबसे जरूरी है शासकीय इच्छाशक्ति!