22-03-2025 (Important News Clippings)

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22 Mar 2025
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 Date: 22-03-25

Judging It Right

Why case of HC judge under probe has big implications

TOI Editorials

SC moved swiftly in connection with the cash hoard police reportedly found at Delhi HC judge Yashwant Varma’s bungalow on Holi. Varma is second in seniority among Delhi HC’s judges, and SC has proposed his repatriation to Allahabad HC. Although, in a press note issued on Friday, it delinked the transfer from the case: “The proposal to transfer…is separate from the in-house inquiry procedure.”

As for inquiries, the first by Delhi HC’s chief justice is over and its report has reached CJI Khanna, who may take a call on it on Saturday. If the report supports the allegations, Justice Varma may be asked to resign, or face an inquiry panel.

The importance of this case cannot be overstated because, at a time people’s faith in other institutions of governance has eroded, judiciary needs to look squeaky clean. Over the decades, skeletons have occasionally tumbled out of the judicial closet. Calcutta HC judge Soumitra Sen quit midway through the debate on removal motion in Parliament. The charge was misappropriation of funds. Delhi HC judge Shamit Mukherjee quit after he was accused of accepting bribes, and more. Sikkim HC chief justice PD Dinakaran also resigned following allegations of corruption.

Then there was the cash-at-door case against Punjab & Haryana HC judge Nirmal Yadav. The case blew up after a sum of 15L was wrongly delivered to the house of her namesake, Justice Nirmaljit Kaur, in 2008. Now, as SC probes the cash at Justice Varma’s residence, it should bear in mind the course of this 17-year-old case. In 2009, SC Collegium gave Justice Yadav a clean chit. She was transferred to Uttarakhand HC, where she retired in March 2011. But CBI chargesheeted her on her last day in service, and the case is still on. Justice Yadav’s innocence has not been established. That’s why transferring without exonerating is a bad idea.


 Date: 22-03-25

सरकारें खर्च की अपनी प्राथमिकताएं तय करें

संपादकीय

नई महाराष्ट्र सरकार ने जमीनी सच्चाई जानने के बाद अपने पहले बजट में लाड़की बहिन योजना की राशि को 1500 से 2100 रु. करने और किसानों के कर्ज माफ करने के वादे का कोई जिक्र नहीं किया। क्योंकि इन्हें देने का मतलब अब तक के राज्य इतिहास में सबसे बड़ा ऋण का बोझ 9.30 लाख करोड़ का होगा। साथ ही लगभग 7 लाख करोड़ के बजट में राजस्व घाटा 45 हजार करोड़ (6.4%) के खतरनाक स्तर पर होगा। इसमें दो राय नहीं कि विकास के क्रम में अगर गरीबी बेहद अधिक हो और गरीब-अमीर की खाई भी बढ़ी हो तो बैंक खाते में नकदी की डायरेक्ट डिलीवरी एक तात्कालिक सही कदम होता है। ब्राजील में बोलसा फेमिलियाज के नाम से शुरू की गई ऐसी ही एक योजना को दुनिया के तमाम देशों ने अंगीकार किया। लेकिन भारत में इसका विद्रूप चेहरा चुनावी रेवड़ी के रूप में सामने आने लगा। लिहाजा सरकारों के पास चुनाव जीतने के बाद स्वास्थ्य, शिक्षा, सड़क और अन्य अंतरसंरचनात्मक ढांचे के लिए पैसा कम पड़ने लगा। यह संकट राष्ट्रीय स्तर पर हाल के बजट में भी देखा गया। अंतरसंरचनात्मक विकास पर खर्च हर एक रुपया अंततोगत्वा 2.7 रु. का लाभ देता है। चीनी कहावत है किसी व्यक्ति को एक मछली दो तो उसे एक जून का खाना मिलेगा, लेकिन उसे मछली पकड़ना सिखा दो तो आजीवन रोजी मिलेगी।


 Date: 22-03-25

न्यायपालिका की साख

संपादकीय

करीब एक सप्ताह पहले दिल्ली हाई कोर्ट के जज यशवंत वर्मा के घर लगी आग बुझाने के दौरान वहां मिली बड़ी मात्रा में नकदी के मामले में सुप्रीम कोर्ट का यह स्पष्टीकरण शायद ही सभी को संतुष्ट कर पाए कि उन्हें स्थानांतरित करने के प्रस्ताव का उनके घर पैसे मिलने से कोई लेना-देना नहीं। यदि ऐसा ही है तो फिर सवाल यह उठेगा कि उन्हें स्थानांतरित करने का प्रस्ताव क्यों आया और वह भी उसी इलाहाबाद हाई कोर्ट में, जहां वह पहले नियुक्त थे ? प्रश्न यह भी है कि स्पष्टीकरण तब क्यों आया, जब ऐसी खबरें आ गईं कि नकदी मिलने से हैरान सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम ने जस्टिस वर्मा का स्थानांतरण इलाहाबाद उच्च न्यायालय कर दिया। जो भी हो, अब देखना यह है कि सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम इस मामले में क्या फैसला करता है। उसका फैसला जो भी हो, स्थानांतरण कोई समाधान नहीं । यह तो संदेह के घेरे में आए जज को दिया जाने वाला एक तरह का संरक्षण ही होगा। यह ठीक नहीं कि भ्रष्टाचार के आरोपों से दो-चार होने वाले उच्चतर न्यायपालिका के जजों को या तो स्थानांतरित कर दिया जाता है या फिर उन्हें कोई काम नहीं दिया जाता। सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम के पास इससे अधिक सामर्थ्य नहीं कि वह ऐसे न्यायाधीशों को त्यागपत्र देने के लिए कहे और उनके ऐसा न करने पर सरकार को उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाकर हटाने का निर्देश दे।

प्रश्न केवल यह नहीं है कि न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया इतनी दुरूह क्यों है? प्रश्न यह भी है कि उच्चतर न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति करने वाला कोलेजियम सिस्टम अपनी तमाम विसंगतियों के बाद भी अस्तित्व में क्यों है ? विडंबना यह है कि इन विसंगतियों की स्वीकारोक्ति के बाद भी जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया में कोई बदलाव नहीं हो पा रहा है। एक समय मोदी सरकार ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग बनाकर इसकी पहल की थी, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने उसे असंवैधानिक करार दिया। यह आज तक समझना कठिन है कि इस आयोग की खामियों को दूर करने के स्थान पर उसे सिरे से क्यों खारिज किया गया? क्या इसलिए कि जज ही जजों की नियुक्ति करते रहें? ध्यान रहे कि किसी अन्य लोकतांत्रिक देश में ऐसा नहीं होता। यह सही समय है कि जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में बदलाव की पहल नए सिरे से की जाए, क्योंकि जहां कोलेजियम के जरिये होने वाली नियुक्तियों को लेकर सवाल उठते रहते हैं, वहीं न्यायपालिका में भ्रष्टाचार के प्रश्न भी रह-रहकर सिर उठाते रहते हैं। ये प्रश्न न्यायपालिका की साख को गिराने के साथ ही उसके प्रति आम आदमी के भरोसे को कम करने का ही काम कर रहे हैं। न्यायपालिका में भ्रष्टाचार एक सच्चाई है। इससे मुंह मोड़ना जीती मक्खी निगलने जैसा ही है।


 Date: 22-03-25

औरंगजेबी मानसिकता का उपचार

शंकर शरण, ( लेखक राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )

हिंदू विविध मुद्दों पर विवाद में मशगूल रहते हैं, पर किसी मुद्दे को सींग से पकड़कर निर्णायक दिशा में मोड़ना और समस्या को हल करना नहीं जानते। सदियों पहले गुजरे औरंगजेब की आज भी लानत – मलामत उसी का उदाहरण है। उसका उपयोग विविध नेता और दल अपनी अपनी राजनीति खरी करने में करते हैं, जबकि मुस्लिम नेता अपने समुदाय का राजनीतिक हित कभी नहीं छोड़ते। वे मुसलमानों में घमंडी अलगाव भरते हैं कि मुसलमानों ने हिंदुओं पर सदियों शासन किया और फिर करेंगे। हिंदुओं में शासन की क्षमता ही क्या है । वे तो लोभी, ऊंच-नीचवादी हैं।’ ऐसे ही मुस्लिम नेता हिंदुओं को भरमाते हैं कि औरंगजेब तो भला और न्यायप्रिय था। उसकी निंदा करना अनुचित हिंदू सांप्रदायिकता है । अधिकांश हिंदू नेता औरंगजेब जैसे मुद्दों से केवल दलीय स्वार्थ साधते हैं, चाहे समाज की कितनी भी हानि और बदनामी हो। अन्यथा यह कैसे संभव होता कि हिंदू अपने ही देश में बदनाम होते रहें?

इस्लामी आक्रांताओं का मुद्दा क्षुद्र राजनीति के लिए सुलगते रहने देना दुर्भाग्यपूर्ण है। इसलिए और भी, क्योंकि औरंगजेब जैसे आततायियों का सही स्थान तय करना आसान है, पर यह तब होगा, जब इसे दलीय संकीर्णता से मुक्त रहकर सामाजिक हित में किया जाएगा। समाधान के विकल्प मौजूद हैं। समय- समय पर देसी-विदेशी महानुभावों ने बताया भी है। अन्य देशों में ऐसे समाधान का उदाहरण भी है। औरंगजेब की कब हटाने की मांग अनावश्यक है। इससे कोई नीतिगत उपलब्धि नहीं होगी। इसके बदले जैसा कवि-चिंतक अज्ञेय ने सुझाया था, अतीत के ऐसे शासकों के स्मारक रहने देने के साथ-साथ वहीं ‘इतिहास – वीथी’ जैसा संग्रहालय बनाना अच्छा है, जिसमें उनके तमाम काले कारनामे प्रामाणिक रूप में बताए जाएं। इससे सबको जरूरी शिक्षा और अपने लिए आगे सही कर्तव्य भी मिलेगा।

असली बात समाधान की इच्छा का अभाव है, अन्यथा समाधान हो चुका होता । इस पर प्रसिद्ध ब्रिटिश इतिहासकार अर्नाल्ड टायनबी ने दिल्ली में आजाद मेमोरियल लेक्चर में कहा था कि प्रथम विश्व युद्ध में पोलैंड पर कब्जे के बाद रूसियों ने राजधानी वारसा में रूसी आर्थोडक्स चर्च का निर्माण किया, पर जैसे ही पोलैंड स्वतंत्र हुआ, वह चर्च तोड़ दिया गया। उसे याद कर टायनबी ने औरंगजेब द्वारा भारत में बनवाई मस्जिदों पर कहा कि वे भी इस्लामी साम्राज्यवाद का प्रतीक थीं । उन मस्जिदों में कोई मजहबी भावना न थी । औरंगेजब ने जानबूझकर आक्रामक राजनीतिक उद्देश्य से काशी, मथुरा, अयोध्या आदि स्थानों में मंदिर तोड़कर मस्जिदें बनवाईं। टायनबी के शब्दों में, ‘वे मस्जिदें यह दिखाने के लिए थीं कि हिंदू धर्म के महानतम पवित्र स्थानों पर भी इस्लाम का एकछत्र अधिकार है। ऐसे स्थान चुनने में औरंगजेब शातिर था । वह एक दिग्भ्रमित बुरा आदमी था, जिसने ऐसी कुख्यात मस्जिदें बनाकर अपने को बदनाम किया।’ टायनबी के अनुसार पोलिश लोगों ने रूसियों द्वारा बनाए चर्च को ढहाकर रूसियों की बदनामी का स्मारक भी हटा दिया, पर भारतीयों ने स्वतंत्र होने पर भी औरंगजेब की बनवाई मस्जिदों को वैसे ही छोड़कर निर्दय काम किया। एक महान इतिहासकार द्वारा दशकों पहले दी गई सलाह कितनी सही थी, पर हिंदू नेता उस बने रहे। फलतः मामला जहां का तहां नासूर की तरह सड़ता रहा। औरंगजेब की कब्र हटाने से हिंदू-मुस्लिम राजनीतिक विषमता यथावत रहेगी। कब्र हटाने जैसे सांकेतिक झुनझुने से हिंदू भावनाओं का
दोहन मात्र होगा। दूसरी ओर मुसलमानों को भरमाया जाएगा कि उनका अपमान हुआ है। कब्र हटाने के बदले हिंदू और मुसलमानों को वास्तविक इतिहास से पूर्णतः अवगत कराना जरूरी है। इससे उन्हें समाधान की और बढ़ाया जा सकता है। अब तक इतिहास छिपाते रहने से ही हिंदू और मुसलमान, दोनों अज्ञान में रहते अलग-अलग तरह से दिग्भ्रमित रहते हैं।

औरंगजेब जैसे इस्लामी शासकों ने भारत में सैकड़ों मंदिर ध्वस्त किए। उनका घोषित उद्देश्य था काफिरों की उपासना पद्धतियों को खत्म कर केवल इस्लामी वर्चस्व कायम करना । यही काम तमाम इस्लामी शासकों ने दुनिया भर में किया। हाल में देवबंदी तालिबान, अल कायदा, इस्लामिक स्टेट आदि ने भी यही दिखाया । बामियान की ऐतिहासिक बुद्ध- मूर्तियां तोड़ने पर कई भारतीय उलेमा ने भी तालिबान की बड़ाई की थी। यह औरंगजेबी मानसिकता ही असली समस्या है, लेकिन हिंदू उदारवादी, गांधीवादी, वामपंथी आदि इस पर स्वयं भ्रमित रहकर सबको भ्रमित करते रहते हैं। हमें इस्लामी अत्याचारियों की स्मृति मिटाने में नहीं जाना चाहिए। मूल समस्या वह मतवाद है, जो औरंगजेब जैसों को आज भी प्रेरित करता रहा है। ऐसे मतवाद को कठघरे में खड़ाकर इतिहास की खुली जांच-परख की जाए। तभी मुसलमानों में विवेकशील विमर्श पैदा करने में सहायता मिलेगी। यह काम चर्च – मतवाद और कम्युनिस्ट मतवाद के साथ हो चुका है। यह इस्लामी मतवाद के साथ होना बाकी है। अभी मुसलमान दूसरों को ‘काफिर’, हीन मानकर बात-बात पर अड़ते हैं, क्योंकि वे दोहरी नैतिकता का इस्लामी सिद्धांत मानते हैं, जिसमें मुसलमानों के लिए अलग, ऊंचा और काफिरों के लिए नीचा व्यवहार रखा गया है। इसीलिए केवल अतिक्रमित मंदिरों पर ही नहीं, विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक विषयों पर भी मुसलमान अपना विशेषाधिकारी दावा रखते हैं।

मुसलमानों को समान मानवीय नैतिकता स्वीकार करने की और ले जाना ही स्थायी समाधान का मार्ग है- सरल और शांतिपूर्ण भी ओवैसी, आजमी, अब्दुल्ला आदि नेता किसी-किसी मामले में ‘संविधान के अनुसार चलने’ की सलाह हिंदुओं को देते रहते हैं। उन्हें भी चुनौती देकर हर मामले में समान नैतिकता से चलने के लिए दबाव और प्रचार करना चाहिए। तभी मुसलमान दूसरों के साथ समानता से रहना स्वीकार कर सकेंगे। यही असली और सरल समाधान है। इसके सिवा कोई समाधान है भी नहीं।


 Date: 22-03-25

खुशियों की चाबी

संपादकीय

जीवन की तमाम समस्याओं के बीच हर मनुष्य खुश रहना चाहता है। इसके लिए वह कुछ भी करने के लिए तैयार हो जाता है। खुश रहने की यह होड़ दुनिया भर के देशों में है। लेकिन यह किस हद तक संभव हो पाता है ? यह तथ्य है कि दुनिया के चंद देश ही अपने नागरिकों की खुशहाली की चिंता करते हैं। भारत जैसे बड़ी आबादी वाले देशों के सामने कई चुनौतियां हैं। बेरोजगारी, महंगाई और महंगे होते इलाज से जूझते लोगों में निराशा जरूर पैदा होती है, पर संघर्षों के बीच भी वे अपनी खुशियां तलाश ही लेते हैं। ‘वैश्विक खुशहाली सूचकांक 2025 में भारत ने पिछले साल के मुकाबले अपनी स्थिति बेहतर की है, लेकिन इससे बहुत ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है। दरअसल, हम अब भी नेपाल, पाकिस्तान, यूक्रेन और फिलीस्तीन से पीछे हैं। दूसरी ओर फिनलैंड है, जो लगातार आठ वर्षों से दुनिया का सबसे खुशहाल देश बना हुआ है। इस सूचकांक में पिछड़ने वाले देशों को डेनमार्क और स्वीडन से भी यह सीखने की जरूरत है कि वहां लोग कैसे और क्यों खुशहाल हैं। जीवन में बदलाव लाने की कई योजनाएं लागू होने और विश्व का सबसे युवा देश होने पर भी भारत खुशहाल क्यों नहीं, इस पर नीतियां बनाने वालों को सोचना होगा।

इसमें कोई दोराय नहीं कि रोजी-रोटी की जद्दोजहद और भागदौड़ की जिंदगी में तनाव बढ़ा है। आर्थिक चुनौतियां भी गहरी हुई हैं। जीवन में आ रहीं जटिलताएं कैसे कम हों, इस पर सोचना होगा। वैश्विक खुशहाली सूचकांक हमारी सरकार के लिए भी एक आईना है । यह गौर करने की जरूरत है कि दूसरे देशों से खुशहाली में हम क्यों पीछे हैं। क्या योजनाओं और नीतियों में कोई कमी रह गई, जिसकी वजह से खुशहाली जमीनी स्तर पर नहीं उतर रही ? सच है कि पश्चिमी पैमाने पर भारतीयों की खुशियों को नहीं मापा जा सकता। दुख-सुख के बीच यहां लोग थोड़े में गुजारा करते हुए अपनी खुशियां तलाश लेते हैं। मगर इसके लिए अवसर को आसान बनाने की जिम्मेदारी सरकारों की होती है। नागरिकों को सुरक्षित वातावरण और विकास के समान अवसर मिलेंगे, तो खुशियां उनके चेहरे पर निस्संदेह चमकेंगी।


 Date: 22-03-25

विनिर्माण क्षेत्र में बढ़ती चुनौतियां

अजय जोशी

भारतीय अर्थव्यवस्था में विनिर्माण क्षेत्र की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है और यह सदैव रहेगी। मगर विगत वर्षों में इसकी गति अपेक्षाकृत धीमी रही है। विनिर्माण क्षेत्र में कच्चे पदार्थ को मूल्यवान उत्पाद में बदला जाता है। इस क्षेत्र में मशीनरी औजार और श्रम का इस्तेमाल किया जाता है। जैविक या रासायनिक प्रसंस्करण या निर्माण भी इसी क्षेत्र में शामिल है। उत्पादित सामानों का इस्तेमाल खुद के इस्तेमाल के लिए या बेचने के लिए किया जाता है। विनिर्माण क्षेत्र में टिकाऊ सामानों की तुलना में गैर-टिकाऊ सामानों का निर्माण अपेक्षाकृत अधिक होता है। राष्ट्र निर्माण, रोजगार के अवसरों के सृजन, वस्तु और सेवाओं की आपूर्ति और आधारभूत संरचना तैयार करने में योगदान देते हैं।

देश के विनिर्माण क्षेत्र में उत्पादन पर नजर डालें, तो हम पाते हैं कि वर्ष 2023 में भारत का विनिर्माण उत्पादन 455.77 अरब डालर था, जबकि इसके पिछले वर्ष 2022 में यह 440.06 अरब डालर था। यह वृद्धि 3.57 फीसद अधिक थी। भारत के विनिर्माण क्षेत्र ने सकल घरेलू उत्पाद में 15.17 फीसद का योगदान दिया। भारत सरकार ने वर्ष 2025 तक इस क्षेत्र का योगदान 25 फीसद तक बढ़ाने का लक्ष्य रखा है। विद्युत उपकरण, मूल धातु और मोटर वाहन जैसे प्रमुख उद्योगों में मजबूत प्रदर्शन के कारण इस क्षेत्र में लगातार सुधार हुआ है।

विनिर्माण क्षेत्र में निवेश बढ़ा है। वर्ष 2022-23 के बजट में सरकार ने इलेक्ट्रानिक्स और आइटी हार्डवेयर विनिर्माण को बढ़ावा देने के लिए 2,403 करोड़ रुपए आबंटित किए। वर्ष 2021-22 में इलेक्ट्रिक और हाईब्रिड वाहनों के निर्माण को प्रोत्साहित करने वास्ते ‘फेम इंडिया’ योजना के लिए 757 करोड़ रुपए आबंटित किए गए, ताकि इस क्षेत्र को प्रोत्साहन मिल सके। विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए अन्य बहुत-सी योजनाएं भी बनाई हैं। इनमें ‘मेक इन इंडिया’ प्रमुख पहल है, जो देश के सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी बढ़ाने तथा घरेलू विनिर्माण क्षेत्र के विकास को बढ़ावा देने पर केंद्रित है। सरकार ने इस क्षेत्र में विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए कई विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) भी स्थापित किए हैं।

विनिर्माण क्षेत्र विशेष रूप से श्रम आधारित है। इस क्षेत्र में यद्यपि उत्पादन बढ़ा है, लेकिन आर्थिक विश्लेषक इसमें अभी कमजोर प्रदर्शन मानते हैं। उनका मानना है कि व्यापार नीति में निरंतरता का अभाव और जटिल कानूनी प्रावधानों तथा निष्प्रभावी शैक्षणिक एवं कौशल व्यवस्था आदि सभी इसको प्रभावित करते हैं। इसी प्रकार रोजगार के क्षेत्र में इनका योगदान पर्याप्त नहीं है। उद्योगों के वार्षिक सर्वेक्षण के अनुसार सूक्ष्म, लघु और मझोले उपक्रम देश की कुल फैक्टरियों में 96 फीसद की हिस्सेदार हैं, लेकिन उनमें दस से कम कर्मचारियों वाले सूक्ष्म उपक्रमों की हिस्सेदारी 99 फीसद है। इनमें रोजगार सृजन की गति अपेक्षाकृत बहुत धीमी है।

अर्थशास्त्री अरविंद सुब्रमण्यन एवं अन्य का विश्लेषण दिखाता है कि समस्या उद्योगों के एएसआई सालाना सर्वे के आंकड़ों से कहीं अधिक गंभीर । एएसआई ने बड़ी फैक्टरियों की संख्या को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया है। ऐसा लगता है कि कई कंपनियां एक ही राज्य में अलग-अलग उत्पादन इकाइयां स्थापित करती हैं। इससे एक ही कंपनी के स्वामित्व वाली कंपनियों की फैक्टरियां अलग-अलग होती हैं, लेकिन सर्वेक्षण में इन्हें एक फैक्टरी के रूप में दर्शाया जाता है, जिससे इनसे संबंधित आंकड़ों में गड़बड़ी हो जाती है। बड़े संयंत्र कई वजहों से उत्पादक साबित होते हैं। छोटे संयंत्रों के साथ और दिक्कतें भी हैं, जिनकी जांच परख करने की आवश्यकता और आवश्यक सुधार की जरूरत है। बड़े संयंत्र में पूंजी निवेश अधिक उत्पादक साबित हो सकता है और वे मूल्य श्रृंखला में तेजी से ऊपर जा सकते हैं, लेकिन इस मामले में छोटे संयंत्र पिछड़ जाते हैं ।

भारत के विनिर्माण क्षेत्र को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जिनमें बुनियादी ढांचे का अभाव, कुशल श्रम की कमी और ऋण प्राप्त करने की कठिनाइयां आदि शामिल हैं। इसके अलावा, यह क्षेत्र वैश्विक मांग में कमी और चीन जैसे देशों से बढ़ती प्रतिस्पर्धा से भी प्रभावित हुआ है। दूरसंचार सुविधाएं मुख्य रूप से बड़े शहरों तक ही सीमित हैं। अधिकांश राज्य विद्युत बोर्ड घाटे में चल रहे हैं। वे दयनीय स्थिति में हैं। सामान्यतः मध्यम और बड़े पैमाने के औद्योगिक एवं सेवा क्षेत्रों की तुलना में सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों के लिए ऋण तक अनुकूल पहुंच की कमी और कार्यशील पूंजी की उच्च लागत की स्थिति है ।

भारत के विनिर्माण क्षेत्र में प्रशिक्षित और कुशल श्रम की कमी है जो इस क्षेत्र के विकास को सीमित करती है। विनिर्माण क्षेत्र लाइसेंस, निविदाएं और लेखा परीक्षण जैसे कई जटिल विनियमनों के अधीन है। ये व्यवसायों के लिए बोझ हैं और उनके विकास में प्रायः बाधक बनते हैं। इसके अतिरिक्त प्रायः कमजोर या खराब आपूर्ति श्रृंखला प्रबंधन से इस क्षेत्र की लागत में वृद्धि होती है। भारत के विनिर्माण क्षेत्र को अन्य देशों से तीव्र प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है, जिससे घरेलू व्यवसायों के लिए वैश्विक बाजार में प्रतिस्पर्धा करना कठिन हो सकता है। इसके अलावा, भारत अभी भी परिवहन उपकरण, मशीनरी, लोहा एवं इस्पात, कागज, रसायन एवं उर्वरक, प्लास्टिक सामग्री आदि के लिए विदेशी आयात पर निर्भर है।

सड़कों, बंदरगाहों और बिजली आपूर्ति जैसी अवसंरचनाओं की गुणवत्ता एवं उपलब्धता में सुधार लाने से विनिर्माण क्षेत्र में अधिक निवेश और व्यवसायों को आकर्षित करने में मदद मिल सकती है। निर्यात उन्मुख विनिर्माण को प्रोत्साहित करने से भारतीय व्यवसायों को नए बाजारों में प्रवेश करने और उनमें प्रतिस्पर्धा बढ़ाने में मदद मिल सकती है। इसमें नए बाजारों में प्रवेश करने के इच्छुक व्यवसायों के लिए सहायता प्रदान करना और निर्यात उन्मुख विनिर्माण को प्रोत्साहित करने वाली नीतियों को लागू करना शामिल हो सकता है। विनिर्माण क्षेत्र में अनुसंधान एवं विकास का समर्थन करना जरूरी है। हमें नई प्रौद्योगिकियों के अपनाने पर बल देना होगा। शोध और अनुसंधान के लिए धन मुहैया कराना और नई प्रौद्योगिकी अपनाने के लिए प्रोत्साहित करने वाली नीतियों को लागू करना आवश्यक है।

विनिर्माण क्षेत्र में छोटे एवं मध्यम आकार के उद्यमों के लिए ऋण और अन्य प्रकार के वित्तपोषण तक पहुंच को सुगम करने से उनकी वृद्धि तथा विकास में सहायता मिल सकती है। इसमें उन नीतियों को लागू करना जो बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों को विनिर्माण क्षेत्र में लघु मध्यम और सूक्ष्म उद्यमों को ऋण देने के लिए प्रोत्साहित करें। विनियमों को सरल और सुव्यवस्थित करने से व्यवसायों पर बोझ कम करने और विनिर्माण क्षेत्र में अधिक निवेश को प्रोत्साहित करने में मदद मिल सकती है। प्रशिक्षण और कौशल विकास के लिए अधिक अवसर प्रदान करने से विनिर्माण क्षेत्र में कुशल श्रम की कमी को दूर करने में सहायता प्राप्त हो सकती है। इसमें व्यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रमों में निवेश करना या उन नीतियों को लागू करना शामिल हो सकता है, जो व्यवसायों को कर्मचारी प्रशिक्षण में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित करती हों। विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देने की दृष्टि से सरकार, उद्योग जगत, व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्थानों आदि सभी हितधारकों आदि के मिले-जुले प्रयासों की आवश्यकता है।


 Date: 22-03-25

शोषणमुक्त हो भारत

संपादकीय

केंद्र की वर्तमान सरकार का नक्सलमुक्त भारत अभियान अपनी गति पर है। छत्तीसगढ़ के बीजापुर और कांकेर में सुरक्षा बलों के दो अलग- अलग अभियानों में 30 नक्सली मारे गए। गृह मंत्रालय के अनुसार 2025 के इन तीन महीनों में 90 नक्सली मारे जा चुके हैं, 204 को गिरफ्तार किया गया है और 164 ने आत्मसमर्पण किया है। 2024 में 290 नक्सलियों को मार गिराया गया था। 2004 से 2014 के दौरान नक्सली हिंसा की कुल 16,463 घटनाएं हुई थीं। अब मोदी सरकार के कार्यकाल में 2014-24 के बीच नक्सली हिंसा की संख्या 53 फीसद घटकर 7,444 रह गई है। इन आंकड़ों को देखकर लगता है कि गृह मंत्री अमित शाह 31 मार्च, 2026 तक देश से नक्सलवाद को खत्म करने का अपना संकल्प पूरा कर लेंगे। नक्सलवादी आंदोलन की भीतरी स्थिति क्या है, यह मालूम करने के स्रोत सूख गए हैं। अब जिस तरह का माहौल बन गया है, या सरकार ने बना दिया है, उसमें अब कोई भी न तो नक्सलवादियों की जमीनी हकीकत को सामने लाने की स्थिति में है और न उनके विचारधारात्मक पक्ष की वकालत करने की स्थिति में है। सरकार प्रायः जिस अर्बन नक्सलवाद शब्द का प्रयोग करती है और जिन-जिन बौद्धिक या वैचारिक समूहों पर शहरी नक्सलवादी होने का आरोप लगाती है, वे भी वस्तुतः सरकार विरोधी हैं, नक्सलवाद समर्थक कम। यह इस दौर का ठोस यथार्थ है कि नक्सलवाद की जमीन अब खत्म हो गई है। मुख्य धारा का कोई भी राजनीतिक दल या क्षेत्रीय दल दलितों- आदिवासियों के शोषण को अपनी राजनीति के केंद्र में नहीं रखता। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के आदिवासी समूह न केवल बढ़-चढ़ कर चुनावी प्रक्रिया में भाग ले रहे हैं, बल्कि नक्सलवाद को अपने लिए अवरोधक मानकर उसके प्रति तिरस्कार का रुख अपना रहे हैं। इन परिस्थितियों में नक्सलवादियों के लिए शायद यही श्रेष्ठ विकल्प है कि वे अपनी रणनीति बदलें और हथियार छोड़कर देश भर में व्याप्त शोषण और अन्याय के विरुद्ध वैचारिक विमर्श की रणनीति अपनाएं। इससे हो सकता है कि मौजूदा राजनीति को शोषण को समझने और उससे निपटने के लिए एक अधिक प्रभावी दृष्टि उपलब्ध हो।


 Date: 22-03-25

परिसीमन पर घमासान क्यों ?

अरविंद कुमार सिंह

दक्षिण के राज्य तमिलनाडु से 2026 के परिसीमन ‘को लेकर आरंभ हुआ विरोध अब देशव्यापी रूप लेने लगा है। संसद भवन परिसर में 20 मार्च को डीएमके सांसदों ने परिसीमन मुद्दे पर विरोध प्रदर्शन किया और उनको अन्य कई विपक्षी दलों का साथ मिला है। दक्षिणी राज्यों की ओर से मांग उठ रही है कि परिसीमन 2026 की जगह 2031 में कराया जाना चाहिए।

फिलहाल जो तस्वीर दिख रही है, उससे लगता है कि परिसीमन को लेकर उठ रहा सवाल भविष्य में राजनीति का केंद्रबिंदु बनेगा और इसमें दक्षिण ही नहीं, कई अन्य प्रांतों की ओर से भी सवाल उठेंगे जिन्होंने जनसंख्या पर प्रभावी नियंत्रण किया है। पर परिसीमन को लेकर दक्षिणी राज्यों में चिंताएं बाकी प्रांतों से अलग हैं। उनको लगता है कि अगर केवल जनसंख्या को आधार बना पर परिसीमन होगा तो उनकी राजनीतिक शक्तियां सीमित होंगी। उत्तर भारत के वे प्रांत और प्रभावी होंगे जो जनसंख्या में अव्वल हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 82, 170, 330 और 332 के तहत लोक सभा, राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों के निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन को प्रशासित किया जाता है। संविधान में व्यवस्था है कि हर 10 वर्ष पर जनगणना और उससे हासिल आंकड़ों के आधार पर एक दशक में परिसीमन होगा। 1951 से लेकर 1971 के दशक में ऐसा होता रहा। 2001 में निर्वाचन क्षेत्र की सीमाओं का पुनः निर्धारण हुआ पर लोक सभा और राज्य विधानसभाओं में सीटों की कुल संख्या अपरिवर्तित रही, क्योंकि तब भी दक्षिणी राज्यों का मुखर विरोध सामने आया था। अटलजी के प्रधानमंत्रीकाल में 2001 में तय किया गया कि 2026 तक सीटें नहीं बढ़ेंगी।

इस तरह देखें तो मौजूदा सीटें 1971 के आधार पर निर्धारित हैं, जब देश की आबादी केवल 54 करोड़ थी, लेकिन उसमें भी राज्य स्तर पर बहुत सी भिन्नताएं पाई गई हैं। उत्तर प्रदेश को तब भी अधिक प्रतिनिधित्व मिला था जबकि महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु केरल, कर्नाटक और केरल से लेकर हरियाणा तक को निम्न प्रतिनिधित्व मिला था। उस दौरान बाद में जब परिसीमन 25 सालों के लिए रोक दिया गया तो परिकल्पना थी कि 2026 तक उत्तर भारतीय राज्य आबादी पर प्रभावी नियंत्रण कर लेंगे। लेकिन हुआ उलटा दक्षिणी राज्यों ने आबादी पर प्रभावी नियंत्रण किया और यहां तक कि कुछ की जनसंख्या वृद्धि दर नकारात्मक तक गई। पर उत्तरी राज्यों में आबादी में बेलगाम वृद्धि हुई। अब तक 2021 की जनगणना भी नहीं हो सकी है, लिहाजा परिसीमन के लिए 2011 का आधार भी बने तो भी दक्षिणी राज्यों को भारी नुकसान होगा। अभी जो मोटे आंकड़े सामने आ रहे हैं उनके हिसाब से परिसीमन होने पर मौजूदा लोक सभा की 543 सीटों में 200 और इजाफा होगा। कुल 750 सीटें में उत्तर के हिस्से में कुल 400 सीटें हो जाएंगी, जबकि मौजूदा दक्षिण भारत की 129 सीटों में महज 10 से 12 की वृद्धि हो सकेगी। लोक सभा की सीटें अगर 888 होंगी तो सबसे बड़ा फायदा उत्तर प्रदेश को ही मिलेगा, जो पहले से ही देश का भाग्यविधाता राज्य बना हुआ है।

अगर पैमाना 2026 की आबादी का आंकड़ा हो तो उत्तर प्रदेश की सीटें 80 से बढ़ कर 143 हो जाएंगी जबकि बिहार की 79, महाराष्ट्र की 76, कर्नाटक की 41, तमिलनाडु 49 | आलम यह होगा कि केरल की एक भी सीट नहीं बढ़ेगी। इसलिए तमिलनाडु राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बनता जा रहा है। वहां के मुख्यमंत्री स्टालिन ने मुख्यमंत्रियों और राजनीतिक दलों के नेताओं की 22 मार्च को बैठक बुलाई है जिसमें कई दलों के नेताओं का प्रतिनिधित्व होगा। उन्होंने पहले भी प्रस्तावित मुख्यमंत्रियों और प्रमुख दलों के नेताओं से परिसीमन प्रक्रिया का विरोध करने हुए राज्यों के समर्थन मांगा है। इसके पहले इसी माह चेन्नई में सर्वदलीय बैठक में बहुत से सवालों पर मंथन हुआ। 2026 तक देश की आबादी 142 करोड़ होगी। उस हिसाब से विभिन्न राज्यों में सीटों की कैसी वृद्धि होती है, यह भविष्य का सवाल है। पर सबसे अधिक फायदा उत्तर प्रदेश को होगा। फिर भी मोदी सरकार ने नये संसद भवन में सांसदों को बैठने के लिए लोक सभा चैंबर में 888 और राज्य सभा में 384 सीटों को भविष्य के हिसाब तैयार करा दिया है। पुराने भवन में लोक सभा चैंबर में 545 और राज्य सभा में 245 सीटें थीं। संविधान के तहत तहत 17 अप्रैल, 1952 को जब पहली लोक सभा का विधिवत गठन हुआ था तब सांसदों की संख्या 499 थी। सातवें संविधान संशोधन अधिनियम, 1956 के तहत तब सांसदों की अधिकतम संख्या उस दौरान पांच सौ तय हुई थी जो 31वें संविधान संशोधन 1973 में बढ़ा कर 525 हुई। फिर गोवा, दमण और दीव पुनर्गठन के बाद 530 हुई। फिलहाल राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों 543 लोक सभा सांसद हैं। राज्य सभा सांसदों की संख्या 1952 में 204 तय हुई थी जो 1966 में बढ़कर 228 और 1987 में 233 होते हुए फिलहाल 245 है। इसमें 12 सासंद राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत हैं।

अब सवाल कई हैं। जैसे सरकार किस साल की जनगणना को आधार बना कर सीटों का परिसीमन कराएगी। परिसीमन आयोग इसके लिए बनाना होगा जो तय मानकों के हिसाब से सीटों की संख्या का राज्यवार निर्धारण करेगा, जिसकी संविधान संशोधन विधेयक के माध्यम से संसद के दोनों सदनों में दो तिहाई के बहुमत के साथ मंजूरी दिलानी होगी। 2023 में भावी परिसीमन को लेकर लोक सभा में कुछ सवाल उठे थे जिसका सरकार ने गोल मोल जवाब दिया था। संख्या या आयोग के बारे में कोई सटीक जानकारी नहीं दी गई थी। मई, 2023 में एम के स्टालिन ने 20 दलों को एक साथ जुटा कर जातिगत जनगणना के पक्ष में काफी माहौल बनाया था। 2024 के लोक सभा चुनाव में सामाजिक न्याय का मुद्दा प्रमुखता से उठा था। इस बार परिसीमन का मुद्दा अहम बनने जा रहा है। हालांकि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह फरवरी में ही कह चुके हैं कि दक्षिणी राज्यों को कोई नुकसान नहीं होगा, पर सरकार अभी तक किसी ठोस प्रस्ताव तक नहीं पहुंची है। इस कारण बहुत से मुद्दे अभी उठेंगे और राजनीति गरमाएगी।