
21-03-2025 (Important News Clippings)
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Date: 21-03-25
मुफ्त राशन के मामले में उभरे अंतर्विरोध गम्भीर
संपादकीय
प्रवासी मजदूरों को फ्री राशन देने के मामले पर स्वतः संज्ञान लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा किया है। इससे यह पता चलता है कि सरकार के दो विरोधाभासी दावों में कम से कम एक गलत है। एससी में प्रस्तुत तालिका में पाया गया कि जिन राज्यों में प्रति व्यक्ति आय अन्य राज्यों के मुकाबले काफी अधिक है, उनमें से कई में गरीबों का प्रतिशत भी ज्यादा है। गुजरात प्रति व्यक्ति आय में देश में तीसरे स्थान पर होते हुए भी 83% गरीबों को मुफ्त राशन देता है। जबकि झारखंड की प्रति व्यक्ति आय गुजरात की मात्र 38% है, लेकिन वहां 30% ही प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के सुपात्र हैं। चूंकि 35 किलो प्रति परिवार राशन गरीबों को ही दिया जाता है, लिहाजा या तो झारखंड की आबादी में गरीब गुजरात के बरअक्स लगभग एक तिहाई हैं या गुजरात के समाज में गरीब-अमीर की खाई असाधारण रूप से बढ़ी है। अगर सरकार कहती है कि आर्थिक विषमता घटी है तो इसका मतलब है कि सरकार जिन आंकड़ों के आधार पर गरीबी का घटना दिखा रही है, वे पूर्णतः गलत हैं। बिहार आय में सबसे गरीब है लेकिन राजस्थान में उससे ढाई गुना से ज्यादा प्रति व्यक्ति आय के बावजूद 95% गरीब हैं। क्या देश आठ दशक के स्व-शासन में भी हम अपने आंकड़े दुरुस्त नहीं कर पाए हैं? तब योजनाएं किस आधार पर बनाई जाती हैं और क्या वे सफल होती भी हैं ?
Date: 21-03-25
अंतरिक्ष को नए आयाम देता निजी क्षेत्र
अजय कुमार, ( लेखक पूर्व रक्षा सचिव एवं आइआइटी कानपुर में विजिटिंग प्रोफेसर हैं )
सुनीता विलियम्स और उनके सहयोगी के अंतरिक्ष में लंबे प्रवास के बाद धरती पर आगमन से भारत के अंतरिक्ष अभियानों को लेकर भी लोगों की उत्सुकता बढ़ी है। इसलिए और भी, क्योंकि भारत में अंतरिक्ष संबंधी गतिविधियां बढ़ी हैं। भारत की अंतरिक्ष यात्रा 1962 में इन्कौस्पार, 1969 में इसरो और 1972 में अंतरिक्ष विभाग की स्थापना के साथ शुरू हुई। न केवल भारत में, बल्कि दुनिया में कई सरकारों ने अंतरिक्ष क्षेत्र को बढ़ावा दिया है। । इस क्रम में नासा, ईएसए और रोस्कोमास जैसी एजेंसियां अग्रणी हैं। एरियनस्पेस ने पिछली सदी के नौवें दशक में पहला निजी उपग्रह प्रक्षेपित किया। 1984 में यूएस कामर्शियल स्पेस लांच एक्ट आया और 1988 में निजी दूरसंचार उपग्रह लांच हुआ । निजी निवेश में, खासकर अमेरिका में अंतरिक्ष गतिविधियां बढ़ने लगीं। 2002 के बाद स्पेसएक्स ने लागत में कटौती करने वाले बहुत सारे नवाचारों द्वारा इस क्षेत्र में क्रांति की लहर को जन्म दिया। सुनीता विलियम्स की वापसी में मस्क की कंपनी स्पेसएक्स के सहयोग की अहम भूमिका रही।
आज अंतरिक्ष निवेश में निजी क्षेत्र का हिस्सा 80 प्रतिशत तक पहुंच गया है। कुछ साल पहले तक इसरो द्वारा हासिल अंतरिक्ष डाटा सीमित रूप में ही साझा किया जाता था। 2009 में इस नीति में बदलाव आया। 2020 में भारत में अंतरिक्ष क्षेत्र के खुलने से इस क्षेत्र में लोकतंत्रीकरण की एक नई लहर आई है। आज इस क्षेत्र में स्टार्टअप की संख्या 260 से अधिक हो गई है।
भारतीय स्टार्टअप इसरो के पीएसएलवी आजिंटल एक्सपेरिमेंटल माड्यूल के साथ स्पेसएक्स के ट्रांसपोर्टर और फ्रांस के एरियन राकेट का उपयोग कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त भारत में 15 से अधिक निजी उपग्रह लांच किए जा चुके हैं और आने वाले वर्षों में यह संख्या और बढ़ेगी। अंतरिक्ष क्षेत्र के लोकतंत्रीकरण की दूसरी विशेषता लागत में आई कमी है। नासा के अंतरिक्ष यान की लागत लगभग 54,500 डालर प्रति किलोग्राम थी, जबकि स्पेसएक्स के फाल्कन 9 की कीमत लगभग 2,720 डालर प्रति किलोग्राम है। भारत में यह लगभग 30,000 डालर है। निजी भागीदारी उपग्रह प्रक्षेपण की लागत को लगभग 30-40 प्रतिशत कम कर सकती है। स्टार्टअप्स वाणिज्यिक सप्लाई चेन माड्यूलर डिजाइनों और राइड – शेयर विकल्पों के उपयोग का लाभ उठाकर कम लागत में सैटेलाइट बना पाते हैं। इसके अतिरिक्त स्टार्टअप छोटे सैटेलाइट बनाते हैं, जिससे लागत कम हो जाती है। पिछली सदी के अंतिम दशक में 10-20 टन के जियो उपग्रह की कार्यक्षमता अब एक छोटे 800 किलोग्राम के उपग्रह में प्राप्त की जा सकती है। इसरो का बड़े उपग्रह बनाने का इतिहास रहा है। इसके विपरीत, भारतीय स्टार्टअप छोटे उपग्रहों के विकास पर ध्यान दे रहे हैं। उदाहरण के लिए पिक्सल हाइपरस्पेक्ट्रल इमेजिंग उपग्रह का वजन लगभग 15 किलोग्राम है। अतीत के विपरीत जहां अधिकांश उन्नत तकनीकें इसरो द्वारा विकसित की गई थीं, वहीं स्टार्टअप अब नवाचार की सीमाओं को आगे बढ़ा रहे हैं। अंतरिक्ष क्षेत्र में राज्य सरकारों की भूमिका बढ़ रही है। कई राज्य अपने अधिकार क्षेत्र में निवेश और अनुप्रयोगों को आकर्षित करने और अपने स्वयं के उपग्रहों को लांच करने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। कर्नाटक भारत की अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था का 50 प्रतिशत हिस्सा हासिल करना चाहता है। केरल ने केस्पेस और स्पेस पार्क की स्थापना की है। आंध्र प्रदेश ने एक स्पेस इनोवेशन सेंटर बनाया है । तेलंगाना ने स्पेसटेक फ्रेमवर्क बनाया है और तमिलनाडु कुलसेकरपट्टिनम स्पेसपोर्ट के पास स्पेस बे और एक प्रोपेलेंट पार्क स्थापित करने जा रहा है। गुजरात इनस्पेस के साथ साझेदारी में एक स्पेस क्लस्टर बना रहा है। अन्य राज्य भी अंतरिक्ष गतिविधियों का बढ़ावा दे रहे हैं।
सरकारों और व्यवसायों द्वारा उपग्रह डाटा का बढ़ता उपयोग इसके बढ़ते विकेंद्रीकरण को दर्शाता है। महाराष्ट्र में 10,000 से अधिक गंवों में फसल बीमा के लिए उपग्रह डाटा का उपयोग हो रहा है। कर्नाटक में छह लाख हेक्टेयर कृषि भूमि की निगरानी, रक्षा मंत्रालय द्वारा भूमि का सर्वेक्षण पूरा किया जाना, राजस्थान और हरियाणा द्वारा 90 प्रतिशत से अधिक भूसंपदा के भूमि रिकार्ड बनान, असम मैं 30 जिलों में बाढ़ की चेतावनी देना, आंध्र प्रदेश और ओडिशा में साइक्लोन की चेतावनी का समय 50 प्रतिशत घटना, स्मार्ट शहरों में प्रापर्टी टैक्स में सुधार और मध्य प्रदेश में 77,000 वर्ग वन भूमि की निगरानी के लिए उपग्रह इमेजरी का उपयोग किया जा रहा है। स्टार्टअप नई डाटा-आधारित सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, स्टेटश्योर कृषि ऋण देने वाले बैंकों को मूल्यवर्धित सेवाएं प्रदान कर रहा है। उम्मीद है कि भविष्य में सैटेलाइट डाटा का उपयोग न केवल सरकारों और संस्थाओं द्वारा किया जाएगा, अपितु कारोबारियों और छोटे व्यवसायें द्वारा भी किया जाएगा।
भारत के अंतरिक्ष निर्यात पर अब तक इसरो की वाणिज्यिक शाखा न्यू स्पेस इंडिया लिमिटेड का एकाधिकार था। अब स्टार्टअप्स उसके पूरक बन रहे हैं। उनके योगदान के कारण भारत की अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था में निर्यात का हिस्सा 0.3 अरब डालर से बढ़कर 11 अरब डालर होने का अनुमान है। बदलते परिदृश्य में केंद्र सरकार की भूमिका कार्यान्वयनकर्ता से बदलकर इसरो और स्टार्टअप सहित निजी खिलाड़ियों के बीच प्रमोटर, सुविधाकर्ता और मध्यस्थ की हो गई है। इसरो ने अपनी सुविधाओं को स्टार्टअप और निजी क्षेत्र के उपयोग के लिए ख दिया है। इस दिशा में केंद्र सरकार ने 1,000 करोड़ रुपये का वेंचर फंड भी बनाया है। इस समय भारत का अंतरिक्ष क्षेत्र ऐतिहासिक परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है, जो सरकार के नेतृत्व वाले क्षेत्र से एक गतिशील एवं विकेंद्रीकृत इकोसिस्टम में बदल रहा है। स्टार्टअप द्वारा नवाचार को बढ़ावा देने, राज्य सरकारों द्वारा क्षेत्रीय केंद्रों को बढ़ावा देने और निजी निवेश द्वारा लागत कम करने के साथ, अंतरिक्ष अब हमसे दूर नहीं। हममें से हर कोई इससे लाभान्वित होने वाला है।
Date: 21-03-25
ट्रंप के शुल्कों से ध्वस्त होती वैश्विक व्यवस्था
देवाशिष बसु , ( लेखक डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू डॉट मनीलाइफ डॉट इन के संपादक एवं मनीलाइफ फाउंडेशन के न्यासी हैं )
कोई नहीं बता सकता कि अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप कब क्या करेंगे या कहेंगे। मगर दोबारा राष्ट्रपति बनने के बाद से उन्होंने जो कदम उठाए हैं उनसे कट्टर नीति निर्माता, कारोबारी, व्यापारी, निवेशक, राजनेता और अफसरशाह हैरत में पड़ गए हैं। अभी तो उन्हें व्हाइट हाउस में 46 महीने और रहना है जो कुछ हो रहा है उसका अंदेशा मुझे पहले से ही था। पिछले साल अक्टूबर के अंत और नवंबर के शुरू में अपने तीन आलेखों में मैंने भारत में आर्थिक सुस्ती होने और शेयर बाजार में कमजोरी आने का साफ संकेत दिया था। नवंबर मध्य में मैंने चौथा आलेख ‘शेयर बाजार में आशंका के गहराते घने बादल’ भी लिखा था। ट्रंप तब चुनाव जीत चुके थे और मैंने कहा था, ‘यह मानना आत्मघाती होगा कि ट्रंप के वादे सियासत में फंस जाएंगे या वाशिंगटन में बैठी लॉबियों तथा डीप स्टेट के सामने बौने साबित हो जाएंगे। ट्रंप जितनी बातें (ट्रंपोनॉमिक्स) कही हैं उनका एक हिस्सा भी लागू हो गया तो दुनिया में भारी उथल-पुथल मच जाएगी और कोई भी बड़ी अर्थव्यवस्था इससे बच नहीं पाएगी।’ अब तक तो ऐसा ही हुआ है। अमेरिका के सबसे बड़े व्यापारिक साझेदार कनाडा, मेक्सिको और चीन पर शुल्क थोप चुके ट्रंप के निशाने पर अब यूरोपीय संघ, जापान, दक्षिण कोरिया, ताइवान और भारत हैं।
लगता तो यही है कि ट्रंप की नीति आक्रामक, सीधी, अस्थिर, देश के हित साधने वाली और पहले से अलग है। जिस देश का अमेरिका के साथ व्यापार अधिशेष है वह ट्रंप की नजर में ‘अमेरिका को धोखा दे रहा है’। उनका कहना है कि ऐसे देशों को अमेरिकी बाजार में माल बेचने के लिए ज्यादा शुल्क देना होगा। उसके बाद बराबरी के शुल्क हैं – अमेरिकी निर्यातकों से जिस सामान पर कोई देश जितना शुल्क लेता है, उसके निर्यातकों से भी उस सामान पर उतना ही शुल्क वसूला जाएगा। अनुमान है कि इससे 23 लाख वस्तुओं और सामान पर शुल्क की सूची तैयार हो जाएगी। ट्रंप की धमकी कितनी गंभीर है और हम पर कितना असर डाल सकती है ? ट्रंप की इन हरकतों की वजह आर्थिक सलाहकार परिषद के मुखिया स्टीफन मिरान हैं। पिछले साल नवंबर में एक शोध पत्र में उन्होंने सलाह दी थी कि ट्रंप प्रशासन निर्यात बढ़ाने के लिए डॉलर को कमजोर होने दे, देसी विनिर्माण बढ़ाने के लिए ऊंचे शुल्क लगाए और दूसरे देशों से अमेरिकी बॉन्ड के लिए भुगतान कराए या उन्हें 100 साल के बॉन्ड के बजाय छोटी अवधि के बॉन्ड लेने के लिए कहे।
ट्रंप विश्व व्यापार को तहस-नहस करने में लगे हैं, जिसके असर बहुत घातक होंगे। वैश्वीकरण, वृद्धि एवं विकास में माहिर अर्थशास्त्री डानी रॉड्रिक ने लिखा, ‘दूसरे विश्व युद्ध के बाद वैश्विक अर्थव्यवस्था में अभूतपूर्व वृद्धि आई है। इसकी बराबरी न तो औद्योगिक क्रांति कर सकती है और न ही 19वीं सदी में शुरू हुआ वैश्वीकरण ।’ यह शानदार वृद्धि एशिया, अमेरिका और यूरोप के बीच बढ़ते विश्व व्यापार तथा यूरोपीय एवं अमेरिकी देशों के बीच क्षेत्रीय व्यापार के कारण आई, जिसे सौदों की कम लागत और कम शुल्क ने मुमकिन किया । पूर्वी एशिया के देश जैसे जापान, ताइवान, दक्षिण कोरिया और सिंगापुर कम लागत का फायदा उठाने में जुटे तो विकसित देशों को उनका निर्यात बढ़ता गया । निर्यातक देशों की इस टोली में चीन 1990 के दशक के अंत में शामिल हुआ मगर 2001 में विश्व व्यापार संगठन में जाने के बाद वह पूरी दुनिया का कारखाना ही बन गया। इसके बाद निर्यातकों ने उनके बाजारों के निकट ( चीन ने अमेरिकी बाजार के लिए मेक्सिको में) अपने केंद्र स्थापित किए। कम लागत का फायदा उठाने के लिए भी उन्होंने (चीन ने वियतनाम या थाईलैंड में, दक्षिण कोरिया और जापान ने मलेशिया में कोई कसर नहीं छोड़ी।
विश्व व्यापार में तेजी आई और उसी समय युद्ध के बाद के काल में बॉन्ड के लिए भुगतान कराए या उन्हें अतार्किक विकल्प अमेरिकी डॉलर दुनिया की आरक्षित मुद्रा बनता गया। दुनिया में लगभग आधा व्यापार डॉलर में होता है। चूंकि ज्यादातर एशियाई निर्यात अमेरिका को ही जाता था, इसलिए वहां से हुए फायदे या व्यापार अधिशेष को ये देश अमेरिकी सरकारी बॉन्डों में ही निवेश कर देते थे। इससे अमेरिका और बॉन्ड जारी करता रहा तथा विनिमय दर बिगाड़े बगैर इन देशों से आयात के लिए रकम जुटती गई । इसीलिए ट्रंप यदि विश्व व्यापार की कड़ियां खत्म करेंगे तो डॉलर में बहुत उठापटक होगी। शुल्क उसे ऊपर ले जाएंगे और उन शुल्कों की वजह से धीमी पड़ी वृद्धि उसे नीचे गिराएगी। इसके अलावा कई और वजहों से भी उठेगा या गिरेगा । उठापटक इसलिए भी होगी क्योंकि ट्रंप अमेरिका के लगभग सभी सहयोगियों के साथ झगड़ रहे हैं। डॉलर दुनिया की आरक्षित संपत्ति है, जिससे अमेरिका को अपनी ताकत जाहिर करने में मदद मिलती है। दुनिया भर में उसके सैन्य ठिकाने और अड़ियल सरकारों पर सख्त वित्तीय प्रतिबंध लगाने की उसकी क्षमता इसका सबूत है। ट्रंप ने जापान से यूरोप तक के देशों को अमेरिकी सुरक्षा ख़त्म कर दी है और खुल्लमखुल्ला रूस के साथ खड़े हो गए हैं, जो चीन, उत्तर कोरिया और ईरान वाली धुरी का हिस्सा है। दूसरे शब्दों में कहें तो ट्रंप वैश्विक व्यापार, वैश्विक निवेश, डॉलर और अमेरिकी सुरक्षा गारंटी को एक साथ उलट देना चाहते हैं।
इसके नतीजे बरबादी से कम नहीं होंगे। भारत जैसे कमजोर और छोटे देशों के लिए तो और भी मुश्किल हो जाएगी। तमाम विकासशील देशों की तरह भारत के लिए भी अमेरिका सबसे महत्त्वपूर्ण बाजार है। भारत के कुल निर्यात में अमेरिका की 9 फीसदी हिस्सेदारी है वस्तु निर्यात में 18 फीसदी। ट्रंप की नई व्यापार नीति से राष्ट्रीय सुरक्षा का मसला भी जुड़ा है। वह कई जरूरी क्षेत्रों में आत्मनिर्भर होना चाहते हैं और दवा भी इनमें एक है। भारत ने 2023 में अमेरिका को 10 अरब डॉलर से ज्यादा कीमत की दवा निर्यात की थीं। भारत ने 2023 में अमेरिका को 23 अरब डॉलर मूल्य की सॉफ्टवेयर सेवा भी निर्यात की थीं। हालांकि ट्रंप की टीम में मौजूद तकनीकी लोग एच1बी वीजा ( जिसके जरिये भारतीय सॉफ्टवेयर इंजीनियर अमेरिका में काम करते हैं) के हिमायती हैं मगर आव्रजन विरोधी ट्रंप समर्थक इसके सख्त खिलाफ हैं। ये दोनों भारत के लिए सबसे ज्यादा रोजगार तैयार करने वाले निर्यात क्षेत्र हैं। इसके अलावा भारत की सबसे अच्छी कंपनियों में ज्यादातर अमेरिका को निर्यात करती हैं। उन सभी को खतरा होगा। जब तक कुछ बदलता नहीं तब तक ट्रंप बड़ा खतरा हैं, जिसका अंदाजा शायद अभी हमें पूरी तरह लगा नहीं है।
Date: 21-03-25
गड़े मुर्दों की राजनीति
संपादकीय
महाराष्ट्र के नागपुर में हुई हिंसा के बाद कुछ इलाकों में कर्फ्यू जारी है, और सशस्त्र सुरक्षाकर्मी तैनात हैं। यह हिंसा औरंगजेब की कब्र हटाने की अफवाह के बाद दो गुटों में हुई झड़प और पत्थरबाजी के बाद भड़की। इस सांप्रदायिक उन्माद भड़कने का कारण एक फिल्म में संभाजी और औरंगजेब के बीच ऐतिहासिक युद्ध के फिल्मांकन को माना जा रहा है। उस पर मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस का यह कहना कि फिल्म में सच्चा इतिहास दिखाने के चलते दंगे भड़के, निहायत गैर-जिम्मेदाराना और समुदाय विशेष की भावनाओं को चोट पहुंचाने वाला है। इसे औरंगजेब के प्रति गुस्सा बता कर उन्होंने शांति बहाली की बजाय अपनी पक्षपाती सोच ही उजागर की है। पुलिस की तरफ से दर्ज मामले में सभी 51 संदिग्ध मुसलमान हैं। विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल द्वारा किए गए प्रदर्शन और पुतला जलाए जाने को लेकर राजनीतिक दलों समेत प्रशासन चुप्पी साधे हैं। पुलिस के अनुसार दंगाई कुल्हाड़ी, डंडे, लोहे के सरिए और ईंट-पत्थर हाथों मैं लिए हुए थे। उन्होंने पुलिस पर जानलेवा हमला तक किया। पुलिस वाहन फूंके गए, महिला पुलिसकर्मियों तक को नहीं बख्शा। सियासी दलों का आरोप-प्रत्यारोप का दौर चालू है, और नेताओं की भड़काऊ बयानबाजी लगातार जारी है। जो वाहन, घर-दुकानें फूंके गए, उससे दोनों समुदाय के लोगों को क्षति पहुंची जिसकी भरपाई करने में सालों का वक्त लग सकता है। मुगल बादशाह को निशाने पर रख कर दक्षिणपंथी विचारधारा वाले राजनीतिक दल ने जनता का ध्यान भटकाने का सिलसिला जारी रखा है। गड़े मुर्दे उखाड़ कर बजरिए इतिहास वे जानबूझकर महंगाई, बेरोजगारी और बुनियादी समस्याओं को गड्ढे में डालने के प्रयास करते हैं, जिससे सांप्रदायिक सद्भाव और देश की अखंडता को ठेस लगती है। विभाजनकारी बातें और भड़काऊ बयानबाजी पर पाबंदी न लगाई गई तो इसके विपरीत असर समूचे राष्ट्र को भुगतने पड़ सकते हैं। जनता को भी अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए इस भटकाव से तौबा करना सीखना होगा। अराजक तत्वों, दंगाइयों और पुलिसकर्मियों पर हिंसक बल प्रयोग करने वाले उपद्रवियों को कतई नहीं छोड़ा जाना चाहिए। मगर इस सबके पीछे की साजिशों का भंडाफोड़ करने में भी कोताही नहीं की जानी चाहिए क्योंकि इससे वैश्विक रूप से देश की छवि भी कम धूमिल नहीं होती।
Date: 21-03-25
हम कितने खुश
संपादकीय
यह एक सुखद व स्वागतयोग्य आदिम जिज्ञासा है कि कौन कितना खुश है? शायद इसी जिज्ञासा की पूर्ति के लिए हर साल वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट का इंतजार रहता है और इस साल की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, खुशी की छोड़ में शामिल किए गए दुनिया के 147 देशों में भारत का स्थान 118वां है। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के वेलबीइंग रिसर्च सेंटर द्वारा गैलप, संयुक्त राष्ट्र सतत विकास समाधान नेटवर्क और एक स्वतंत्र संपादकीय बोर्ड की साझेदारी के तहत प्रकाशित इस खास विश्व खुशी रिपोर्ट 2025 में गौर करने लायक अनेक बातें हैं। रिपोर्ट देखकर किसी को भी हतोत्साहित या दुखी होने की नहीं, बल्कि प्रेरणा लेने की जरूरत है। खुशी मापने के अपने-अपने पैमाने संभव हैं। पहला असंतोष तो यही हो रहा है कि खुशी रिपोर्ट में पाकिस्तान को भारत से ज्यादा खुश देश बताया गया है। पाकिस्तान इस सूची में 109वें स्थान पर है। यह बहस तलब है कि क्या पाकिस्तान में ज्यादा भ्रष्टाचार, गरीबी, महंगाई, हिंसा और आतंकवाद है? क्या खुशी की रिपोर्ट तैयार करने वालों के पैमाने में ही दोष है?
भारत के अन्य पड़ोसियों में श्रीलंका 133वें, बांग्लादेश 134वें और चीन 68 वें स्थान पर है। यहां एक बात का ध्यान रखना चाहिए कि किसी छोटे देश के लिए खुश होना ज्यादा आसान है। एक बड़े देश की चुनौतियां बहुत ज्यादा होती हैं। चीन खुशहाल और उभरती महाशक्ति होने का दावा करता है, पर वह दुनिया के 50 सबसे ज्यादा खुश देशों में शामिल नहीं है भारत तो दुनिया में ऐसी किसी होड़ में शामिल नहीं होता है, पर चीन बढ़-चढ़कर तमाम प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेता है, फिर भी वह सबसे ज्यादा खुश देशों में शुमार नहीं है! कहीं न कहीं चीन की विशाल आबादी भी आड़े आ रही होगी। चीन बड़ी आबादी के बावजूद भारत से पांच गुना बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश है। भारत आबादी के लिहाज से सबसे आगे निकल गया है और भारत की विविधता के अलावा उसके तंत्र की उदारता भी कहीं न कहीं खुशी में बाधा बन रही है। भारत में खुश लोगों की संख्या भी बहुत है और दुखी लोग भी बहुत हैं। यहां यह ध्यान रखना होगा कि खुशी केवल आर्थिक तरक्की की वजह से नहीं आएगी। देश में आर्थिक व सामाजिक स्तर पर और तेज विकास की जरूरत है। हालांकि, बहुत आर्थिक और सामाजिक विकास के बावजूद अमेरिका खिसकते हुए 24वें स्थान पर चला गया है।
आश्चर्य नहीं, फिनलैंड फिर सबसे खुशहाल देश बनकर उभरा है, उसके बाद डेनमार्क और आइसलैंड का स्थान है। आश्चर्य नहीं, अफगानिस्तान खुशी के सबसे निचले पायदान पर पाया गया है, क्योंकि कई अफगान महिलाओं ने कहा है कि उनका जीवन लगातार मुश्किल होता जा रहा है। बहरहाल, हम भारतीयों को अपनी चिंता ज्यादा करनी चाहिए। भारत साल 2022 में 92 वें स्थान पर पहुंच गया था, तो क्या हम सामाजिक समर्थन, प्रति व्यक्ति जीडीपी, स्वास्थ्य, जीवन प्रत्याशा, स्वतंत्रता, उदारता और भ्रष्टचार के मोर्चे पर पर्याप्त कदम नहीं उठा पा रहे हैं? समाज केंद्रित संस्कृति, परिवार और मिलकर रहने में हम आगे हैं, पर कौन लोग हैं, जो भारतीयों को स्वतंत्रता के पैमाने पर पीछे मान हैं? यह स्वीकार करने में हर्ज नहीं कि पश्चिमी पैमाने भारतीयों की खुशी या दुख के सही आकलन में नाकाम हैं। खैर, हमें अपनी खुशी या सुख की यात्रा को आगे बढ़ाने पर ज्यादा से ज्यादा ध्यान केंद्रित रखना चाहिए।