
19-05-2025 (Important News Clippings)
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Date: 19-05-25
संविधान की सर्वोच्चता
संपादकीय
सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश बीआर गवई ने मुंबई में यह बिल्कुल सही कहा कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका तीनों बराबर हैं और यदि कोई सर्वोच्च है तो वह है संविधान । यह बात पहले भी अनेक बार कही जा चुकी है, लेकिन कार्यपालिका एवं न्यायपालिका में टकराव की स्थिति बनती रही है। इसी तरह विधायिका एवं न्यायपालिका के बीच भी असहमतियां उभरती रही हैं। असहमतियां उभरना कोई अस्वाभाविक बात नहीं । कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका के बीच किन्हीं विषयों में असहमति हो सकती है, लेकिन एक परिपक्व लोकतंत्र को इन असहमतियों का सही तरीके से समाधान करना आना चाहिए। इसके लिए यह आवश्यक है कि तीनों अपना कार्य सही तरह से करें और परस्पर सम्मान भाव भी रखें। यह अच्छा नहीं हुआ कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का पदभार संभालने के बाद पहली बार अपने गृह राज्य पहुंचे बीआर गवई के सम्मान में उचित प्रोटोकाल का परिचय नहीं दिया गया। उन्होंने इसका उल्लेख भी किया। अच्छी बात यह रही कि संबंधित अधिकारियों ने अपनी भूल सुधार ली ।
मुख्य न्यायाधीश ने संविधान की सर्वोच्चता को लेकर जो कुछ कहा, उस पर यदि देश में नए सिरे से बहस होती है तो यह अच्छा ही होगा, क्योंकि चाहे विधायिका हो या कार्यपालिका अथवा न्यायपालिका, तीनों प्रायः अपना कार्य सही तरीके से करती हुई नहीं दिखाई देतीं। इस सच से मुंह नहीं मोड़ा जाना चाहिए कि विधायिका के कामकाज प्रश्न खड़े करने वाले हैं। कार्यपालिका की कार्यप्रणाली में अनेक विसंगतियां हैं। इसी तरह न्यायपालिका भी कई खामियों से ग्रस्त है। वह कई बार अपने अधिकारों का अतिक्रमण करती हुई दिखती है। ताजा प्रसंग तमिलनाडु के मामले में राज्यपाल और राष्ट्रपति के अधिकारों को लेकर दिए गए फैसले का है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने अनेक सवाल खड़े किए। तमिलनाडु मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला केवल इसलिए हैरान करने वाला नहीं था कि उसने राज्यपाल एवं राष्ट्रपति की संविधान प्रदत्त शक्तियों को सीमित करने का काम किया, बल्कि इसलिए भी है कि यह फैसला दो जजों की पीठ ने सुनाया। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाई कोर्ट के जज यशवंत वर्मा के मामले में किस तरह एक ऐसा रवैया अपनाया, जैसे उच्चतर न्यायपालिका के न्यायाधीश संविधान से परे हैं। अब जब प्रधान न्यायाधीश संविधान की सर्वोच्चता की बात कर रहे हैं, तब फिर यह प्रश्न भी उठेगा कि क्या उच्चतर न्यायपालिका के जजों की नियुक्ति की कोलेजियम व्यवस्था संविधान सम्मत है। वस्तुतः ऐसे अनेक प्रश्न हैं जिनके उत्तर सुप्रीम कोर्ट से अपेक्षित हैं। बेहतर होगा कि न्यायपालिका, विधायिका एवं कार्यपालिका अपने समक्ष उपस्थित प्रश्नों पर आत्मचिंतन करें।
Date: 19-05-25
रक्षा मोर्चे पर आत्मनिर्भरता का उद्घोष
आदित्य सिन्हा, ( लेखक लोक – नीति विश्लेषक हैं )
आधुनिक रणभूमि के समीकरण पूरी तरह बदल गए हैं। अब सैनिकों की संख्या अधिक मायने नहीं रह गए हैं। आज जो देश अपनी रक्षा तकनीक विकसित नहीं करेगा, वह दूसरों पर निर्भर होकर रह जाएगा। आधुनिक दौर की जंग केवल सैन्यकर्मियों की संख्या से नहीं, बल्कि नवाचार के आधार पर ही जीती जा सकती है और ऐसा नवाचार निश्चित रूप से अपने दम पर यानी स्वदेशी एवं संप्रभु प्रकृति का होना चाहिए। दुश्मन में केवल आपके हथियारों के जखीरे का ही डर न हो, बल्कि उन्हें उपयोग करने की आपकी दृढ़ता से वह भयाक्रांत हो। अगर कोई देश ऐसी सैन्य सामग्री के आयात पर निर्भर हो, जो तत्काल उपलब्ध न हो या रक्षा अनुबंध गुपचुप शर्तों से बंधे हों तो सामरिक क्षमताएं सदैव संदेह के दायरे में रहेंगी। कोई भी देश तब तक संप्रभुता का दावा नहीं कर सकता, जब तक कि वह अपनी रक्षा के लिए आवश्यक रक्षा सामग्री के निर्माण, रखरखाव और उसके समयानुकूल उन्नयन में सक्षम नहीं हो पाता। निवारक शक्ति केवल क्षमताएं हासिल करने से नहीं, बल्कि उन क्षमताओं के विश्वसनीय उपयोग से अर्जित होती है। भारत इन सभी पहलुओं को भलीभांति समझता है और आपरेशन सिंदूर को इसकी उद्घोषणा कहा जा सकता है। आपरेशन सिंदूर के तहत पाकिस्तान पर की गई सैन्य कार्रवाई जबरदस्त तकनीकी प्रभुत्व से ओतप्रोत रही। पूरा विश्व केवल इसके अप्रत्याशित परिणाम से हैरान ही नहीं, बल्कि हमारी स्वदेशी तकनीकी क्षमताओं का लोहा मान रहा है। यह अभियान भारतीय विज्ञानियों की तकनीक और भारतीय उपग्रहों के जरिये संचालित किया गया।
पाकिस्तान ने जब भारत की उत्तरी एवं पश्चिमी सीमा पर ड्रोन की बौछार शुरू की तो डीआरडीओ द्वारा विकसित सरफेस टू एयर मिसाइल सिस्टम आकाश ने उन्हें अचूक निशाने से नष्ट कर दिया। संवेदनशील इलाकों को हवाई हमलों से बचाने के लक्ष्य से विकसित आकाश सिस्टम एक साथ कई लक्ष्यों को निशाना बनाने में सक्षम है। पेचौरा और ओएसए- एके जैसे पुराने सिस्टम ने बाहरी दायरे को सुरक्षित रखा, जबकि आकाश ने एक अभेद्य कवच की भूमिका निभाई। आकाशतीर ने भी एक नई नजीर पेश की। बड़ी खामोशी के साथ विकसित आकाशतीर के लिए आपरेशन सिंदूर अपनी क्षमताएं दिखाने का अवसर बना। इसने दर्शाया कि यह एक ऐसी रक्षा प्रणाली है, जो युद्ध के परिणाम बदलने की क्षमता रखती है। यह पूर्ण रूप से स्वदेशी अद्भुत रक्षा तकनीक है। जहां पाकिस्तान चीन में बने एचक्यू – 9 और एचक्यू 16 जैसी प्रणालियों के भरोसे रहा, जो भारतीय हमले के आगे बिखर गईं, वहीं आकाशतीर ऐसी ढाल बना जिसने प्रत्येक पाकिस्तानी प्रोजेक्टाइल को नष्ट करके दिखाया । यह आत्मनिर्भरता की अद्भुत अभिव्यक्ति है।
अभेद्य रक्षा पंक्ति के साथ भारत की मारक क्षमताएं भी पाकिस्तान की कमर तोड़ने वाली रहीं। देश में असेंबल हुए कामिकाजे ड्रोन अपने लक्ष्य की निशानदेही के साथ उसके इर्दगिर्द मंडराने में सक्षम हैं, जो मिसाइल हमलों के लिए आधार तैयार करते हैं। यह दर्शाता है कि भारतीय इंजीनियर रक्षाकर्मियों की जान जोखिम में डाले बिना घातक क्षमताओं वाली सामग्री तैयार कर सकते हैं। पाकिस्तान के मानमर्दन का यह पूरा अभियान महज 23 मिनट में अंजाम दिया गया। दुश्मन की आयातित रक्षा प्रणाली को इसकी भनक तक नहीं लगी। आपरेशन सिंदूर में इसरो के उपग्रहों की भी महती भूमिका रही । कम से कम दस उपग्रह दुश्मन की गतिविधियों को भांप रहे थे। उन्होंने लक्ष्यों को चिह्नित करने में समन्वय के साथ ही निर्बाध संचार सुनिश्चित किया । यह सैन्य अभियान घरेलू ड्रोन उद्योग की क्षमताओं को व्यापक मान्यता दिलाने का मंच भी बना। उत्पादन आधारित प्रोत्साहन यानी पीएलआइ योजना से देश में 11 अरब डालर के ड्रोन उद्योग को तेजी के पंख लगे हैं। यह पहल केवल आर्थिक क्रांति ही नहीं, सामरिक तैयारी की अहम कड़ी बनकर भी उभरी है।
आज भारत में रक्षा उत्पादन का दायरा इतना बढ़ गया है, जिसकी एक दशक पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। लड़ाकू विमान तेजस से लेकर धनुष आर्टिलरी और अर्जुन टैंक से लेकर स्वदेश निर्मित पनडुब्बियों तक देश में 65 प्रतिशत रक्षा उपकरणों का निर्माण घरेलू स्तर पर हो रहा है। पूर्व में 70 प्रतिशत आयात के अनुपात में यह उपलब्धि बड़ी ऊंची छलांग है। वित्त वर्ष 2024 के दौरान भारत में 1.27 लाख करोड़ रुपये का रिकार्ड रक्षा उत्पादन हुआ, जो वित्त वर्ष 2014 के 24,000 करोड़ रुपये के उत्पादन की तुलना में 24 गुना अधिक रहा। 2029 तक भारत का लक्ष्य तीन लाख करोड़ रुपये के रक्षा उत्पादन एवं 50,000 करोड़ रुपये के उत्पादों के निर्यात का है। स्पष्ट है कि भारत न केवल स्वयं की रक्षा के प्रति संकल्पबद्ध है, बल्कि वह विश्व को किफायती दरों पर प्रभावी रक्षा सामग्री उपलब्ध कराने की दिशा में भी आगे बढ़ रहा है। रक्षा उत्पादन में आ रही तेजी के पीछे बड़े सुधारों की महत्वपूर्ण भूमिका है। रक्षा उत्पादन को गति प्रदान करने के लिए उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु में डिफेंस कारिडोर बनाए गए हैं। स्टार्टअप प्रोत्साहित करने में आइडीईएक्स की सफलता भी उल्लेखनीय है । स्वदेशीकरण के लिए सृजन जैसी पहल को अमल में लाने के साथ ही सार्वजनिक-निजी भागीदारी को परवान चढ़ाना भी कारगर रहा। कुल रक्षा उत्पादन में निजी क्षेत्र का योगदान अब 21 प्रतिशत से अधिक हो गया है, जिसमें छोटी एवं मझोली कंपनियां और लाइसेंस प्राप्त कंपनियां आपूर्ति श्रृंखला की रीढ़ बनी हुई हैं। नवाचार अब केवल पश्चिम की बपौती नहीं । भारतीय प्रयोगशालाओं में नवाचार को साकार रूप देकर रणभूमि में उसकी प्रभावी परख भी हो रही है। आपरेशन सिंदूर इन्हीं संकल्पनाओं का व्यावहारिक परिणाम रहा। भारत का संदेश है कि वह मदद की प्रतीक्षा न करके अपनी क्षमताएं खुद विकसित करेगा। आज जब देशों की आस्थाएं बदलकर नए गुट बन रहे हैं और निर्भरता को हथियार बनाया जा रहा है, तब आपरेशन सिंदूर आत्मनिर्भरता का उद्घोष भी कर रहा है।
Date: 19-05-25
विदेश व्यापार में नया मोड़
डा. जयंतीलाल भंडारी, ( लेखक अर्थशास्त्री हैं )
भारत और ब्रिटेन के बीच बहुप्रतीक्षित मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) पर हाल में सहमति बन गई। आगामी तीन माह में दोनों देश इस एफटीए पर हस्ताक्षर करेंगे। यह समझौता दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था भारत और छठी बड़ी अर्थव्यवस्था ब्रिटेन के बीच व्यापार के लिए नए मापदंड स्थापित करेगा। इससे भारत और ब्रिटेन के बीच वर्ष 2030 तक व्यापार दोगुना कर 120 अरब डालर पहुंचाने का लक्ष्य रखा गया है। इस एफटीए से ब्रिटेन के बाजार में भारत को अपने करीब 99 प्रतिशत उत्पादों पर शून्य टैरिफ का लाभ मिलेगा। भारतीय वस्तुओं के लिए ब्रिटेन में पहुंच सुगम होने के साथ अन्य देशों के उत्पादों के मुकाबले प्रतिस्पर्धा में मदद मिलेगी। खासतौर से एनिमल प्रोडक्ट, खाद्य तेल, कपड़ा, जूते, समुद्री उत्पाद, चमड़ा, खिलौने, रत्न एवं आभूषण, इंजीनियरिंग सामान, वाहन कलपुर्जा और इंजन तथा कार्बनिक रसायन जैसे क्षेत्रों को लाभ होगा। इससे भारतीय किसानों, मछुआरों, श्रमिकों, एमएसएमई, स्टार्टअप और इनोवेटर्स को बड़ा लाभ होगा। भारत में करीब 90 प्रतिशत उत्पादों पर शुल्क में कमी के प्रविधान ब्रिटेन को भी लाभान्वित करेंगे। ब्रिटेन के लिए भारत में व्हिस्की, कार एवं अन्य उत्पाद निर्यात करना आसान हो जाएंगे। एफटीए के साथ ही दोनों देशों ने दोहरे अंशदान समझौते या सामाजिक सुरक्षा समझौते पर भी मुहर लगाई है। इससे ब्रिटेन में काम करने वाले भारतीय कर्मचारियों को सामाजिक सुरक्षा भुगतान से तीन साल की छूट मिलेगी। इस करार से ब्रिटेन में न केवल कुशल, पेशेवर श्रमिकों के हितों की रक्षा होगी, बल्कि भारतीय सेवा प्रदाताओं को बहुआयामी वित्तीय लाभ भी होंगे।
वास्तव में अमेरिका द्वारा लागू की जा रही संरक्षणवादी व्यापार नीतियों के कारण वैश्विक व्यापार में उथल-पुथल को देखते हुए भारत ब्रिटेन ने मुक्त व्यापार समझौते को अंतिम रूप देने में तत्परता दिखाई है। यह एफटीए भारत के साथ ब्रिटेन की रणनीतिक और आर्थिक साझेदारी को मजबूत करने के ब्रिटेन के महत्वाकांक्षी एजेंडे का हिस्सा भी है। इस एजेंडे के तहत ब्रिटेन भारत को विश्व के बड़े देशों के बीच अहम स्थान प्रदान करता है। ब्रिटेन ने अपने उत्पादों खासतौर से खान-पान के सामान से लेकर पेय पदार्थों के लिए भारत की उपभोक्ता प्रधान अर्थव्यवस्था तक सुगम पहुंच सुनिश्चित की है। इससे ब्रिटिश एवं भारतीय कारोबारियों को तकनीक और ग्रीनटेक में भी साथ मिलकर काम करने का मौका मिलेगा। इस समझौते से प्रेरित होकर अब अमेरिका और यूरोपीय संघ भी भारत के साथ अपने व्यापार समझौतों को इस साल के अंत तक पूर्ण कर सकते हैं। इस समय भारत और अमेरिका के बीच द्विपक्षीय कारोबार समझौते (बीटीए) के लिए वार्ता हो रही है। हाल में अमेरिका के वित्तमंत्री स्काट बेसेंट ने कहा कि पूरी दुनिया में भारत एक ऐसे पहले देश के रूप में सामने आया है, जो अमेरिका के साथ सबसे पहले टैरिफ पर प्रभावी वार्ता करते हुए द्विपक्षीय कारोबार समझौते को तेजी से अंतिम रूप देने की डगर पर आगे बढ़ रहा है। भारत और अमेरिका द्विपक्षीय कारोबार समझौते को वर्ष 2030 तक 500 अरब डालर पहुंचाना चाहते हैं। इसके लिए कारोबार समझौता जल्द होना जरूरी है।
अब जब सुलह के बाद अमेरिका ने चीन के उत्पादों पर आयात शुल्क घटा दिए हैं, तब भारत द्वारा दुनिया के विभिन्न देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौतों की डगर पर तेजी से बढ़ना लाभप्रद दिखाई दे रहा है। इस संबंध में यूरोपीय संघ भी हमारी प्राथमिकता में शीर्ष पर है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने हाल में कहा कि भारत की यूरोपीय संघ के साथ एफटीए के लिए अधिकांश मुझें पर सहमति बन गई हैं। इस कड़ी में बीते साल भारत और चार यूरोपीय देशों के समूह यूरोपियन फ्री ट्रेड एसोसिएशन (ईएफटीए) के बीच निवेश और वस्तुओं एवं सेवाओं के दोतरफा व्यापार को बढ़ावा देने के लिए किया गया एफटीए महत्वपूर्ण है। इसे व्यापार और आर्थिक समझौता (टीईपीए) कहा गया है। इससे अगले 15 साल में भारत में 100 अरब डालर के निवेश की उम्मीद है। ईएफटीए के सदस्य देशों में आइसलैंड, स्विट्जरलैंड, नार्वे और लिचेंस्टीन शामिल हैं। इसी तरह आस्ट्रेलिया और यूएई के साथ किए गए एफटीए भी भारत के लिए सुकूनदेह सिद्ध हो रहे हैं। विदेश व्यापार नीति को नया मोड़ देते हुए भारत दुनिया के प्रमुख देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौते और द्विपक्षीय व्यापार समझौते की डगर पर आगे बढ़ रहा है। इससे दुनिया में यह संदेश जा रहा है कि भारत के दरवाजे शुल्कों में कमी के साथ व्यापार और कारोबार के लिए खुल गए हैं।
उम्मीद करें कि भारत द्वारा ब्रिटेन के साथ किया गया मुक्त व्यापार समझौता दोनों देशों के द्विपक्षीय कारोबार के लक्ष्य के मद्देनजर मील का पत्थर साबित होगा । इससे देश से होने वाले निर्यात बढ़ेंगे और बड़े पैमाने पर रोजगार के नए अवसरों का निर्माण होगा। यह एफटीए अमेरिका और यूरोपीय संघ आदि के साथ चल रही व्यापार संबंधी वार्ताओं में एक माडल के रूप में काम करेगा। भारत द्वारा ओमान, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका, इजरायल, भारत गल्फ कंट्रीज काउंसिल सहित अन्य प्रमुख देशों के साथ भी एफटीए को शीघ्रतापूर्वक अंतिम रूप दिया जा सकेगा। भारत जिस तरह से विभिन्न देशों के साथ द्विपक्षीय व्यापार समझौतों के लिए कदम बढ़ा रहा है, उससे हमारे लिए दुनिया में निर्यात और कारोबार के मौके बढ़ सकते हैं।
Date: 19-05-25
वीजीएफ से बढ़ेगा सामाजिक ढांचे में निजी निवेश
विनायक चटर्जी, ( लेखक बुनियादी ढांचा क्षेत्र के विशेषज्ञ एवं इन्फ्राविजन फाउंडेशन के संस्थापक एवं प्रबंध न्यासी हैं )
वृंदा सिंह
वित्त वर्ष 2025-26 के बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण नेबुनियादी ढांचे पर पूंजीगत व्यय के लिए 11.21 लाख करोड़ रुपये का प्रावधान किया था। यह रकम पिछले वर्ष के 11.11 लाख करोड़ रुपये से मामूली अधिक है। संदेश साफ था, पिछले 25 वर्षों में प्रमुख बुनियादी ढांचा क्षेत्र (खासकर परिवहन एवं ऊर्जा) निश्चित सीमा तक प्रगति कर चुका है और अब दूसरे क्षेत्रों पर ध्यान देने की जरूरत है।
उनमें सामाजिक बुनियादी ढांचा (स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा, पर्यटन, आवास, स्वच्छता, जल, कौशल विकास और डिजिटल) प्रमुख है। ये क्षेत्र लोगों के जीवन पर सीधा असर डालते हैं और मतदाताओं के बीच भी उनकी काफी धाक मानी जाती है। वित्त मंत्री ने बजट भाषण में कहा कि केंद्रीय मंत्रालयों को तीन साल के लिए परियोजनाओं की एक सूची तैयार करनी होगी जो सार्वजनिक एवं निजी भागीदारी (पीपीपी) से क्रियान्वित की जा सकती हैं। राज्यों को भी ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित किया गया है और वे भारत अवसंरचना परियोजना विकास निधि (आईआईपीडीएफ) से मदद लेकर पीपीपी प्रस्ताव तैयार कर सकते हैं। यानी यह सामाजिक बुनियादी ढांचे पर ध्यान देने का समय है, जिसे सरकार भी अच्छी तरह समझ रही है।
राजकोषीय घाटा काबू में रखने के सरकार के संकल्प के कारण सामाजिक बुनियादी ढांचे पर सार्वजनिक व्यय रुकता है। इसमें से ज्यादातर निवेश पर मुनाफा नहीं होता, इसलिए निजी क्षेत्र से पूंजी की आमद जरूरी है। इसमें सरकार को केवल साझेदारी
इसमें सरकार की भूमिका साझेदारी करने और जोखिम घटाने पर केंद्रित होनी चाहिए। व्यवहार्यता अंतर के लिए रकम मुहैया कराने (वीजीएफ) से काम बन सकता है। वीजीएफ परियोजनाओं के लिए एक प्रकार का पूंजीगत अनुदान होता है, जिसे सरकार को लौटाने की जरूरत नहीं होती है। इसके तहत दी जाने वाली रकम न तो पूंजी होती है और न ही कर्ज बल्कि अनुदान की तरह होती है और इससे परियोजना की लागत कम हो जाती है। वर्ष 2005 से ही पीपीपी को वीजीएफ से खूब मदद मिल रही है। 2020 में इसमें बदलाव किया गया है और अब इसमें तीन लक्षित उप-योजनाएं शामिल की गई हैं।
उप-योजना 1 के अंतर्गत जल, कचरा प्रबंधन, स्वास्थ्य एवं शिक्षा परियोजनाओं के लिए 60 प्रतिशत (केंद्र एवं राज्य दोनों से 30-30 प्रतिशत) वीजीएफ उपलब्ध कराया जाता है। उप योजना 2 के अंतर्गत स्वास्थ्य एवं शिक्षा में प्रायोगिक परियोजनाओं की मदद की जाती है। इसके तहत 80 प्रतिशत वीजीएफ और 50 प्रतिशत परिचालन लागत पांच वर्षों के लिए उपलब्ध कराए जाते हैं। अन्य क्षेत्रों को 40 प्रतिशत वीजीएफ मिलता है।
वीजीएफ योजना से सरकार को भी विभिन्न परियोजनाओं पर व्यय करने की गुंजाइश मिल जाती है। उदाहरण के लिए अगर 5 अस्पताल 1,000 करोड़ रुपये (प्रति अस्पताल) लागत के साथ केवल सरकारी खर्च से बनते हैं तो उन पर कुल खर्च 5,000 करोड़ रुपये रहेगा। मगर 20 प्रतिशत वीजीएफ के अंतर्गत अगर निजी क्षेत्र आगे आता है तो सरकार का खर्च केवल 1,000 करोड़ रुपये रह जाएगा। बाकी बचे 4,000 करोड़ रुपये से सरकार 20 नए अस्पताल बना सकती है।
वीजीएफ को आम तौर पर हाइब्रिड एन्युटी मॉडल से जोड़ा जाता है। स्वच्छ गंगा अभियान के लिए कचरा उपचार संयंत्रों के निर्माण एवं संचालन में इसका इस्तेमाल किया गया है। पीपीपी पर तैयार इस व्यवस्था में सरकार 40 प्रतिशत पूंजी अग्रिम देती है और परियोजना की अवधि के दैरान संचालन एवं रखरखाव पर एन्युटी के जरिये खर्च करती है।
जिला अस्पतालों में भी अच्छा मौका मिलता है। पहले से चल रहे जिला अस्पतालों को किसी नए निजी चिकित्सा कॉलेज से जोड़ने के लिए नीति आयोग ने पीपीपी योजनाओं का प्रस्ताव दिया है। नीति आयोग की वेबसाइट पर एक मॉडल कन्सेशन एग्रीमेंट (एमसीए) उपलब्ध है। आंध्र प्रदेश के चित्तूर और गुजरात के भुज में पीपीपी के ऐसे सफल उदाहरण मौजूद हैं।
जहां तक पर्यटन बुनियादी ढांचे की बात है तो 3.65 किलोमीटर लंबी वाराणसी रोपवे परियोजना के लिए वीजीएफ मे 20 प्रतिशत केंद्र और 20 प्रतिशत उत्तर प्रदेश सरकार दे रही है। दूसरी रोपवे परियोजनाओं के लिए भी वीजीएफ पर जोर दिया जा रहा है।
पीपीपी के जरिये सरकारी आईटीआई में सुधार की योजना के अंतर्गत सरकार द्वारा संचालित 1,227 आईटीआई शामिल किए गए हैं और उनमें प्रत्येक के साथ कोई न कोई औद्योगिक साझेदार जुड़ा हुआ है। ऐसी योजनाओं के लिए काफी अधिक रकम की जरूरत होती है।
हाल के दिनों में टाटा समूह को वीजीएफ के मद में बड़ी रकम आवंटित की गई है। यह आवंटन समूह को गुजरात के धोलेरा में इसकी सेमीकंडक्टर विनिर्माण परियोजना के लिए किया गया है। परियोजना पर 91,000 करोड़ रुपये लागत आने का अनुमान है। वीजीएफ के अंतर्गत इसका आधा हिस् दिया जा रहा है।
भारत में सामाजिक बुनियादी ढांचे में पीपीपी की भूमिका तुलनात्मक रूप से अब भी सीमित रही है। क्षेत्र विशिष्ट एमसीए का अभाव इसका एक कारण रहा है। एमसीए के साथ परियोजनाओं को तेजी से अनुमति मिलती है जैसा कि दिवंगत गजेंद्र हल्दिया द्वारा तैयार सड़क क्षेत्र के लिए बहुचर्चित एमसीए के मामले में देखा गया है। वर्ष 2005 से 5.45 अरब डॉलर मूल्य की 67 वीजीएफ परियोजनाएं मंजूर हुई हैं जिनमें 86 प्रतिशत हिस्सा परिवहन एवं लॉजिस्टिक्स और 6 प्रतिशत ऊर्जा, जल एवं स्वच्छता में गया है मगर सामाजिक ढांचा क्षेत्र में यह केवल 8 प्रतिशत तक ही सीमित है।
वीजीएफ केवल धन के रूप में ही आए यह जरूरी नहीं है। सरकार द्वारा प्रदत्त जमीन एवं यूटिलिटी संपर्क का बाह्य विकास भी वीजीएफ का रूप हो सकते हैं। इस तरह के योगदान सरकारी मदद के ही रूप होते हैं।
सामाजिक ढांचा परियोजनाओं के आर्थिक विकास के इस चरण में वीजीएफ की व्यापक व्याख्या जरूरी हो गई है। ऐसा करने के बाद ही भारत प्रमुख और सामाजिक अवसंरचा के दो इंजनों के साथ तेजी आगे बढ़ सकता है । निजी पूंजी और संचालन में उनकी (निजी क्षेत्र) भूमिका इसमें अहम होगी। इससे हमें लोगों का जीवन संतुष्ट बनाने एवं उनके समग्र कल्याण को बढ़ावा देने मदद मिलेगी।
Date: 19-05-25
सर्वोच्च न्यायालय से सवाल के मायने
हरबंश दीक्षित, ( विधि विशेषज्ञ )
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु द्वारा सर्वोच्च न्यायालय से पूछे गए 14 प्रश्नों ने कार्यपालिका और न्यायपालिका को हमारे संविधान से मिली शक्तियों के अंतर्संबंधों पर गंभीर बहस छेड़ दी है। दरअसल, संविधान के अनुच्छेद- 143 (1) के तहत देश के राष्ट्रपति को यह पूरा अधिकार प्राप्त है कि वह व्यापक सार्वजनिक हित के किसी भी विषय पर सुप्रीम कोर्ट से सलाह ले सकते हैं, इसलिए अपने इसी अधिकार का उपयोग करते हुए द्रौपदी मुर्मु ने संविधान के कुछ बिंदुओं पर सर्वोच्च न्यायालय की राय जाननी चाही है।
मौजूदा विषय का संदर्भ सुप्रीम कोर्ट का 8 अप्रैल, 2025 का वह निर्णय है, जो तमिलनाडु विधानसभा द्वारा पारित किए गए कुछ विधेयकों के राज्यपाल की स्वीकृति के लिए कुछ समय से लंबित पड़े रहने को लेकर आया । तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि और राज्य की द्रमुक सरकार के तल्ख रिश्तों की खबरें राष्ट्रीय मीडिया में सुर्खियां बटोरती रही हैं। बहरहाल, राज्य सरकार की गुहार पर सुप्रीम कोर्ट के दो न्यायाधीशों की पीठ ने इस मामले की सुनवाई करते हुए यह निर्णय दिया कि यदि लंबित विधेयकों पर तीन महीने के अंदर कोई निर्णय नहीं लिया जाता, तो उनको स्वतः अनुमोदित मान लिया जाएगा और संविधान के अनुच्छेद-200 के अंतर्गत अनुमोदित मानते हुए उन पर आगे की कार्रवाई की जा सकेगी।
तमिलनाडु सरकार ने इस अदालती फैसले पर कदम उठाते हुए अधिसूचना जारी कर आगे की कार्रवाई शुरू करने में कोई देरी नहीं लगाई। इससे गंभीर सांविधानिक संकट पैदा हो गया है और संविधान की इस नई व्याख्या कई चुनौतियां पैदा कर दी हैं। यहां तक कि कई लोगों ने इसे न्यायपालिका द्वारा अपनी सीमा का अतिक्रमण साबित करने की भी कोशिश की।
दरअसल, भारतीय संविधान के अनुच्छेद-200 और 201 में विधेयकों की स्वीकृति के बारे में कोई समय-सीमा नहीं दी गई है। इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने अपना निर्णय देते समय यह कहा कि वह अनुच्छेद- 142 में दिए गए अधिकार का प्रयोग करते हुए न्याय- हित में इस समय सीमा का निर्धारण कर रहा है। संविधान के अनुच्छेद-142 में सुप्रीम कोर्ट को यह अधिकार दिया गया है कि अपने समक्ष लंबित किसी मुकदमे का निस्तारण करते समय न्याय की पूर्णता के लिए वह कोई भी आदेश दे सकता है। मगर इस तरह के आदेश के बारे में इसी अनुच्छेद में यह स्पष्ट किया गया है कि सुप्रीम कोर्ट का वह आदेश संसद द्वारा बनाए गए कानून के अनुरूप हो और जहां पर कोई कानून नहीं है, वहां पर उस कमी को पूरा करने के लिए हो।
चूंकि इस संबंध में संविधान के अनुच्छेद-200 और 201 में स्पष्ट रूप से उपबंध दिया गया है, इसलिए सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले को संविधान की व्याख्या नहीं, अपितु संविधान में संशोधन करने के बराबर माना गया। इसीलिए प्रश्न किया जा रहा है कि क्या अनुच्छेद- 142 के प्रयोग द्वारा संविधान में संशोधन जैसा आदेश दिया जा सकता है ?
इन्हीं परिस्थितियों में सांविधानिक स्थिति को स्पष्ट करने के लिए ‘रेफरेन्स’ द्वारा राष्ट्रपति ने अनुच्छेद- 143 (1) के तहत सुप्रीम कोर्ट से 14 सांविधानिक प्रश्न पूछे हैं। इन प्रश्नों के जरिये उन्होंने यह जानना चाहा है कि क्या सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति या राज्यपाल को विधेयक पर अनुमोदन देने की समय-सीमा तय कर सकता है, जबकि संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है ? इसी से जुड़ा दूसरा प्रश्न न्यायपालिका के क्षेत्राधिकार को लेकर है। राष्ट्रपति ने कोर्ट से पूछा है, क्या न्यायपालिका द्वारा प्रतिपादित ‘स्वतः स्वीकृत’ या ‘परिकल्पित अनुमोदन’ की अवधारणा सांविधानिक रूप से वैध है और क्या यह न्यायपालिका द्वारा स्थापित की जा सकती है ?
राष्ट्रपति ने आला अदालत से यह भी स्पष्ट करने को कहा है कि क्या न्यायपालिका विधायी प्रक्रिया में हस्तक्षेप कर सकती है, विशेषकर तब, जब संविधान में ऐसा कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है? संघीय ढांचे और कार्यपालिका की स्वतंत्रता से जुड़े एक प्रश्न के माध्यम से राष्ट्रपति यह जानना चाहती हैं कि क्या सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय की गई समय सीमा संघीय ढांचे और कार्यपालिका की स्वतंत्रता के सिद्धांतों के अनुरूप है ? यही नहीं, राष्ट्रपति ने अनुच्छेद-361 का हवाला देते हुए यह भी पूछा है कि इस उपबंध में राष्ट्रपति और राज्यपाल द्वारा किए गए कार्य के न्यायिक पुनरावलोकन पर पूर्ण प्रतिबंध के बावजूद क्या सर्वोच्च न्यायालय अनुच्छेद-200 के संबंध में उन्हें दिशा-निर्देश दे सकता है? जाहिर है, इन सवालों के उत्तर हमारी शासकीय जटिलताओं की राह आसान ही करेंगे।
हमारे संविधान में कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के अधिकार स्पष्ट रूप से परिभाषित हैं। इन तीनों ही अंगों से अपेक्षा की जाती है कि वे संविधान द्वारा तय की गई सीमा में रहेंगे। ऐसे में, राज्यपाल के आधिकारिक क्षेत्र में न्यायपालिका की दखलंदाजी को संविधान की कसौटी पर कसा जा रहा है। संविधान के अनुच्छेद-200 और 201 में विधेयकों की स्वीकृति के बारे में कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं की गई है। इसी तरह, संविधान के उपबंध सुप्रीम कोर्ट पर भी उसी तरह से लागू होते हैं, जिस तरह से बाकी दोनों अंगों पर । अब अदालतें यदि उसका मनमाना अर्थनिकालना शुरू कर देंगी, तो यह न समाज के हित में होगा और न ही न्यायपालिका के हित में ।
खंडपीठ ने ‘विधेयकों की स्वतः स्वीकृति’ का सिद्धांत देते समय कहा कि संविधान के अनुच्छेद-142 में सुप्रीम कोर्ट को दिए गए विशेष अधिकार का प्रयोग करते हुए वह इस समय सीमा का निर्धारण कर रही है। विधेयकों की स्वीकृति के मामले में अनुच्छेद-200 और 201 में स्पष्ट प्रावधान किए गए हैं। आवश्यकता पड़ने पर अदालत राष्ट्रपति, राज्यपाल या किसी अन्य अधिकारी को किसी कर्तव्य के निर्वहन का निर्देश दे सकता है, किंतु वह किसी प्राधिकारी के स्थान पर स्वयं को प्रतिस्थापित करके उनके दायित्व का निर्वहन नहीं कर सकता। वह खुद ही राष्ट्रपति, राज्यपाल या किसी प्राधिकारी की भूमिका को अपने हाथ में लेकर निर्णय नहीं कर सकता।
ऐसे में, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु का इस महत्वपूर्ण विषय पर अनुच्छेद-143 (1) के अंतर्गत परामर्श लेना भारतीय लोकतंत्र और हमारे संविधान की जीवंतता व संस्थागत संतुलन का प्रतीक है। उनकी यह पहल कुछ बिंदुओं पर न केवल सांविधानिक अस्पष्टता को स्पष्ट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी, बल्कि समाज में एक स्वस्थ बहस की आधारशीला भी रखेगी।
Date: 19-05-25
ऑपरेशन सिंदूर से हमें जरूर कुछ सबक सीखने चाहिए
आर के राघवन, ( पूर्व राजनयिक )
अजय गोयल
जम्मू-कश्मीर और पाकिस्तान की सीमा से लगे इलाकों में तनाव की धूल कुछ हद तक बैठ चुकी है। हालांकि, यह मानना भोलापन होगा कि ‘ऑपरेशन सिंदूर’ में मिली हार के बाद हमारा पड़ोसी अपने तौर-तरीके बदल लेगा। लिहाजा, मूल सवाल यह नहीं है कि पाकिस्तान कोई सबक सीख रहा है या नहीं, बल्कि यह है कि भारत ने पहलगाम और उसके बाद की घटनाओं से क्या सीख हासिल की, खासकर विदेश नीति के मामले में।
निस्संदेह, एक जिम्मेदार मुल्क के रूप में पाकिस्तान की विश्वसनीयता घट रही है, पर इतिहास यही बताता है कि वह सुधरेगा नहीं, वह कहीं अधिक शिद्दत से आतंकी ढांचे खड़ा करेगा, छद्म युद्ध जारी रखेगा और ऐसे संघर्ष में उतरेगा, जिसमें उसकी हार तय है। बड़े पैमाने पर अरब और मुस्लिम देश पाकिस्तान के ‘मजहबी कार्ड’ को खारिज कर चुके हैं, फिर भी वह ‘विक्टिम कार्ड’ खेलता रहता है। उसकी बातों को अब यूरोप व उत्तरी अमेरिका की मुस्लिम आबादी, और उनके वोटों पर निर्भर राजनेता ही सुनते हैं। पाकिस्तान को बिना शर्त समर्थन देने वाला एकमात्र देश तुर्किये है। मगर कहते हैं कि भारत और भारतीयों के प्रति तुर्किये के समाज में गहरी सद्भावना है। इस जनभावना के अनुरूप ही हमारी विदेश-नीति बननी चाहिए और एर्दोगन के राजनीतिक मंच से उतरते ही नए सिरे से संबंध आगे बढ़ाने की तैयारी रखनी चाहिए।
बांग्लादेश को लेकर भी हमें सख्त कदम उठाने की दरकार है, क्योंकि उसके सैन्य वर्ग के एक तबके में पाकिस्तान जैसी सोच बढ़ती जा रही है। भारतीय कूटनीति को वैश्विक वित्तीय संस्थानों से भी जुड़ना चाहिए, ताकि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से मिलने वाली राहत और वैश्विक फंडिंग रोकी जा सके, जिनका उपयोग इस्लामी कट्टरपंथ को आगे बढ़ाने में किया जाता है। ऑपरेशन सिंदूर के दौरान चीन को भी एक संदेश साफ-साफ मिला कि पाकिस्तान में तैनात उसकी वायु रक्षा प्रणालियों को भारत ने मिनटों में जमींदोज कर दिया। हमें व्यावहारिक सोच रखने वाले चीन के नेतृत्व को यह समझाना होगा कि पाकिस्तान न तो भरोसेमंद है और न ही योग्य साझेदार । हमें उसके साथ अपने संबंधों को बेहतर बनाने के लिए छोटे से छोटे मौके का भी लाभ उठाना चाहिए और स्थायित्व की ओर बढ़ना चाहिए।
पहलगाम को लेकर ब्रिटेन और यूरोप से हमें सबसे अधिक निराशा हाथ लगी। वहां के किसी भी देश, मीडिया या राजनेता ने पीड़ितों से सहानुभूति जताने की ओर कदम नहीं बढ़ाए या आतंकियों को शरण देने व संघर्ष भड़काने में पाकिस्तानी भूमिका की निंदा नहीं की। यह चुप्पी इसलिए ओढ़ी गई, क्योंकि पूरे यूरोप में ही मुस्लिम मतदाताओं का प्रभाव बढ़ रहा है। इन मुल्कों को खासकर सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, मिस्र और अन्य पश्चिम एशियाई देशों द्वारा भारत के प्रति दिखाई गई गर्मजोशी से सीख लेनी चाहिए। अरब दुनिया के साथ भारत के रिश्ते मजबूत हैं और इसे आगे बढ़ाया जाना चाहिए, वह भी तब, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सऊदी अरब की अपनी यात्रा पहलगाम हमले के कारण अधूरी छोड़कर वापस आ गए थे।
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का भारत-पाक के बीच शांति स्थापित करने का बढ़ा-चढ़ाकर किया गया दावा परेशान करने वाला है और निराशाजनक भी। हमें ऐसी टिप्पणियों को बहुत गंभीरता से नहीं लेना चाहिए। भारत और अमेरिका के संबंध पहले से कहीं ज्यादा मजबूत बने हुए हैं और मोदी व ट्रंप के बीच निजी तालमेल से ऐसी परेशानियां दूर की जा सकती हैं।
भारत को यह मानना चाहिए कि वह अब ऐसा राष्ट्र नहीं रहा, जिसकी आकांक्षा दूसरे देश से समर्थन मांगने की हो, बल्कि यह वह देश है, जिसके साथ तालमेल बनाना दूसरे मुल्कों को सीखना होगा। ऑपरेशन सिंदूर ने निर्णायक नेतृत्व, तकनीकी श्रेष्ठता और राष्ट्रीय एकता की ताकत को उजागर किया है। इनको और अधिक पोषित किए जाने की जरूरत है। पुरानी शक्तियों से समर्थन मांगने का दौर खत्म हो चुका है। लिहाजा, हमारे लिए जरूरी सबक यही है कि साझेदारों के लिए हम भले दरवाजा खुला रखें, लेकिन अकेले आगे बढ़ने के लिए हमें तैयार रहना चाहिए। जब हमारा मकसद साफ है, तो हमें खत्म होती ताकतों का मुंह नहीं ताकना चाहिए। उन्हें अपने भविष्य की खातिर हमारे साथ आना होगा।