
20-06-2025 (Important News Clippings)
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SEBI Tweaks for Ease Of Doing Startups
Should strengthen trend of reverse flipping
ET Editorials
Sebi took a triad of decisions this week to encourage startups to list in India. This should strengthen the trend of reverse flipping from more business-friendly foreign jurisdictions. Startup founders can now hold on to employee stock options issued a year prior to filing for an IPO. Investors in convertible securities are no longer needed to hold shares arising from such conversion for at least a year. Shares held by some categories of investors can be counted among what promoters have to put up for listing. The markets regulator is, thus, addressing intent and means to list in India. The relaxed regulatory stance fits into the Indian investor appetite for quality paper that draws startups back to the country after exploring deep VC markets abroad.
These decisions matter, because they appreciate the distinction between startups and traditional businesses. Sweat equity is a means of deferred compensation for startup founders who go through several rounds of equity dilution before they can take their company public. Leadership continuity is preserved if founders remain invested in their companies post-listing. Widening the pool of investors who can participate in a startup’s public issue, and lowering the founder’s minimum contribution to the issue, ought to make the market more liquid. Sebi’s decisions were taken against the backdrop of a rising number of Esop buybacks and IPOs by startups. This is a good time to make the Indian equity market more friendly for startup founders.
Separately, Sebi is setting the stage for broader foreign participation in gilts as several global indices incorporate India’s sovereign debt. Easier disclosure requirements will be imposed on FPIs operating exclusively in the gilts segment. India is anticipating substantially larger foreign inflows into its gilts market, and is seeking tighter integration in global bond indices. Relaxations on periodicity and extent of disclosures for the special category of FPIs in the government bond market should aid the process.
Date: 20-06-25
विश्व शांति अमेरिका या इजराइल की बपौती नहीं
संपादकीय
ट्रम्प ने एक रिपोर्टर के इस सवाल पर कि क्या अमेरिका ईरान से सीधे युद्ध में शामिल होगा, उत्तर देते हुए कहा- ‘हो सकता है और नहीं भी, कोई नहीं जानता मैं क्या सोचता हूँ। मैं अंतिम सेकंड में फैसले लेता हूं।’ दुनिया की जीडीपी के 28-30% हिस्से वाले सबसे शक्तिशाली देश का राष्ट्रपति अगर युद्ध के फैसले अंतिम सेकंड में लेने की बात कहता हो तो यह संवैधानिक और प्रजातांत्रिक मर्यादाओं के खिलाफ ही नहीं, डरावना भी है। कोई नेता किसी देश को अपने मनमर्जी से युद्ध में नहीं झोंक सकता। चूंकि आज के युद्ध वैश्विक प्रभावों वाले होते हैं, इसलिए युद्ध में जाने के पहले राष्ट्र की राय भी जाननी होती है और अगर महाशक्ति हैं तो दुनिया के सामने उसका तार्किक औचित्य भी रखना होता है। विश्व शांति के लिए परमाणु हथियार कम करना और आगे न बनने देना अपरिहार्य शर्त जरूर है, लेकिन क्या इजराइल और पाकिस्तान सहित यह अन्य देशों पर भी लागू नहीं होती? पर्यावरण खतरे के मद्देनजर परमाणु ऊर्जा का शांतिपूर्ण (स्वच्छ बिजली के लिए) इस्तेमाल पूरी दुनिया में जरूरी हो गया है। अगर ताकतवर देश मनमर्जी से किसी मुल्क के परमाणु संवर्धन संयंत्र (सेंट्रीफ्यूज इकाइयों) को इस आधार पर ध्व कर देंगे कि उन्हें लगता है कि वह देश एटम बम बना सकता है तो अन्य देश ऐसे संयंत्र लगाने से डरेंगे और पर्यावरण अभियान रुक जाएगा। क्या ऐसा करने से पहले यूएन से चर्चा की गई थी ?
Date: 20-06-25
इस युद्ध के बाद मध्य-पूर्व का इतिहास बदल सकता है
थॉमस एल. फ्रीडमैन, ( तीन बार पुलित्ज़र अवॉर्ड विजेता एवं ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ में स्तंभकार )
ईरान के परमाणु बुनियादी ढांचों पर हमलों को मध्य-पूर्व के इतिहास की एक गेमचेंजर घटना कहना चाहिए। ये जिन घटनाक्रमों को गतिशील करेंगे, उनके दो नतीजे निकल सकते हैं। एक तो यह कि ईरान की हुकूमत गिर जाएगी और उसके स्थान पर एक अधिक धर्मनिरपेक्ष और सर्वसम्मत शासन की स्थापना की जा सकती है। दूसरा यह कि यह संघर्ष पूरे क्षेत्र को आग में झोंक सकता है और अमेरिका को भी इसमें उलझा सकता है। एक मध्य-मार्ग और है : आपसी बातचीत से समाधान, अलबत्ता वह टिकाऊ नहीं होने वाला।
इस युद्ध की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस बार इजराइल ने ईरान की परमाणु हथियार बनाने की क्षमता को खत्म करने तक लड़ाई जारी रखने की कसम खाई है। और इसके लिए ईरान ही दोषी है। उसने अपने यूरेनियम संवर्धन को बहुत तेजी से बढ़ाया है।
उसने अपने इन प्रयासों को इस हद तक आक्रामक रूप से छिपाया कि अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी को भी कहना पड़ा ईरान अपने परमाणु अप्रसार दायित्वों का पालन नहीं कर रहा है। वैसे, इजराइल ने पिछले 15 वर्षों में कई बार ईरानी परमाणु कार्यक्रम पर निशाना साधा है, लेकिन हर बार वह या तो अमेरिकी दबाव में या अपनी सैन्य क्षमताओं पर संदेह के कारण अंतिम समय पर पीछे हट गया था।
लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या इजराइल द्वारा नतांज जैसी परमाणु संवर्धन फेसिलिटीज़ पर बमबारी ने यूरेनियम संवर्धन के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले सेंट्रीफ्यूज को पर्याप्त नुकसान पहुंचा दिया है, जिससे वे कुछ समय के लिए निष्क्रिय हो गए हैं?
इससे और कुछ नहीं तो ईरान का काम जरूर धीमा हो जाएगा और यह इजराइल की कोई मामूली उपलिब्ध नहीं होगी। हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि फोर्दो स्थित न्यूक्लियर फेसिलिटी को नुकसान पहुंचाया गया है या नहीं।
सवाल यह भी है कि इस संघर्ष का इराक, लेबनान, सीरिया और यमन पर क्या असर होगा, क्योंकि वहां पर ईरान एक लंबे समय से अपना प्रभाव जमाए हुए है और सशस्त्र उग्रवादियों को पोषित करता आया है। हिजबुल्ला की रीढ़ तोड़ने से इस परिदृश्य में बदलाव की शुरुआत पहले ही हो चुकी है और लेबनान-सीरिया में पहले ही इसका लाभ मिल चुका है, जहां नए, बहुलतावादी नेताओं ने सत्ता संभाली है। ईरान के प्रभाव-क्षेत्र से इराक का पलायन भी वहां के लोगों के बीच व्यापक रूप से लोकप्रिय रहा है।
एक दृष्टिकोण यह भी है कि ईरान भी जानबूझकर तेल की कीमतों को आसमान छूने के लिए मजबूर करके ट्रम्प प्रशासन को अस्थिर करने की कोशिश कर सकता है और पश्चिमी देशों में मुद्रास्फीति बढ़ा सकता है। इसके लिए उसे होर्मुज स्ट्रैट में कुछ तेल या गैस टैंकरों को डुबोना भर होगा और निर्यात प्रभावी रूप से अवरुद्ध हो जाएगा। वास्तव में इसकी संभावना ही तेल की कीमतों को बढ़ाने के लिए काफी है।
आप इजराइल की खुफिया क्षमताओं पर भी ताज्जुब कर सकते हैं, क्योंकि उसने ईरान के शीर्ष मिलिट्री अधिकरियों की सटीक लोकेशन खोजकर उन्हें मार गिराया है। इससे मालूम होता है कि कितने ईरानी अधिकारी इजराइल के लिए काम करने के लिए तैयार हैं, क्योंकि वे अपनी सरकार को नापसंद करते हैं।
हालत यह है कि हर बार जब ईरान के सैन्य और राजनीतिक नेता इजराइल के खिलाफ ऑपरेशन की योजना बनाने के लिए इकट्ठा होते हैं, तो उनमें से प्रत्येक को खुद से पूछना पड़ता है कि कहीं उनके बगल में बैठा व्यक्ति इजराइल का एजेंट तो नहीं? ईरान के सर्वोच्च नेता ने अपने प्रमुख जनरलों को अपनी आंखों के सामने मरते देखा है और उन्हें निश्चित रूप से पता है कि इजराइल उन्हें भी कभी भी खत्म कर सकता है।
गाजा के विपरीत इजराइल ने ईरानी नागरिकों पर हमला करने से बचने के लिए हरसंभव प्रयास किया है, क्योंकि अंततः इजराइल चाहता है कि वे खुद अपनी हुकूमत के खिलाफ आंदोलन करें। क्योंकि उसने उनकी बेहतरी के बजाय परमाणु हथियार बनाने में बहुत सारे संसाधनों को बर्बाद कर दिया है। ईरान के लोग भले ही नेतन्याहू की अपील से प्रेरित न हों, लेकिन यह तय है कि ईरान की हुकूमत अवाम में लोकप्रिय नहीं है।
लेकिन अगर इजराइल अपने प्रयास में विफल हो जाता है और तमाम चोटें खाने के बावजूद ईरान परमाणु हथियार बनाने में सक्षम हो जाता है तो इससे क्षेत्र पहले से कहीं अधिक अस्थिर हो जाएगा। तेल संकट भी बढ़ेगा। और संभवतः ईरान अमेरिका-समर्थक अरब शासनों पर हमला करने के लिए प्रेरित हो सकता है। तब अमेरिका के पास इस लड़ाई में कूदने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा।
इजराइल चाहता है कि ईरान के लोग भी अपनी हुकूमत के खिलाफ आंदोलन करें। उसने उनकी बेहतरी के बजाय परमाणु हथियार बनाने में बहुत सारे संसाधनों को बर्बाद कर दिया है। ईरान की हुकूमत अवाम में लोकप्रिय नहीं है
Date: 20-06-25
बुजुर्ग होते विश्व में भारत की महत्ता
डॉ. विशेष गुप्ता
देश में 16वीं जनगणना की अधिसूचना जारी हो चुकी है। देश में यह पहली ऐसी जनगणना होगी, जहां आंकड़ों का संकलन कागज-कलम से न होकर डिजिटल आधार पर किया जाएगा। 2011 के बाद होने वाली इस जनगणना में जाति गणना भी शामिल होगी। इस जनगणना से भारत में गरीबी, शिक्षा, लोगों की आय, लिंगानुपात, जाति, पंथ, अमीरी-गरीबी, युवा-बुजुर्ग इत्यादि की तस्वीर साफ होगी।
अभी हम युवा देश हैं, परंतु हाल में देश में लिंगानुपात से संबंधित जो रपटें आई हैं, उनमें देश में वृद्धजनों की बढ़ती आबादी का आकलन किया गया है। इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। पहली रिपोर्ट प्लेसेस नामक जर्नल में प्रकाशित हुई है। इसके आंकड़े बताते हैं कि आज भारत का हर चौथा-पांचवां बुजुर्ग स्मृति लोप, भाषा का ठीक से प्रयोग न करने, सोचने-समझने एवं निर्णय लेने की क्षमता के कमजोर हो जाने जैसी समस्याओं से जूझ रहा है।
दूसरी रिपोर्ट भारतीय स्टेट बैंक ने जारी की है। इसके अनुसार भारत की कामकाजी आबादी की औसत आयु 2021 में 24 वर्ष के मुकाबले साल 2026 में बढ़कर 28-29 वर्ष हो जाएगी। आज चीन की कामकाजी औसत आयु 39.5 साल है। वहीं यूरोप में यह 42 साल, उत्तरी अमेरिका में 38 एवं एशिया में 32 साल है। वैश्विक स्तर पर यह औसत आयु 30.4 वर्ष दर्ज की गई है।
एसबीआइ की रिपोर्ट संकेत देती है कि भारत में शून्य से चौदह साल के बच्चों की आबादी में गिरावट आ रही है। 1991 में इनकी जो आबादी 36.4 करोड़ थी, वह 2026 में घटकर 34 करोड़ रहने वाली है। आबादी में 1991 में इनकी जो हिस्सेदारी 37 प्रतिशत थी, वह वर्ष 2026 में घटकर 24.3 प्रतिशत रह जाएगी। इस प्रकार 60 साल से अधिक उम्र के लोगों की आबादी विगत ढाई दशक में बढ़कर दोगुनी हो गई है। इसका अर्थ है कि 2001 में बुजुर्गों की जो आबादी 7.9 करोड़ थी, वह साल 2026 में बढ़कर 15 करोड़ के आसपास पहुंच जाएगी।
इनमें 7.7 करोड़ पुरुष तथा 7.3 करोड़ महिलाएं होंगी। इसी तरह वर्ष 2001 में देश में जो कामकाजी आबादी 58.6 करोड़ थी, 2026 में इसके बढ़कर 91 करोड़ होने का अनुमान है। माना जा रहा है कि अगली जनगणना में देश की कुल आबादी में 67 प्रतिशत हिस्सेदारी कामकाजी लोगों की होगी। इसी संदर्भ में तीसरी रिपोर्ट केंद्र सरकार के सांख्यिकी मंत्रालय ने प्रकाशित की है। यह बताती है कि देश में 2036 तक बच्चों एवं किशोरों की आबादी में गिरावट दर्ज होगी और बुजुर्गों एवं मध्यम उम्र के लोगों की संख्या बढ़ेगी। इस रिपोर्ट के अनुसार 2021 में आबादी में 15 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की हिस्सेदारी 26.2 प्रतिशत थी, लेकिन 2026 में यह घटकर 20.6 प्रतिशत रह जाएगी। 2021 में 35-49 आयुवर्ग के लोगों की आबादी में हिस्सेदारी 19.1 प्रतिशत थी, परंतु 2026 में इस आयुवर्ग का प्रतिशत बढ़कर 23 प्रतिशत हो जाएगा।
वर्तमान में देश की आबादी में 60 वर्ष से अधिक आयुवर्ग के लोगों का प्रतिशत 9.5 है। 2036 में ऐसे लोगों की आबादी बढ़कर 13.9 प्रतिशत हो जाएगी। चौथी रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (यूएनएफपीए) की है। इसमें कहा गया है कि अगले 25 वर्षों में भारत की आबादी में 60 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों की हिस्सेदारी 20.8 प्रतिशत तक पहुंच जाएगी। अर्थात देश में हर पांचवां व्यक्ति बुजुर्ग की श्रेणी में होगा। 2024-2050 के बीच देश की कुल आबादी 18 प्रतिशत ही बढ़ेगी, मगर वृद्ध जनसंख्या में 134 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी होगी।
इस रिपोर्ट के अनुसार 2022-2023 तक भारत में बुजुर्गों की आबादी 14.9 करोड़ थी। यानी कुल आबादी में इनका हिस्सा 10.5 प्रतिशत था। इस तरह देश में 100 कामकाजी लोगों पर 16 वृद्धजन निर्भर हैं। इससे देश में कामकाजी युवाओं और वृद्धजनों के बीच संतुलन के बिगड़ने की आशंका है। अभी संयुक्त राष्ट्र की नवीनतम जनसांख्यिकी रिपोर्ट से पता चला है कि 2025 के अंत तक भारत की आबादी दुनिया में सर्वाधिक 1.46 अरब तक पहुंच जाएगी। इस रिपोर्ट से देश की जनसंख्या संरचना, प्रजनन क्षमता एवं जीवन प्रत्याशा में भविष्य में बड़े परिवर्तन के संकेत मिलते हैं।
उपरोक्त रपटों का सार यही है कि यदि भारत में बुजुर्गों की संख्या बढ़ रही है तो फिलहाल उससे कहीं बढ़े हुए अनुपात में कामकाजी युवक-युवतियों की संख्या भी बढ़ रही है। आज ब्रिक्स देशों में जन्म दर और जनसंख्या वृद्धि दर साल दर साल घट रही है। जापान, फ्रांस, जर्मनी, आस्ट्रेलिया एवं ब्रिटेन जैसे देशों में जनसंख्या के बढ़ने का स्तर अमूमन शून्य हो चुका है। निःसंदेह भविष्य में वहां वृद्धजनों की संख्या बढ़ेगी और कार्यशील जनसंख्या कम होती जाएगी।
इससे उनका उत्पादन स्वतः ही घटेगा। भविष्य में भारत उन देशों में प्रमुख होगा, जहां कार्यशील युवा जनसंख्या सबसे अधिक होगी। प्रधानमंत्री मोदी 2047 तक जिस विकसित भारत की कल्पना कर रहे हैं, उसके लिए यदि युवाओं की ऊर्जा, शक्ति, उत्साह और सामर्थ्य देश के काम आएगा तो उसी अनुपात में वरिष्ठजनों का अनुभव भी भारत के निर्माण में पथ प्रदर्शक का कार्य करेगा। फिर भी आज की आवश्यकता यही है कि युवाओं के बेहतर भविष्य के साथ वरिष्ठजनों के लिए सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा के भी प्रबंध हों।
Date: 20-06-25
समुद्र की सेहत में सुधार के लक्ष्य
( लेखक विदेश सचिव और जलवायु परिवर्तन के लिए प्रधानमंत्री के विशेष दूत रह चुके हैं )
इंसान भले ही जमीन पर रहते हैं लेकिन मानवता का मूल गहरे समुद्र में है। सन 1967 में जब दुनिया ऐतिहासिक समुद्री कानून पर बातचीत कर रही थी तब माल्टा के राजनयिक अरविड प्राडो ने कहा था, ‘समुद्र ही वह कोख है, जहां से जीवन आया । महफूज रखने वाले इस समुद्र से ही जीवन निकला। हमारे खून और आंसुओं का खारापन अब भी हमारे शरीर में उस अतीत की निशानी हैं।’
हमें समुद्र से जोड़ने वाली गर्भनाल स्वयं जीवन का आधार तत्त्व है। पृथ्वी की आधी ऑक्सीजन समुद्र ही बनाते हैं। कुल कार्बन उत्सर्जन का 30 फीसदी समुद्र सोख लेते हैं। वातावरण के तापमान को ये कम करने हैं। यह पृथ्वी का सबसे बड़ा कार्बन सिंक है। पृथ्वी की जलवायु को कायदे में रखने का काम अगर यह बंद कर दे तो इस ग्रह से जीवन खत्म होने में देर नहीं लगेगी।
समुद्र की सेहत ठीक करने की चिंता बहुत पुरानी है। द लॉ ऑफ द सी (समुद्र का कानून) पर दस्तखत तो 1982 में किए गए थे मगर यह लागू 1994 में किया गया। इसमें समुद्री वातावरण के संरक्षण से जुड़े प्रावधान थे परन्तु पहली विस्तृत और व्यापक योजना 2015 के सतत विकास के लक्ष्यों (एसडीजी 14) में पेश की गई, जिसमें दुनिया के महासागरों, सागरों और समुद्री संसाधनों के संरक्षण तथा पर्यावरण अनुरूप इस्तेमाल की बात की गई। इसके तहत 2030 तक 10 लक्ष्य हासिल किए जाने हैं, जिनमें समुद्री प्रदूषण समाप्त करना, मछलियों का अत्यधिक शिकार बंद करना और समुद्र का अम्लीकरण रोकना आदि शामिल हैं। इनमें से कोई लक्ष्य दूर-दूर तक हासिल होता नहीं दिखता। इन लक्ष्यों पर हुई प्रगति की समीक्षा करने और इनका क्रियान्वयन बढ़ाने के इरादे से पहला संयुक्त राष्ट्र समुद्री सम्मेलन 2017 में न्यूयॉर्क में हुआ और दूसरा 2022 में लिस्बन में मगर अभी तक निराशा ही हाथ लगी है।
स्वतंत्र गैर लाभकारी संस्था ओशनकेयर कहती है, ‘लिस्बन 2022 के बाद से महासागरों की हालत कई संकेतकों पर बिगड़ती दिखी है और सरकारें कोई ठोस काम किए बगैर जबानी जमाखर्च में लगी रहती है। 5-10 साल बाद तो महासागरों के लिए कुछ कारगर करने का मौका ही नहीं रह जाएगा।’ संयुक्त राष्ट्र के इन सम्मेलनों में बातचीत नहीं होती और इनकी घोषणाएं स्वैच्छिक संकल्प होती हैं देशों के सामने इन्हें लागू करने का कोई प्रोत्साहन ही नहीं होता क्योंकि इनका अनुपालन कराने के लिए कोई कानूनी प्रावधान ही नहीं है।
तीसरा संयुक्त राष्ट्र महासागर सम्मेलन फ्रांस और कोस्टारिका ने साथ मिलकर 9 से 13 जून तक नीस में आयोजित किया। इस समय भूराजनीति खेमों में बंटी है और डॉनल्ड ट्रंप का अमेरिका बहुपक्षीयता को नकार चुका है, इसलिए इस माहौल में सम्मेलन को कामयाब माना जा सकता है। इसमें 170 से अधिक देशों के प्रतिनिधि थे और 60 देशों के प्रमुखों तथा सरकारों ने इसमें हिस्सा लिया। इससे राजनीतिक घोषणा और नीस ओशन एक्शन प्लान निकलकर आया। इसमें सरकारों के साथ वैज्ञानिकों, संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों और नागरिक समाज के स्वैच्छिक संकल्प शामिल हैं। इससे भी अहम बात यह है कि राष्ट्रीय अधिकार क्षेत्र से परे जैव विविधता या उच्च सागर संधि को जल्द स्वीकार करने तथा अगस्त में जिनेवा में होने वाले अंतिम दौर में वैश्विक प्लास्टिक्स संधि पर वार्ता संपन्न करने का संकल्प लिया गया है। समुद्र की सेहत को कानूनी सुरक्षा मुहैया कराने के लिहाज से ये दोनों अहम हैं। उच्च सागर संधि महासागरों के करीब दो-तिहाई हिस्से को बचाएगा, जो किसी देश के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता।
महासागरों में प्लास्टिक प्रदूषण चिंताजनक स्तर पर पहुंच गया है और सभी समुद्री जीव खतरे में आ गए हैं। अब तो यह माइक्रोप्लास्टिक के रूप में हमारे भोजन में पहुंच रहा है, जिससे कैंसर हो सकता है और इंसानों तथा जीवों के लिए बराबर नुकसानदेह है अनुमान है कि हर साल दुनिया का 18 से 20 फीसदी प्लास्टिक कचरा महासागरों में पहुंच जाता है। अंकुश नहीं लगाया गया तो 2040 तक 370 लाख टन प्लास्टिक कचरा महासागर में मिल जाएगा। लगातार फेंका जा रहा दूसरा कचरा और नुकसानदेह पदार्थ जोड़ दें तो कह सकते हैं कि समुद्र दुनिया के कूड़ाघर बन गए हैं। अंतरराष्ट्रीय जैव विविधता सम्मेलन महासागर के संरक्षण के लिहाज से भी महत्त्वपूर्ण है। कनमिंग-मॉन्ट्रियल ग्लोबल बायोडायवर्सिटी फ्रेमवर्क में 30 फीसदी समुद्री इलाके को संरक्षित करने का संकल्प है। संयुक्त राष्ट्र महासागर सम्मेलन ने भी कहा है कि 2030 तक यह लक्ष्य हासिल करना बहुत जरूरी है। नीस में सहमति से स्वीकार की गई राजनीतिक घोषणा बताती है कि महासागरों की बिगड़ी सेहत पर कितनी अधिक चिंता है।
संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन से पहले करीब 2,000 अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिकों ने अपनी वन ओशन साइंस कॉन्फ्रेंस आयोजित की और चेतावनी दी। उन्होंने वैज्ञानिक आधार पर साबित कर बताया कि समुद्र का बिगड़ता पारितंत्र कैसे पूरी पृथ्वी के अस्तित्व के लिए संकट खड़ा कर रहा है। यह सही समय पर की गई बहुत जरूरी पहल थी। हमेशा की तरह समस्या यह है कि ऐसी जल्दबाजी कार्य योजना के लिए जरूरी रकम जुटाने में नहीं दिखती । धीमी पड़ती विश्व अर्थव्यवस्था में रकम जुटाना और भी चुनौती भरा हो जाएगा। संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि समुद्री संरक्षण के लिए जो रकम उपलब्ध हो रही है, उसमें 15.8 अरब डॉलर की और जरूरत है। मगर हमारे सामने मौजूद लक्ष्यों को देखते हुए लगता है कि कमी इससे कहीं ज्यादा है।
कॉन्फ्रेंस में भारत का प्रतिनिधित्व पृथ्वी विज्ञान मंत्री जितेंद्र सिंह ने किया। उन्होंने छह बिंदुओं वाली समुद्र संरक्षण योजना पेश की, जिसमें समुद्री शोध बढ़ाना और समुद्र नीति के लिए विज्ञान आधारित हल शामिल थे। साथ ही समुद्र के संरक्षित क्षेत्रों का विस्तार करना और समुद्री पारितंत्र की सुरक्षा करना, बेकार जल के कारगर प्रबंधन के जरिये समुद्र का प्रदूषण कम करना तथा देखी ज्ञान की मदद से समुदायों को सशक्त बनाना एवं समावेशी और समतापूर्ण समुद्री प्रशासन सुनिश्चित करना जैसी बातें इसमें शामिल थीं। इनमें से कई बिंदु अंतिम दस्तावेज में भी नजर आए।
भारत एक समुद्री देश है और हमारे यहां 22 लाख वर्ग किलोमीटर का विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र है। इसके अलावा महाद्वीप में करीब 12 लाख वर्ग किलोमीटर इलाका और है हमारी तट रेखा 7,000 किलोमीटर से लंबी है। वैश्विक समुद्री प्रशासन व्यवस्था भारत के लिए बहुत मायने रखती है उसके आर्थिक और सामुद्रिक हितों की सुरक्षा के लिए यह जरूरी है। समुद्री सीमाएं जमीनी सीमाओं से अलग होती हैं और उनका उल्लंघन आसानी से हो जाता है। समुद्र के संरक्षण के लिए अपने समुद्री पड़ोसियों और साझेदारों के साथ करीबी सहयोग जरूरी होता है।
भारत संरक्षित समुद्री राष्ट्रीय उद्यान पार्क के तहत आने वाले इलाके को बढ़ाने की भी सोच सकता है। फिलहाल केवल चार ऐसे क्षेत्र है- कच्छ की खाड़ी, मन्नार की खाड़ी, सुंदरर्बन और वांडूर। हमें पूर्व में खराब होते गंगा डेल्टा को सुधारने पर भी विचार करना चाहिए। अब वह मृत क्षेत्र हैं, जहां जलीय जीवन खत्म हो चुका है। इसका कारण औद्योगिक गतिविधियां हैं, जिनसे उत्पन्न विषैले रसायन पानी में मिल गए हैं। जमीन और समुद्र की प्रणालियां आपस में जुड़ी हुई हैं और इन्हें एक साथ देखा जाना चाहिए। भारत को ऐसी पारिस्थितिकी रणनीति की आवश्यकता है जो इस जुड़ाव को समझे।
Date: 20-06-25
एमएसएमई की बढ़ती चुनौतियां
डॉ जयंतीलाल भंडारी
इन दिनों भारत के सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यमों (एमएसएमई) से संबंधित विभिन्न रिपोटों में कहा जा रहा है कि भारत में एमएसएमई की चुनौतियों के बीच मौके भी उभरकर दिखाई दे रहे हैं। हाल ही में वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने कहा कि सरकार एमएसएमई की चुनौतियों को दूर करने की डगर पर रणनीतिपूर्वक आगे बढ़ रही है। सरकार एमएसएमई से निर्यात बढ़ाने के लिए एक नई स्कीम लाने पर विचार कर रही है। खासतौर से अमेरिका के राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रंप से टैरिफ की चुनौती के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहे जाने वाले एमएसएमई की अमेरिकी बाजार पर निर्भर अधिकांश निर्यातक इकाइयां अमेरिकी खरीदारों द्वारा छूट की नई मांग और अनुबंधों पर नये सिरे से बातचीत के अलावा भुगतान में देरी जैसी चुनौतियों के मद्देनजर एमएसएमई के बचाव के लिए सरकार का रणनीतिक सहयोग जरूरी माना जा रहा है।
हाल ही में प्रकाशित सिडबी की रिपोर्ट के मुताबिक अभी एमएसएमई के लिए सरल कर्ज की प्राप्ति एक बड़ी चुनौती बनी हुई है। एमएसएमई की क्रेडिट मांग व पूर्ति में 30 लाख करोड़ रुपये का अंतर है। मांग के मुताबिक लोन मिलने पर एमएसएमई के तहत 5 करोड नये रोजगार के अवसर निर्मित होंगे। नीति आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है। कि छोटे उद्योगों को जरूरत के मुताबिक क्रेडिट, तकनीकी कौशल तथा विकास एवं अनुसंधान के क्षेत्र में मदद मिल जाए तो एमएसएमई रोजगार और आर्थिक विकास का बड़ा साधन बन सकते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दिल्ली के विज्ञान भवन में राष्ट्रीय सिविल सेवा दिवस पर अपने संबोधन में कहा कि इस समय नये व्यापार युग के बदलाव के दौर में भारत के एमएसएमई के पास चुनौतियों के बीच दुनिया में आगे बढ़ने के ऐतिहासिक अवसर भी हैं और ये उद्योग वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में प्रतिस्पर्धी बन सकते हैं। गौरतलब है कि एमएसएमई मंत्रालय के उद्यम पोर्टल पर इस साल मार्च तक पंजीकृत 6.2 करोड़ एमएसएमई 25.95 करोड़ लोगों को रोजगार देते हैं। देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में एमएसएमई का योगदान करीब 30 फीसद है। एमएसएमई से वर्ष 2024-25 में करीब 12.39 लाख करोड़ रुपये का निर्यात किया गया है। देश से निर्यात किए गए कुल उत्पादों में से करीब 46 फीसद उत्पाद एमएसएमई क्षेत्र से है। ऐसे में भारत ने हाल ही इंग्लैंड के साथ फ्री ट्रेड एग्रीमेंट (एफटीए) किया है और अमेरिका के अलावा अन्य कई प्रमुख देशों के साथ भी द्विपक्षीय व्यापार समझौतों के पूर्ण होने पर एमएसएमई की भूमिका महत्त्वपूर्ण होगी। अतएव नये अवसरों का लाभ उठाने के लिए एमएसएमई को प्रोत्साहन देकर मजबूत बनाना जरूरी है। इसमें कोई दो मत नहीं है कि टैरिफ वार से एमएसएमई क्षेत्र को जो झटका लग रहा है, उस झटके से एमएसएमई के उबारने के लिए जहां एक ओर सरकार के द्वारा एमएसएमई के समक्ष दिखाई दे रही चुनौतियों के समाधान के लिए रणनीति बनाकर निर्यातकों को सहारा देना होगा, वहीं एमएसएमई क्षेत्र के उद्यमियों और निर्यातकों को भी नई चुनौतियों के मद्देनजर तैयार होना होगा। निश्चित रूप से निर्यातकों को सहारा देने के सरकार के ये कदम सराहनीय हैं, लेकिन ट्रंप के टैरिफ तूफान का मुकाबला करने और निकट भविष्य में निर्मित होने वाले उभरते अवसरों को मुट्ठी में लेने के मद्देनजर एमएसएमई को हरसंभव उपाय से मजबूत बनाना होगा। नये सिरे से एमएसएमई की क्षमताओं को उन्नत करने, संचालन को सुव्यवस्थित करने तथा किसी भी निर्यात झटके से निपटने के लिए एमएसएमई को नीतिगत समर्थन का लाभ दिए जाने के प्रयासों में तेजी लाना होगी। इससे भारत की एमएसएमई उतार-चढ़ाव भरे सफर को आगे बढ़ा सकेगी।
इसमें कोई दो मत नहीं हैं कि बड़ी संख्या में युवा पीढ़ी के लोग अब नौकरी की बजाय खुद का उद्योग-व्यवसाय शुरू करने की सोच रहे हैं। ऐसे में एमएसएमएई उनके लिए महत्त्वपूर्ण विकल्प है। जरूरी है कि देश के कोने-कोने में, प्रदेशों और जिला स्तर पर एमएसएमई कानक्लेव आयोजित किए जाएं और ऐसे मंच पर एमएसएमई से जुड़े कारोबारी, उद्योग विशेषज्ञ और नीति बनाने वाले लोग एकत्रित होकर एमएसएमई के नये दौर के लिए नई पीढ़ी का जन जागरण करें नई पीढ़ी को एमएसएमई के उत्पादों और सेवाओं से परिचित कराएं। नये ग्राहकों से मिलाएं और एमएसएमई को आगे बढ़ाने के नये तरीके सिखाएं। उम्मीद करें कि एमएसएमई की बहुआयामी उपयोगिता के मद्देनजर सरकार एमएसएमई के समक्ष दिखाई देने वाली चुनौतियों के समाधान के लिए तत्परता के साथ रणनीतिपूर्वक आगे बढ़ेगी। उम्मीद करें कि देश में एमएसएमई से संबद्ध उद्यमी और निर्यातक अधिकतम प्रयासों से कम लागत पर अधिकतम उत्पादन करते हुए देश के छोटे उद्योग कारोबार को तेजी से आगे बढ़ाएंगे। वर्ष 2028 तक देश को दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था और 2047 तक विकसित देश बनाने में एमएसएमई की भूमिका अहम होगी।