20-08-2024 (Important News Clippings)
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सेक्युलर नागरिक संहिता की बहस लंबी चलेगी
संपादकीय
संविधान निर्माण की पृष्ठभूमि ‘उद्देश्य प्रस्ताव’ के रूप में 13 दिसंबर 1946 को पेश हुई थी। इस पर बोलते हुए डॉ. राधाकृष्णन ने कहा था, ‘राष्ट्रवाद, न कि धर्म, आधुनिक जीवन का आधार है | धर्म-आधारित राज्यों के दिन लद गए। अब राष्ट्रवाद का दिन है।’ तीन साल बाद 17 अक्टूबर 1949 को, जब संविधान निर्माण अंतिम पड़ाव पर था, तब प्रस्तावना में ‘हम भारत के लोग’ के साथ ‘सर्वशक्तिमान ईश्वर की अनुकम्पा से जोड़ने के एचवी कामथ के प्रस्ताव को सभा ने 68-41 मतों से खारिज किया। उतने ही पुरजोर तरीके से उस प्रस्ताव को नकारा, जिसमें भारत को ‘समाजवादी व्यवस्था वाला सेक्युलर ‘कोऑपरेटिव कामनवेल्थ’ बनाने की बात थी। सभा में बहुमत का ऐतराज सेक्युलर से ज्यादा ‘सोशलिस्ट’ शब्द से था। सभा की राय थी कि सेक्युलर तो देश की चिंतन परंपरा की जड़ में ही है, लेकिन भारत समाजवाद नहीं उदार प्रजातंत्र से चलेगा। लेकिन इंदिरा गांधी ने सन् 1976 में 42वां संशोधन कर- सेक्युलर और सोशलिस्ट – को प्रस्तावना में जोड़ा। ये दोनों शब्द प्रस्तावना में 48 वर्षों से हैं। हालांकि भाजपा ने हमेशा इस पर ऐतराज जताया और इसे संविधान निर्माताओं की भावना के विपरीत माना। लेकिन हाल ही में स्वयं प्रधानमंत्री ने लाल किले की प्राचीर से बोलते हुए ‘सेक्युलर सिविल कोड’ बनाने का कहा, क्योंकि उनके अनुसार पिछले 74 वर्षों से देश ‘सांप्रदायिक कोड’ से चल रहा था। अनुच्छेद 44 में ‘यूनिफार्म सिविल कोड’ है। पर राजनेताओं ने संविधान निर्माताओं के पवित्र उद्देश्य से बने प्रावधानों को अपने अनुरूप बदला। अब देखना होगा कि जो सेक्युलर शब्द मूल प्रस्तावना में नहीं था, वह कैसे अब अनुच्छेद 44 में नागरिक संहिता का अंश होगा और तब इस शब्द का अर्थ क्या होगा । ‘सेक्युलर ‘सिविल कोड’ की बहस अभी लंबी चलने वाली है।
चिंताजनक है घरेलू बचत में कमी आना
डॉ. जयंतीलाल भंडारी। (लेखक एक्रोपोलिस इंस्टीट्यूट आफ मैनेजमेंट स्टडीज एंड रिसर्च, इंदौर के निदेशक हैं)
देश में घटती हुई घरेलू बचत के खतरे को भांपते हुए पिछले दिनों केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने रिजर्व बैंक के निदेशक मंडल की बैठक में कहा कि बैंकों द्वारा ऐसी आकर्षक ब्याज योजनाएं लाई जानी चाहिए, जिससे उनमें जमा राशि में तेज इजाफा हो सके। चूंकि केंद्र सरकार अपने राजकोषीय घाटे को पाटने के लिए लघु बचत योजनाओं के तहत संग्रह राशि का भी उपयोग करती है, इसलिए घरेलू बचत में लगातार कमी आना चिंताजनक है।घरेलू बचत किसी व्यक्ति की आय की वह शेष राशि है, जो उपभोग आवश्यकताओं और विभिन्न वित्तीय देनदारियों के भुगतान के बाद बचती है। इस घरेलू बचत को बैंक और गैर बैंक जमा, जीवन बीमा, राष्ट्रीय बचत प्रमाणपत्र (एनएससी), लोक भविष्य निधि (पीपीएफ), किसान विकास पत्र, सुकन्या समृद्धि, पेंशन निधि तथा अन्य वित्तीय योजनाओं में निवेश किया जाता है।यदि हम देश में घरेलू बचत संबंधी आंकड़ों को देखें तो पाते हैं कि जो घरेलू बचत वित्त वर्ष 2006-07 में सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का 18 प्रतिशत थी, वह प्रतिवर्ष घटते हुए 2022-23 में जीडीपी के 5.2 प्रतिशत के स्तर पर आ गई। यह पिछले पांच दशक में सबसे कम स्तर पर है।
घरेलू बचत में कमी आने का प्रमाण गत दिनों पेश आम बजट भी दे रहा है। चालू वित्त वर्ष 2024-25 के अंतरिम बजट में 14.77 लाख करोड़ रुपये घरेलू बचत से प्राप्त होने का अनुमान लगाया गया था, लेकिन 2024-25 के पूर्ण बजट में लघु बचतों से प्राप्ति के अनुमान को घटाकर 14.20 लाख करोड़ रुपये कर दिया गया है।
देश में लोग कमाई का एक हिस्सा भविष्य के लिए घरेलू बचत के रूप में बचाकर रखते रहे हैं, लेकिन अब इस बचत की प्रवृत्ति में बड़ा बदलाव दिखाई दे रहा है। लोग आवास, वाहन, शिक्षा तथा अच्छे जीवन के लिए विभिन्न प्रकार के कर्ज लगातार ले रहे हैं। जहां परिवारों की वित्तीय देनदारियां बढ़ने से घरेलू बचत सीधे तौर पर कम हुई है, वहीं आय के एक हिस्से का इस्तेमाल विभिन्न प्रकार के ऋणों के ब्याज के भुगतान के लिए भी किए जाने से घरेलू बचत कम हुई है।देश में इस समय लघु बचत योजनाओं के तहत 40 करोड़ से अधिक बचतकर्ता हैं। विभिन्न लघु बचत योजनाओं में तुलनात्मक रूप से कम ब्याज मिलने के कारण भी उनके द्वारा इनमें निवेश में कमी आई है। देश में बदली हुई आयकर व्यवस्था के कारण भी आयकरदाताओं द्वारा की जाने वाली घरेलू बचत में कमी आ रही है। इस समय देश में आयकर भुगतान की पुरानी और नई दो कर व्यवस्था हैं। जहां पुरानी कर व्यवस्था में बचत और निवेश के लिए प्रोत्साहन हैं, वहीं नई कर व्यवस्था में बचत के वैसे प्रोत्साहन नहीं हैं।इस समय ज्यादातर आयकरदाता नई कर व्यवस्था अपना रहे हैं। इस वर्ष 31 जुलाई तक आयकर आकलन वित्त वर्ष 2024-25 के लिए दाखिल किए गए कुल 7.28 करोड़ आइटीआर में से लगभग 72 प्रतिशत करदाताओं ने नई कर व्यवस्था को चुना है। नई कर व्यवस्था से बचत एवं निवेश की जगह उपभोग खर्च बढ़ाने की प्रवृत्ति को अधिक प्रोत्साहन मिल रहा है।घरेलू बचत में कमी का एक अन्य कारण देश में महिलाओं द्वारा अपने पास आने वाले धन का उपयुक्त निवेश नहीं किया जाना भी है। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) के मुताबिक बैकों में कुल व्यक्तिगत खातों में से हर तीसरा खाता किसी महिला के नाम पर है, लेकिन बैंकों में जमा कुल राशि में से सिर्फ 20 प्रतिशत ही महिलाओं के खातों में जमा है।
ऐसा नहीं है कि देश में लोगों की आय में कमी आई है। वस्तुतः भारत में प्रति व्यक्ति आय तेजी से बढ़ रही है। 10 वर्ष पहले वित्त वर्ष 2014-15 में जो प्रति व्यक्ति आय 86,647 रुपये थी, वह 2023-24 में करीब 2.28 लाख रुपये के स्तर पर पहुंच गई। दरअसल अब लोग बड़ी संख्या में अपनी बचत को ऐसी जगहों पर निवेश कर रहे हैं, जहां उनको ज्यादा ब्याज और रिटर्न मिल रहा है।इसके लिए लोग अपनी बचत का बड़ा हिस्सा शेयर बाजार के जरिये कंपनियों के शेयर, म्यूचुअल फंड, रियल एस्टेट, सोने एवं बहुमूल्य धातुओं में निवेश कर रहे हैं। इनमें घरेलू बचत की योजनाओं की तुलना में अधिक रिटर्न मिल रहा है।इसके अलावा महंगे वाहनों और विलासिता के सामानों की खरीदी पर अब लोग ज्यादा खर्च कर रहे हैं। यही कारण है कि 10 वर्ष पहले जो सेंसेक्स 25 हजार से स्तर पर था, आज वह 80 हजार के ऊपर है। भारत का शेयर बाजार इस समय दुनिया का चौथा सबसे बड़ा शेयर बाजार हो गया है। डीमैट खातों की संख्या बढ़कर 16.2 करोड़ हो गई है।
घरेलू बचत व्यक्ति की आर्थिक मुश्किलों में सबसे पहला और विश्वसनीय वित्तीय साथी माना जाता है। ऐसे में घरेलू बचत के घटने की स्थिति चिंताजनक है, लेकिन यह किसी वित्तीय संकट की आहट नहीं। रिजर्व बैंक के मुताबिक देश में परिवारों की वित्तीय देनदारियों में वृद्धि के बावजूद उनकी बैलेंस शीट बेहतर बनी हुई है। मार्च 2023 के अंत में परिवारों की वित्तीय संपत्तियां उनकी देनदारियों की तुलना में 2.7 गुना अधिक थीं।भारतीय परिवारों का आय के प्रतिशत के रूप में ब्याज का भुगतान मार्च 2021 में 6.9 से घटकर मार्च 2023 में 6.7 प्रतिशत रह गया, जो वैश्विक स्तर पर भी सराहनीय है। उम्मीद करें कि सभी बैंक जमा प्राप्त करने के नए उपाय खोजेंगे, अपनी बचत योजनाओं को आकर्षक बनाएंगे और घरेलू बचत योजनाओं के लिए ब्याज दरों में उपयुक्त वृद्धि करेंगे। ऐसे रणनीतिक प्रयासों से घटती हुई घरेलू बचत में वृद्धि की जा सकेगी। इससे अर्थव्यवस्था के लिए भी अधिक निवेश का प्रबंधन किया जा सकेगा।
Date: 20-08-24
विशेषज्ञों की नियुक्ति
संपादकीय
संघ लोक सेवा आयोग ने संयुक्त सचिव और निदेशक/उप सचिव स्तर के 45 पदों के लिए तीन वर्ष की अवधि के अनुबंध के वास्ते आवेदन आमंत्रित किए हैं। इस अवधि को बढ़ाकर पांच वर्ष तक किया जा सकता है। यह दिखाता है कि केंद्र सरकार अफसरशाही में लैटरल एंट्री (बाहरी प्रवेश) को लेकर निरंतर प्रतिबद्ध है।विभिन्न विभागों और मंत्रालयों मसलन इलेक्ट्रॉनिकी एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय, पर्यावरण मंत्रालय, वन एवं जलवायु परिवर्तन तथा वित्तीय सेवा विभाग आदि में आमंत्रित ये रिक्तियां विशेषज्ञों के लिए हैं। उदाहरण के लिए केंद्र सरकार वित्तीय सेवा विभाग में एक संयुक्त सचिव खोज रही है ताकि डिजिटल इकॉनमी, फिनटेक और साइबर सुरक्षा पर ध्यान दिया जा सके।
ऐसी कई वजह हैं जिनके चलते सरकार को चुनिंदा पदों पर विशेषज्ञों को नियुक्त करना चाहिए और इस विचार को लेकर कई बार चर्चा हो चुकी है। उदाहरण के लिए छठे वेतन आयोग ने कहा था कि व्यवस्था में सुधार के लिए वरिष्ठ पदों पर लैटरल एंट्री के अलावा अधिक परिणामोन्मुखी रुख अपनाया जाना चाहिए।
इसके अतिरिक्त नीति आयोग के तीन वर्षीय एजेंडे और शासन को लेकर सचिवों के क्षेत्रीय समूह ने 2017 में अपनी रिपोर्ट में यह सिफारिश की थी कि नई प्रतिभाओं को लाने और जनशक्ति की उपलब्धता बढ़ाने के लिए मध्यम और वरिष्ठ स्तर पर लोगों शामिल किया जाए।
सरकार ने इस माह के आरंभ में संसद में जो जवाब दिया था उसके मुताबिक बीते पांच सालों में संयुक्त सचिव, निदेशक और उपसचिव के स्तर पर ऐसी 63 नियुक्तियां की गई हैं। फिलहाल ऐसे 57 अधिकारी विभिन्न मंत्रालयों और विभागों में पदस्थ हैं।
लैटरल एंट्री की शुरुआत की वजह सबको पता है। अर्थव्यवस्था का आकार और जटिलता बढ़ने के साथ प्रभावी नीतिगत हस्तक्षेप करने के लिए अक्सर विभिन्न क्षेत्रों की जानकारी की आवश्यकता होगी। सरकार के शीर्ष पदों पर अक्सर भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी पदस्थ रहते हैं। हालांकि कुछ अधिकारी समय के साथ विषय विशेष का ज्ञान हासिल कर लेते हैं।
इस सेवा की आम मांग सामान्य प्रकृति की जानकारी रखने की है जो आवश्यक नहीं कि नीति निर्माण के बदलते परिदृश्य में हमेशा कारगर ही साबित हो। चाहे जो भी हो, आईएएस अधिकारियों की कुल तादाद स्वीकृत स्तर से काफी कम है। नीति निर्माण के स्तर पर नियुक्तियों में अन्य सेवाओं के अधिकारियों को शामिल करके टैलेंट पूल बढ़ाने की जरूरत है। यह काम कुछ हद तक किया भी जा रहा है। निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों के लिए ऐसे पदों को खोलने से उपयुक्त उम्मीदवार मिलने की संभावना बढ़ जाएगी।
Date: 20-08-24
समयानुकूल हस्तक्षेप
संपादकीय
देश की सर्वोच्च अदालत ने कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज व अस्पताल में हुए कथित बलात्कार व हत्या के मामले में स्वतः संज्ञान लिया है। देश के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली तीन जजों की बेंच मामले की सुनवाई करेगी। इस दुखद घटना को लेकर देश भर में आक्रोश है। निजी व सरकारी चिकित्सकों के देशव्यापी हड़ताल व प्रदर्शनों को लेकर स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा सुरक्षा उपाय सुझाने के लिए समिति गठित करने का वादा किया गया । दोषियों की कड़ी से कड़ी सजा देने की चौतरफा मांग की जा रही है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी द्वारा भी मामले को फास्ट ट्रैक अदालत में ले जाने के निर्देश दिए गए। उन्होंने दोषियों को फांसी दिये जाने की भी बात की।
स्वास्थ्य सेवा पेशेवरों की सुरक्षा संबंधी चिंताओं का समाधान न होने व अपर्याप्त आश्वासनों के चलते नाराज चिकित्सकों ने अपना विरोध प्रदर्शन जारी रखा है। केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा नये आदेश किए गए। जिनके अनुसार, सभी राज्यों को कानून व्यवस्था की जानकारी गृह मंत्रालय को हर दो घंटे में देनी होगी। सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप इस मामले में लोगों के बढ़ते आक्रोश व मृतका को न्याय दिलाये जाने की पहल है। यदि यह गैंगरेप है तो सभी दोषियों को कठघरे में लाना तथा दोषियों को बचाने वालों का खुलासा होना भी जरूरी है। खबरों के अनुसार अब आशंका व्यक्त की जा रही है कि इस हत्या के पीछे मानव अंगों की तस्करी व सेक्स रैकेट भी हो सकता है। जिस तरह सबूतों से छेड़छाड़ की गई, वह भी संदेहास्पद है। दूसरे बनर्जी द्वारा सीबीआई जांच से पूर्व स्थानीय पुलिस को पांच दिन का वक्त देना भी संदेह से परे नहीं है। यह घटना दिल्ली में हुए निर्भया कांड से भी भीषण प्रतीत हो रही है। दोषियों की मंशा और बलात्कारियों – हत्यारों की पहचान बेहद जरूरी है। इन्हें बचाने का प्रयास करने वालों का पर्दाफाश तभी मुमकिन है, जबकि निष्पक्ष जांच संभव हो। सबसे बड़ी अदालत का जनहित के मामलात में हस्तक्षेप गंभीर अपराधों पर होने वाली राजनीति पर लगाम लगाने के लिए जरूरी है। साधारण दर्जी पिता की होनहार बेटी के साथ हुई दरिंदगी का असर देश के उन तमाम पालकों पर पड़ रहा है, जो बच्चियों को पढ़ाने और काबिल बनाने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं। बेटी को सिर्फ पढ़ाना ही काफी नहीं है, हमें उन्हें सुरक्षा भी देना है, जिसमें हम बुरी तरह असफल हैं।
इसके अलावा चूंकि निजी क्षेत्र के लोगों को सीमित समय के लिए प्रवेश मिलेगा इसलिए सरकार जरूरत के मुताबिक निरंतर नई प्रतिभाओं को शामिल कर सकती है। उसे जरूरत पड़ने पर कार्यकाल बढ़ाने का विकल्प भी खुला रखना चाहिए। राज्य सरकारों को भी निजी क्षेत्र की प्रतिभाओं को इसी तरह नियुक्त करना चाहिए।बहरहाल सरकार की इस योजना के कामयाब होने के लिए यह आवश्यक है कि मौजूदा अफसरशाही उनके साथ सहयोग के साथ काम करे। इसके लिए तथा लैटरल एंट्री पाने वालों को व्यवस्था में स्वीकार्य बनाने के लिए सरकार को कम से कम दो काम करने होंगे: पहला, नियमित रूप से निजी क्षेत्र के लोगों को शामिल करके इस व्यवस्था का संस्थानीकरण करना होगा। दूसरा, उसे इस विषय में उपयुक्त संवाद करना होगा और दिखाना होगा कि कैसे इस व्यवस्था से लाभ हो रहा है।विपक्ष ने आरक्षण का हवाला देते हुए इस कदम की आलोचना की है जिससे बचा जाना चाहिए था। ये सीमित अवधि के और विशेषज्ञता वाले पद हैं और आरक्षण की बाध्यता इसके उद्देश्य को प्रभावित कर सकती थी। बहरहाल अगर सरकार अफसरशाही के विभिन्न स्तरों पर नियम के मुताबिक आरक्षण का उचित प्रतिनिधित्व बरकरार रखे तो बेहतर होगा।
Date: 20-08-24
ऊर्जा का असीम विकल्प
योगेश कुमार गोयल
पृथ्वी पर ऊर्जा के परम्परागत साधन बहुत सीमित मात्रा में उपलब्ध हैं, ऐसे में खतरा मंडरा रहा है कि यदि ऊर्जा के इन पारम्परिक स्रोतों का इसी प्रकार दोहन किया जाता रहा तो इन परम्परागत स्रोतों के समाप्त होने पर गंभीर समस्या उत्पन्न हो जाएगी। यही कारण है कि पूरी दुनिया में गैर परम्परागत ऊर्जा सोतों को बढ़ावा देने की जरूरत महसूस की जाने लगी और इसी कारण अक्षय ऊर्जा स्रोतों से ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति करने के प्रयास शुरू हुए।
पिछले कुछ वर्षों से पर्यावरणीय चिंताओं को देखते हुए ऐसी ऊर्जा तथा तकनीकें विकसित करने के प्रयास किए जा रहे हैं, जिनसे ग्लोबल वार्मिंग की विकराल होती समस्या से दुनिया को कुछ राहत मिल सके। किसी भी राष्ट्र को विकसित बनाने के लिए आज प्रदूषणरहित अक्षय ऊर्जा स्रोतों का समुचित उपयोग किए जाने की आवश्यकता भी है। आज न केवल भारत में बल्कि समूची दुनिया के समक्ष बिजली जैसी ऊर्जा की महत्त्वपूर्ण जरूरतों को पूरा करने के लिए सीमित प्राकृतिक संसाधन हैं, साथ ही पर्यावरण असंतुलन और विस्थापन जैसी गंभीर चुनौतियां भी हैं । चर्चित पुस्तक ‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ के अनुसार इन गंभीर समस्याओं और चुनौतियों से निपटने के लिए अक्षय ऊर्जा ही एक ऐसा बेहतरीन विकल्प है, जो पर्यावरणीय समस्याओं से निपटने के साथ-साथ ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने में भी कारगर साबित होगी लेकिन अक्षय ऊर्जा की राह में भी कई चुनौतियां मुंह बाये सामने खड़ी हैं। अक्षय ऊर्जा उत्पादन की देशभर में कई छोटी-छोटी इकाईयां हैं, जिन्हें एक ग्रिड में लाना बेहद चुनौतीपूर्ण कार्य है। इससे बिजली की गुणवत्ता प्रभावित होती है। भारत में अक्षय ऊर्जा के विविध स्रोतों का अपार भंडार
मौजूद है, लेकिन इनसे ऊर्जा उत्पादन करने वाले अधिकांश उपकरण विदेशों से आयात किए जाते हैं। डायरेक्टरेट जनरल ऑफ ट्रेड रेमेडीज की 2018 की एक रिपोर्ट के अनुसार तीन के वर्षों में सौर ऊर्जा के लिए करीब नब्बे फीसद उपकरण आयात किए गए, जिस कारण बिजली उत्पादन की लागत काफी बढ़ जाती है।
देश में ऊर्जा की मांग और आपूर्ति के बीच अंतर तेजी से बढ़ रहा है। देश में साढ़े तीन लाख मेगावॉट से भी अधिक बिजली का उत्पादन किया जा रहा है, लेकिन यह हमारी कुल मांग से करीब ढाई फीसद कम है। भारत सरकार के
सांख्यिकी और कार्यक्रम मंत्रालय द्वारा प्रकाशित 20वीं ऊर्जा सांख्यिकी रिपोर्ट में बताया गया था कि वर्ष 2011-12 से 2016-17 के बीच प्रति व्यक्ति ऊर्जा की खपत 3.54 प्रतिशत बढ़ गई। वर्ष 2005-06 से 2018-19 के दौरान प्रति व्यक्ति बिजली उपभोग में करीब दो गुना वृद्धि दर्ज की गई। केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण के अनुसार देश में प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष 1150 किलोवाट से भी अधिक बिजली का उपभोग किया जाता है। इसका एक अहम कारण देश में तेजी से बढ़ती जनसंख्या भी है। विशेषकर बिजली तथा ईंधन के रूप में उपभोग की जा रही ऊर्जा की मांग घरेलू एवं कृषि क्षेत्र केअलावा औद्योगिक क्षेत्रों में भी लगातार बढ़ रही है। औद्योगिक क्षेत्रों में ही बिजली तथा पैट्रोलियम जैसे ऊर्जा के महत्त्वपूर्ण स्रोतों का करीब 58 फीसद उपभोग किया जाता है। औद्योगिक क्षेत्र के अलावा कृषि क्षेत्र तथा घरेलू कार्यों में भी ऊर्जा की मांग और खपत पिछले कुछ वर्षों में काफी बढ़ी है। एक रिपोर्ट के अनुसार देश में प्रति व्यक्ति ऊर्जा उत्सर्जन 4 फीसद की दर से बढ़ रहा है। मगर क्या हमने कभी सोचा है कि वह बिजली या ऊर्जा के अन्य स्रोत हमें कितनी बड़ी कीमत पर हासिल होते हैं? यह कीमत न सिर्फ आर्थिक रूप से बल्कि पर्यावरणीय दृष्टि से भी धरती पर विद्यामान हर प्राणी पर बहुत भारी पड़ती है। विश्वभर में करीब 40 फीसद बिजली कोयले से प्राप्त होती है जबकि भारत में 60 फीसद से अधिक बिजली कोयले से 16 फीसद अक्षय ऊर्जा के विभिन्न स्रोतों जैसे सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा तथा बायो गैस से, 14 फीसद पानी से और 8 फीसद गैस से पैदा होती है। सार्वजनिक क्षेत्र के सवा सौ से भी अधिक थर्मल पावर स्टेशनों में प्रतिदिन 18 लाख टन से अधिक कोयले की खपत होती है।
दुनियाभर में ऊर्जा क्षेत्र में 77 फीसद कार्बन उत्सर्जन बिजली उत्पादन से ही होता है। इन्हीं पर्यावरणीय खतरों को देखते हुए बिजली पैदा करने के लिए अब सौर ऊर्जा तथा पवन ऊर्जा जैसे अक्षय ऊर्जा स्रोतों को विशेष महत्त्व दिया जाने लगा है। अक्षय ऊर्जा स्रोतों के उपयोग को बढ़ावा देने से हमारी ऊर्जा की मांग और आपूर्ति के बीच का अंतर कम होता जाएगा और इससे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से सामाजिक जीवन स्तर में भी सुधार होगा। सही मायने में अक्षय ऊर्जा ही आज भारत में विभिन्न रूपों में ऊर्जा की जरूरतों का प्रमुख विकल्प है, जो पर्यावरण के अनुकूल होने के साथ-साथ टिकाऊ भी है। वास्तव में आज समय है आर्थिक बदहाली और भारी पर्यावरणीय विनाश की कीमत पर ताप, जल एवं परमाणु ऊर्जा जैसे पारम्परिक ऊर्जा स्रोतों के बजाय अपेक्षाकृत बेहद सस्ते और कार्बन रहित पर्यावरण हितैषी ऊर्जा स्रोतों के व्यापक स्तर पर विकास के मार्ग पर तेजी से आगे बढ़ने का लेकिन साथ ही हमें ऊर्जा की बचत की आदतें भी अपनानी होंगी।
जागे समाज
संपादकीय
महिलाओं के शोषण की घटनाएं जितनी दुखद हैं, उतनी ही शर्मनाक भी। कोलकाता में एक चिकित्सक के यौन उत्पीड़न और हत्या का मामला इतना गंभीर हो उठा है कि सर्वोच्च न्यायालय को स्वत: संज्ञान लेना पड़ा। यह बहुत”महिलाओं के शोषण की घटनाएं जितनी दुखद हैं, उतनी ही शर्मनाक भी। कोलकाता में एक चिकित्सक के यौन उत्पीड़न और हत्या का मामला इतना गंभीर हो उठा है कि सर्वोच्च न्यायालय को स्वत: संज्ञान लेना पड़ा। यह बहुत महिलाओं के शोषण की घटनाएं जितनी दुखद हैं, उतनी ही शर्मनाक भी। कोलकाता में एक चिकित्सक के यौन उत्पीड़न और हत्या का मामला इतना गंभीर हो उठा है कि सर्वोच्च न्यायालय को स्वत: संज्ञान लेना पड़ा। यह बहुत अफसोसजनक है कि महिला शोषण के मामले में भी नेता राजनीति की गुंजाइश खोज लेते हैं। चिकित्सकों का प्रदर्शन लगातार जारी है और सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के एक सांसद ने तो प्रदर्शनकारी चिकित्सकों को एक तरह से धमकाया है। पश्चिम बंगाल में तृणमूल की सरकार है और वहां चिकित्सकों की सुरक्षा सुनिश्चित करना उसकी प्राथमिकता होनी चाहिए, पर वह क्या कर रही है? ऐसी स्थिति में सर्वोच्च न्यायालय का हस्तक्षेप जरूरी और स्वागतयोग्य है। जो लोग अभी भी लीपापोती में जुटे हैं, उन्हें अपनी गैर-कानूनी हरकतों से बाज आना चाहिए। जिस तरह का व्यवहार कुछ अधिकारी या नेता अभी दिखा रहे हैं, ऐसे व्यवहारों की वजह से ही देश में प्रति घंटे चार से ज्यादा महिलाओं का यौन शोषण होता है। शोषण के पक्ष में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से खड़े होने वाले नेता अपराधियों से भी बड़े अपराधी हैं।
महिला शोषण के ऐसे मामलों से देश का कोई राज्य अछूता नहीं है। बच्ची से लेकर बुजुर्ग महिला तक और घर से लेकर बस स्टैंड तक, कोई ऐसी जगह नहीं है, जहां महिलाएं चैन की सांस ले सकें। आप मामले गिनते चले जाइए। उत्तराखंड पुलिस ने रविवार को देहरादून में अंतरराज्यीय बस टर्मिनल पर सरकारी बस में एक किशोरी के साथ सामूहिक दुष्कर्म के आरोप में पांच लोगों को गिरफ्तार किया। यह किशोरी लाचार होकर घर से भागी थी, उसके साथ संवेदनापूर्ण व्यवहार होना चाहिए था, पर वह उन दरिंदों के चंगुल में फंस गई। इसी तरह, बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में 14 वर्षीय दलित लड़की को अपराधियों ने घर से ही उठा लिया और बाद में परिजन को उसकी लाश मिली। उधर, तमिलनाडु के कृष्णागिरी में फर्जी एनसीसी कैंप में 13 लड़कियों का यौन शोषण हुआ, जिसमें स्कूल के प्रिंसिपल समेत 11 आरोपी शामिल थे। जोधपुर में एक अपराधी तीन साल की मासूम को ही उठा ले गया। अपराध के ऐसे मामलों को आप गिनने लगिए, तो मन गहरी घृणा, क्षोभ और रोष से भर जाता है। ये कैसे अपराधी हैं, जिन्हें न कानून की चिंता है, न धर्म की और न लोकलाज की? असंख्य लोगों की आंखों का पानी ऐसे मर गया है कि छोटी-छोटी अबोध बच्चियों पर शामत आई हुई है।
हमें पूरी गंभीरता से विचार करना होगा। महिला संबंधी कानून कड़े कर दिए गए हैं, पर कड़े कानूनों के बावजूद शोषण का अंत क्यों नहीं हो रहा है? एक तथ्य यह भी है कि दुष्कर्म के 95 प्रतिशत मामलों में दोषी कोई परिचित ही होता है। कानून-व्यवस्था सुनिश्चित करना सरकार की जिम्मेदारी है, पर महिला सुरक्षा की प्राथमिक जिम्मेदारी समाज की होती है। यहां गांधी जी का कथन याद आता है, उन्होंने इशारा किया था कि केवल सरकार के भरोसे मत रहना। मतलब, हमें नए सिरे से विचार करना होगा। कहीं न कहीं हमने घरों और स्कूलों में सिखाया है कि अपने काम से काम रखो। पुलिस और कानून-व्यवस्था की दूसरी एजेंसियों ने भी लोगों को यही संदेश दिया कि लोग अपने काम से काम रखें। काम से काम रखने का स्वार्थ समाज में इस तरह से बढ़ा है कि अपनत्व दूर की बात, लोकलाज का भय भी कमजोर पड़ गया है। समय आ गया है कि महिला शोषण रोकने व एक संवेदनशील समाज बनाने के लिए युद्ध स्तर पर प्रयास किए जाएं।
Date: 20-08-24
जुल्म के खिलाफ ज़ोर से बोलो
विभूति नारायण,( पूर्व आईपीएस अधिकारी )
नौ अगस्त को कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज में एक जूनियर डॉक्टर के साथ जो नृशंस अपराध हुआ और जिस जघन्य अंदाज से बलात्कार के बाद उसकी हत्या की गई, वह किसी भी सभ्य समाज को झकझोर देने के लिए पर्याप्त था। अपराध रात के अंधेरे में किसी वक्त तीसरी मंजिल स्थित सेमिनार हॉल में हुआ और बाद में किए गए पोस्टमार्टम की अपुष्ट रिपोर्ट के अनुसार, उसके साथ कई लोगों द्वारा बलात्कार किया गया था। इस दौरान हत्यारे ने उसके शरीर के साथ काफी नोच-खसोट की थी । शरीर पर पडे़ ये घाव नंगी आंखों से ही किसी को भी दिख सकते थे, पर नहीं दिखे, तो कॉलेज के प्रशासकों को, जिन्होंने मृत डॉक्टर के परिवार को सुबह फोन करके यह बताया था कि उसने कॉलेज परिसर में आत्महत्या कर ली है। जब परिवारी जन भागते हुए परिसर में पहुंचे, तो उन्हें घंटों मृत शरीर को नहीं देखने दिया गया। अस्त-व्यस्त कपड़ों में क्षत-विक्षत और जगह-जगह से खून बह रहे उस शरीर को देखकर उनके मन में रत्ती भर भी शक नहीं रहा कि उनकी बेटी ने आत्महत्या नहीं की है, बल्कि उसकी हत्या हुई है और वह भी क्रूरतम तरीकों से। कॉलेज प्रशासकों ने तब भी कोशिश की कि परिजन मान लें कि यह आत्महत्या का मामला है, हत्या का नहीं।
हत्या की खबर फैलते ही कोलकाता और पश्चिम बंगाल के विभिन्न जिलों से होता हुआ आक्रोश पूरे देश में फैल गया है। इस बार यह सिर्फ डॉक्टरों की सुरक्षा का मसला नहीं रह गया है, इसके बहाने चिकित्सा शिक्षा से जुड़े अन्य मुद्दों के साथ-साथ पूरे तंत्र की सड़न भी विमर्श के केंद्र में आ गई है। जिस तरह से कॉलेज के पूर्व प्रिंसिपल संदीप घोष को घटना पर भड़के आक्रोश के बाद पहले कॉलेज से हटाकर प्रतीक्षा सूची में रखा गया और फिर कुछ ही घंटों में उन्हें शहर के एक दूसरे मेडिकल कॉलेज का प्रधान बना दिया गया, उससे शासन के गलियारों में उसकी पहुंच स्पष्ट हो गई। हाईकोर्ट के आदेश से उनको पद से हटाया गया। जख्मों पर नमक छिड़कने जैसा काम यह हुआ कि घटना के कुछ ही घंटे बाद कॉलेज भवन पर एक अराजक भीड़ द्वारा हमला हुआ और तोड़फोड़ की गई। उनका मुख्य निशाना वह सेमिनार रूम था, जहां वारदात हुई थी और स्पष्ट था कि दंगाई घटनास्थल पर सुबूतों के साथ छेड़छाड़ करना चाहते थे। जिन लोगों को सीसीटीवी कैमरों के फुटेज के आधार पर गिरफ्तार किया गया था, वे मुख्य रूप से सत्तारूढ़ दल के सदस्य निकले। इस घटना के पहले भी जब संदीप घोष को प्रधानाचार्य पद से हटाया गया था, तब इसी तरह से उन्होंने गुंडों की मदद से अपने उत्तराधिकारी को पदभार ग्रहण नहीं करने दिया था और अपना तबादला निरस्त कराकर वापस कुर्सी पर आ बैठे थे। क्या ये उदाहरण काफी नहीं हैं भ्रष्टाचार, सत्ता और अपराध के बीच के गठजोड़ को समझने के लिए?
भारतीय राजनीति और समाज तंत्र में सड़ांध पैदा करने वाले इस गठबंधन के खिलाफ पूरे देश में आक्रोश उबाल पर है, पर क्या इससे कोई स्थायी या बुनियादी फर्क पड़ेगा? राजनीति के विद्रूप को और बेहतर किस बात से समझा जा सकता है कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस भी मांग कर रही हैं कि दोषी को कठोरतम सजा दी जाए। यह जनता की कमअक्ली ही होगी, अगर वह पूछे कि यह मांग किससे की जा रही है?
इस समय देश का राजनीतिक मानचित्र ऐसा है कि हर बड़ा राष्ट्रीय या क्षेत्रीय दल किसी न किसी क्षेत्र में सत्ता पर या तो काबिज है या काबिज रह चुका है। इस विडंबना को क्या कहेंगे कि लगभग हरके प्रदेश में और हरेक दल की सरकार में सत्ता, अपराध और भ्रष्टाचार का यह त्रिकोण फलता-फूलता रहा है। इस बार मैंने देखा कि मुख्यधारा या सोशल मीडिया पर कोलकाता की घटना पर बहस करते समय विश्लेषकों ने सुविधा के अनुसार, अपनी भूमिका तय कर रखी है। बहुत लोगों ने इस जघन्य घटना की गंभीरता को यह कहकर कम करने की कोशिश की है कि अला साल में फलां प्रदेश में भी तो ऐसी ही या इससे भी बुरी घटना हुई थी, तो हमें कोलकाता के पहले उसका जिक्र करना चाहिए। इस प्रवृत्ति के लिए मुझे अपनी भाषा में कोई सटीक शब्द नहीं मिल रहा, पर अंग्रेजी में इसे सिनीसिज्म (निराशावाद) कहेंगे।
इसी तरह की एक सोच है, जो मानती है कि इस तरह के विमर्शों से कुछ होता-जाता नहीं और ऐसी दुर्घटनाएं वापस अपनी रफ्तार से या पूर्ववत घटती रहेंगी। यह दूसरी तरह का सिनीसिज्म है। बोलते रहने और जोर-जोर से बोलते रहने से क्या फर्क पड़ सकता है, इसका अनुभव हमें कुछ वर्षों पूर्व निर्भया मामले में हुआ था, जब इसी तरह एक लड़की के साथ बलात्कार व बर्बर हत्या की घटना हुई और पूरे देश में उबाल आ गया। उसका एक परिणाम तो कानूनों और प्रक्रियाओं में हुए व्यापक बदलावों में तो दिखा ही, उससे भी बड़ा फर्क समाज में मूल्यों के स्तर पर देखने को मिला। अब पहले से कहीं ज्यादा मां-बाप या परिवार पीड़िता के साथ खड़े दिखने लगे हैं। वे उसे ही दोषी ठहराकर और बदनामी के डर से चुप रहने को नहीं कहते, साथ ही, लड़कियां भी ज्यादा हिम्मत के साथ खुलकर अपने साथ हुई ज्यादती की शिकायत करती दिखती हैं। परिवार और पड़ोस के साथ पुलिस, न्यायपालिका या पत्रकारिता की दुनिया में भी सकारात्मक परिवर्तन हुए हैं। इन्हें कोई छोटा-मोटा परिवर्तन नहीं माना जा सकता।
निराशा फैलाने वाले लोग निरुत्साहित करने की कोशिश कर सकते हैं, मगर हमें जोर-जोर से बोलते रहना चाहिए। इस बार की पीड़िता सिर्फ एक मनोरोगी द्वारा नहीं सताई गई है। इस बार उसके खिलाफ ज्यादती-अपराध, भ्रष्टाचार और राजनीति की तिगड़ी ने की है, तो लड़ाई भी इसी तिगड़ी के खिलाफ होनी चाहिए। यह सोचकर कि आवाज उठाने से कुछ होता-जाता नहीं या दूसरे दलों की सरकारों के समय भी तो यही सब होता रहता है, अगर हम चुप रह गए, तो यह तिगड़ी लगातार बनी रहेगी।
इस घटना के बहाने हमें उस भ्रष्टाचार पर भी बात करनी चाहिए, जो हमारे स्वास्थ्य तंत्र में विष की तरह फैला हुआ है। स्वास्थ्य को बाजार के हवाले छोड़ देने का ही फल हाल के नीट की परीक्षा में दिखा, जब लूट में हिस्सा हासिल करने को आतुर लोग पचास लाख तक खर्च करके मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश की कोशिश कर रहे थे। इन सारी प्रवृत्तियों के खिलाफ बोलने और जोर-जोर से बोलने की जरूरत है।