22-03-2023 (Important News Clippings)

Afeias
22 Mar 2023
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Date:22-03-23

Watering Holes

IPCC & House committee reports are reminders on changing water use patterns. But it’s a political challenge.

TOI Editorials

Two recent reports, one from IPCC and the other by a parliamentary standing committee, flagged India’s freshwater challenge. The IPCC report synthesised the science on climate change. Global warming, a dimension of climate change, has crosseda danger mark. IPCC’s synthesis report said that warming is now 1. 1°C above pre-industrial level. Some of the recent research identified 1. 5°C as a climate tipping point, but even at the current level of warming the incidence of extreme climate events is rising.

An important aspect of IPCC’s synthesis report is the impact of climate change on freshwater ecosystems. India, which has swathes subject to severe water stress, needs to pay particular attention. The parliamentary committee report on groundwater tabled in Lok Sabha this week has excellent data. Groundwater meets 67% of irrigation needs and is the source of 80% of drinking water. About 89% of the annual groundwater extraction of 218 billion cubic metres is for irrigation.

Therefore, a more rational use for irrigation will go a long way in conserving groundwater resources. Water is a state subject. However, its usage for irrigation is influenced by the overlap of GoI crop procurement policies and states’ approach to electricity subsidies. Consequently, the solution needs to be found jointly. Consider the pattern of irrigation. Two crops, paddy and sugarcane, corner more than 60% of irrigation supply. Among the three states where groundwater is overused are Punjab and Haryana. Both are critical to India’s food security, with Punjab contributing significantly to paddy, a crop it’s not suited for.

Farmers are responding to incentives such as free power and MSP. Agricultural policy needs to be calibrated to match crops to an appropriate agro-climatic zone. This will require a more region-specific approach by GoI, with states realigning subsidies to ensure India uses its groundwater better. All of that means politics has to think beyond usual headline goals like total farm output and total farmer subsidy, and look at many more variables – a process that’s bound to anger some powerful blocs. And that’s the biggest challenge.


Date:22-03-23

Bring Anime Energy To an Old Friendship

ET Editorials

Japanese Prime Minister Fumio Kishida’s visit to India marks an important moment in the relationship between the two Asian nations. Agreeing to strengthen cooperation in security, trade and technology, and a closer partnership to ensure a rulesbased free and open Indo-Pacific region were the two prongs of Kishida’s visit. The Japanese prime minister put funds where intentions are by announcing $75 billion to bolster Japan’s Free and Open Indo-Pacific (FOIP) policy.

The ties between the two countries are historical and diverse — and, for most part, undervalued. But, now, they are getting forward-looking. Historically, India’s close ties with the Soviet Union put some amount of brakes in evolving Japanese-Indiaties that had evolved over centuries. The ‘Look East Policy’ developed by Prime Minister P V Narasimha Rao and then taken forward by Prime Minister Atal Bihari Vajpayee led to a real engagement with Japan. With PM Narendra Modi, India and a post-Shinzo Abe is making up for lost ground. Both democracies understand the danger that China poses, especially as it implements an aggressive foreign policy. Japan, remember, is the only other country that experiences China’s push for territory, making its relationship also defined by entanglement and contestation.

This explains why Kishida chose New Delhi to announce FOIP, a plan that includes mobilising finances and assistance for emerging economies, support for maritime security, and other infrastructure cooperation. Only a fraction of the immense potential of an India-Japan ‘indispensable partnership’ has been realised, especially in trade and investment. With Japan heading G7 and India G20, the increased engagement will have ramifications that go beyond the region and the two nations.


Date:22-03-23

कृषि नीति ऐसी बनाएं जिस पर अमल भी हो सके

संपादकीय

मंडियों में गिरती कीमतों को लेकर महाराष्ट्र का प्याज उत्पादक आंदोलन कर रहा है और यूपी का आलू उगाने वाला किसान अवसाद में है। जबकि कर्नाटक / महाराष्ट्र के बड़े भाग का खेतिहर यह नहीं समझ पा रहा है कि अगर वे कोलार और जुन्नार मंडियों में अपना टमाटर सात-आठ रुपए किलो बेचने को मजबूर है तो वही टमाटर बेंगलुरु और पुणे में 30 रुपए किलो क्यों बिकता है? सन् 2016 से किसानों की आय दूनी करने की घोषणा के बाद वर्ष 2018-19 में मोदी सरकार ने ऑपरेशन ग्रीन्स घोषित किया था, जिसके तहत टॉप (टोमेटो, अनियन और पोटैटो ) योजना शुरू हुई थी, ताकि इनकी कीमतों को बेजा उतार-चढ़ाव से बचाया जा सके। तीन वर्ष बाद टॉप का विस्तार टोटल के रूप में करते हुए अन्य सब्जियों और फलों के साथ कुछ और जिंसों को भी इसमें शामिल किया गया। लेकिन पांच साल बीतने के बाद भी चालू वर्ष में तीनों प्रमुख सब्जियों के भाव मंडियों में जमीन पर हैं। उधर दूध के दाम लगातार बढ़ रहे हैं क्योंकि उत्पादन गिर रहा है। पशुओं के चारे, खासकर भूसे की कीमत अचानक इतनी बढ़ गई है कि किसान दुधारू पशुओं को भी चारा देने में असमर्थ हो रहे हैं। अनाज की कीमतें बढ़ती हैं तो महंगाई के नाम पर सरकारें असहज होने लगती हैं क्योंकि यह राजनीतिक मुद्दा बन जाता है। गेहूं निर्यात पर रोक की तरह सरकार को चारे पर भी सब्सिडी ऐलान करनी चाहिए।


Date:22-03-23

साजिश के चश्मे से राजनीति को देखने की समस्याएं

अभय कुमार दुबे, ( अम्बेडकर विवि, दिल्ली में प्रोफेसर )

राजनीतिक समीक्षा का एक लोकप्रिय पहलू साजिश का चश्मा लगाकर नेताओं, पार्टियों और राजनीतिक घटनाक्रम की समझ बनाने से जुड़ा है। कोई कभी भी आपके कान में फुसफुसाकर कह सकता है कि अमुक नेता अमुक की जड़ काटने में लगा है। अगर आप इस खबर का प्रमाण मांगेंगे तो बदले में केवल एक अर्थपूर्ण मुस्कराहट मिलेगी। साजिश के चश्मे से देखने पर देश में हो रही हर घटना में विदेशी हाथ दिखाई पड़ सकता है। एक जमाने में जाने कितने नेताओं, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों और संगठनों को या तो सीआईए का एजेंट कहा जाता था या केजीबी का। वह शीतयुद्ध का युग था और ऐसा कहने के लिए किसी को सबूत देने की जरूरत नहीं होती थी। यही कारण है कि इस रवैये की आलोचना करने के लिए पीलू मोदी को गले में तख्ती लटकाकर संसद आना पड़ा था। तख्ती पर लिखा था- मैं सीआईए एजेंट हूं।

हाल ही में भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता हरीश खुराना ने एक बयान देकर साजिशों के बाजार को नए सिरे से गर्म कर दिया है। जैसे ही पूर्व-उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया का बंगला नई शिक्षा मंत्री आतिशी को आबंटित हुआ, वैसे ही उन्होंने अंदेशा व्यक्त कर दिया कि कहीं अरविंद केजरीवाल अपने प्रमुख सहयोगी से पल्ला छुड़ाने की कोशिश तो नहीं कर रहे हैं। बस, फिर क्या था। मीडिया इसे ले उड़ा और इस कयास में हकीकत के काल्पनिक रंग भरे जाने लगे। अगर षड्यंत्र-सिद्धांत (कॉन्स्पिरेसी थ्योरी) को दरकिनार कर दिया जाए तो इस घटना को इस तरह भी समझा जा सकता था कि जिस शिक्षा विभाग का कामकाज देखने की जरूरतों के तहत मनीष को यह बंगला मिला था, उन्हीं जरूरतों के तहत इसे नए शिक्षा मंत्री को आबंटित किया जा रहा है। ध्यान रहे कि दिल्ली में सत्ता से वंचित हो जाने वाले नेता सालों-साल बंगला आदि की सुविधाओं को भोगते रहते हैं। इसके कई उदाहरण हैं। बजाय इसके कि इसकी तारीफ की जाती, इसमें साजिश का कोण ढूंढ लिया गया।

बहरहाल, यह कोई पहली बार नहीं हुआ है। एक राजनीतिक समीक्षक के रूप में मैं न जाने कबसे इस तरह की फुसफुसाहटें सुन रहा हूं कि अमित शाह नरेंद्र मोदी को धोखा देने वाले हैं या नरेंद्र मोदी अमित शाह के बढ़ते रुतबे से सशंकित हैं। मैंने तो यह भी सुना है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ और अमित शाह के बीच छत्तीस का आंकड़ा बन चुका है। मुझे यह भी बताया गया है कि सरकार के कई कदमों के पीछे अमेरिका या अन्य अंतरराष्ट्रीय ताकतों का हाथ है। मैंने कभी इन बातों पर यकीन नहीं किया। न ही मैं अपनी समीक्षा में इन्हें कोई तरजीह देता हूं। दरअसल यह सब दिमाग पर जोर डालने से बचने की कोशिश के सिवा कुछ और नहीं है। मेरा मानना रहा है कि राजनीतिक यथार्थ तक पहुंचना है तो सामाजिक और राजनीतिक शक्तियों के बनते-बिगड़ते संतुलन पर निगाह रखी जानी चाहिए। कॉन्स्पिरेसी थ्योरी थोड़ी देर के लिए आपका मनोरंजन कर सकती है और कुछ नहीं। यह बात सही है कि साजिशें राजे-महाराजाओं के जमाने में निर्णायक भूमिका अदा करती थीं। पर आज के जमाने में वे केवल उर्वर दिमागों की उपज रह गई हैं।

इन साजिशों की बातों पर जाएं तो संघ न जाने कब से मोदी को गिराने का षड्यंत्र कर रहा है। इसी तरह राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के बीच मतभेदों की खबरें जाने कितनी बार उड़ाई जा चुकी हैं। जब प्रियंका राजनीति में खुलकर नहीं आई थीं तो यही कहा जाता था कि राहुल उन्हें नहीं आने दे रहे हैं। जब प्रियंका राजनीति में आ चुकी हैं तो अब इस बात को कोई याद नहीं कर रहा है।

इसी तरह एक बहुत बड़ी कॉन्स्पिरेसी थ्योरी ईवीएम हैक करने के अंदेशों की है। चुनाव आयोग को इससे टकराना पड़ा है। लेकिन इसका अंत होते हुए नहीं दिखाई देता। मेरा ख्याल है कि यह भी भाजपा की जीत के सामाजिक-राजनीतिक कारणों का विश्लेषण न कर पाने में विफलता का परिणाम है। राजनीति के आसमान में साजिश उसी तरह से प्रकट होती है, जैसे कभी अंतरिक्ष में उड़नतश्तरियां प्रकट होती थीं। न उड़नतश्तरियों का कोई प्रमाण मिला, न ही इन राजनीतिक साजिशों का। याद रखना चाहिए कि साजिश के चश्मे से राजनीति को देखने वाले हमेशा गलत आकलनों तक पहुंचते हैं।


Date:22-03-23

पंजाब की चुनौती

संपादकीय

पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट ने यह सही प्रश्न पूछा कि आखिर खालिस्तान समर्थक और वारिस पंजाब दे संगठन का सरगना अमृतपाल सिंह पुलिस को चकमा देकर भाग कैसे गया? हाई कोर्ट ने इस पर भी अपनी नाखुशी प्रकट की कि जब अमृतपाल देश की सुरक्षा के लिए खतरा बन गया था तो फिर समय रहते उसके खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं की गई? भले ही पंजाब पुलिस कह रही है कि वह जल्द ही भगोड़े अमृतपाल को पकड़ लेगी, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि तीन दिन बीत गए हैं और वह खाली हाथ है। पुलिस को न केवल अमृतपाल तक पहुंचना होगा, बल्कि उसके समर्थकों तक भी। संभव है कि वह पुलिस से बचने में इसीलिए समर्थ हो, क्योंकि उसे छिपाने वाले सक्रिय हो गए हैं। पंजाब में ऐसे तत्वों की संख्या इसीलिए बढ़ी है, क्योंकि अमृतपाल के खिलाफ समय पर कार्रवाई नहीं की गई। वह पिछले करीब छह माह से कानून एवं व्यवस्था को चुनौती देने के साथ युवाओं को उकसाने और वैमनस्य पैदा करने में लगा हुआ था। समझना कठिन है कि उसे यह सब करने की छूट कैसे मिली हुई थी और वह भी तब, जब वह हथियार और हिंसा की बात कर रहा था? उसने हथियारबंद लोग भी एकत्रित कर लिए थे और उन्हीं के बल पर वह एक थाने में धावा बोलने में समर्थ रहा। कायदे से इस घटना के बाद ही उसके खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए थी, लेकिन पता नहीं क्यों इसमें देरी की गई? इस देरी के दुष्परिणाम से बचना है तो अमृतपाल की गिरफ्तारी जल्द करनी होगी। इसके साथ ही उसके समर्थकों पर भी निगाह रखनी होगी और उन तत्वों पर भी, जो माहौल बिगाड़ने में लगे हुए हैं। ऐसे ही तत्वों के कारण पंजाब के कई स्थानों पर इंटरनेट सेवाओं को बाधित करना पड़ा है।

पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान की मानें तो विदेशी ताकतों के साथ मिलकर माहौल खराब करने वालों को पकड़ लिया गया है, लेकिन अभी उनकी चुनौती खत्म नहीं हुई है। पहली चुनौती तो फरार अमृतपाल को पकड़ना है और दूसरी, अन्य अतिवादी एवं अलगाववादी तत्वों पर लगाम लगाना। यह इसलिए आसान नहीं, क्योंकि पंजाब में कई राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक समूह ऐसे हैं, जो दबे-छिपे स्वर में अमृतपाल जैसे तत्वों के पक्ष में बयानबाजी करते रहते हैं। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि ऐसे तत्व अमृतपाल की निंदा करने के लिए तैयार नहीं। चूंकि पंजाब से अधिक खालिस्तान समर्थक देश से बाहर और विशेष रूप से कनाडा, आस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, अमेरिका आदि देशों में नजर आ रहे हैं, इसलिए पंजाब सरकार के साथ भारत सरकार को भी सतर्क रहना होगा। ये खालिस्तान समर्थक इंटरनेट मीडिया के माध्यम से दुष्प्रचार में जुट गए हैं। उनका दुस्साहस इतना अधिक बढ़ा हुआ है कि वे भारतीय राजनयिक केंद्रों को भी निशाना बना रहे हैं।


Date:22-03-23

व्यापक साझेदारी

संपादकीय

भारत और जापान के रिश्तों की गहराई और व्यापकता को देखते हुए जापान के प्रधानमंत्री फुमिओ किशिदा की भारत यात्रा काफी महत्वपूर्ण है। आर्थिक क्षेत्र में दोनों देशों का रिश्ता ऐतिहासिक रूप से मजबूत रहा है। जापान की कंपनियों ने भारत में भारी भरकम निवेश किया है और जापान की एजेंसियां अधोसंरचना विकास के लिए वित्तीय मदद मुहैया कराने में भी अग्रणी रही हैं। जापान के लिए भारत एक अहम आर्थिक और भू-आर्थिक साझेदार है। हालांकि जापान के नीति निर्माताओं को इस बात से बुरा भी लगा कि भारत ने न केवल क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी में शामिल होने से इनकार कर दिया बल्कि उसने हिंद-प्रशांत आर्थिक ढांचे के व्यापार संबंधी हिस्से को लेकर भी ठंडा रुख अपनाए रखा। भारतीय नीति निर्माताओं को अपने जापानी समकक्षों को प्राथमिकता के साथ इस बात को समझाना चाहिए कि आर्थिक साझेदारी को केंद्र में रखते हुए व्यापार और खुलेपन को लेकर उनका नया रुख क्या है।

इसके बावजूद दोनों देशों के पड़ोस को देखते हुए रिश्ते के रणनीतिक हिस्से में भी बीते दशकों में खासी बढ़ोतरी हुई है। खासतौर पर उस समय से जबसे दिवंगत शिंजो अबे और सत्ताधारी लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी ने राजनीति पर दबदबा कायम किया था। किशिदा को अबे की तुलना में अधिक उदारवादी माना जाता है। लेकिन व्यवहार में उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री की विदेश नीति को जारी रखा है जो आमतौर पर ‘मुक्त और खुले हिंद प्रशांत क्षेत्र’ के इर्दगिर्द है। यह विदेश नीति इस क्षेत्र में अमेरिका को सुरक्षा की गारंटी देने वाला अहम देश मानती है। परंतु इसके साथ ही वह जापान, आसियान और भारत को भी अपनी सामूहिक सुरक्षा और चीन से निपटने की दृष्टि से अहम मानती है। किशिदा भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भी इस क्षेत्र को स्थिर बनाने में साझा हित है क्योंकि चीन की आक्रामकता के कारण यह क्षेत्र लगातार अस्थिर बना हुआ है।

भारत और जापान इस वर्ष क्रमश: जी20 और जी7 के अध्यक्ष हैं। भारत को इस वर्ष टोक्यो में आयोजित होने जा रही जी7 शिखर बैठक में बतौर पर्यवेक्षक आमंत्रित किया गया है। दोनों समूहों के बीच सहयोग अनिवार्य है। विकास और सुरक्षा दोनों मोर्चों पर यह सहयोग जरूरी है। हाल ही में जी7 ने जलवायु फाइनैंसिंग और ट्रांजिशन यानी कम उत्सर्जन की दिशा में बदलाव की फाइनैंसिंग को लेकर जो प्रस्ताव रखे हैं तथा विश्व बैंक जैसे बहुपक्षीय विकास बैंकों में सुधार को लेकर जो भी कुछ कहा है, उनके बारे में जी20 को ही निर्णय लेना होगा तभी वह अपनी पकड़ बना सकेगा। जी7 यह भी मानता है कि पर्यावरण की दिशा में व्याप्त गतिरोधों और व्यापार के खुलेपन को लेकर भविष्य में जो भी अंत:संबंध कायम होने हैं उन्हें ‘जलवायु क्लबों’ के माध्यम से अंजाम देना होगा जहां विभिन्न देश अगर उत्सर्जन को लेकर एक समान रुख अपनाते हैं तो व्यापारिक गतिरोध कमतर है। यह भी एक ऐसा सवाल है जिसे भारत की अध्यक्षता वाले जी20 को संबोधित करना होगा। भारत इस बात से अवगत है कि सितंबर में होने वाली बैठक में कम से कम उतना सामंजस्य तो दिखाना होगा जितना कि बाली में गत वर्ष इंडानेशिया की अध्यक्षता में नजर आया था। रूस द्वारा यूक्रेन पर आक्रमण किए जाने को लेकर व्याप्त मतभेद तब से अब तक और अधिक गहरे हो गए हैं। चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग की ताजा मॉस्को यात्रा से भी यह बात साबित होती है। जी7 के अध्यक्ष के रूप में जापान एक अहम साझेदार है जो यह सुनिश्चित करने में मदद कर सकता है कि जी20 के अमीर देश युद्ध से इतर अन्य मुद्दों पर सहमति बनाने के क्रम में भारत के प्रयासों के साथ हैं। किशिदा भारत से कीव की अघोषित यात्रा पर गए हैं। इससे पता चलता है कि सुरक्षा मसलों को लेकर जापान कितना सक्रिय है।


Date:22-03-23

साझेदारी का सफर

संपादकीय

जापान के प्रधानमंत्री के ताजा भारत दौरे में एक बार फिर दोनों देशों के बीच सहयोग का सफर और आगे बढ़ा है। हालांकि जापान के साथ भारत के संबंध पहले भी आपसी सहयोग पर आधारित और सहज रहे हैं, लेकिन समय-समय पर होने वाले शिखर सम्मेलनों में इसे और मजबूती मिलती रही है। सोमवार को दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों के बीच हुई बातचीत में सबसे अहम पहलू वैश्विक रणनीतिक साझेदारी के विस्तार का संकल्प है, जिसे शांतिपूर्ण, स्थिर और समृद्ध हिंद-प्रशांत के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण कहा जा सकता है। साथ ही, हाल के वर्षों में द्विपक्षीय संबंधों में हुई प्रगति समीक्षा और रक्षा उपकरण सहित प्रौद्योगिकी सहयोग, व्यापार, स्वास्थ्य और डिजिटल साझेदारी पर विचारों का आदान-प्रदान दरअसल वक्त की जरूरत है। यह छिपा नहीं है कि बीते कुछ समय से विभिन्न स्तर पर चीन की ओर से जारी गतिविधियों की वजह से हिंद- प्रशांत क्षेत्र में कैसी चुनौतियां खड़ी हो रही हैं भारत के सामने वक्त रहते इस जटिलता को समझना और उसी मुताबिक अपने हित में कदम उठाना कई वजहों से जरूरी है। जापान के प्रधानमंत्री ने भी यह स्वीकार किया कि इस क्षेत्र में शांति और स्थिरता के लिए भारत अपरिहार्य है।

आधुनिक तकनीकी और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में जापान का दखल जगजाहिर रहा है। हालांकि अपनी क्षमता होने के बावजूद भारत को इसका अतिरिक्त लाभ मिलता रहा है, लेकिन रणनीतिक मोर्चे पर भी जापान के साथ सहयोग में मजबूती लाने की कोशिशों के संकेत समझे जा सकते हैं। यों भारत की ओर से यह स्पष्ट किया गया है कि दोनों देशों के बीच विशेष रणनीतिक और वैश्विक साझेदारी साझा लोकतांत्रिक मूल्यों और अंतरराष्ट्रीय पटल पर कानून के सम्मान पर आधारित है। पिछले कुछ सालों से वैश्विक परिदृश्य जिस तरह बदल रहा है, उसमें अलग-अलग देशों के बीच खड़े होने वाले नए समीकरणों का सिरा भविष्य में बनने वाली दुनिया से जुड़ा हुआ है। साफ देखा जा सकता है। कि महाशक्ति माने जाने वाले से लेकर विकासशील देशों के बीच बहुस्तरीय सहयोग के नए ध्रुव बन रहे हैं और इस दिशा में अमूमन सभी देश सक्रिय हैं। इस बीच अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक जगत में भारत की जैसी जगह बनी है, उस पर दुनिया के तमाम देशों की निगाह टिकी हुई है। इस लिहाज से देखें तो जापान के साथ प्रौद्योगिकी और व्यापार सहित अन्य संबंधों की जमीन को और मजबूत करने के साथ-साथ रणनीतिक साझेदारी पर आगे बढ़ना भारत के लिए वक्त का तकाजा भी है।

इसके अलावा, दुनिया तेजी से जिस तकनीक आधारित व्यवस्था की ओर बढ़ रही है, उसमें नई या आधुनिक प्रौद्योगिकी की अहमियत का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। खासतौर पर तकनीक आधारित व्यवस्था में माइक्रोचिप पर निर्भरता जिस कदर बढ़ने वाली है, उसके मद्देनजर सेमीकंडक्टर और अन्य अहम प्रौद्योगिकियों में विश्वस्त आपूर्ति श्रृंखला के महत्व पर भारत और जापान के बीच हुई बातचीत की उपयोगिता समझी जा सकती है। इस संदर्भ में देखें तो तकनीक और निवेश के लिहाज से जापान की एक खास जगह है, लेकिन सेमीकंडक्टर के मामले में भारत की कोशिश अब पूरी तरह आत्मनिर्भर होने की है। यह बेवजह नहीं है कि जापानी प्रधानमंत्री ने नई दिल्ली के साथ सहयोग तेजी से बढ़ने के साथ-साथ जापान के लिए भी महत्त्वपूर्ण आर्थिक अवसर पैदा होने की उम्मीद जताई। फिलहाल जापान जी – 7 और भारत जी-20 की अध्यक्षता कर रहा है। वैश्विक स्तर पर राजनीतिक और आर्थिक मोर्चों पर इन दोनों समूहों की जो भूमिका है, उसमें स्वाभाविक ही यह विचार का केंद्रीय बिंदु है कि आने वाले वक्त में अंतरराष्ट्रीय समुदाय में भारत और जापान को क्या भूमिका निभानी चाहिए।


Date:22-03-23

मनुष्य बनाम वन्यजीव

संपादकीय

देश के अलग-अलग राज्यों के वन क्षेत्रों और उसके आसपास बसी इंसानी बस्तियों से तेंदुए या बाघ के हमले में लोगों के मारे जाने की खबरें अक्सर आती रहती हैं। आम लोगों के सामने अपने स्तर पर बचाव के उपाय करने से लेकर सरकार से सुरक्षात्मक और वैकल्पिक इंतजाम करने की फरियाद करने के अलावा और कोई चारा नहीं होता है। दूसरी ओर, वन्यजीवों के संरक्षण से जुड़े कई प्रश्न भी बेहद अहम हैं, जिनके चलते कई बार इस समस्या का कोई ठोस हल निकालना मुश्किल होता है। लेकिन बाघ या तेंदुए के इंसानी बस्तियों में आ जाने या उनके हमले की वजह से होने वाली मौतें लगातार चिंता का विषय बनती गई हैं। महाराष्ट्र में सोमवार को राज्य के वन मंत्री ने विधानसभा में बताया कि वहां चंद्रपुर जिले में अकेले पिछले साल बाघों और तेंदुओं के हमले में तिरपन लोगों की मौत हो गई। हालांकि इस दौरान अलग-अलग घटनाओं में चौदह बाघों के अलावा भालू और मोर सहित पचास से ज्यादा अन्य वन्यजीव भी मारे गए। जाहिर है, वन्यजीवों और मनुष्य के बीच जीवन की स्थितियों में बदलाव और टकराव के चलते अब ऐसे हालात पैदा होने लगे हैं कि नाहक जान जाने की घटनाओं की निरंतरता बढ़ने लगी है।

दरअसल, वक्त के साथ बढ़ती आबादी या अन्य वजहों से जंगल के आसपास के गांवों में रिहाइशी इलाकों का विस्तार हुआ है। इससे वन क्षेत्रों का दायरा कम होता गया है और जंगली पशुओं के प्राकृतिक पर्यावास के क्षेत्र सिमटते गए हैं। इसका सीधा असर वन्यजीवों के जीवन पर पड़ता है और उसमें बाघ या तेंदुए जैसे पशुओं के लिए भोजन से लेकर अधिवास तक के मामले में असहज स्थितियां पैदा होती हैं। इसके अलावा, वनों में अवैध शिकार करने वालों की वजह से भी संरक्षित पशुओं के सामने संकट खड़ा होता है पारिस्थितिकी और जैव विविधता की कसौटियों और अनिवार्यताओं को समझने वाले तमाम लोग यह जानते हैं कि एक ओर जहां मनुष्य का जीवन अनमोल है, वहीं पशुओं और खासतौर पर कुछ विलुप्तप्राय जीवों का संरक्षण प्राकृतिक संतुलन के लिए कितना जरूरी है। लेकिन इस मामले में सरकार से लेकर आम लोगों तक की लापरवाही अलावा अवैध रूप से जानवरों का शिकार करने वाले गिरोहों की ओर से जंगल और उसके आसपास के इलाकों में ऐसे दबाव पैदा हो रहे हैं कि उसमें रहने वाले कई पशुओं के भीतर असुरक्षा की स्थिति में आक्रामक प्रवृत्ति में बढ़ोतरी हो रही है।

हालांकि वन्यजीव खुद ही अपने लिए सहज और प्राकृतिक पर्यावास की ओर रुख करते हैं। लेकिन इस क्रम में उनका सामना इंसानी आबादी से होता है। बचाव की कोशिश में हुए संघर्ष की वजह से नाहक ही जान जाने के हालात पैदा होते हैं। कभी जंगली इलाकों का दायरा बड़ा था और इंसानी बस्तियों की भी सीमा थ। तब मनुष्य और पशु, दोनों को अपनी जीवन स्थितियों में एक दूसरे से बहुत बाधा नहीं आती थी। लेकिन बढ़ती आबादी के साथ कृषि भूमि का विस्तार, शहरीकरण और औद्योगीकरण में वृद्धि के मकसद से जंगलों की कटाई की वजह से वनक्षेत्र सिकुड़ते गए। इसकी वजह से बाघ, तेंदुआ और हाथी जैसे कुछ पशुओं के अक्सर इंसानी बस्तियों की ओर चले जाने और मनुष्यों पर हमले की घटनाएं बढ़ीं। जरूरत यह है कि जंगल क्षेत्रों के आसपास रहने वाली इंसानी आबादी को वन्यजीवों की प्रकृति और पारिस्थितिकी संतुलन में उनकी अनिवार्यता के बारे में जागरूक किया जाए और साथ ही इंसानों के जीवन के लिहाज से खतरनाक पशुओं के लिए सुरक्षित अभयारण्यों को और बेहतर बनाया जाए।


Date:22-03-23

दोस्ती का दम

संपादकीय

लगाव और रिश्तों की जो समझ जापान और भारत के बीच दिखती है, वैसा कुछ ही देशों के साथ परवान चढ़ता है। भारत दौरे पर आए जापान के प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा और भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की द्विपक्षीय बातचीत में संबंधों की प्रगाढ़ता परिलक्षित होती है। क्षेत्रीय मसलों खासकर हिंद-प्रशांत क्षेत्र में शांति को लेकर दोनों देशों की सोच काफी स्पष्ट है। दोनों देशों के नेताओं के बीच हिंद-प्रशांत क्षेत्र की समृद्धि और स्थिरता संबंधी चुनौतियों से निपटने की रणनीति पर भी विस्तृत चर्चा हुई। दरअसल, हिंद-प्रशांत के इलाके में चीन की दादागीरी को लेकर न केवल भारत और जापान परेशान और चिंतित हैं, बल्कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र के बाकी देश भी चिंतातुर हैं। चीन की विस्तारवादी सोच की वजह से यह इलाका हाल के वर्षों में सुर्खियों में रहा है, और यहां हलचल बढ़ी हैं। जबकि भारत और जापान की सोच यह है कि इस इलाके में चीन की बेवजह की घुसपैठ और रोक-टोक न हो। भारत की मंशा शुरू से यह रही है कि यह इलाका समृद्ध हो । लिहाजा, यहां मौजूद संसाधनों का इस्तेमाल सकारात्मक रूप से और क्षेत्र के छोटे देशों की बेहतरी के लिए किया जाए। चूंकि जापान हिंद-प्रशांत क्षेत्र का सबसे महत्त्वपूर्ण देश है; इसलिए उसकी यहां बड़ी भूमिका है। भारत का साथ मिलने से निश्चित तौर पर जापान का आत्मविश्वास बढ़ेगा और वह यहां की समृद्धि को और ज्यादा व्यापक स्वरूप दे सकेगा। हिंद-प्रशांत क्षेत्र पिछले एक दशक में अंतरराष्ट्रीय भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक वातावरण में बदलाव के कारण बढ़े हुए फोकस का क्षेत्र रहा है। यह प्रतिस्पर्धा और सहयोग के क्षेत्र के रूप में उभरा है। महामारी के कारण कई चुनौतियों और अवसरों बढ़ाया गया है, जिनमें नियम-आधारित आदेश की आवश्यकता, व्यापार और आपूर्ति श्रृंखलाओं को फिर से संतुलित करना, बहुपक्षीय संस्थानों की कमजोरियों को संबोधित करना और वैक्सीन इक्विटी शामिल हैं। इस क्षेत्र में भारत की बेहद अनूठी स्थिति है। इस कारण हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन के बढ़ते दखल समेत कई समस्याओं का हल भारत कर सकता है। इस वजह से क्वाड में भारत का महत्त्व अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया से ज्यादा हो जाता है। निश्चित रूप से चीन के दबदबे की काट है भारत । निश्चित तौर पर दोनों देशों की दोस्ती न केवल नया आयाम गढ़ेगी, बल्कि वैश्विक संबंधों को भी नये सिरे से परिभाषित करेगी।


Date:22-03-23

धरती के पेट में अब लौटा दो पानी

राजेंद्र सिंह, ( जलविद् और सामाजिक कार्यकर्ता )

आज पूरी दुनिया में व्यापक जल संकट है। भारत में एक तरफ ग्लेशियर का पिघलना और दूसरी तरफ बाढ़-सुखाड़ का बढ़ना आम होता जा रहा है। आमतौर पर नदियों में पानी घट रहा है। ग्लेशियर जब पिघलता है, तो ऊपर नदियों के उद्गम के पास ही लोग उसका उपयोग कर लेते हैं। ग्लेशियरों के पिघलने के कारण हमारे समुद्र पर भी उसका दुष्प्रभाव पड़ रहा है। नदियों में जो सतत प्रवाह है, उसमें भी धीरे-धीरे संकट बढ़ता जा रहा है। जल स्रोत संकट में आते जा रहे हैं। यह जो जल स्रोत का संकट है, उससे बचने के उपाय भी बहुत साफ हैं। जहां ग्लेशियर पिघल रहे हैं, उनके आसपास जंगलों का होना जरूरी है। जंगल नहीं होते हैं, तो सूरज से आने वाली लाल गरमी वहां का तापमान बढ़ा देती है और उस तापमान के चलते ग्लेशियर और तेजी से पिघलकर नीचे आने लगते हैं। जब वहां जंगल होते हैं, तो सूरज से आने वाली गरमी से धरती तपती नहीं है, उसे बुखार नहीं चढ़ता। ऐसा होने पर मौसम का मिजाज नहीं बिगड़ता है। ग्लेशियर के आसपास के इलाकों में हरियाली बढ़ाना अब बहुत जरूरी है, इन इलाकों में होने वाले कटाव को भी रोकना चाहिए।

हम अगर ग्लेशियरों को पिघलने से रोकना चाहते हैं, तो हम भारतीयों को कम से कम यह सोचना होगा कि जहां आज ग्लेशियर पिघल रहे हैं, वहां जंगल नहीं हैं, जबकि वहां पहले जंगल थे। पहले ग्लेशियर उतनी तेजी से नहीं पिघलते थे, लेकिन अब पिघलने लगे हैं। अत: जिस प्रमुख कारण से ग्लेशियर का पिघलना शुरू हुआ, उस पर हमें ध्यान देना पड़ेगा। यह साधारण तरीका है, इसके पीछे विज्ञान है। यह कोई रॉकेट साइंस नहीं है, लेकिन दुर्भाग्य से हमारी सरकारें इस काम को ध्यान से नहीं करतीं, इसलिए ग्लेशियर पिघल रहे हैं।

आज देश में नदियों और तालाबों की स्थिति तो और भी भयानक हो चली है। भारत की दो तिहाई छोटी नदियां नाले बनकर सूख गई हैं और जो बची हुई हैं, वे मैला ढोने वाली मालगाड़ी बन गई हैं। हम कह सकते हैं कि नदियों की हालत बहुत खराब है। जिस देश में नदियां सूखती हैं, वहां की सभ्यता भी सूखने लगती है। नदियों का हमारी सभ्यताओं व जीवन से गहरा रिश्ता है। हम सभी का स्वास्थ्य नदी के स्वास्थ्य से जुड़ा है, यदि हम नदियों को स्वच्छ बनाएंगे, तो नदियां हमारे स्वास्थ्य को ठीक रखेंगी और हमारे जीवन का जो कष्ट है, उसका समाधान कर देंगी।

नदियों को शुद्ध सदानीरा बनाने में अनेक छोटे-छोटे जलाशयों व तालाबों का योगदान होता है। पानी इन जलाशयों से जमीन के नीचे जाता है। अगर जलाशय ज्यादा साफ होते हैं, तो उनमें पानी भी ज्यादा रहता है। जलाशयों से भूजल का पुनर्भरण होता है। ताल, पाल, झाल ही धरती का पेट भरते आए हैं। पहले हमारे भूजल भंडार भरे हुए थे। जब जल भंडार भरे रहते हैं, तो उस राष्ट्र की मुद्रा का भी मूल्य बना रहता है। यदि ये भंडार खाली होते हैं, तो तालाब सूख जाते हैं, नदियां सूखने लगती हैं। नदियों की अविरलता, निर्मलता बचाकर रखना ही हमारे जीवन को ठीक करेगा।

पिछले 42 साल में मैंने 13 नदियों को पुनर्जीवित किया है, जिनमें से आठ नदियां तो राजस्थान की हैं। अरवरी, रूपारेल, सरसा इत्यादि नदियां सूख गई थीं, लेकिन अनवरत प्रयास से ये नदियां फिर पानीदार बन गई हैं। यह समझना चाहिए कि नदियों का उद्धार सभ्यताओं का पुनर्जीवन है। नदियां हमारी संस्कृति में हमेशा से आनंद का स्रोत रही हैं। यदि नदियां सूखती हैं, तो हमारी खुशियां भी घटती हैं।

यदि अब हम जल बचाने के काम में नहीं लगेंगे, तो ध्यान रहे, धरती पर बाढ़, सुखाड़ से स्थिति बिगड़ती जा रही है। जिस भारत भूमि पर आजादी के वक्त एक प्रतिशत से भी कम बाढ़ आती थी और तीन प्रतिशत से कम हम सुखाड़ भुगतते थे, वहां आज ये आपदाएं बढ़ गई हैं। आज भारत के 17 राज्यों के 365 जिले सुखाड़ या सूखे से प्रभावित होते हैं और देश के 190 जिले बाढ़ से प्रभावित होते हैं। सुखाड़ का बढ़ना वर्षा की कमी या अधिकता के चलते नहीं है। जो जलवायु परिवर्तन हुआ है, उसके चलते हमें यह पता ही नहीं चलता है कि कब बारिश होगी और कब नहीं? फसल चक्र भी वर्षा चक्र से कट गया है और यह कटना घातक है। जल संकट बढ़ गया है, तो आज किसान को बहुत मेहनत से अनाज उगाना पड़ रहा है।

हमें अब अपने आप से सीखना पड़ेगा। हम भारतीय कभी जल के मामले में दुनिया के गुरु हुआ करते थे। हम तब तक गुरु थे, जब तक हम भगवान को पहचानते थे। हमारे भगवान थे, भ से भूमि, ग से गगन, व से वायु, अ से अग्नि, न से नीर। ये जो पंच महाभूत हैं, इन्हीं को भारतीय जब तक भगवान मानते रहे, तब तक अपने नीर, नदी और नारियों का पूरा सम्मान करते रहे। यह जो भारतीय ज्ञान तंत्र था, इसमें आई कमी के कारण ही हम कष्ट झेल रहे हैं।

हम जल लूट लेते हैं और धरती का पेट खाली हो जाता है। जब धरती के पेट में पानी नहीं होता है, तब हम बेपानी होकर तरसते हैं। अच्छा समाज वह होता है, जो बुरे दिन आने से पहले ही संभल जाता है। राजस्थान के लोगों ने समझा। आज महाराष्ट्र, कर्नाटक व अन्य राज्यों में पानी की कमी के कारण आत्महत्या होती है, लेकिन राजस्थान में नहीं होती। राजस्थान के लोगों ने कम बारिश के बीच अपनी जिम्मेदारियों को समझा और सबसे कम बारिश होने के बावजूद वहां लोगों ने वर्षा की बूंदों को सहेजना शुरू किया। पानी एहसास या भाव से ही संरक्षित होता है।

कभी भारत में राजा पानी के लिए जमीन देते थे। प्रजा अपना पसीना लगाती थी। राजा पानी का काम करने वालों को खाना देते थे। जो लोग पानी के काम में नहीं लगते थे, उन्हें प्रेरित किया जाता था। भारत की जल व्यवस्था सामुदायिक, लेकिन विकेंद्रित थी। इसे जब हम समझेंगे, तभी दोबारा अपने को पानीदार बना सकेंगे। देश के शुभ की चिंता करनी पड़ेगी, शासक, संत, विद्वान, महाजन इत्यादि सभी को मिलकर प्रयास करने पड़ेंगे। हमें दूसरों से नकल करने की भी जरूरत नहीं है। हम अपनी विद्या पर लौट भर आएं, तो जगत को जल का उपयोग सिखा देंगे।