21-05-2018 (Important News Clippings)

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21 May 2018
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Date:21-05-18

पीड़ितों को भी चपेट में ले सकता है भगोड़ा कानून

सोमशेखर सुंदरेशन , (लेखक वरिष्ठ अधिवक्ता एवं स्वतंत्र परामर्शदाता हैं)

आर्थिक अपराध कर विदेश भाग जाने वाले आरोपियों पर कार्रवाई के लिए जारी अध्यादेश से जनमानस के काफी खुश होने की संभावना है। हालांकि इस कानून की संवैधानिक वैधता संदिग्ध है। यह एक और ऐसा कानून है जो अच्छी नीयत से बनाए जाने के बावजूद भगोड़े अपराधियों के शिकार हुए निर्दोष लोगों को ही अपनी चपेट में ले सकता है। निर्दोष लोगों की इस कानून की गिरफ्त में आने की कुछ वाजिब आशंकाएं हैं। सबसे गंभीर बात इस कानून के ‘अपात्रता’ प्रावधान में निहित है जो भगोड़े व्यक्ति का शिकार बने व्यक्ति के अधिकार भी सीमित कर सकता है। इस प्रावधान के मुताबिक जब कोई व्यक्ति ‘भगोड़ा आर्थिक अपराधी’ घोषित कर दिया जाता है तो भारत की कोई भी अदालत उस कंपनी को किसी भी दीवानी दावे के बचाव या उसका विरोध करने के अयोग्य ठहरा सकती है। ऐसा उसी कंपनी के संदर्भ में होता है जिसका प्राधिकृत व्यक्ति या कोई प्रवर्तक या शीर्ष प्रबंध स्तर पर आसीन व्यक्ति या उसका बहुलांश शेयरधारक भगोड़ा आर्थिक अपराधी घोषित किया जा चुका है।

दूसरे शब्दों में, प्रवर्तक या शीर्ष प्रबंधक के विदेश भाग जाने के कारण मुश्किल में फंसी कंपनी किसी भी दीवानी मामले में अपना पक्ष रखने के अपात्र घोषित की जा सकती है। एक उदाहरण से इसे बेहतर समझा जा सकता है। मान लीजिए, किसी कंपनी के प्रबंध निदेशक या उसके किसी प्रवर्तक ने कोई ‘अधिसूचित अपराध’ किया है जिसके लिए उसके खिलाफ वारंट जारी किया गया है लेकिन वह भारत लौटने से इनकार कर देता है तो दीवानी अदालतें यह निर्देश दे सकती हैं कि उस कंपनी पर बकाया वाजिब रकम की वसूली के लिए भी कोई वाद दायर नहीं किया जा सकता है। इस अपात्रता संबंधी संकल्पना के पीछे सिद्धांत यह है कि भारत में विधि के शासन में यकीन नहीं रखने वाले व्यक्ति को भारतीय कानून के तहत हासिल संरक्षण से वंचित किया जा सकता है। हालांकि यह प्रावधान भारतीय कानूनों को नकारने वाले व्यक्ति से कहीं आगे तक असर दिखाता है। इसकी चपेट में वे लोग या कंपनी भी आ सकती हैं जो भगोड़े व्यक्ति की हरकतों का शिकार हुए हों। यह प्रावधान कानून लागू कराने वाली एजेंसियों के लिए प्रतिकूल प्रोत्साहक हो सकता है- भारत में काम कर रही एक कंपनी पर सख्ती बरतते हुए उसे नुकसान पहुंचाना और सुर्खियों में छा जाना।

यह रवैया इस बात को भुला देता है कि एजेंसियों की पहुंच में रहने वाले लोग भारतीय कानून प्रणाली में यकीन करते हैं और वे विधि के शासन के तहत कानूनी वाद दायर संरक्षण पाने की कोशिश कर रहे हैं। एजेंसियों को यह भी ध्यान नहीं रहता है कि भारत में मौजूद लोगों पर सख्ती बरतने से विदेश भाग चुके शख्स पर किसी तरह का बाध्यकारी असर नहीं पड़ता है। संभवत: उस शख्स के विदेश भागने के फैसले में एक कारक उसकी कंपनी के खिलाफ उठाई जाने वाली कार्रवाइयों की आशंका का भी रहा होगा। इस कानून का एक और नकारात्मक प्रभाव यह हो सकता है कि कानून के प्रति तनिक भी सम्मान नहीं रखने वाले विरोधी वाणिज्यिक पक्ष भगोड़े प्रवर्तक की कंपनी के प्रति देनदारी से चूक करना शुरू कर सकते हैं। ऋण चुकाने में सक्षम होने के बावजूद भगोड़े प्रवर्तक की कंपनी को निषेधात्मक निर्देशों का सामना करना पड़ सकता है। भगोड़े प्रवर्तक की कंपनी के साथ किसी भी तरह का अनुबंध रखने वाला व्यक्ति अदालतों में दावा करने का हकदार होगा ताकि नए कानून के तहत हासिल अधिकार का इस्तेमाल कर उस कंपनी के दावों पर रोक लगाई जा सके।

किसी व्यक्ति को भगोड़ा आर्थिक अपराधी घोषित करने के लिए अधिकारियों को सक्षम अदालत में अर्जी दाखिल करनी होगी। अधिकारियों को उस अर्जी में उल्लिखित किसी भी संपत्ति को 180 दिनों के लिए जब्त करने की भी शक्ति होगी। इसका मतलब है कि भगोड़ा अपराधी घोषित होने के पहले ही उस व्यक्ति से संबंधित संपत्ति नहीं होते हुए भी उसे जब्त किया जा सकता है और उस जब्ती के लिए अदालती आदेश की भी जरूरत नहीं होगी। उस संपत्ति के आर्थिक अपराध में लिप्त होने को लेकर अधिकारियों के पास ‘भरोसे की वजह’ ही उसे जब्त करा सकती है। दिलचस्प है कि यह जब्ती किसी वारंट के बगैर 180 दिनों तक कायम रहेगी। उस संपत्ति का स्वामित्व रखने वाले और भगोड़ा नहीं बने व्यक्ति को जब्ती के बाद अपनी बात कहने के लिए केवल एक हफ्ते का वक्त मिलेगा। विदेश नहीं भागने वाले इस संपत्ति मालिक पर ही यह साबित करने का दायित्व होगा कि उसे संपत्ति लेते समय उसके आपराधिक प्रक्रिया में शामिल होने की जानकारी नहीं थी।

‘अपराध की प्रक्रिया’ में केवल आपराधिक गतिविधि ही नहीं बल्कि इस तरह की ‘संपत्ति का मूल्य’ भी शामिल किया गया है। इसका मतलब है कि अपराध की प्रक्रिया कहीं और संपन्न होने पर भी उसके समान मूल्य की संपत्ति को जब्त किया जा सकता है। अगर ऐसी संपत्ति विदेश में है तो उसके बराबर मूल्य की भारत स्थित संपत्ति को आपराधिक प्रक्रिया का अंग माना जाएगा। ‘अपराध’ से हुए लाभों का मूल्य जब्त की जा रही संपत्ति के मूल्य के रूप में देखा जाएगा और इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि मौजूदा समय में उस संपत्ति पर किसका अधिकार है। अंत में, इस कानून में किस तरह के कामों को अपराध बताया गया है? भारतीय दंड संहिता में उल्लिखित आर्थिक अपराधों के अलावा कंपनी कानून में वर्णित धोखाधड़ी और अधिग्रहण प्रावधान भी शामिल हैं। भेदिया कारोबार और बाजार की तिकड़म जैसे अपराध भी अधिसूचित अपराधों की सूची में शामिल हैं। लेकिन अधिग्रहण प्रावधानों के उल्लंघन को भी इस सूची में रखे जाने से सरकार जब चाहे उद्योग जगत के पीछे पड़ सकती है। पहले संप्रग सरकार ने धनशोधन कानून में अधिग्रहण संबंधी गड़बडिय़ों को अधिसूचित अपराध के तौर पर शामिल किया था और अब राजग सरकार ने इस कानून में इसे अधिसूचित अपराध बना दिया है। संक्षेप में, सत्ता में जो भी दल हो एक उद्यमी को सजग और सरकार के लंबे हाथों से डरकर ही रहना चाहिए।


Date:19-05-18

क्या कहती है प्रवेशार्थियों की भीड़

हरिवंश चतुर्वेदी निदेशक, बिमटेक

देश के शीर्षस्थ विश्वविद्यालयों में से एक दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) में प्रवेश की प्रक्रिया प्रारंभ हो चुकी है। 1922 में स्थापित इस केंद्रीय विश्वविद्यालय में 16 संकाय, 86 विभाग और 77 संबद्ध कॉलेज हैं, जिनके विभिन्न कोर्सों में उपलब्ध 70 हजार सीटों के लिए लगभग ढाई लाख विद्यार्थी हर साल आवेदन करते हैं। देश के हर कोने से प्रतिभाशाली विद्यार्थी यह सपना लेकर इन दिनों राजधानी पहुंचते हैं कि किसी तरह डीयू के किसी नामी-गिरामी कॉलेज में दाखिला मिल सके।

दिल्ली की तरह चेन्नई, बंगलुरू, मुंबई, पुणे, हैदराबाद, कोलकाता और चंडीगढ़ जैसे महानगरो के विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में भी इसी तरह की भीड़ दिखाई देती है। इन दिनों देश के लाखों सुशिक्षित और प्रबुद्ध अभिभावकों की चिंता का प्रमुख विषय उनके बच्चों का बड़े शहर के किसी अच्छे कॉलेज में मनचाहे कोर्स में दाखिला न मिल पाना है। प्रवेश सूची के जारी होने तक उनकी सांस में सांस अटकी रहती है कि आखिर मनचाहे कालेज में उनके बच्चे का दाखिला हो पायेगा या नहीं? डीयू में दाखिले का सीजन तो अभी शुरू हुआ है और अगले माह के अंत तक खत्म हो पायेगा, किन्तु पूरे देश में यह प्रक्रिया सितंबर अंत तक चलेगी।

इसी के साथ देश में ऐसे विश्वविद्यालय, कॉलेज और कोर्स भी है जहाँ पर पिछले एक दशक से प्रवेशार्थियों की कमी चली आ रही है। विज्ञान, लिबरल आर्टस और समाज विज्ञान की तुलना में सामान्यता: इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट कोर्स के लिए हर साल लाखों युवा प्रवेश परीक्षाओं में बैठतें हैं। लेकिन पिछले एक दशक से इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट, फार्मेसी वगैरह के अनेकों कॉलेज प्रवेशार्थी न मिलने के कारण बन्द होने के कगार पर हैं। कुछ तो बंद भी हो चुके हैं। जब भारत आजाद हुआ तो देश के 25 विश्वविद्यालयों और 700 कॉलेजों मे सिर्फ एक लाख विद्यार्थी पढ़ाई कर रहे थे। आज देश के 858 विश्वविद्यालयों में और 45000 कॉलेजों में 3़5 करोड़ से ज्यादा विद्यार्थी उच्चशिक्षा पा रहे हैं। अगर उच्चशिक्षा में क्वालिटी के पैमाने पर चुनाव किया जाये तो बमुश्किल 20 प्रतिशत विश्वविद्यालय और कॉलेज ही उस पर खरे उतरेंगे। ये वहीं कॉलेज हैं जो ऐतिहासिक विरासत, कुशल प्रबंध, ब्रांडिग, अलुमनाई या स्वायत्तता के कारण अपनी धाक जमाए हुए हैं।

डीयू की तरह कई केंद्रीय विश्वविद्यालय भी लाखों प्रवेशार्थियों को हर साल आकर्षित करते हैं। इनके डिग्रीधारियों को समाज, सरकार और उद्योगजगत सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। जेएनयू़, बीएचयू़, एएमयू, जामिया मिलिया, कोलकाता विश्वविद्यालय, मद्रास विश्वविद्यालय, मुंबई विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय वगैरह की आकर्षण शक्ति के कई कारण हैं। इनमें से हरेक केंद्रीय विश्वविद्यालय के पास अमूल्य ऐतिहासिक विरासत है। कई विश्वविद्यालय 100 वर्ष से ज्यादा पुराने हैं जिनके लाखों अलुमनाई देश और दुनिया में विभिन्न क्षेत्रों में यश प्राप्त कर चुके हैं। इन विश्वविद्यालयों की कामयाबी के अन्य कारण केन्द्रीय सरकार से प्रचुर फण्ड प्राप्त होना, विशाल कैम्पस, शिक्षक व छात्र वर्ग में विविधता, एडमिशन में पारदर्शिता और राजनैतिक दखलंदाजी से मुक्ति आदि हैं। ऐसा नहीं है कि इन केंद्रीय विश्वविद्यालयों में कोई कमी न हो। परंतु ज्यादातर स्थानों पर जागरूक शिक्षक समुदाय के मुखर रवैये से राजनीतिक दखलंदाजी पर नियंत्रण रहता है। फिर हमारे पास अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थान हैं जिनकी उत्कृष्टता का लोहा सारी दुनिया में माना जाता है।

1991 के बाद, आर्थिक उदारीकरण के दौर में तकनीकी व पेशेवर शिक्षा का तेजी से विकास हुआ क्योंकि अर्थव्यवस्था को इंजीनियरों, प्रबंधकों और डॉक्टरों की ज्यादा जरूरत थी। इस दौर में तकनीकी व पेशेवर शिक्षा मेंं ज्यादातर संस्थान निजी क्षेत्र में स्थापित हुए। आज इंजीनियरिंग, प्रबंध, मेडिकल, फार्मेसी आदि क्षेत्रों में 85 प्रतिशत से ज्यादा संस्थान निजी क्षेत्र में हैं। देश के किसी भी शहर या ग्रामीण क्षे़त्र में आप को ऐसे होर्डिंग्स मिल जायेंगे जो कि बीटेक, एमबीए जैसे कोर्सो के लुभावने विज्ञापन दिखाते हैं और 100 प्रतिशत प्लेसमेंट के दावे करते है। इनमें से ज्यादातर संस्थान व्यावसायिक उद्देश्यों से चलाए जाते हैं और उच्चशिक्षा की बुनियादी जरूरतों को पूरा नहीं करते हैं। इन निजी संस्थानों के संचालन का एक विशिष्ट मॉडल है जिसमें संस्थान की आकर्षक बिल्डिंग बनाने, टीवी चैनलों व प्रिंट मीडिया में मंहगे विज्ञापन करने और एडमिशन मार्केटिंग पर बहुत ज्यादा ध्यान दिया जाता है। मेरिट आधारित प्रवेश, अच्छी फैकल्टी, गवर्नेंस, वित्तीय पारदर्शिता, शोध व अनुसंधान आदि महत्वपूर्ण तत्व आमतौर पर उपेक्षित रहते हैं। नितांत व्यावसायिक ढंग से चलाये जाने वाले कॉलेजों और प्राईवेट विश्वविद्यालयों से अब मध्यवर्ग का मोहभंग शुरू हो चुका है इसी कारण ये लगातार बंद हो रहे हैं।

इसी के साथ यह भी सच है कि निजी क्षेत्र के सभी संस्थान इस तरह के व्यावसायिक मॉडल पर नहीं चलाये जाते। इनमें से कई संस्थान देश के प्रतिष्ठित उद्योगपतियों, व्यवसाइयों, पेशेवरों, चैरिटेबिल ट्रस्टों और सोसायटियों द्वारा स्थापित किये गये हैं। इनके संस्थापकों ने दूरदर्शिता और सामाजिक जिम्मेदारी को ध्यान में रखा, ऐसी संस्थाएं राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी ख्याति स्थापित करने में कामयाब रहीं हैं। हमारे पास अनेक ऐसे उदाहरण भी हैं जहां विश्वस्तरीय क्वालिटी की तकनीकी व पेशेवर शिक्षा प्रदान की जा रही है। सरकार के पास सभी वर्गाें को उच्चशिक्षा प्रदान करने के संसाधन नहीं हैं, ऐसी निजी संस्थानों को प्रोत्साहना देना आवश्यक होगा।

आजादी के 70 वर्षों बाद, हम आज इस स्थिति में हैं कि हमारे कुछ विश्वविद्यालय, तकनीकी और पेशेवर संस्थान विश्वस्तरीय क्वालिटी की उच्चशिक्षा प्रदान कर रहें हैं। पर हमारी ज्वलंत समस्या राज्य विश्वविद्यालयों तथा महाविद्यालयों में दी जा रही स्तरहीन शिक्षा की है। हमारे 90 प्रतिशत युवाओं को जिस तरह डिग्रियां बांटी जा रही हैं, उससे उनके जीवन को कोई दिशा नहीं मिल सकेगी। भारत में उच्चशिक्षा का प्रमुख मुद्दा बमुश्किल 20 प्रतिशत प्रवेशार्थियों को क्वालिटी शिक्षा मिल पाना है। जब तक उच्चस्तरीय क्वालिटी संस्थानों का विस्तार नहीं होगा, कुछ खास विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में भीड़भाड़ की समस्या बनी रहेगी।


Date:19-05-18

Balancing conflicting claims

C. Rangarajan & D.K. Srivastava , [C. Rangarajan was Governor of the Reserve Bank of India and Chairman of the 12th Finance Commission. D.K. Srivastava, currently Chief Policy Advisor, EY India, was a member of the 12th Finance Commission.]

The 15th Finance Commission has to take a call on the degree of equalisation that’s feasible In the context of the Terms of Reference (ToR) of the 15th Finance Commission (FFC), certain key aspects relate to (a) the mandate for using the 2011 population; (b) ‘whether revenue deficit grants’ be given at all; (c) the impact of the goods and services tax (GST) on the finances of the Centre and States; (d) the reference to ‘conditionalities’ on State borrowing; and (e) providing performance incentives in respect of some contentious indicators.

Shift from 1971 to 2011

The southern States apprehend that they stand to lose under the so-called ‘population criterion’ if the 2011 population replaces the use of 1971 figures. State populations change not only because of their differential population growth but also due to migration. Using 1971 population data implies consciously using information that would be 50 years out of date by 2020-21, the first year of the FFC’s recommendation period. Population data used by the successive Finance Commissions in different criteria have served as a ‘scaling’ factor — that is, the larger the size of the population, the larger is the magnitude of fiscal transfer. In principle, fiscal transfer is determined in per capita terms and then scaled up to cater to the entire population living in the State. In deriving the per capita GSDP (Gross State Domestic Product), it is always calculated using current rather than dated population, as is done in the ‘income distance’ criterion. Scaling per capita transfer up only to an imaginary size of population such as the 1971 population for years beyond 1971 was always an artificial exercise. No other major federation uses such a practice. Major federations like Canada and Australia with well-established fiscal transfer principles use all relevant information that is up-to-date as much as possible.

Losses or gains depend on the relative weights attached to different criteria, and changes in other information including per capital GSDP. There is a case under the present circumstances to have a relook and lower the weights attached particularly to the population and income-distance criteria. It is interesting to note that the weight attached to the population criterion has varied from 25% to 10% and that attached to the distance formula from 62.5% to 50% from the 10th to the 14th FCs.

The reference in the ToR regarding revenue deficit grants does not necessarily imply that grants given under Article 275(1) should be discontinued. This article enjoins the Finance Commission first to determine the ‘principles’ which should govern the grants-in-aid of the revenues of the State and then determine the ‘sums’ that are to be paid. Revenue deficit grants often did follow implicitly the gap-filling approach, even though moderated by application of some partial norms. This approach has been heavily criticised in the literature on fiscal transfers in India for the adverse incentives that it generates. In fact, there is a strong case to discontinue revenue deficit grants based on gap filling but continue to recommend grants under Article 275(1) based on more acceptable principles.

Horizontal allocations

Most major federations follow an equalisation approach to determine fiscal transfers that is consistent with the objectives of equity and efficiency. In fact, just preceding the reference to ‘revenue deficit grants’ under Clause 5 of the ToR, the FFC has been asked to be ‘guided by the principles of equity, efficiency, and transparency’. Under the principle of equalisation, transfers aim to ‘equalise’ fiscal capacities, enabling States to provide services at comparable standards provided they make comparable tax effort after taking into account cost and use disabilities. Equalisation grants are policy neutral and need not be sector-specific although the 11th and 12th Commissions used the equalisation principle partially to provide sector-specific grants. It is the application of the ‘equity’ principle that has resulted in relatively well-off States losing their share. It has no other connotation.

In this context, one notable group consists of the mineral-rich States: Jharkhand, Odisha, Chhattisgarh, Madhya Pradesh and Assam. These coal-rich States continue to carry a significant pollution load on behalf of the nation. They lost the opportunity of early industrialisation due the Centre’s policy of freight equalisation whereby the transport of coal was subsidised, thereby neutralising their main location benefit. With freight equalisation, many thermal power plants were set up in the southern States, powering their industrial growth. Although freight equalisation is now discontinued, environmental constraints beset setting up of industries in these mineral-rich States.

The Finance Commission has the difficult task of resolving competing claims of different groups of States. This is best done by adhering to the most appropriate principles, including that of policy neutrality. The Finance Commission, which is ideally expected to provide a symmetric treatment between the Centre and States, is not the appropriate platform for promoting Central policy priorities. References in the ToR to the Centre’s flagship schemes, ‘populist policies’ of States and conditionalities on State borrowing imply an asymmetric view of the Centre vis-à-vis States. In fact, as far as State borrowings are concerned, after the recommendation of the 12th Finance Commission, major States do not borrow from the Centre. In any case, too long ToR should be avoided. Finance Commissions know better.

Devolution of taxes

The 14th Finance Commission raised the proportion of sharable taxes to states to 42%. It was at pains to point out that the increase was largely meant to ‘enhance the share of unconditional transfers to the States’. In deciding on the share, it is necessary to take into account not only the constitutional responsibilities but also the perceptions of the people who look to the Central government for remedies to all issues. It started with economic planning. Every economic issue is now laid at the door of the Centre itself. Perhaps, we are reaching a situation where the Constitution itself can be amended to fix the share that must go to States and leave Finance Commissions only with the task of horizontal allocation. Even as the share going to States gets increased, there is need to include ‘contribution to Central taxes’, suitably measured, also as a criterion in horizontal distribution as some of the taxes are vested in the Centre only on grounds of efficiency and economy. It is here that the relatively advanced States have a valid grouse.

Fiscal transfers in India have long been characterised by two major inefficiencies: the use of dated population figures and a ‘gap-filling’ approach. Implementing a comprehensive equalisation approach would overcome these deficiencies. This requires estimating States’ fiscal capacities reflecting their tax bases. In the case of the GST, consumption rather than income would be a better tax base. This should be supplemented by the tax-bases of the non-GST taxes. To assess the expenditure needs, cost and use disabilities should be incorporated. This should capture higher health expenditures for some States like Kerala where the population is ageing. For the mineral-rich States, the cost of their environmental load should be incorporated. For the hilly States, remoteness would be a cost-related disability.

Full equalisation in India implies considerable redistribution due to the large populations of the low fiscal capacity States (see Rangarajan and Srivastava, ‘Reforming India’s Fiscal Transfer System’, Economic and Political Weekly, June 7, 2008, for a detailed discussion). The FFC has to take a call on the degree of equalisation that may be considered feasible. A balancing of criteria is needed. Most of India’s future potential growth will be driven by the States which can effectively utilise their demographic dividends, which will be facilitated by an adequate provision of education and health services in these States. This would facilitate an accelerated growth of their fiscal capacities requiring relatively less redistribution for achieving greater equalisation over time.