20-03-2017 (Important News Clippings)
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Jat reservation: How to meet yet more demands
The Jat threat to lay siege to Parliament has been postponed by 15 days, not abandoned, thanks to a promise by the Haryana chief minister to Jat leaders that the process of extending reservation to the community would begin soon. The Patels of Gujarat, another powerful agrarian community, have also been agitating for reservations. These demands stems from two kinds of failure, one developmental, the other, political.
As the share of services and industry in the economy goes up and that of agriculture goes down, communities whose prosperity and social dominance derived from landholding see their fortunes decline, in relation to those of other communities that have obtained a relatively larger presence in the modern and faster-growing sectors of the economy. Failure to produce enough jobs to accommodate the aspirations of rural youth to move into urban jobs breeds frustration, especially as the policy of affirmative action secures jobs and the educational attainment needed to get those jobs for small sections of the subaltern.Investing in infrastructure, promoting entrepreneurship and efficient financial mediation while maintaining macroeconomic stability in a globalising world is the way to create jobs. India is groping its way to this end.
Politics has failed by presenting reservations as a panacea and by patronising absenteeism and rampant inefficiency and fraud in the educational apparatus. Addressing these two failures is the long-term solution to the growing queue of communities seeking statutory reservation in jobs and higher education. This will take time and agitators have to be dealt with now, with a pragmatic mix of firmness, fairness and flexibility.
बुजुगरे का पुरसाहाल नहीं
आज भारतीय समाज में वरिष्ठ नागरिकों का कोई पुरसाहाल नहीं है। कहने को तो वह प्यार और सम्मान के हकदार हैं, लेकिन असलियत में वह पूरी तरह उपेक्षित हैं। रिसर्च एंड एडवोकेसी सेंटर ऑफ एजवेल फाउंडेशन द्वारा कराए गए एक सव्रेक्षण में खुलासा हुआ है कि आज की युवा पीढ़ी न केवल वरिष्ठजनों के प्रति लापरवाह है, बल्कि वह उन लोगों की समस्याओं के प्रति जागरूक भी नहीं है। वह पड़ोस के बुजुगरे को तो सम्मान दिखाने के लिए तत्पर दिखती है मगर अपने ही घर के बुजुगरे की उपेक्षा करती है, उन्हें नजरअंदाज करती है। सव्रेक्षण के अनुसार 59.3 फीसद लोगों का मानना है कि समाज और घर में बुजुगरे के साथ व्यवहार में विरोधाभास है। केवल 14 फीसद का मानना है कि घर हो या बाहर दोनों ही जगह बुजुगरे की हालत एक जैसी है, उसमें कोई अंतर नहीं है। जबकि 25 फीसद के अनुसार घर में बुजुगरे का सम्मान खत्म हो गया है। वह बात दीगर है कि कुछ फीसद की राय में घर में बुजुगरे को सम्मान दिया जाता है। असलियत तो यह है कि परिवार के सदस्य अपने घर के बुजुगरे को हल्के में लेते हैं, इसके बावजूद बुजुर्ग उन पर अपना अधिकार तक नहीं जताना चाहते। वह उस उम्र में भी सक्रिय रहना चाहते हैं। रपट की मानें तो 50 फीसद लोग यह मानते हैं कि कार्यस्थलों पर भी उनके साथ भेदभाव होता है, जिसके चलते उनकी पदोन्नति भी प्रभावित होती है। तात्पर्य यह कि बुजुर्ग हर जगह उपेक्षित हैं और आज की युवा पीढ़ी उन्हें बेकार की चीज मानने लगी है, वह यह नहीं सोचती कि उनके अनुभव उनके लिए बहुमूल्य हैं, जो उनके जीवन में पग-पग पर महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं।देखा जाए तो संयुक्त परिवार के प्रति जो प्रतिबद्धता युवाओं में साठ-सत्तर के दशक तक दिखाई देती थी, आज उसका चौथाई हिस्सा भी नहीं दिखाई देता। एक शिक्षित महिला जो तीन विषयों में एमए है, बीएड है, एमएड है व एक उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में प्राध्यापिका भी हैं, कहती हैं कि जहां तक परिवार का सवाल है, हमारा परिवार तो मैं, मेरे पति व मेरे बच्चे हैं। सास-ससुर व देवर-ननद हमारा परिवार नहीं है। विडम्बना तो यह है कि पत्नी के कथन से पति महोदय पूरी तरह सहमत हैं। इस स्थिति में संयुक्त परिवार की कल्पना ही व्यर्थ है। इस स्थिति में सबसे ज्यादा प्रभावित परिवार के बुजुर्ग होते हैं। इसमें दो राय नहीं है कि जो सुरक्षा और सम्मान परिवार के बुजुगरे को आज से तकरीब 40-50 साल पहले प्राप्त था, आज नहीं है। दरअसल, बुजुगरे के प्रति सम्मान की भावना हमारी संस्कृति और परंपरा को दर्शाती है। इसका श्रेय भी संयुक्त परिवार प्रथा को जाता है। भारतीय संयुक्त परिवार प्रथा में बुजुगरे का स्थान सम्मानजनक रहा है। परिवार के मुखिया को विशिष्ट सलाहकार और नियंत्रक के रूप में माना जाता रहा है। पश्चिमी प्रभाव, शहरीकरण और वैश्वीकरण के इस दौर ने संयुक्त परिवार प्रथा को बुरी तरह झकझोर कर रख दिया है। हमारे यहां संयुक्त परिवार टूट रहे हैं, जबकि पश्चिमी जगत में हमारी संयुक्त परिवार प्रथा को एकाकी जीवन से छुटकारा पाने का एक कारगर उपाय माना जा रहा है। आज सबसे अहम जरूरत बुजुगरे की परेशानियों के प्रति व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाने की है ताकि वे मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक रूप से खुद को समाज और परिवार से अलग-थलग महसूस न कर पाएं। सरकार को चाहिए कि वह उनके लिए समुचित पेंशन की व्यवस्था करे और उन्हें सुरक्षा प्रदान करे। साथ ही 1999 में इस के लिए बनी नीति की समीक्षा की जाए, जिससे यह पता चल सके कि आखिर उनकी जरूरतों को किस तरह पूरा किया जा सकता है। सबसे पहले घर के बुजुगरे का ख्याल न रखने वाले परिवार के सदस्यों पर कड़ाई का कानून जो 2007 में बनाया गया है, उसे और कड़ा किया जाए। जब वही अपने दायित्व से विमुख हो जाएंगे, उस दशा में सरकार के प्रयास बेमानी साबित होंगे। इसमें दो राय नहीं कि बुढ़ापे में सतांन अक्सर उनसे छुटकारा पाना चाहती है। वह बूढ़े हो चुके मां-बाप को एक बोझ समझती है। केंद्र सरकार ने महिलाओं की तरह ही बुजुगरे के लिए अलग से बजट बनाने पर काम शुरू किया है ताकि बुजुगरे की उचित देखभाल की जा सके और आबादी के इस आठ फीसद हिस्से को सुरक्षा, स्वास्य संबंधी सुविधाएं प्रदान कर उनके हितों की रक्षा कर वह अपना दायित्व पूरा कर सके। सरकार का यह प्रयास और इस वर्ग के प्रति उसकी जागरूकता सराहनीय है लेकिन इस पर अमल कब तक होगा, भगवान भरोसे है।
Date:19-03-17
मालदीव पर रखनी होगी नजर
सऊदी अरब के शाह सलमान इब्न अब्दुल अजीज की इस माह होने वाली मालदीव यात्रा रद्द होने से भारत को फौरी तौर पर राहत मिली होगी। हालांकि सऊदी अरब के साथ भारत की किसी तरह की शक्ति-प्रतिस्पर्धा नहीं है, लेकिन मालदीव में चीन और सऊदी अरब की संयुक्त सक्रियता भारत के लिए चिंता का विषय है। इसलिए मालदीव की सामरिक, रणनीतिक अहमियत और भारत के साथ इसकी नजदीकियों को दरकिनार नहीं किया जा सकता। शाह सलमान की प्रस्तावित मालदीव यात्रा का मुख्य एजेंडा उस समझौते पर दस्तखत करना था, जिसके तहत मालदीव को अपने फाफू द्वीप को 99 साल के पट्टे पर विशेष आर्थिक क्षेत्रके लिए सऊदी अरब को देने का प्रस्ताव था। इस परियोजना के तहत बंदरगाह, हवाई अड्डा और रिजॉर्ट का निर्माण किया जाना है, जो फाफू द्वीप को विश्वस्तरीय शहर के तौर पर विकसित करेगा। परियोजना सफल होने पर पर्यटन की संभावनाएं भी बढ़ जाएंगी।चीन भी दक्षिण एशियाई क्षेत्र में अपनी विस्तारवादी नीति को जारी रखते हुए मालदीव में अपना आधारभूत ढांचा खड़ा करने के लिए व्यापक स्तर पर निवेश कर रहा है। दरअसल, चीन और सऊदी अरब, दोनों ही मालदीव को मदद करने के लिए और बदले में मदद पाने के लिए आतुर दिख रहे हैं। इनका मुख्य लक्ष्य अपने-अपने संभावित सैनिक अड्डों के लिए रियायत पाना है। दोनों ही देश पूर्व अफ्रीकी देश जिबूती में स्वतंत्र सैनिक चौकियां स्थापित करके तेल, ऊर्जा और व्यापार मार्ग का विकास करना चाहते हैं। मालदीव में चीन और सऊदी अरब की सक्रियता दर्शाती है कि पर्यटन के लिए प्रसिद्ध यह देश क्षेत्रीय संघर्ष के लिए कितनी अहमियत रखता है। हिंद महासागर के तटवर्ती क्षेत्रों में स्थित मालदीव सामरिक दृष्टि से भारत के लिए विशेष अहमियत रखता है। भारत का समस्त जलमार्ग इसी महासागर से होकर गुजरता है। यही जलमार्ग भारत को पूर्व एशिया, अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया से जोड़ता है। भारत इसे अपने राजनीतिक-आर्थिक प्रभाव वाला क्षेत्र मानता है। मालदीव चूंकि भारत के ठीक नीचे हैं, इसलिए वहां चीन जैसे प्रतिस्पर्धी देश की गतिविधियों को नई दिल्ली अपनी सुरक्षा के साथ जोड़कर देखता है। भारत श्रीलंका से भी यही अपेक्षा रखता है कि वह चीन को इस क्षेत्र में ऐसी कोई सुविधा प्रदान न करे, जिससे उसकी सुरक्षा प्रभावित हो। सत्तर के दशक में शीत-युद्ध के दौरान हिंद महासागर महाशक्तियों के शक्ति-प्रदर्शन का अखाड़ा बन गया था। इससे आजिज आकर भारत ने हिंद महासागर को शांति क्षेत्र घोषित करने की मांग उठाईथी। प्रकारांतर से श्रीलंका, बांग्लादेश, मॉरीशस आदि देशों ने भारत की मांग का समर्थन भी किया था।मालदीव मुस्लिम बहुल देश है। सऊदी अरब के साथ इसके संपर्क बढ़ने से इस आशंका को बल मिलता है कि यहां कट्टरपंथी इस्लामी ताकतें सिर उठा सकती हैं। ऐसी खबरें भी हैं कि मालदीव के सैकड़ों कट्टरपंथी नागरिक सीरिया जाकर आईएस के जिहाद में शामिल हो चुके हैं। 2010 में वहां इस्लाम के प्रचारक जाकिर नाइक का दौरा हुआ था। उनके भाषण से वहां के नागरिक आत्ममुग्ध थे। अत: भारत को मालदीव में विदेशी शक्तियों की गतिविधियों पर नजर रखनी होगी।