19-11-2024 (Important News Clippings)

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19 Nov 2024
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Date: 19-11-24

This time for Africa

India must take forward its commitment to Africa, the Global South

Editorial

Prime Minister Narendra Modi’s visit to Nigeria, and his ongoing tours to Brazil, for the G-20, and Guyana, are important not only for ties with each of these countries but also significant as a statement on India’s commitment to the Global South. In the Abuja visit, the first after then Prime Minister Manmohan Singh’s 2007 visit, where the two countries declared a Strategic Partnership, Mr. Modi and Nigerian President Bola Ahmed Tinubu reaffirmed ties in areas including defence cooperation. Mr. Modi identified terrorism, separatism, piracy and drug trafficking as challenges for the two countries to work together on. Receiving Nigeria’s ‘the Grand Commander of the Order of the Niger’, Mr. Modi, the second foreign dignitary to receive the distinction, dedicated the award to the people of India and to the ‘long-standing, historical friendship between India and Nigeria’. India was among the countries that sent teachers and doctors to Nigeria after its independence from Britain in 1960. The Indian community is over 60,000-strong — India’s largest diaspora in West Africa, and a bridge builder. The two countries have strong economic ties in a region where India has often been faulted for not doing more: about 200 Indian companies have invested about $27 billion, in pharma, health care, agriculture and energy, where both countries share low-cost technologies and experiences as they tackle similar chronic issues of poverty, pollution and population density. Nigeria is among the top African economies in GDP. It is now a BRICS partner country. The conversations will continue, as both leaders travelled to Rio De Janeiro for the G-20 in Brazil, and where the African Union was inducted as a G-20 member in 2023.

While India’s voluble commitment to the Global South and South-South cooperation has been appreciated, particularly in Africa, it also has been seen as short on follow-through at times. Its leadership of the third iteration of “Voice of the Global South” (VoGS) conference this year has seen lack-lustre participation. India’s plans to use the platform to feed into the G-20 processes may find more engagement if it allows the G-20 host each year to take over the hosting of the VoGS summit. The India-Africa Forum summit, last held in 2015, is also overdue, and it is hoped that New Delhi moves, as the Foreign Secretary promised at a briefing on Mr. Modi’s visit, to hold it early next year. As India shores up ties across the Southern hemisphere, and builds common cause with countries that are important when it comes to the debate over global governance, food, energy and health security, it must be seen to match its ideals with nimble footwork and a decided presence across the developing world, as is evidenced by the Prime Minister’s travels this week.


Date: 19-11-24

पर्यावरण पर बड़े देशों की चुप्पी आपराधिक है

संपादकीय

पर्यावरण प्रदूषण के आसन्न संकट से दुनिया को बचाने की कवायद के तहत जारी 12 दिनी सीओपी-29 अब निराशा में बदलती जा रही है। नए अमेरिकी राष्ट्रपति ने जीवाश्म ऊर्जा के भारी पक्षधर व्यक्ति को ऊर्जा मंत्री बना कर दुनिया को संदेश दिया है कि ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन के सबसे बड़े कारक जीवाश्म ऊर्जा को ‘ऊर्जा टोकरी’ से हटाने का फिलहाल कोई इरादा नहीं नए मंत्री का मानना है कि पर्यावरण संकट का हौवा बेमतलब में खड़ा किया गया है और दुनिया में जीवाश्म ईंधन और पैदा किया जाना चाहिए। उधर ब्राजील में जारी मूलतः संपन्न देशों के संगठन जी-20 में भी इस संकट में बड़े देशों से आर्थिक मदद की गुहार का कोई नतीजा निकलता नहीं नजर आ रहा है। इस संकट से दुनिया के अस्तित्व पर बहु-आयामी खतरा है और अगर ऊर्जा के स्वच्छ स्रोतों पर जल्द शिफ्ट नहीं किया गया तो तीन हजार साल का तथाकथित विकास ही इस तबाही का कारण बनेगा। लेकिन जब तक बड़े देश आर्थिक मदद नहीं करते तब तक छोटे देश महंगे लेकिन स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों की ओर नहीं जा सकते। जी-20 के कुछ सदस्य देशों ने संपन्न देशों पर दो प्रतिशत सुपर रिच टैक्स लगा कर आर्थिक मदद की समस्या हल करने की मांग तो उठाई पर संपन्न देश उसे अनसुनी कर रहे हैं। पर्यावरणविद और पूर्व अमरीकी उप-राष्ट्रपति और नोबेल पुरस्कार विजेता अल गोर की वह आशंका सही साबित हो रही है, जिसमें उन्होंने कहा था कि आने वाली पीढ़ी के दो ही सवाल हो सकते हैं। वह पलटकर आज की पीढ़ी से पूछेगी कि जब पर्यावरण क्षति से बढ़ते तापमान से उत्तरी ध्रुव पिघल कर दुनिया में अस्तित्व के संकट का ऐलान कर रहा था तो तुम क्यों सोए थे? या वह तारीफ करेगी कि इतनी बड़ी त्रासदी से तुमने कैसे दुनिया को बचाया? सीओपी -29 की असफलता उनके पहले सवाल का संकेत है।


Date: 19-11-24

मुसीबत में मणिपुर

संपादकीय

यह दुर्भाग्यपूर्ण है और चिंताजनक भी कि मणिपुर में स्थितियां नियंत्रित होती हुई नहीं दिख रही हैं। पिछले कुछ दिनों से मणिपुर एक बार फिर अप्रिय कारणों से चर्चा में है। कुछ समय पहले जब मणिपुर के विभिन्न वर्गों के प्रतिनिधियों के बीच संवाद-संपर्क का सिलसिला प्रारंभ किया गया था, तब यह आशा जगी थी कि राज्य में शांति बहाली का मार्ग प्रशस्त होगा, लेकिन अचानक एक के बाद एक ऐसी घटनाएं घटीं, जिनसे हालात बेकाबू होते दिखने लगे।

मणिपुर के हालात किस कदर बिगड़ रहे हैं, इसका पता इससे चलता है कि वहां के कुछ इलाकों में अफस्पा को फिर से प्रभावी किया गया है। इसके साथ ही वहां अर्ध सैनिक बलों की पचास अतिरिक्त कंपनियों को भी भेजा जा रहा है। अशांति और उपद्रव को देखते हुए जिस तरह स्कूल-कालेज बंद करने और इंटरनेट सेवा बाधित करने की नौबत आ रही है, उससे यही प्रकट होता है कि इस राज्य को पटरी पर लाने में समय लग सकता है।

चूंकि मणिपुर में अशांति जारी रहते हुए अच्छा-खासा समय बीत गया है, इसलिए स्थितियां और अधिक जटिल हो गई हैं। पहले वहां केवल मैतेई एवं कुकी समुदाय के बीच ही अविश्वास की खाई गहरी और चौड़ी हुई, फिर नगा समुदाय भी अपनी शिकायतें लेकर सामने आ गया।

चूंकि मणिपुर में भाजपा के नेतृत्व वाली ही सरकार है, इसलिए केंद्र सरकार की यह जिम्मेदारी और अधिक बढ़ जाती है कि वह इस राज्य में उन कारणों का तत्परता से निवारण करे, जिनके चलते वहां अस्थिरता और अशांति व्याप्त है। यदि मणिपुर के अशांत हालात देश को उतना अधिक प्रभावित नहीं करते, जितना अन्य किसी राज्य की बिगड़ती स्थितियां दिल्ली में चिंता और चर्चा का कारण बन जाती हैं, तो इसका यह मतलब नहीं कि वहां के हालात सुधारने को सर्वोच्च प्राथमिकता न दी जाए।

इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि केंद्रीय गृह मंत्रालय मणिपुर के हालात की लगातार समीक्षा और निगरानी कर रहा है, क्योंकि प्रश्न यह है कि वहां स्थितियां सामान्य होने का नाम क्यों नहीं ले रही हैं? केंद्र सरकार को इसकी अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि मणिपुर एक सीमावर्ती राज्य है और म्यांमार से कुकी लोगों की घुसपैठ का सिलसिला खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है।

ध्यान रहे कि खुद म्यांमार विद्रोहियों की गतिविधियों से अस्थिरता से जूझ रहा है। ऐसे में भारत सरकार को मणिपुर में शांति स्थापित करने के लिए हर संभव प्रयत्न करने चाहिए। इसके लिए आवश्यक हो तो समूचे राज्य में अफस्पा लागू करने से भी नहीं हिचकना चाहिए।

यह सामान्य बात नहीं कि मणिपुर बीते डेढ़ वर्ष से अराजकता और अशांति से जूझ रहा है। यदि वहां अशांति जारी रही तो अलगाववादी शक्तियों के साथ नशीले पदार्थों के कारोबार में लगे तत्वों का दुस्साहस तो बढ़ेगा ही, सामाजिक वैमनस्य को दूर करने में भी मुश्किलें आएंगी। इसके साथ ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश की छवि भी खराब होगी।


Date: 19-11-24

लक्ष्य से दूर

संपादकीय

एक तरफ दुनिया जलवायु संकट का सामना कर रही है, तो दूसरी तरफ विकसित देश अपने दायित्व से मुकरते दिख रहे हैं। हैरत है कि वे विकासशील देशों पर जिम्मेदारी थोपते हैं, वहीं वे सर्वाधिक ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन भी करते हैं। इस तरह विश्व का जलवायु संकट दूर करने का संकल्प हर बार अधूरा रह जाता है। यही वजह है कि दुनिया का एक बड़ा हिस्सा जलवायु परिवर्तन के सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है। जलवायु परिवर्तन और वैश्विक तापमान जिस तरह बढ़ रहा है, वह केवल गरीब देशों की समस्या नहीं हैं। इसकी आंच विकसित देशों तक भी पहुंच रही है। बावजूद इसके बाकू में आयोजित ‘सीओपी – 29’ शिखर सम्मेलन के पहले सप्ताह का कोई हासिल नहीं है, तो यह चिंता की बात है। इस पर भारत सहित विकासशील देशों की निराशा स्वाभाविक है। यह समझना मुश्किल है कि इस मुद्दे पर न्यायसंगत जिम्मेदारी लेने के लिए बड़े देश क्यों तैयार नहीं है ? सभी जानते हैं कि वित्तीय और प्रौद्योगिकी की मदद के बिना विकासशील देश अपने बूते जलवायु संकट से नहीं निपट सकते। जिन देशों के पास सर्वाधिक क्षमता और संसाधन है, उनकी बेरुखी डराती है। आज जरूरत इस बात की है कि चरम जलवायु परिवर्तन की ओर बढ़ रही दुनिया जल और पर्यावरण को बचाने के लिए एकजुट हो ।

जलवायु सम्मेलन यानी ‘सीओपी -29’ का किसी ठोस और नतीजा देने वाले निष्कर्ष की ओर न बढ़ना यह दर्शाता है कि विकसित और विकासशील देशों में किसी मुद्दे पर अभी एकराय नहीं है। गंभीरता से चर्चा न होने पर भारत ने सवाल उठाया है। इसके समांतर डोनाल्ड ट्रंप की सत्ता में दोबारा वापसी के बाद आशंका जताई जा रही है कि अमेरिका जलवायु संकट से निपटने की अपनी प्रतिबद्धताओं से पीछे हट सकता है। दरअसल, ट्रंप ने जलवायु परिवर्तन को ही धोखा करार दिया है और कहा है कि वह पेरिस समझौते से अमेरिका को बाहर निकालेंगे। अगर अमेरिका इस रुख पर कायम रहता है, तो इस सम्मेलन का क्या औचित्य रहेगा? बड़े देश ही पल्ला झाड़ेंगे और ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में मनमानी भी करेंगे, तो विकासशील देशों के लिए यह कैसे संभव है कि वे अपने दम पर अगली पीढ़ी को स्वच्छ और सुरिक्षत दुनिया दे पाएं !


Date: 19-11-24

जहरीली हवा से जुड़ती जिंदगी

रवि शंकर

देश की राजधानी दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों में हवा की गुणवत्ता बेहद खराब या यों कहें कि जानलेवा बनती जा रही है। राजधानी के कई इलाकों में वायु गुणवत्ता सूचकांक 400 के पार पहुंच गया है। शीर्ष न्यायालय भी दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में बढ़ते प्रदूषण को लेकर गंभीर है और उसने सख्त उपाय करने को कहा है। केंद्र सरकार से लेकर दिल्ली और आसपास के राज्यों की सरकारें अलग-अलग दावे करती रही हैं, लेकिन इससे प्रदूषण के स्तर में कोई बड़ी राहत नजर नहीं आती है। भले ही इस गंभीर होती समस्या से पार पाने के लिए दिल्ली सरकार ने कई उपाय किए और प्रदूषण पर नियंत्रण के लिए निर्देश जारी किए, लेकिन वे कारगर साबित नहीं हो पा रहे। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) की ताजा रपट बताती है कि विश्व स्तर पर हवा इस हद तक जहरीली चुकी है कि हमारी सांसों में धीमा जहर घुल रहा है। फेफड़ों में प्रदूषणकारी तत्त्वों की तह लग रही है, जो ‘धीमी मौत’ का एक बड़ा कारण साबित हो सकता है।

डब्लूएचओ की रपट बताती है कि प्रतिवर्ष लगभग पचास लाख लोग जहरीली हवा के चंगुल में आकर समय से पहले जिंदगी को अलविदा कह देते हैं। पर्यावरण के लिए काम करने वाली संस्था ‘ग्रीनपीस’ की एक रपट के मुताबिक राजधानी दिल्ली दुनियाभर में सभी देशों की राजधानियों में सबसे ज्यादा प्रदूषित है। सवाल है कि पिछले कुछ सालों से लगातार इस महासंकट से जूझ रही राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली को कोई स्थायी समाधान की रोशनी क्यों नहीं मिलती ? सरकारें और राजनेता एक दूसरे को जिम्मेदार ठहराने के बजाय समाधान के लिए तत्पर क्यों नहीं होते ?

विश्व स्वास्थ्य संगठन की रपट में पीएम 2.5 के आधार पर बताया गया है कि दुनिया के सबसे ज्यादा प्रदूषित 15 शहरों में 12 शहर भारत के हैं। विश्व वायु गुणवत्ता पर रपट के मुताबिक दुनिया के 30 सबसे अधिक प्रदूषित शहर भारत में हैं, जहां पीएम 2.5 की सालाना सघनता सबसे ज्यादा है। पत्रिका ‘बीएमजे’ के अध्ययन में पाया गया है कि प्रदूषण की वजह से भारत में हर साल कई लोगों की मौत होती है। पीएम यानी ‘पार्टिकुलेट मैटर’ प्रदूषण की एक किस्म है। इसके कण बेहद सूक्ष्म होते हैं जो हवा में बहते हैं। पीएम 2.5 या पीएम 10 हवा में कण के आकार को बताता है। वायु में मौजूद यही कण हवा के साथ हमारे शरीर में प्रवेश कर खून में घुल जाते है। इससे शरीर में कई तरह की बीमारियां जैसे अस्थमा और सांसों की दिक्कत हो सकती है। गौर करने वाली बात यह है कि आबादी के लिहाज से सबसे ज्यादा नुकसान भारत को ही होता है, लिहाजा उसे अपनी जिम्मेदारी समझते हुए तत्काल कुछ सार्थक और ठोस उपाय करने होंगे।

दुनिया में इस समय सबसे ज्यादा बीमारियां पर्यावरण प्रदूषण की वजह से हो रही हैं। मलेरिया, एड्स और तपेदिक से प्रति वर्ष जितने लोग मरते हैं, उससे कहीं ज्यादा लोग प्रदूषण से होने वाली बीमारियों से मर जाते हैं। बहरहाल, यही सवाल उठता है कि वायु प्रदूषण से हर वर्ष होने वाली मौत को रोकने के लिए सरकार की तरफ से क्या कदम उठाए जा रहे हैं? दशकों से यह बात सरकार और समाज को मालूम है, लेकिन इसको लेकर दोनों उदासीन बने हुए हैं। ऐसा लगता है कि लोग अपने त्रासदीपूर्ण भविष्य को लेकर पूरी तरह से बेखबर हैं। वास्तव में ‘वायु प्रदूषण की समस्या इतनी जटिल होती जा रही है कि भविष्य अंधकारमय प्रतीत हो रहा है। वस्तुतः आज मनुष्य भोगवादी जीवन शैली का इतना आदी और स्वार्थी हो गया है कि अपने जीवन के मूल आधार वायु को ही दूषित कर रहा है। नैतिकता और कर्तव्य सब भूल रहा है। भौतिकतावादी जीवन शैली और विकास की अंधी दौड़ में आज मनुष्य यह भी भूल गया है कि जीवन के लिए स्वच्छ वायु कितनी आवश्यक है। बढ़ते वाहनों और कल-कारखानों से निकलते धुएं ने वायु को, वृक्षों की कटाई ने जीवनदायिनी गैसों को और मनुष्यों द्वारा फैलाई जा रही गंदगी ने जल को इस तेजी के साथ प्रदूषित किया है कि अब दुगनी गति से बीमारियां फैल रही है। यह सिलसिला आज भी जारी है। मानवीय सोच और विचारधारा में इतना ज्यादा बदलाव आ गया है कि किसी को भविष्य की कोई चिंता नहीं है। कोई दो राय नहीं है कि आज मनुष्य प्रकृति को रिक्त करता चला जा रहा है। जिसके परिणाम स्वरूप पर्यावरण असंतुलन के कारण भूमंडलीय ताप, अम्लीय वर्षा, बर्फीली चोटियों का पिघलना, सागर के जल स्तर का बढ़ना, मैदानी नदियों का सूखना, उपजाऊ भूमि का घटना और रेगिस्तानों का बढ़ना आदि विकट परिस्थितियां पैदा होने लगी है। यह सब मनुष्यों की लापरवाही का नतीजा है। अफसोस की बात है कि हम फिर भी चेत नहीं हो रहे हैं। नतीजा भारत में वायु प्रदूषण लगातार बढ़ रहा है। चाहे केंद्र सरकार हो या फिर राज्य सरकारें, कोई भी प्रदूषण से निपटने के लिए गंभीर नहीं दिखता। जाहिर है, प्रदूषण से लड़ने के लिए दीर्घकालीन नीतियां बनाने की जरूरत है, वहीं लोगों को अपने स्तर पर वे सभी जतन करने की आवश्यकता है, जो हवा को जहरीली होने से रोकें। यह ठीक है कि वायु प्रदूषण से निपटने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों ने कई कदम उठाए थे। फिर भी वायु प्रदूषण से निपटने में हम फिसड्डी साबित हुए। ऐसे में भारत की जिम्मेदारी बड़ी और ज्यादा चुनौतीपूर्ण हो जाती है, क्योंकि हमें विकसित और विकासशील दोनों ही प्रकार के देशों में किए जा रहे उपायों को अपनाना पड़ेगा।

दअरसल, वायु प्रदूषण ऐसा मुद्दा है जो पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय है ओर इसे बिना आपसी सहमति और ईमानदार प्रयास के हल नहीं किया जा सकता है। वायु प्रदूषण से निपटने के लिए तात्कालिक कार्रवाई के बजाय निरंतर प्रयास करने की जरूरत है। स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों को अपनाने, वाहनों की संख्या को नियंत्रित करने और सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा देने जैसे उपाय दीर्घकालिक प्रभाव डाल सकते हैं। पराली जलाने की समस्या को हल करने के लिए किसानों को बेहतर तकनीक और सबसिडी प्रदान करना आवश्यक है, ताकि वे अधिक पर्यावरण अनुकूल विकल्पों को अपनाएं। इसके साथ ही निर्माण स्थलों पर प्रदूषण नियंत्रण उपायों का सख्ती से पालन और औद्योगिक उत्सर्जन को नियंत्रित करने के लिए कड़े कानूनों की आवश्यकता है। एक व्यवस्थित निगरानी तंत्र से पूरे वर्ष वायु गुणवत्ता का मूल्यांकन करना जरूरी है ताकि प्रदूषण के स्तर को समय रहते काबू में रखा जा सके। वायु प्रदूषण का मतलब केवल पेड़-पौधे लगाना ही नहीं है बल्कि भूमि प्रदूषण, वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण और ध्वनि प्रदूषण को भी रोकना है। तभी कुछ ठोस नजर आ सकेगा। वक्त कुछ करने का है, न कि सोचने का ।


Date: 19-11-24

कैसे हो रोजगारपरक शिक्षा

विनीत नारायण

आए दिन अखबारों में ऐसा कुछ पढ़ने को मिलता है जिसमें देश में चपरासी की नौकरी के लिए लाखों ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट, बीटेक और एमबीए डिग्रीधारकों की दुर्दशा का वर्णन किया जाता है। ऐसी दिल दहला देने वाली खबरों पर कई विचारोत्तेजक प्रतिक्रियाएं आ रही हैं।सवाल यह है कि जिन डिग्रियों से नौकरी नहीं मिलती, उन्हें बांटकर हम क्या हासिल करना चाहते हैं। वहीं, दुनिया में ऐसे कई मशहूर नाम हैं जिन्होंने कभी अपनी स्कूली शिक्षा ठीक से पूरी नहीं की। लेकिन उन्होंने पूरी दुनिया में नाम और पैसा कमाने में अपना झंडा गाड़ दिया. उदाहरण के लिए, स्टीव जॉब्स, जो एप्पल कंपनी के मालिक हैं, कभी कॉलेज नहीं गए। फोर्ड मोटर कंपनी के संस्थापक हेनरी फोर्ड के पास प्रबंधन की डिग्री नहीं थी। जॉन डी. रॉकफेलर केवल स्कूल गए और दुनिया के सबसे बड़े तेल उद्यमी बन गए। मार्क ट्वेन और शेक्सपियर जैसे लेखक बिना कॉलेज शिक्षा के ही प्रमुख लेखक बन गए।

पिछले 25 वर्षों में सरकार की उदार नीति के कारण देश भर के छोटे शहरों में तकनीकी शिक्षा और उच्च शिक्षा के लाखों संस्थान खुल गए हैं, जिनके संस्थापक या तो बिल्डर थे या भ्रष्ट राजनेता। जिन्होंने शिक्षा को व्यवसाय बनाया और अपना काला धन इन संस्थानों की स्थापना में लगाया। एक से एक भव्य भवन बनते गये। बड़े-बड़े विज्ञापन भी प्रसारित किये गये। लेकिन इन संस्थानों में न तो योग्य शिक्षक थे, न पुस्तकालयों में किताबें थीं, न प्रयोगशालाएँ सुसज्जित थीं, लेकिन दावे ऐसे किये गये जैसे गाँवों में आईआईटी खोल दिये गये हों। परिणामस्वरूप, भोले-भाले आम लोगों ने दबाव में आकर अपने बच्चों को महंगी फीस देकर इन तथाकथित संस्थानों और विश्वविद्यालयों में भेजा। इस पर लाखों रुपये खर्च किये गये. उनकी डिग्री प्राप्त करें.

वे तो खुद बर्बाद हो गये, लेकिन मगर संस्थाओं के मालिकों ने ऐसी नकारात्मक डिग्रियां देकर करोड़ों रुपये हड़प लिये। वहीं दूसरी ओर इस देश के युवा मैकेनिक बिना किसी सर्टिफिकेट के सिर्फ हाथ से काम सीखकर इतने होशियार हो जाते हैं कि सड़क के किनारे अवैध लकड़ी की झोपड़ी रखकर भी आराम की जिंदगी जीते हैं। हमारे युवाओं की इस प्रतिभा को पहचानने और उसे आगे बढ़ाने के लिए अब तक कोई नीति क्यों नहीं बनाई गई? आईटीआई जैसे संस्थान बने भी तो उनमें से एक को छोड़कर बाकी बेरोजगारों के उत्पादन की फैक्ट्रियां बन गईं। क्योंकि व्यवहारिक ज्ञान का भी अभाव था। इस व्यावहारिक ज्ञान को सिखाने और सीखने के लिए आवश्यक व्यवस्थाएं इतनी कम लागत वाली हैं कि सही नेतृत्व के प्रयासों से कम समय में ही देश में शिक्षा में क्रांति ला दी जा सकती है, जबकि जो शिक्षण अरबों डॉलर के बुनियादी ढाँचे के निर्माण के बाद किया जाता है। रुपए इंस्टीट्यूट बनाए गए हैं, वे युवाओं को न तो हुनर ​​सिखा सकते हैं और न ही ज्ञान दे सकते हैं। बेचारा जवान न घर का रहता है, न घाट का।

कभी-कभी बहुत साधारण चीजें भी बहुत काम करती हैं और गहरा असर छोड़ती हैं। लेकिन हमारे हुक्मरानों और नीति-नियंताओं को ऐसी छोटी-छोटी बातें आसानी से समझ में नहीं आतीं. एक किसान याद आते हैं, जो पिछले 20 साल से बांदा जिले से दिल्ली आकर कृषि मंत्रालय में कार्यरत हैं। लेकिन किसी ने उन्हें प्रोत्साहित नहीं किया, जबकि उन्होंने कुएं से पानी खींचने के लिए एक पंप विकसित किया, जो बिना बिजली के चलाया जा सकता था और शहर के लोहारों द्वारा बनाया जा सकता था। पूरे भारत में ऐसे लाखों उदाहरण बिखरे पड़े हैं, जिनकी बुद्धि का यदि सही ढंग से उपयोग किया जाए तो वे न केवल अपने गांव को लाभ पहुंचा सकते हैं, बल्कि पूरे देश के लिए उपयोगी ज्ञान प्रदान कर सकते हैं। यह ज्ञान किसी वातानुकूलित विश्वविद्यालय में बैठकर देने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। इसे गांव में नीम के पेड़ की छाया में भी दिया जा सकता है। इसके लिए हमारी केंद्र और प्रांतीय सरकारों को अपनी सोच में क्रांतिकारी बदलाव लाना होगा।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनावी रैलियों के दौरान इसे पकड़ लिया. लेकिन अगर वे ‘मेक इन इंडिया’ की जगह ‘मेड बाय इंडिया’ का नारा देंगे तो इस विचार को ताकत मिलेगी. हम उम्मीद कर रहे हैं कि ‘मेक इन इंडिया’ के नाम पर विदेशी निवेश आएगा, अगर आएगा भी तो कुछ शहरों तक ही केंद्रित रहेगा। इससे बनने वाली बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियां भारी मात्रा में प्रदूषण फैलाकर और प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट करके मुट्ठी भर लोगों को रोजगार देंगी और मुनाफा कंटेनरों में भरकर अपने देश ले जाएंगी। जबकि गांव की आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था को बहाल करके हम इस देश की नींव को मजबूत करेंगे और सुदूर प्रांतों में रहने वाले परिवारों को खुशी, सम्मान और गरीबी का जीवन जीने के अवसर प्रदान करेंगे। अब यह प्रधानमंत्री और देश के नीति-निर्माताओं को तय करना है कि वे औद्योगीकरण के नाम पर प्रदूषित, झुग्गी-झोपड़ी वाला भारत बनाना चाहते हैं या ऐसा भारत बनाना चाहते हैं, जहां मेरे देश की माटी सोना उगले, उगले। किराया मोती भारत है।


Date: 19-11-24

कई सवाल हैं अनुत्तरित

अवदेश कुमार

सुप्रीम कोर्ट द्वारा बुलडोजर कार्रवाई पर दिए गए फैसले की गहराई से समीक्षा करने की आवश्यकता है। न्यायमूर्ति बीआर गवई और न्यायमूर्ति केवी विश्वनाथन की पीठ ने बुलडोजर कार्रवाई के संदर्भ में कुछ कानूनी, संवैधानिक कुछ मानवीय सिद्धांत और आधार देकर मार्गनिर्देश निर्धारित किया है। इसमें क्या करना और क्या न करना दोनों बातें समाहित हैं। हालांकि गहराई से देखें तो इसमें ऐसा कुछ नहीं है जो पहले से बने बनाए नियमों से बिल्कुल अलग हों। दूसरे, भले भाजपा सरकारों के विरोधी इससे उत्साहित हों लेकिन फैसले में किसी सरकार का नाम लेकर निंदा या तीखी टिप्पणी नहीं की गई है।

यह बात सही है कि इसमें उत्तर प्रदेश की तीन घटनाओं का विशेष जिक्र है। इस कारण आप अर्थ निकाल सकते हैं कि यह योगी आदित्यनाथ सरकार के विरुद्ध है। यहां भी न्यायालय ने किसी मामले की जांच करने या सरकार पर वित्तीय जुर्माना आदि का आदेश नहीं दिया है। उप्र बुलडोजर को अंतरराष्ट्रीय विषय बनाने वालों की इसमें भूमिका रही और एमनेस्टी इंटरनेशनल ने अपनी टीम से 128 मामलों की जांच कर उसकी एक रिपोर्ट न्यायालय में सौंपा था। न्यायालय ने अलग से उस रिपोर्ट की सत्यता जानने की कोशिश नहीं की। इसका अर्थ हुआ कि उच्चतम न्यायालय किसी राज्य या कुछ घटना विशेष पर फोकस करने की बजाय भविष्य के लिए एक व्यापक मार्गनिर्देश देना चाहता था और उसने वही किया है। उच्चतम न्यायालय हमारे संविधान का अभिभावक तथा कानूनी संवैधानिक मामले पर न्याय का अंतिम शब्द है।

इसलिए उसके हर फैसले का सम्मान होना ही चाहिए। अगर न्यायालय कह रहा है कि संसदीय लोकतंत्र में शासन के तीनों अंगों की शक्ति विभाजित है, जो काम न्यायपालिका का है वह न्यायपालिका करे और कार्यपालिका अपनी भूमिका निभाए तो इसमें कुछ भी गलत नहीं प्रशासन और पुलिस नियम कानून का पालन करने, करवाने तथा न्यायपालिका द्वारा दिए गए आदेश का पालन करने के लिए है। इसके परे वह जो कुछ भी करेगा अपराध होगा।

न्यायालय ने कहा कि हमारे संवैधानिक आदर्श किसी भी शक्ति के दुरुपयोग की अनुमति नहीं देते। यह कानून के शासन व न्यायालय द्वारा सहन नहीं किया जा सकता। जब किसी विशेष संरचना को अचानक से ध्वस्त करने के लिए चुना जाता है, और उसी प्रकार की बाकी संपत्तियों को नहीं छुआ जाता, तो यह अनुमान लगाया जा सकता है कि असली उद्देश्य कानूनी कार्रवाई नहीं, बल्कि बिना सुनवाई के दंडित करना था । ये पंक्तियां अवश्य भाजपा सरकारों के व्यवहार को कठघरे में खड़ा करते हैं। यहां भी किसी घटना का आधार नहीं है। आइए, फैसले के कुछ मुख्य बिंदुओं को देखें। एक, किसी आरोपी या गुनहगार के घर को सिर्फ इस आधार पर नहीं गिराया जा सकता कि उसकी आपराधिक पृष्ठभूमि है। ऐसी कार्रवाई गैरकानूनी और असंवैधानिक है। दो, कार्यपालिका न्यायाधीश बनकर यह फैसला नहीं कर सकती कि वह दोषी है या नहीं। इस तरह की कार्रवाई लक्ष्मण रेखा पार करने जैसा है।” तीन, कानून का शासन यह सुनिश्चित करता है कि लोगों को पता हो कि उनकी संपत्ति को बिना किसी उचित कारण के नहीं छीना जा सकता। चार, बिना पूर्व कारण बताओ नोटिस के कोई ध्वस्तीकरण नहीं किया जाना चाहिए, जो या तो स्थानीय नगरपालिका कानूनों में दिए गए समय के अनुसार या सेवा की तारीख से 15 दिनों के भीतर (जो भी बाद में हो) प्रस्तुत किया जाना चाहिए। नोटिस के 15 दिनों तक कोई कार्रवाई नहीं होगी। नोटिस पंजीकृत डाक के माध्यम से मालिक को भेजा जाएगा और संरचना के बाहरी हिस्से पर भी चिपकाया जाएगा। नोटिस में अवैध निर्माण की प्रकृति, विशेष उल्लंघन का विवरण और ध्वस्तीकरण के आधार शामिल होने चाहिए। अथॉरिटी को आरोपी को व्यक्तिगत सुनवाई का अवसर देना होगा। ऐसी बैठक के विवरण को रिकॉर्ड किया जाएगा अंतिम आदेश में नोटिसधारी के पक्षों को शामिल किया जाना चाहिए, ध्वस्तीकरण की प्रक्रिया का वीडियो रिकॉर्डिंग की जाएगी और ध्वस्तीकरण रिपोर्ट डिजिटल पोर्टल पर प्रदर्शित किया जाना चाहिए। पांच, किसी भी निर्देश के उल्लंघन से अवमानना कार्यवाही शुरू की जाएगी। अधिकारियों को सूचित किया जाना चाहिए कि यदि ध्वस्तीकरण में निर्देशों के उल्लंघन में पाया जाता है, तो ध्वस्त की गई। संपत्ति की पुनर्स्थापना के लिए अधिकारियों को व्यक्तिगत खर्च पर जवाबदेह ठहराया जाएगा। साथ ही हजनि का भुगतान भी करना होगा।

उत्तर प्रदेश सरकार ने इसका स्वागत किया है और राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय जनता पार्टी ने भी कानून का शासन तभी माना जाएगा जब सरकारें, पुलिस प्रशासन सब कानून की परिधि में रहकर अपनी भूमिका निभाएं, लेकिन नियम-कानून के परे जाकर भूमिका निभाने वाले के लिए पहले भी कड़े कानून हैं। आम आदमी के संदर्भ में तो न्यायालय की बातें मानवीयता की परिधि में एक सीमा तक सही है। निस्संदेह, आम नागरिक के लिए अपने घर का निर्माण कई वर्षों की मेहनत, सपने और आकांक्षाओं का परिणाम होता है। न्यायालय का यह मत बिल्कुल सही है कि घर, सुरक्षा और भविष्य की एक सामूहिक आशा का प्रतीक है और अगर इसे छीन लिया जाता है, तो अधिकारियों को यह साबित करना होगा कि यह कदम उठाने का उनके पास एकमात्र विकल्प था।

प्रश्न है कि आरोपी बड़ा बाहुबली और माफिया हो, जिसने पहले से इस तरह जमीन हड़प कर कब्जे कर अवैध निर्माण किया हो और अपनी ताकत की बदौलत प्रशासन को नकारता हो तो उसके साथ क्या किया जाए? क्या किसी साधारण पुलिस वाले या प्रशासनिक अधिकारी की हैसियत थी कि वह एक समय अतीक अहमद की अवैध संपत्ति पर नोटिस चिपकाए? क्या मुख्तार अंसारी के विरुद्ध यह संभव था? ऐसे ही हर राज्य हर जिले में अपराधी, माफिया, बाहुबली हैं जिन्होंने निजी संपत्ति तो छोड़िए सरकारी जगहों पर कब्जे कर अवैध निर्माण किए हैं। हमारे देश में एक्टिविस्टों का एक बड़ा समूह स्वयं इतना शक्तिशाली है कि ऐसे किसी विषय को देश और उसके बाहर बड़ा मुद्दा बना देता है। फैसले पर पुनर्विचार याचिका आए तो शायद आगे न्यायालय अपने मत का विस्तार करें।


Date: 19-11-24

प्रदूषण बेहिसाब

संपादकीय

उत्तर भारत में प्रदूषण का सोमवार को और बढ़ जाना दुखद ही नहीं, शर्मनाक भी है। फिर सर्वोच्च न्यायालय को कड़े निर्देशों के साथ सामने आना पड़ा है। न्यायालय ने कहा कि राष्ट्रीय राजधानी की तमाम सरकारों को ग्रैप 4 संबंधी पाबंदियों की निगरानी के लिए तत्काल टीमें गठित करनी चाहिए। यह भी प्रशंसनीय है कि यह व्यवस्था एक्यूआई के 450 से नीचे जाने के बावजूद लागू रहेगी। न्यायमूर्ति अभय एस ओका और ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने दोहराया है कि यह सुनिश्चित करना सभी राज्यों का सांविधानिक कर्तव्य है कि सभी नागरिक प्रदूषण मुक्त वातावरण में रहें। ग्रैप4 संबंधी पाबंदियों को लागू करने में हुई देरी पर भी न्यायालय ने नाराजगी जताई है। संबंधित राज्य सरकारों को 22 नवंबर तक न्यायालय को रिपोर्ट करने को कहा गया है। यह जानना जरूरी है कि सरकारों ने प्रदूषण रोकने के लिए क्या कदम उठाए हैं? जहां तक सरकारों का प्रश्न है, हर पार्टी अपनी विरोधी पार्टी को निशाना बना रही है और प्रदूषण के लिए जिम्मेदार ठहरा रही है। ऐसे में, न्यायालय की सक्रियता का कोई विकल्प नहीं है।

दिल्ली में दृश्यता एकदम घट गई है। दो सौ मीटर के बाद चीजों को देखना मुश्किल हो गया है। इसका सबसे ज्यादा असर परिवहन पर पड़ा है। सोमवार शाम होने तक 11 से ज्यादा विमान दिल्ली में उतरने में नाकाम रहे, उन्हें पड़ोसी राज्यों में उतारना पड़ा। इससे स्थिति की भयावहता का पता चलता है। लोगों और उनके स्वास्थ्य पर क्या बीत रही , इसका अंदाजा भर लगाया जा सकता है। दिल्ली के कुछ इलाकों में एक्यूआई 978 तक दर्ज हुआ है, इसका मतलब है कि इन इलाकों में 24 घंटे में एक आदमी 49.2 सिगरेट के बराबर धुआं ले रहा है। हरियाणा में लोग लगभग 33.25 सिगरेट के बराबर धुआं पी रहे हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार में प्रतिदिन लोग औसतन करीब 10 सिगरेट पीने को मजबूर हैं। ऐसे भयानक प्रदूषण के क्या दूरगामी परिणाम होंगे, सोचकर ही चिंता होती है। पराली, घरेलू धुआं, औद्योगिक प्रदूषण, वाहनों से निकलने वाले जहरीले कण, प्रतिबंध के बावजूद आतिशबाजी करके हमने किसी भी प्राकृतिक संसाधन को शुद्ध नहीं छोड़ा है। दिल्ली में जल और हवा, दोनों का बुरा हाल है और दोनों एक-दूसरे की समस्या बढ़ा रहे हैं। ऐसे घातक परिवेश से बचना जरूरी है, तो उचित ही दिल्ली में दसवीं और बारहवीं कक्षाओं को ही स्कूल में चलाने का फरमान है, बाकी कक्षाओं को ऑनलाइन कर दिया गया है। प्रदूषण के भवानक स्तर को देखते हुए बच्चों के साथ- साथ बुजुगों की भी चिंता बढ़ जानी चाहिए।

अब प्रदूषण के मोर्चे पर लीक से हटकर कुछ सोचना होगा। हालांकि, यह सोचने नहीं, बल्कि करने का समय है क्या दिल्ली या राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में सीमित कृत्रिम बारिश का प्रयोग किया जा सकता है? क्या वैज्ञानिकों की आपात बैठक बुलाकर तत्काल उपाय किए जा सकते हैं? क्या राष्ट्रीय राजधानी में बड़े वाहनों के चलने के समय को सीमित किया जा सकता है? क्या प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों के संचालन को कुछ दिनों के लिए सीमित किया जा सकता है? हालात ऐसे हैं कि युद्ध स्तर पर बड़े कदम उठाने पड़ेंगे। प्रदूषण फैलाने वाले वर्गों या समूहों को नाराज करना ही होगा। किसानों, उद्योगपतियों और आम लोगों, सभी को खुश रखने की कवायद ने मुश्किल में डाल दिया है। मतलब अब प्रदूषण के खिलाफ साहसिक कदमों की जरूरत है और न्यायालय पर उम्मीदें जा टिकती हैं।


Date: 19-11-24

जहरीली हवा पर राष्ट्रीय शर्म का इंतजार

मनु जोशेफ, ( पत्रकार एवं उपन्यासकार )

भारत जब भी किसी की जान बचाता है, तो वह एक महान दृश्य बन जाता है। मैं उस दृश्य को कभी भूल नहीं सकता, जब एक धड़कते दिल को दो घंटे के अंदर चेन्नई से बेंगलुरु पहुंचाया गया था। दिल को बर्फ वाले बॉक्स में सहेजकर बहुत सावधानी से ले जाया गया था। चेन्नई के एक हिस्से में हवाई अड्डे की ओर जाने वाले रास्ते पर तमाम परिवहन को रोक दिया गया था। उस रास्ते पर दिल लिए बहुत तेजी से एंबुलेंस बढ़ रही थी। ठीक इसी तरह बेंगलुरु में हवाई अड्डे से अस्पताल तक एंबुलेंस को अबाध रूप से दौड़ने दिया गया था। ऐसा लग रहा था, मानो भारत अपने एक-एक भारतीय की जिंदगी सहेजने का दिली इरादा रखता है।

जीवन बचाने के प्रति यही लगन बहुत हद तक महामारी के दौरान कई बार दिखी। भारतीयों की गर्मजोशी का बार-बार एहसास हुआ जब लॉकडाउन लगाया गया था, तब घर से बाहर निकलने पर पुलिस पीटने तक की धमकी देती थी, उसे भी लोगों की जिंदगी की परवाह थी। यह भारतीयों के जीवन की ही चिंता थी कि देश में हर किसी को मुफ्त कोरोना टीका देने की व्यवस्था की गई थी। ऐसा एहसास हुआ था कि भारत एक ऐसा देश है, जो हर किसी की परवाह करता है, पर अब इस परवाह को क्या हो गया है?

दिल्ली में फिर सर्दी का आगमन हुआ है और प्रदूषण ने प्रहार कर दिया है। यह समय हर साल आता है और देश को चकित कर देता है। उत्तर भारत के एक बड़े इलाके में हवा की गुणवत्ता जीवन के अनुकूल नहीं है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में छोटे बच्चों के ज्यादातर स्कूल बंद कर दिए गए हैं। लोगों को घुटन महसूस हो रही है। यह गंदी हवा संभवतः हर साल सैकड़ों-हजारों भारतीयों की जान ले लेती है और कई लोग इस वार्षिक सवाल का उत्तर मांगने में लगे रहते हैं कि हम इस समस्या का समाधान क्यों नहीं कर सकते ? सर्दियों की जहरीली हवा का हमारे पास क्या इलाज है?

मुझे याद आ रहा है कि आठ सर्दियां पहले, जब हवा ऐसी ही जहरीली थी, तब मैंने अपने एक लेख में तर्क दिया था कि मुझे उम्मीद है, राष्ट्रवाद की भावना हवा को साफ करेगी। अब लगता है, मुझे अपनी उस दलील को वापस ले लेना चाहिए। तब मेरा मुख्य तर्क यह था कि अन्य देशों के इतिहास से हमें यह सीखना चाहिए कि राष्ट्रवाद हमेशा गर्व के रूप में शुरू होता है और धीरे-धीरे राष्ट्र के प्रति सच्चे प्रेम में पुख्ता हो जाता है। जब ऐसा होता है, तब अपनी सभी खामियों के लिए एक राष्ट्रीय शर्म का भी एहसास होने लगता है और फिर लोग पूरी सक्रियता के साथ अपनी बड़ी समस्याओं का समाधान करते हैं। मैंने सोचा कि भारत में भी ऐसा हो सकता है। एक दिन हमारे राष्ट्रवादी शर्म से भर जाएंगे और हवा को साफ कर दिखाएंगे, पर ऐसा नहीं हुआ।

आज दिल्ली में वायु गुणवत्ता सूचकांक लगातार 400 के पार बढ़ता चला जा रहा है। प्रदूषण के खतरनाक स्तर को देखते हुए ग्रेडेड रिस्पांस एक्शन प्लान अर्थात ग्रैप के चौथे चरण को लागू करना पड़ा है हवा पूरी तरह से स्वस्थ लोगों के श्वसन तंत्र को भी खतरे में डालने लगी है। मैं राष्ट्रीय गौरव के राष्ट्रीय शर्म में बदलने की प्रतीक्षा कर रहा हूं, पर अब नहीं कि कुछ ठोस होने वाला है।

वायु गुणवत्ता अभी भी कोई बड़ा चुनावी मुद्दा नहीं , पर जब लोग प्रदूषण के कारण बताते हैं, तो राजनीति प्रेरित हो जाते हैं। कई देशभक्तों का मानना है कि बड़ी वजह पंजाब में किसानों द्वारा पराली जलाना है। अन्य कुलीन लोग अन्नदाता किसानों पर उंगली नहीं उठाना चाहते, बल्कि वाहन प्रदूषण और राजधानी क्षेत्र के आसपास के उद्योगों की ओर उंगली उठाते हैं।

विचित्र बात है, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र प्रदूषणकारी उद्योगों के प्रति अभी भी बहुत जागरूक नहीं है। प्रदूषण फैलाने वालों में दवा बनाने वाली ऐसी कंपनियां शामिल हैं, जो अन्य देशों के लिए दवाएं बनाती हैं। अव्वल तो अनेक विकसित देशों में पर्यावरण संबंधी कड़े नियमों के चलते भारत में दवा निर्माण ज्यादा होता है और यहां उत्पादन लागत भी कम है।

मुझे वह बात याद आ रही है, जो विश्व बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री रहते लॉरेंस समर्स ने 1991 में एक आंतरिक रिपोर्ट में लिखी थी कि ‘कारखानों से निकलने वाले जहरीले कचरे को अमेरिका से गरीब देशों में ले जाया जाना चाहिए, क्योंकि गरीब देशों में जीवन सस्ता है।’ जब यह रिपोर्ट लीक हुई, तो समर्स ने कहा कि वह सिर्फ मजाक कर रहे थे, पर मजाक तो मजेदार भी होना चाहिए ? मजाक में भी लोग हमेशा मजाक नहीं करते हैं। किसी भी मामले में देखें, तो समर्स का ‘मजाक’ बिल्कुल वही है, जो अमीर देश आज वास्तव में कर रहे हैं। मैं खराब हवा में सांस ले रहा हूं, क्योंकि मैं एक गरीब देश में रहता हूं, यहां ऐसी हवा है, जो अमेरिकियों और यूरोपीय लोगों के लिए अनुपयुक्त है। ऐसे में, अपमान महसूस होता है। यह शर्म की बात है, जिसे अनेक देशभक्त महसूस नहीं कर पा रहे हैं।

एक और तर्क मैंने आठ साल पहले दिया था, तब मुझे विश्वास था कि भारतीय उच्च वर्ग हवा को साफ कर सकता है। गरीबों ने भी सुनिश्चित किया कि अमीरों को लगभग हर चीज पर सब्सिडी दी जाए, जबकि विकसित अर्थव्यवस्थाओं में भी ऐसा नहीं है। ऐसा लगा था कि जब प्रदूषण का जोखिम बढ़ेगा, तब उच्च वर्ग वायु गुणवत्ता की समस्या को हल करने के लिए राजनेताओं को प्रभावित करेगा, पर अब महसूस हो रहा है कि उच्च वर्ग के लिए खराब हवा महज एक कीमत है, जिसे वह चुकाने को तैयार है।

शर्म की कमी के अलावा, एक और वजह है, जिसके चलते हम इस हवा में सांस ले रहे हैं। भारत के पास कठिन समस्याओं के समाधान के लिए जरूरी क्षमता नहीं है। अतः गंभीर राजनीतिक इच्छाशक्ति को उच्च निष्ठावान नौकरशाही प्रतिभा के साथ जोड़ा जाना चाहिए। ऐसे कुशल प्रशासकों को पर्यावरण के मोर्चे पर लगाना चाहिए, जो यह जानते हैं कि प्रशासनिक पहिए कैसे तेज दौड़ते हैं। दिल्ली में मेट्रो रेल सेवा को साकार करने वाले ई श्रीधरन जैसे अनेक अधिकारियों की जरूरत है, पर क्या ऐसा होने वाला है?

आज उत्तर भारत में ऐसी स्थिति बन गई है कि जीवन व्यंग्य जैसा हो गया है। कसरत करना स्वास्थ्य के लिए आलस्य करने से भी ज्यादा खतरनाक है, क्योंकि यदि आप मेहनत करेंगे, तो अत्यधिक खराब हवा में ही सांस लेंगे। आज बच्चा होना भी नुकसानदायक है, क्योंकि वयस्कों की तुलना में बच्चे दोगुनी सांस लेते हैं। पर्याप्त शर्म भले न हो, हालात हास्यास्पद हैं।